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________________ ( 35 ) लिए उत्सुक होने के कारण उन्होंने खड़े होकर मुझे बहुत ही प्रेमभाव से मादर दिया और मुझसे कहा कि-"स्व० श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय के लिये सत्र की जो प्रायोजना की, उससे मैं बहुत प्रभावित हुमा था। तब से ही तुझे भेट देने के लिए एक वस्तु सम्हाल कर रखी है, वह तुझे पाज खास तौर पर देनी है।" और शीघ्र ही एक व्यक्ति को आदेश देकर प्रति मंगवाई। प्रति निकाल कर देने से पूर्व पुनः पूर्वोक्त प्रायोजन की प्रशंसा करते हुए कहा कि-'उपाध्यायजी के लिये तूने जो ज्ञानसत्र का आयोजन किया वह प्रयास वस्तुतः पहला ही हुआ है। समस्त जनता को परिचित कराते हुए तूने जो प्रयास किया, उपाध्याय जी का संघ पर जो ऋग है उसे किञ्चित् उतारने का जो प्रयत्न हुमा उससे मैं नाच उठा हू / ' मैं तो 'उपा ध्यायजी अर्थात् भगवान् महावीर के ज्ञान की झांकी कराने वाली विभूति पौर उसकी प्रसन्नता के प्रतीक के रूप में “सिद्धसहस्त्रनामकोश" की यह मुद्रित प्रति तुझे देता हूं। मैं खड़ा हुआ / प्राचार्य श्री के प्रति आभार रूप भाव व्यक्त करते हुए कृति को नमन किया तथा दोनों हाथ फैलाने पर वह कृति उन्होंने मेरे हाथों में रखी और जयनाद के साथ मैंने उसका अभिनन्दन किया। ___ यह है प्राप्त (अपूर्ण) उक्त प्रति की छोटी सी श्रवणीय एवं स्मरणीय घटना / ] इसी प्रकार अहमदाबाद के 'एल. डी. विद्यामन्दिर' द्वारा प्रकाशित होने वाले सम्बोधि' नामक मासिक पत्र में यह कृति मुद्रित हुई थी, तब इस कृति को लक्ष्य में रखकर मेरे विद्वान् धर्मस्नेही पं० श्री अमृतलाल भाई ने जो निवेदन प्रकट किया था वह सभी प्रकार से पूर्ण तथा कथनक्षम होने से (तथा उसमें नवीन जोड़ने की आवश्यकता नहीं होने से) उसे भी यहां यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है-..
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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