________________ ( 48 ) जैन संस्कृति और जैन साहित्य का विदेश में भी गौरव बढे, जैनधर्म का प्रचार एवं पर्याप्त विस्तार हो और आने वाली पीढ़ी जैन धर्म में रस लेती रहे, इसके लिए पाप सतत चिन्तनशील हैं और तदनुकल नये-नये मार्ग भी प्रशस्त करते रहते हैं। पू० मनिजी के इस सर्वतोमखी विकास में आपके दादागुरु प० पू० प्राचार्य देव श्री विजय प्रतापसरीश्वरजी महाराज तथा आपके गरुवयं प०पू० प्राचार्यदेव श्रीधर्मसूरीश्वरजी महाराज की कृपादृष्टि ने बहुत ही महत्वपूर्ण योग दिया है। फलतः आपके वैदुष्य, धर्म-कर्म के प्रति अनन्य निष्ठा एवं उत्तम साधनासम्पन्नता से प्रभावित होकर पूज्य प्रा. श्रीविजय प्रतापसरीश्वर जी महाराज के आदेश तथा अनेक जैनसंघों की विनति को स्वीकार करके वि. सं. 2035 की मार्गशीर्ष शुक्ला 5 दि. 4-12-78 को भारत के प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई, गजरात के मुख्यमंत्री श्री बाबुभाई पटेल आदि अनेक विशिष्ट व्यक्तियों की उपस्थिति में प्राचार्य पदंवी प्रदान की गई तथा स्वयं प्रधानमंत्रीजी ने हजारों जनसमुदाय के बीच खड़े होकर आपके नामकरण को विधि सम्पन्न करते हुए आपका नाम 'श्रीयशोदेवसूरि' घोषित किया / ___ इस प्रकार प्राचार्य श्रीयशोदेवसूरिजी महाराज अपनी बहुमुखी साधनामों के द्वारा समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं। . प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन के समय भी उन्हीं के द्वारा भूमिका लिखने के लिए मैंने महाराज श्री से आग्रह किया था, किन्तु उनकी विभिन्न धार्मिक एवं साहित्यिक प्रवृत्तियों में व्यस्तता के कारण उन्होंने मझे निर्देश दिया कि यह कार्य मैं ही सम्पन्न करूं / तदनुसार ही इस प्राक्कथन में उपयोग करने के लिए पर्याप्त सामग्री एवं मौखिक सुझाव भी प्रदान किये। एतदर्थ मैं आचार्य श्रीयशोदेवसरि जी का पूर्ण प्राभार मानता हूं। हमारा समाज इन अपूर्व रचनाओं के सौष्ठव से अपने जीवन को सन्मार्ग की अोर निरन्तर अग्रसर कर रहे, इस शुभकामना के साथ यह ग्रन्थ पाठकों के कर कमलों में प्रस्तुत है। -डा. रुद्रदेव त्रिपाठी 16-5-76 नई दिल्ली,