Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१२/गो. मा. जीवकाण्ड
शङ्खा-यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्वरूप अंश की उत्पत्ति अन्यथा बन नहीं सकती, इससे ज्ञात होता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के स्पर्धकों का उदय सर्वघाती नहीं होता।
सम्यग्मिथ्यात्व के देशघाती स्पर्धवों के उदय से और उसी के सर्वघाती स्पर्धकों के उपशम संज्ञाबाले उदयाभाव से सम्यग्मिथ्यात्व की उत्पत्ति होती है, इसलिए वह तदुभय प्रत्यथिक (क्षायोपशामिक) कहा गया है। तृतीय गुणस्थान में बाधीशनिक भाई है.
शङ्का - मिथ्यादष्टि गुणस्थान से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीव के क्षायोपमिक भाव कसे सम्भव है ?
समाधान वह इस प्रकार सम्भव है—वर्तमान समय में मिथ्यात्वक्रर्म के सर्वश्राती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय होने से, सत्ता में रहने बाले उभी मिथ्यात्वकर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावरूप उपशम होने से और सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के सर्वाती स्पर्धकों का उदय होने से सम्यग्मिथ्या. रत्व गुणस्थान उत्पन्न होता है, अतः वह क्षायोपशमिक सम्भव है।
शङ्का-तृतीय गुरागस्थान में सम्मिथ्यात्वप्रकृति के उदय होने से बहाँ प्रौदायिक भाव क्यों नहीं कहा ?
समाधान - प्रौदायिकभाव नहीं कहा, क्योंकि मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से जिस प्रकार सम्यक्त्व का निरन्वय नाश होता है उस प्रकार सम्बग्मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से सम्यक्त्व का निरन्वय नाश नहीं होता, इसलिए तृतीय गुणस्थान में प्रौदधिकभाव न कहकर क्षायोपशमिक भाव कहा है।
शङ्का-सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का उदय सम्यग्दर्शन का निरन्वय विनाश तो करता नहीं है। फिर सम्य मिथ्यात्त्र प्रकृति को सर्वघाती क्यों कहा?
समाधान---ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति सम्यग्दर्शन की पूर्णता का प्रतिबन्ध करती है, इस अपेक्षा मे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति को सर्वघाती कहा है।
शङ्का जिस प्रकार मिथ्यात्व के क्षयोपशम से सम्यग्मिथ्यात्व मुगास्थान की उत्पत्ति बतलाई है उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान अनन्तानुबन्धी कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के क्षयोपशम से होता है, ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं कहा, क्योंकि अनन्तानुबन्धी चारित्र का प्रतिबन्ध करती है अर्थात् चारित्रमोहनीय की प्रकृति है इसलिए वहां उसके क्षयोपशम से तृतीयगुणास्थान की उत्पत्ति नहीं कहो गई है। [प्रथम चार गुणस्थानों में दर्शनमोह की विवक्षा है, चारित्रमोह कर्म की विवक्षा नहीं है । ] " जो प्राचार्य अनन्तानबन्धी कर्म के क्षयोपणम से तृतीयगुणस्थान को उत्पत्ति मानते हैं उनके मनानुसार सासादन गुगास्थान को प्रोदयिक मानना पड़ेगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि द्वितीय गुणस्थान को प्रौदयिक नहीं माना गया है। अथवा
१. घ. पु. १४ पृ. २१।