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सो हो उपाधि है। जब ज्ञान मिटेगा, तब मोक्ष होगा। कोई स्थिरवादी रीसा मानें है जो देव मरै तो देव ही होय। मनुष्य मरै तो मनुष्य हो होय। पशु मरे तो पशु हो होय। नारकी मरै तो नारकी ही उपजै। स्त्री मरै तो स्त्री ही उपजें। रंक मरै तो रंक ही उपजै। राव मरै तो राव ही उपजे। ऐसे अनेक मतवाले जीवतत्त्व का स्वरूप अपनी-अपनी इच्छा प्रमाण बतावैं हैं। कोई मतवाले अजीवतत्व को भी और का और ही कहैं। सो कोई मतवाले, कालद्रव्य जड़ है ताको चैतन्य रूप माने हैं। ऐसा कहै हैं जो यह कालद्रव्य है सो यम है। कोई बालबुद्धि मेघ अचेतन के देवों का नाथ इन्द्र मानें हैं। ऐसे इन आदि जीव-अजीव तत्वन का भेद अन्यमतनविष
और ही कह हैं। जैसे उन्मत्त की नाई विपरीत भेद कहैं। सो है भवि! तु सुनि। एकाग्रचित्तकरि तूं इस सम्पादकाधारसकर, ज्या जनेकानय का ज्ञान बढ़े, संशय मिटे। तातें अब सबका भ्रम नाशनेकों जिनमत अनुसार केवलज्ञानधारी सर्वज्ञमगवान-भाईं तत्वभेद ताही प्रमाण कहिये है। ताके जानेसरधान किये सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान होय और अनेक धर्मार्थी जीवन का भ्रम जाय। इहाँ प्रश्न--तुमने ऐसा समुच्चय वचन क्यों न कह्या जो वाके सुने सर्व का भ्रम जाय। ऐसा ही क्यों कह्या जो धर्मार्थी जीवन का भ्रम जाय । ताका समाधान-जाका भ्रम जाता जानिये, ताका ही कथन करिये और जाका भ्रम जाता ही नाही, तौ ताका कथन काहे को करिये। जैसे सूरज के उदै सर्व संसार का अन्धकार जाय किन्तु जे पर्वतन की भारी गुफा हैं तिनका अन्धकार नाही जाय। तौ ऐसा कथन कैसे कहै, जो गुफान का भी अन्धकार जाय। तातें जाका भ्रम जाता जानिये, ताही का कथन इहाँ कहा है। तात जे धर्मात्मा निकटमध्य शान्त-स्वभावी हैं ते तौ पापफल नरकादि दुःख जानि पापमार्ग तें उदास होय, पापक तर्जे। धर्म का फल स्वर्गादिक परम्पराय मोक्ष का सुखदाता जानि, धर्म को सर्वे तो याका चित्त जिनदेव की आज्ञारूप होय प्रवर्त। अरु जिन-आझा की प्रतीत भये जीव-अजीव तत्व का निर्णय || होय, जाकरि सम्यग्दृष्टि होय। ता सम्यक्त्व के होते इस धर्थीि का भरम भी नाश होय जाय है। जे धर्मार्थी नहीं हैं ते पापबुद्धि में उदास होते नांहीं। धर्म के फल की इच्छा नाहीं। रोसै भ्रमबुद्धि का भ्रम कैसे जावे और ऐसे भ्रमबुद्धि अनेक धर्म के प्राङ्गन की सेवा करै, नाना प्रकार तप करें। ये अनेक शास्त्र पर्दै-हाय और भलीभली चर्चा धर्मकथा आदि होय तो भी भ्रमबुद्धि कं धर्म का लाभ नहीं होय। वह मोक्षमार्ग का मूल्या, उलटेपंथ