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व्याख्यान १:
: २१ : है। ऐसे अतिशयों से युक्त विश्वसेन राजा के कुल में तिलक समान और अचिरा माता की कुक्षिरूपी शुक्ति (सीप ) से मुक्ता (मोती) समान सोलहवें तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथस्वामी को नमस्कार कर अर्थात् उपहास का त्याग करने निमित्त मन, वचन, काया की शुद्धि से प्रणाम कर अनेक शास्त्रों का अनुसरण कर यह उपदेशप्रासाद नामक ग्रन्थ रचा गया है।
इस ग्रन्थ में संबंध वाच्य वाचक लक्षण है। इस ग्रन्थ में जो अर्थ है वह वाच्य है और उस अर्थ का कहनेवाला यह ग्रन्थ वाचक है। इस ग्रन्थ में व्याख्यान करने योग्य अर्हद्धर्म के उपदेश का जो निरूपण किया गया है वह इस शास्त्र का अभिधेय है। इस ग्रन्थ का प्रयोजन दो प्रकार का है । एक ग्रन्थकर्ता का और दूसरा श्रोता का । इन दोनों के भी दो अन्य प्रयोजन है एक पर (प्रधान ) और दूसरा अपर ( गौन)। ग्रन्थकर्ता का पर प्रयोजन मोक्षपद की प्राप्ति करना और अपर प्रयोजन भव्य जीवों को बोध उपजाना है। इसी प्रकार श्रोताओं का पर प्रयोजन स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति करना और अपर प्रयोजन शास्त्रतत्व का बोध होना है। इस प्रकार का अर्थात् सम्बन्ध, अभिधेय
और प्रयोजनवाला शास्त्र बुद्धिमानों के लिये उसमें प्रवृत्ति करानेवाला सिद्ध होता है।