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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : का कष्ट नहीं होता उसी प्रकार जानुप्रमाण पुष्पों के समूह पर मुनिगण तथा विविध जनसमूह के चलने से भी उन पुष्पों को कोई कष्ट नहीं होता अपितु जैसे उन पर अमृतरस की बोछार की हो इस तरह से वे उलटे विशेषतया विकसित होते जाते हैं क्योंकि अनुपम तीर्थंकरों का प्रभाव ही अविचारणीय है।
(१७) तीर्थकर के मस्तक के केश, दाढी, मृछ तथा हाथ एवं पैर के नखों की वृद्धि नहीं होती । सदैव एकही दशा में रहते हैं।
(१८) तीर्थंकरों के समीप सर्वदा कमसे कम एक करोड़ भवनपति आदि चारों निकाय के देव रहते हैं।
(१९) जिनेश्वर जिस स्थान में विचरते हैं वहां वसंत आदि सर्व ऋतुओं के मनोहर पुष्प फलादि का समूह उत्पन्न होता है अर्थात् ऋतुऐं भी सब अनुकूल हो जाती है।
इस प्रकार तीर्थंकरों के सब चोतीस अतिशय का वर्णन जानना चाहिये । इन अतिशयों में किसी स्थान पर समवायांग के कारण कुछ कुछ भिन्नता जान पडती है वह मतान्तर के कारण से है जिनका असली कारण तो सर्वज्ञ ही जान सकते हैं।
मूल श्लोक में ' अतिशयान्वितम् ' अतिशयों से युक्त ऐसा जो यह कहा गया है उसकी यह व्याख्या की गई