________________ संस्कृतभाषा के महाकाव्य अन्तःकरण के उद्वेलित भावों को अभिव्यक्ति देने के लिये १इङ्गित, २-चित्र एवं ३-अक्षरदेह-रूप तीन उपाय प्रमुख हैं। इनमें तृतीय उपाय, मानव के मस्तिष्क की मौलिक उपज के साथ निरन्तर गतिमान होता रहा और पाविष्कार से परिष्कार तक की परिधि में आते-पाते अपने अनेक रूपों में निखरता रहा / आज उसके अनेक स्वरूप हैं जिनमें 'महाकाव्य' भी एक है। काव्य के स्वरूप-निर्धारण के ऊहापोह में 'दृश्य' एवं 'श्रव्य' नामक दो धाराएं पथक हईं। प्रथम को नाट्यमलक तथा द्वितीय को काव्यमूलक' कहा गया / काव्य जब अपने वैभव से जन-मन को उल्लसित कर पूर्णकलाओं से खिलने लगा तो उसका सर्वाङ्ग-सुन्दर स्वरूप 'महाकाव्य' कहलाया। 'काव्य' शब्द के साथ 'महा' शब्द के संयोजन का ध्येय लक्षणकारों की दष्टि में यह था कि 'इसमें जीवन के सर्वाङ्गीण वर्णन को प्रार्वाजत कर अनेकानेक उपादेय तत्त्वों का एक अनूठा सामञ्जस्य प्रस्तुत किया जाता है। और इसी कारण अन्य सड कुचित परिधिवाले काव्यों को खण्डकाव्य तथा मूक्तकों की कोटि में स्थान मिला। ... 'महाकाव्य' अपनी गरिमा के अनुरूप किसी परिवेष में बंधकर नहीं रहा / इसमें सर्गों का विस्तार शताधिक संख्या तक व्याप्त रहा और कहीं-कहीं पांच-सात की संख्या में भी निबद्ध हया / गद्य और पद्य दोनों ही इसके कलेवर को सजाने में व्यस्त रहे और अनुष्टुप से स्रग्धरा तक के छन्द भी इसकी रचना के आधार बने / वर्ण्य विषय के अनुरूप महाकाव्य का वाग्विलास रस, ध्वनि, रीति गुण और 1. दृश्यश्रव्यत्व भेदेन पूनः काव्यं द्विधा मतम् / साहित्यदर्पण, पद्य-३२३ / इसके दो स्थूलरूप (अ) कथनात्मक और (प्रा) गीतात्मक है /