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________________ वैदिक सम्प्रदाय में शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि सभी देवों के 'सहस्रनाम स्तोत्र' प्राप्त होते हैं इतना ही नहीं अपितु तन्त्रभेद, ध्यानभेद और कालभेद के आधार पर प्रत्येक के एकाधिक सहस्रनाम भी सुलभ हैं। इनकी रचना में कैलाश शिखरासीन भगवान् वक्ता के रूप में और भगवती पार्वती जिज्ञासु के रूप में विशेषरूप से प्रसिद्ध हैं तथापि यत्र-तत्र नन्दिकेश्वर' एवं अन्य ऋषिवर्ग' भी द्रष्टा के रूप में स्मृत हैं। तन्त्रशास्त्र में 'सहस्रनाम-स्तोत्र'-१. अर्चना और 2. जप के बाद ततीयक्रम में अथवा पूर्वोक्त दोनों कर्मों के अभाव में उनका पूरक एवं आवश्यक था, यह-दिव्यनामावली, रहस्यनामावली का स्वरूप लेकर व्यक्त हुआ है। इसके निर्माण में स्वयं देव और देवियों ने हाथ बटाया और स्वयं स्तोतव्य देवता ने अपने वरदान द्वारा महत्त्वपूर्ण सिद्ध कर सर्वकार्यसाधन के लिए इसे उपयोगी बताया गया। धीरे-धीरे इन स्तोत्रों में संगहीत नाम सामान्य नाम न होकर भाष्य और व्याख्यानों के द्वारा मन्त्रमय सिद्ध हुए। विभिन्न काम्य-प्रयोगों के ये साधन बने और रक्षाकवच के रूप में धारण का मार्ग भी प्रशस्त हो गया / ' शाक्तसम्प्रदाय में सुप्रसिद्ध 'ललितासहस्रनाम' की फलश्रुति में तो यहां तक कहा गया है कि 1, . भैरव के छह प्रकार के सहस्रनाम, तथा गोपाल के राधातन्त्र और सम्मो हन-तन्त्र प्रोक्त सहस्रनाम इसके उदाहरण हैं / 2. भवानीसहस्रनाम में नन्दिकेश्वर ने पूछा है / 3. ललितासहस्रनाम के द्रष्टा अगस्त्य ऋषि हैं / 4. ललितासहस्रनाम पद्य 27-28 में वशिन्यादि वाग्देवी इसकी प्रणेत्री हैं / 5. इन सहस्रनामों को लिखकर भुजा, सिर, पताका मादि में धारण कियो जाने का निर्देश है /
SR No.004489
Book TitleArshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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