Book Title: Vividh Puja Sangraha
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VAUNUJAMOALAQUA MLAUMU JAUMUM LÄGÄVAUNUM विविध पूजा संग्रह. WYAMAWAWAWAWAWAWAWWWWWWWWWWW नाग प्रथम. ~aranaप्रसिहकर्ता श्रावक नीमसिंह माणेक.. आवृत्ति आठमी. "निर्णयसागर" प्रेस, मुंबइ. संवत् १९७३ सने १९१७. XXH PETRONG WOWOWOWOWWWWOWOWAWAWAWWWWWWWW ल मुंबइ, मांझवी, शाकगली. Jul JMUJMUM DAGMUMCIM ZIMMONUMUMIM MUMMUMUM JM ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya sagar Press, 23, Kolbhat Lane, Bombay. Published by Bhanji Maya for Bhimsi Maneck, 225-231, Mandvi, Sackgalli, Bombay. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. अगाउ अमारा तरफथी श्रावो पूजासंग्रह प्रसिद्ध करवामां आव्यो हतो, पण ते खपी जवाथी सुधारा वधारा साथे " विविध पूजासंग्रह " ए नामे त्रण नागनी योजना करवामां आवी बे. तेमांनो आ प्रथम नाग बे. श्रा नागनी श्रत्यार सुधीमां ७ श्रावृत्ति थ गडे, श्रने आ थाउमी आवृत्ति प्रगट करवामां श्रावी ने तेज बतावी आपे ने के जैन नामां धर्मपुस्तकनो आदर आने वांचवानी उत्कंठा वृद्धि पामतां जाय .आमां श्री देवचंडजी, वीरविजयजी, यशोविजयजी आदि महा. पुरुषोए गुजरात। नाषामा राग, रागणं, ढालरूपे स्नात्रपूजा, पंचकल्याणकनी पूजा, नव पदनी पूजा, बार व्रतनी पूजा, कर्मप्रकृतिनी, चोसम्प्रकारी पूजा आदि नक्ति अने ज्ञान विकसावे एवी पूजा रची डे ते तथा तेना अध्यापन विधि साथे समग्र बत्रीश विषयो दाखल करवामां आव्या बे. श्रा पूजाऊना कर्ता पुरुषो श्रीमद् यशोविजयजी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवचंद्रजी, विजयलक्ष्मीसूरि, ज्ञानविमलसूरि, देवपाल, धर्मचंजी, सकलचंजी, मेघराजजी, देवविजयजी, वीरविजयजी अने गंजीरविजयजी-ए सुप्रसिद्ध पुरुषो बे. जैन ना एउने सारी रीते जाणे . ए बधा पुरुषो हमणांज थगया जे. श्रीवीरविजयादि गया सैकामांज विद्यमान हता. श्रीगंजीरविजयजी चार वर्ष पहेलांज कालधर्म पाम्या जे. ए पुरुषोए नक्ति उसावे, ज्ञान जाग्रत करे, एवां रसिक पदमा ढालबह देशनाषामां पूजाउँ रची जैनोने बहु उपकृत कर्या बे. ___ आत्महितैषीने आत्महितनुं नक्ति एक प्रबल साधन . एवं एक साधन श्रा प्रगट थयेली पूजा पूलं पाडे बे. तेनो लान मुमुकुट लेशे एवी श्राशा बे. केलवायला के वगर केलवायला, बाल के वृक्षबधांने पोतानी शक्ति अनुसार एक सरखो लाज आ पूजा करशे. केलवायला नार्जनुं वलण पण पूजा जणी खेंचायु जे ए आनंददायक . ए वलण विशेष खेंचाइ धर्मवृद्धि था! मुंबइ-द्वितीय नाउपद शुक्ल ५ सं. १७३ ली. प्रसिद्धकर्ता. