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आगम विषय कोश-२
अंतेवासी
६. अयोग्य से योग्य : अग्नि आदि दृष्टांत दुग्ध के मृदु पुद्गलों से पुष्ट होता है। तत्पश्चात् वह अस्थि को
अग्गी बाल गिलाणे, सीहे रुक्खे करीलमाईया। भी खाने लगता है। अपरिणयजणे एए, सप्पडिवक्खा उदाहरणा॥ प्रारंभ में द्विपर्ण और वंशकरील वृक्ष नखों से भी काटे जा जह अरणीनिम्मविओ, थोवो विउलिंधणं न चाएड।
सकते हैं। बढने पर वे ही वक्ष कठार से भी नहीं काटे जा दहिउं सो पज्जलिओ, सव्वस्स वि पच्चलो पच्छा॥ सकते। इसी प्रकार शिष्य की बुद्धि प्रारंभ में कोमल होती है। एवं ख थलबद्धी, निउणं अत्थं अपच्चलो घेत्तं। वह गहन अर्थों को पकड़ नहीं पाती, टूट जाती है। वही सो चेव जणियबद्धी, सव्वस्स वि पच्चलो पच्छा॥ बुद्धि क्रमशः शास्त्रों से परिकर्मित होने पर कठोर, कठोरतर देहे अभिवते, बालस्स उ पीहगस्स अभिवड्डी। हो जाती है, कहीं टूटती नहीं। अइबहुएण विणस्सइ, एमेवऽहुणुट्ठिय गिलाणे॥ ७. स्थूलग्राही से सूक्ष्मग्राही : सिद्धार्थ आदि दृष्टांत खीर-मिउपोग्गलेहि, सीहो पुट्ठो उ खाइ अट्ठी वि।। निउणे निउणं अत्थं, थूलत्थं थूलबुद्धिणो कहए। रुक्खो बिवन्नओ खलु, वंसकरिल्लो य नहछिज्जो॥ बुद्धीविवद्धणकर, होहिइ कालेण सो निउणो॥ ते चेव विवढ्ता, हुंति अछेज्जा कुहाडमाईहिं। सिद्धत्थए वि गिण्हइ, हत्थी थूलगहणे सुनिम्माओ। तह कोमला वि बुद्धी, भज्जइ गहणेसु अत्थेसु॥ सरवेह-छिज्ज-पवए, घड-पड-चित्ते तहा धमए॥ शिष्यस्यापि प्रथमतः कोमला बुद्धिर्भवति" क्रमेण
जत्थ मई ओगाहइ, जोग्गं जं जस्स तस्स तं कहए। तु शास्त्रान्तरदर्शनतोऽभिवर्द्धमाना कठोरा कठोरतरोप
परिणामा-ऽऽगमसरिसं, संवेगकरं सनिव्वेयं॥ जायते इति न क्वचिदपि भंगमुपयाति।
(बृभा २३०-२३२) ___ (बृभा २२४-२२९ वृ)
आचार्य निपुण (सूक्ष्मग्राही) शिष्य को सूक्ष्म अर्थ बताए अपरिणत शिष्य, जो भविष्य में योग्य हो सकता है, और स्थूलबुद्धि शिष्य को बुद्धिवर्धक स्थूल अर्थ बताये। उसके संदर्भ में सप्रतिपक्ष (पहले अयोग्य पश्चात् योग्य के) कालान्तर में वह स्थूलबुद्धि शिष्य भी निपुण हो जाता है। छह दृष्टांत हैं- १. अग्नि २. बाल ३. ग्लान ४. सिंह ५. वृक्ष . सिद्धार्थ (सरसों के दाने)-स्थूल पदार्थों (काष्ठ, पत्थर ६. वंशकरीर।
आदि) को ग्रहण करने में प्रशिक्षित हाथी धीरे-धीरे सरसों १. अग्नि दृष्टांत-जैसे अरणि निर्मापित स्तोक अग्नि विपुल के दानों को भी ग्रहण करने में निपुण हो जाता है। ईंधन को जलाने में असमर्थ होती है किन्तु वह प्रदीप्त होने इस विषय में स्वरवेध, पत्रछेद्य, प्लवक, घटकारक, पर सम्पूर्ण ईंधन को जलाने में समर्थ हो जाती है। वैसे ही पटकारक, चित्रकारक और धमक के दृष्टांत ज्ञातव्य हैं। स्थूल बुद्धि वाला शिष्य पहले सूक्ष्म अर्थ को ग्रहण करने में ० स्वरवेध-जैसे धनुर्धर पहले स्थूल पदार्थों को बींधता है,
मर्थ होता है किन्त विविध शास्त्रों के अध्ययन के द्वारा फिर बालाग्र को तथा क्रमश: वह स्वरवेध-ध्वनि के आधार बुद्धि परिकर्मित होने पर वही शिष्य समस्त शास्त्र के अर्थ को पर बींधने लग जाता है। ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है।
० पत्रछेद्य-पत्रछेदक प्रारंभ में सामान्य पत्रों को छेदता है। धीरे२, ३. बाल-ग्लान दृष्टांत-बालक के शरीर की वृद्धि के धीरे वह इच्छित पत्रों के छेदन में निष्णात हो जाता है। साथ-साथ उसको दिए जाने वाले आहार की भी क्रमशः ०प्लवक-नट प्रारंभ में बांस के सहारे अपने करतब दिखाता वृद्धि की जाती है। उसको अति आहार देने से वह रुग्ण हो है, फिर निपुणता अर्जित कर बिना सहारे भी अनेक करतब जाता है। उसी प्रकार अभी-अभी रोगमुक्त हुए रोगी के दिखाने लग जाता है। आहार की क्रमशः वृद्धि होती है, तो वह स्वस्थ हो जाता है। घटकार-कुंभकार पहले शराव (सिकोरे) आदि बनाता है, ४-६ सिंह-वृक्ष-करील दृष्टांत-प्रारंभ में सिंह अपनी मां के फिर प्रसिद्ध घटकारक बन जाता है।
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