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अंतेवासी
० पटकार - तन्तुवाय पहले मोटे वस्त्र बुनता है, फिर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर वस्त्रों का निर्माण करने लग जाता है।
० चित्रकार - चित्रकार पहले टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं खींचना सीखता है, फिर वह चित्रकला में निपुण होकर सूक्ष्म चित्रांकन करने में भी निपुण हो जाता है।
० धमक-धमक (बजाने वाला) पहले सींग बजाना सीखता है, फिर शंख बजाने में भी निपुण हो जाता है।
जिस शिष्य का जितने आगम को ग्रहण करने का परिणाम हो, उसे जानकर आचार्य उसे उतना ही आगम पढ़ाए। फिर उसको धीरे-धीरे आगे बढ़ाए। शिष्य को संवेग तथा निर्वेद पैदा करने वाले आगम के अंशों को पुनः पुनः बताए । ८. अशिष्य आचार्यपद के अयोग्य
आयरियत्तणतुरितो, पुव्वं सीसत्तणं अकाऊणं । हिंडति चोप्पायरितो, निरंकुसो मत्तहत्थि व्व ॥ (बृभा ३७३ )
कोई शिष्य पहले अपने शिष्यत्व को पूर्णरूप से स्थापित किए बिना आचार्य बनने की त्वरा करता है, वह अज्ञानी आचार्य के रूप में निरंकुश मत्त हाथी की भांति इतस्ततः घूमता रहता है।
९. अंतेवासी की विनयप्रतिपत्ति के प्रकार
तस्सेवं गुणजातीयस्स अंतेवासिस्स इमा चउव्विहा विणयपडिवत्ती भवति, तं जहा - उवगरणउप्पायणया, साहिल्लया, वण्णसंजलणता, भारपच्चोरुहणता ॥ (दशा ४/१९)
उपशम, सुप्रणिधान आदि गुणों से सम्पन्न अंतेवासी की चार प्रकार की विनय प्रतिपत्ति है- १. उपकरण उत्पादनता २. सहायता ३. वर्णसंज्वलनता ४. भारप्रत्यवरोहणता । उपकरणोत्पादनता के प्रकार
उवगरणउप्पायणया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाअणुप्पण्णाई उवगरणाई उप्पाएत्ता भवति, पोराणाई उवगरणाई सारक्खित्ता भवति, संगोवित्ता भवति, परित्तं जाणित्ता पच्चुद्धरित्ता भवति, अहाविधिं संविभत्ता भवति ।
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आगम विषय कोश - २
......जति आयरितो सयमेव उवगरणं उप्पाएइ तो वायणादिण तरति दातुं, अतो सिस्सेण उप्पाएतव्वं उवगरणं वत्थपत्तसंथारगादि । सारक्खति - काले पाउणति, जुत्तं च सिव्वति, विधीए पाओणति । वासत्ताणं कालादीए संगोवति, जहा सेहादी ण हरंति । परित्तो अप्पोवहितो सुद्धो वा, सगणिच्चं अन्नगणिच्चं वा साधुं आगतं उवगरणेण उद्धरति अहाविधिं संविभइत्ता भवति । अहाविधी जहा रातिणियाए जस्स वा जो जोग्गो । (दशा ४ / २० चू)
उपकरण उत्पादनता के चार प्रकार हैं
१. जो उपकरण प्राप्त नहीं हैं, उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना । यदि आचार्य स्वयं उपकरणों की प्राप्ति में लग जाएं तो वे शिष्यों को वाचना आदि नहीं दे सकते। इसलिए गण के लिए आवश्यक वस्त्र, पात्र, संस्तारक आदि की प्राप्ति के लिए शिष्य को ही प्रयत्नशील रहना चाहिए।
२. जो उपकरण पहले से संगृहीत हैं, उनका संरक्षण और संगोपन करना । संरक्षण करना अर्थात् उचित काल में उनका उपयोग करना, जो सीने योग्य हों उन्हें विधिपूर्वक सिलवाना, विधि से उनका प्रावरण करना ।
संगोपन करना अर्थात् वर्षाऋतु आदि काल को ध्यान में रखकर वर्षात्राण आदि का संरक्षण करना, जिससे शैक्ष आदि उनका दुरुपयोग न करें।
३. उपकरणों को परीत-अल्प या उनका अभाव जानकर उनका प्रत्युद्धार करना - अपने गण के अथवा अन्य गण से आगत साधुओं के पास अल्प उपकरण हों अथवा उपकरण न हों तो उनकी यथायोग्य पूर्ति करना ।
४. उपकरणों का यथाविधि संविभाग कर सबको देना । यथाविधि का अर्थ है - रत्नाधिक मुनियों के क्रम से जिसके लिए जो उपकरण योग्य हों, वैसे वितरण करना । सहायता विनय के प्रकार
......साहिल्लया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाअणुलोमवइसहिते यावि भवति, अणुलोमकायकिरियता, पडिरूवकायसंफासणया, सव्वत्थेसु अपडिलोमया ॥
(दशा ४ / २१ )
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