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. aang can नंबर. विषय. १ श्री वीरविजयजीकृत स्नात्रपूजा. २ श्री देवचंडजी ,, ३ श्री सकलचंजीकृत सत्तरनेदी पूजा. २४ ४ श्री मेघराजजी ,, , , ३ए ५ श्री वीरविजयजीकृत चोसरप्रकारी पूजा. ६३ " " , अष्ट , ,, १७२ , , ,, पंचकल्याणक , रन ,, ,, ,,छादश व्रत ,२० .,पीस्तालीशागम ,,२३३ ,, ,, नवाणुंप्रकारी , २५५ ११श्री विजयलक्ष्मीसूरिकृत वीशस्थानकनी पूजा.२७१ १५ श्री धर्मचंद्रजीकृत नंदीश्वर छीपपूजा. श्एG १३ श्री यशोविजयजीकृत नवपदपूजा. ३२० १४ श्री देव विजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. ३४२ १५ श्री सकलचंजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा.३५५ १६ श्रीगंजीरविजयजीकृत दश विधयतिधर्मपूजा.३७३ १७ ,, , , नव पद , ३७७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० १७ श्री देवचंजीकृत श्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ४१० १ए श्री ज्ञान विमलसूरिकृत शांतिनाथनो कलश.४२४ २० श्री अढीसें अनिषेकनो कलश. २१ श्री देवपाल कविकृत स्नात्रपूजा. ४३ २२ श्री खूण उतारण तथा आरति. पए २३ श्री जिन नवअंगपूजन दोहा. ४५१ २४ श्री देवचंडजीकृत स्नात्रपूजाविधि. ४५२ २५ श्री श्रारति, दीपक, खूण जल विधि. ४६१ २६ श्री सत्तरन्नेदी पूजाध्यापन विधि. ४६२ २७ श्री शांति जिन श्रारति. ४६० २७ श्री वीश स्थानक पूजाध्यापन विधि. ४६न शए श्री नवाणुंप्रकारी पूजाध्यापन विधि, ४७१ ३० श्री चोसम्प्रकारी पूजाध्यापन विधि. ४७१ ३१ श्री पंचकल्याणक पूजाध्यापन विधि. ४१५ ३२ श्री द्वादश व्रत प्रजाध्यापन विधि. ४७५ ३३ श्री अष्टप्रकारी पूजाध्यापन विधि. ४७६ ३४ श्री नव पद पूजाध्यापन विधि. ३५ श्री महावीर जन्मानिषेक. ३६ श्री दादासाहेबनी पूजा. ४न्द Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) ॥ श्रीपंचपरमेष्ठी मंगल स्तवनम् ॥ ॥ चाल-आदि गणेश मनाया ॥ ॥ नित सिमरण कर ले पांच मंगल सुखकारी॥ अंचली ॥ अर्हन् देव प्रथम मंगल में, चउतीस अतिशय धारी ॥ प्रजुजी ॥ पैंतीस वाणी गुणे करी सोहे, धारक जिन गुण बारी ॥ नि ॥१॥ पांच वर्ण फूलोंकी वर्षा, अशोक वृक्ष सुखकारी ॥ प्रजुजी ॥ देवहुंमुनि चामर होवे, देव ध्वनि हितकारी ॥ नि० ॥२॥ नामंगल सिंहासन उत्तर, पूजातिशय नारी ॥ प्रजुजी ॥ वाग ज्ञान अपायापगम, मूल अतिशय चारी ॥ नि ॥३॥ जीवनमुक्त धर्मउपदेशक, दोष अगरां जारी ॥प्रजुजी ॥ ऐसे अर्हनू देव जिनेश्वर, नमो नमो नर नारी ॥ नि ॥४॥ श्रष्ट कर्मको दग्ध करीने, सिक ऊर्ध्व गति धारी ॥प्रजुजी ॥ झान दर्शन सम्यक्त्व अरूपी, अगुरु लघु बल जारी ॥ नि॥५॥ अव्याबाध अक्षय स्थिति यह गुण, सिझ आठ मनोहारी ॥ प्रजुजी ॥ फुजे मंगल सिक महाराजा, नमो नमो नर नारी ॥नि॥६॥डी पांचको दमन करीने, पाले पांच श्राचारी ॥ प्रजुजी ॥ ब्रह्मचर्य नव गुप्ति धारे, चार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) कषायको टारी॥नि॥७॥समिति पांच तीन गुप्ति साधे, पांच महाव्रत पारी ॥ प्रजुजी॥तीजे मंगल नमो सूरीश्वर, षट्त्रिंशत् गुण धारी ॥ नि॥॥ अंग उपांग कहे जिनवरके, श्क दश दो दश जारी ॥ प्रजुजी ॥ चरणसत्तरी करणसत्तरी, पचवीश गुण मारी ॥ नि०॥ ए॥ सूरि नहीं पिण सूरि समही, वाचना दे हितकारी ॥ प्रजुजी ॥ उपाध्याय चौथे मंगलमें, नमो नमो नर नारी॥निमारासंयम योगमें युक्त सदा गुरु, षट् काया रखवारी ॥ प्रजुजी ॥ षट् व्रत पालक पंचेंडी अरु, लोन निग्रह करतारी॥नि०॥ ११॥पडिलेहणा अरु नावविशुकि, दमा गुप्ति त्रय धारी॥प्रनुजी॥ शीतादि परिषदको जीती, उपसर्ग दूर निवारी ॥ नि० ॥ १२ ॥ ऐसे सद्गुरु पांचमे मंगल, जगजीवन उपकारी प्रजुजी॥ श्राप तरे औरोंको तारे, नमो नमो नर नारी ॥ नि ॥ १३॥ सर्व मंगलमें उत्तम मंगल, पांचो पद नमोकारी॥जुज॥ मालामें गुण पांचो पदके, सय अठ मणके धारी ॥ नि० ॥ १४ ॥सोलां पैंतीस अठसठ श्रदर, अकर पद दातारी ॥प्रनुजी॥ वसन ध्यान धरे नित जावे, श्रातम हर्ष अपारी ॥ नि० ॥ १५ ॥ इति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ पंडितश्रीवीरविजयजीकृत स्नात्रपूजा प्रारंनः॥ ॥ काव्यं ॥ पुतविलंबितवृत्तम् ॥ सरसशांतिसुधारससागरं ॥ शुचितरं गुणरत्नमहागरं॥ नविकपंकजबोधदिवाकरं ॥ प्रतिदिनं प्रणमामि जिनेश्वरं ॥१॥ ॥ दोहा॥ ॥कुसुमाजरण उतारीने, पमिमा धरीय विवेक ॥ मऊन पीठे थापीने, करीए जल अनिषेक ॥२॥ ॥ गाथा आर्या गीति ॥ जिण जम्म समय मेरु॥ सिहरं रयण कणय कलसेटिं॥ देवा सुरहि एहवि ॥ ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥३॥ ॥ कुसुमांजलि ॥ ढाल॥ ॥ निर्मल जल कलशे न्हवरावे ॥ वस्त्र अमूलक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम अंग धरावे ॥ कुसुमांजलि मेलो यदि जिणंदा ॥ सिद्धस्वरूपी यंग पखाली, आतम निर्मल हुइ सुकुमाली || कु० ॥ ४ ॥ || गाथा आर्या गीति ॥ मचकुंद चंप मालइ ॥ कमलाई पुप्फ पंच वसाई ॥ जगनाद न्दवणसमये ॥ देवा कुसुमांजली दिंती ॥ ५ ॥ ॥ नमोऽई सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुच्यः ॥ ॥ कुसुमांजलि ॥ ढाल ॥ ॥ रयण सिंहासन जिन थापीजे ॥ कुसुमांजलि प्रभु चरणे दीजे ॥ कुसुमांजलि मेलो शांति जिणंदा ॥ ६ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ जिए तिहुं कालय सिद्धनी, पमिमा गुणजंकार ॥ तसु जरणे कुसुमांजलि, जविक डुरित हरनार ॥ ७ ॥ ॥ नमोऽई सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः ॥ ॥ कुसुमांजलि ॥ ढाल ॥ ॥ कृष्णागरु वर धूप धरीजे ॥ सुगंध कर कुसुमांजलि दीजे ॥ कुसुमांजलि मेलो नेमि जिणंदा ॥ ८ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत स्नात्रपूजा. ॥ गाथा आर्या गीति ॥ जसु परिमल बल दह दिसिं॥ महुकर ऊंकार सद्दसंगीया॥ जिण चलणोवरि मुक्का ॥ सुर नर कुसुमांजलि सिहा ॥ ए॥ ॥ नमोऽई सिकाचार्योपाध्यायसर्वसाधुन्यः ॥ ॥कुसुमांजलि ॥ ढाल॥ ॥पास जिणेसर जग जयकारी॥जल थन फूल उदक कर धारी ॥ कुसुमांजलि मेलो पार्श्व जिणंदा॥१०॥ ॥दोहा॥ सुमांजलि सुरा, वीरचरण सुकुमाल ॥ ते कुसुमांजलि नविकनां, पाप हरे त्रण काल ॥११॥ ॥ नमोऽर्ह सिकाचार्योपाध्यायसर्वसाधुन्यः ॥ ॥कुसुमांजलि ॥ ढाल ॥ ॥ विविध कुसुम वर जाति गहेवी ॥ जिनचरणे प्रणमंत उवेवी॥ कुसुमांजलि मेलो वीर जिणंदा ॥१॥ ॥ वस्तु बंद ॥ ॥ न्हवणकाले न्हवणकाले॥ देव दाणव समुच्चिय ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. कुसुमांजलि तहिं संविय ॥ पसरंत दिसि परिमल सुगंधिय ॥ जिणपयकमले निवडे | विग्धहर जस नाम मंतो ॥ अनंत चडवीस जिन॥ वासव मलियासेस ॥ सा कुसुमांजलि सुहकरो ॥ च विह संघ विसेस ॥ कुसुमांजलि मेलो चडवीश जिणंदा ॥ १३ ॥ ॥ नमोऽई सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुच्यः ॥ ॥ कुसुमांजलि ॥ ढाल ॥ ॥ अनंत चडवीसी जिनजी जुहारुं। वर्त्तमान चडवीसी संजारुं ॥ कुसुमांजलि मेलो चोवीश जिणंदा ॥ १४ ॥ ॥ दोहा ॥ ५ ॥ महाविदेहे संप्रति, विहरमान जिन वीरा ॥ नक्तिनरे ते पूजीया, करो संघ सुजगीश ॥ १५ ॥ ॥ नमोऽई सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुज्यः ॥ ॥ कुसुमांजलि ॥ ढाल ॥ ॥ परमं गलि गीत उच्चारा ॥ श्री शुजवीरविजय जयकारा ॥ कुसुमांजलि मेलो सर्व जिणंदा ॥ १६ ॥ इति श्रीकुसुमांजलयः ॥ ॥ चप्रथ कलश ॥ दोहा ॥ ॥ सयल जिणेसर पाय नमी, कल्याणक विधि तास ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत स्नात्रपूजा. ५ वर्णवतां सुणतां थका, संघनी पूगे श्राश ॥ १॥ ॥ ढाल ॥ एक दिन अचिरा हुल रावती ॥ ए देशी॥ ॥ समकित गुणगणे परिणम्या, वली व्रतधर संयम सुख रम्या । वीश थानक विधिए तप करी, एसी नाव दया दिलमां धरी ॥१॥ जो होवे मुज शक्ति इसी, सवि जीव करूं शासनरसी॥ शुचि रस ढलते तिहां बांधतां, तीर्थकरनाम निकाचता ॥२॥सरागथी संयम आचरी, वचमां एक देवनो नव करी ॥ चवी पन्नर देत्रे अवतरे, मध्य खंडे पण राजवी कुले ॥३॥ पटराणी कुखे गुणनिलो, जेम मान सरोवर हंसलो ॥ सुखशय्याए रजनी शेषे, उतरतां चउद सुपन देखे ॥४॥ ॥ ढाल ॥ स्वप्ननी॥ ॥ पहेले गजवर दोगे, बीजे वृषन पश्छो॥त्रीजे केशरी सिंह, चोथे लक्ष्मी अबीह ॥ १॥ पांचमे फूलनी माला, बछे चंड विशाला ॥ रवि रातो ध्वज मोहोटो, पूरण कलश नहीं बोटो ॥५॥ दशमे पद्म सरोवर, अगीयारमे रत्नाकर ॥ जुवन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. विमान रत्नगंजी, अग्निशिखा धूमवर्जी ॥ ३ ॥ स्वप्न लही जइ रायने जाषे, राजा अर्थ प्रकाशे ॥ पुत्र तीर्थंकर त्रिभुवन नमशे, सकल मनोरथ फलशे ॥ ४ ॥ ॥ वस्तु बंद ॥ || अवधिना अवधिनाणे, उपना जिनराज ॥ जगत जस परमाणुश्रा, विस्तस्या विश्वजंतु सुखकार ॥ मिथ्यात्व तारा निर्बला, धर्मउदय परजात सुंदर ॥ माता पण आणंदीयां, जागती धर्म विधान ॥ जाणंती जग तिलक समो, होशे पुत्र प्रधान ॥ १ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ शुभ लग्ने जिन जनमीया, नारकीमां सुख ज्योत ॥ सुख पाम्या त्रिभुवन जना, हुई जगत उद्योत ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ कडखानी देशी ॥ - ॥ सांजलो कलश जन, महोत्सवनो इहां ॥ बप्पन कुमरी दिशि विदिशि वे तिहां ॥ माय सुत नमीय, आदधिको धरे ॥ ष्ट संवर्त्त वायुथी, कचरो हरे ॥ १ ॥ वृष्टगंध, अष्ट कुमरी करे ॥ ष्ट कलशा नरे, अष्ट दर्पण धरे ॥ अष्ट चामर धरे, अष्ट पंखा नही ॥ चार रक्षा करी, चार दीपक ग्रही ॥ २ ॥ घर करी केलनां, माय " Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत स्नात्रपूजा. ७ सुत लावती ॥ करण शुचि कर्म जल, कलशे न्हवरावती॥कुसुम पूजी,श्रलंकार पहेरावती॥राखडी बांधी जश, शयन पधरावती ॥३॥नमीय कहे माय तुज, बाल लीलावती॥मेरु रविचं लगे,जीवजो जगपति॥ स्वामिगुण गावती, निज घर जावती ॥ तेणे समे , सिंहासन कंपती ॥४॥ ॥ ढाल ॥ एकवीशानी देशी॥ ॥जिन जन्म्याजी, जिण वेला जननी घरे ॥ तिण वेलाजी, इंउसिंहासन थरहरे ॥ दाक्षिणोत्तरजी, जेता जिन जनमे यदा ॥ दिशिनायकजी, सोहम ईशान बेहु तदा ॥१॥ ॥त्रुटक ॥ . ॥ तदा चिंते इंजमनमां, कोण अवसर ए बन्यो॥ जिनजन्म अवधिनाणे जाणी, हर्ष आनंद उपन्यो ॥सुघोष वादे घंटनादे, घोषणा सुरमें करे॥सवि देवी देवा जन्ममहोत्सवे, आवजो सुरगिरिवरे ॥२॥ ॥ ढाल ॥ पूर्वली॥ ॥ एम सांजलीजी, सुरवरकोमि आवी मले॥ जन्ममहोत्सवजी, करवा मेरु उपर चले ॥सोहमपति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. जी, बहु परिवारे यवीया ॥ माय जिननेजी, वांदी प्रजुने वधावीया ॥ ३॥ ט " ॥ त्रुटक ॥ ॥वधावी बोले हे रतनकुख, धारिणी तुज सुत तणो ॥ ढुं शक सोम नामे करशुं जन्म उत्सव अति घणो ॥ एम कही जिन प्रतिबिंब थापी, पंच रूपे प्रभु ग्रही ॥ देव देवी नाचे हर्ष साथे, सुरगिरि आव्या वही ॥ ४ ॥ ॥ ढाल ॥ पूर्वली ॥ ॥मेरु उपरजी,पांडुक वनमें चिहुं दिशे ॥ शिला उपरजी, सिंहासन मन उल्लसे ॥ तिहां बेसीजी, शक्रे जिन खोले धया ॥ हरि त्रेसठजी, बीजा तिहां घ्यावी मख्या ॥ ५ ॥ ॥ त्रुटक ॥ ॥ मया चोसवं सुरपति तिहां, करे कलश पड जातिना ॥ मागधादि जल तीर्थ औषधि, धूप वली बहु जातिना ॥ श्रच्युतपतिए हुकम कीनो, सांजलो देवा सवे ॥ खीरजलधि गंगानीर लावो, ऊटिती जिन महोत्सवे ॥ ६ ॥ || ढाल || विवादलानी ॥ ॥ सुर सांजलीने संचरीया, मागध वरदामे चलीया ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत स्नात्रपूजा. ए पद्मज्ह गंगा श्रावे, निर्मल जल कलश नरावे॥१॥ तीरथ फल जैषधि लेता, वली खीरसमुझे जाता॥जल कलशा बहुल नरावे, फूल चंगेरी थाल लावे॥२॥ सिंहासन चामर धारी, धूपधाणां रकेबी सारी॥सिकांते नाख्यां जेह, उपकरण मिलावे तेह॥३॥ते देवा सुरगिरि आवे, प्रजु देखी आनंद पावे॥ कलशादिक सहु तिहां ठगवे, नक्ते प्रजुना गुण गावे ॥४॥ ॥ढाल ॥राग धन्याश्री॥ ॥ आतम नक्ति मल्या केश देवा, केता मित्तनुजा॥ नारी प्रेस्या वली निज कुलवट, धर्मी धर्म सखा॥जोस व्यंतर जुवनपतिना, वैमानिक सुर थावे॥अच्युतपति हुकमे धरी कलशा, अरिहाने नवरावे ॥ श्रा० ॥१॥ अम जाति कलशा प्रत्येके, पाठ आठ सहस प्रमाणो ॥ चउस सहस हुश्रा अनिषेके, अढीसें गुणा करी जाणो ॥ साठ लाख उपर एक कोडि, कलशाना अधिकार ॥ बासठ ज तणा तिहां बासठ, लोकपालना चार ॥ श्रा० ॥२॥ चंडनी पंक्ति गस बासठ, रविसेणी नर लोको ॥ गुरुस्थानक सुर केरो एकज, सामानिकनो एको ॥ सोहमपति ईशानपतिनी, इंशाणीना सोल ॥ असु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. रनी दश इंशाणी नागनी, बार करे कबोल ॥ श्राप ॥३॥ ज्योतिष व्यंतर इंजनी चउ चन, पर्षदा त्रणनो एको ॥ कटकपति अंगरक्षक केरो, एक एक सुविवेको ॥ परचुरण सुरनो एक बेहो, ए अढीसें अनिषेको ॥ शानदंड कहे मुज आपो, प्रजुने क्षण अतिरेको ॥ श्रा० ॥४॥ तव तस खोले ठवी अरिहाने, सोहमपति मनरंगे ॥ वृषनरूप करी शृंग जले जरी, न्हवण करे प्रनु अंगे॥ पुष्पादिक पूजीने गंटे, करी केसर रंग रोले ॥ मंगलदीवो भारती करतां, सुरवर जयजय बोले ॥ श्रा० ॥ ५॥ नेरी नूंगल ताल बजावत, वलीया जिन कर धारी ॥ जननीघर माताने सोंपी, एणी परे वचन उच्चारी ॥ पुत्र तमारो खामी हमारो, अम सेवक आधार ॥ पंच धावी रंनादिक थापी, प्रजु खेलावणदार ॥ आ० ॥ ६ ॥ बत्रीश कोमि कनक मणि माणिक, वस्त्रनी वृष्टि करावे ॥ पूरण हर्ष करेवा कारण, छीप नंदीसर जावे ॥ करीय अहा उत्सव देवा, निज निज कल्प सधावे ॥ दीदा केवलने अनिलाषे, नित नित जिन गुण गावे ॥ ॥ ७॥ तपगड ईसर र, केरा शिष्य वडेरा॥सत्य विजय पंन्यास Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवचंद्रजीकृत स्नात्रपूजा. ११ तो पद, कपूर विजय गंजीरा ॥ खिमा विजय तस सुजश विजयना, श्री शुभ विजय सवाया ॥ पंमित वीर - विजय शिष्ये जिन, जन्ममहोत्सव गाया ॥ श्र० ॥८॥ उत्कृष्ट एकसो ने सीतेर, संप्रति विचरे वीश ॥ अतीत अनागत काले अनंता, तीर्थंकर जगदीश ॥ साधारण ए कलश जे गावे, श्री शुजवीर सवाइ ॥ मंगललीला सुखजर पावे, घर घर हर्ष वधाइ ॥ श्रातम० ॥ ॥ इति पंकित श्रीवीरविजयजीकृत स्नात्रपूजा समाप्ता ॥ ॥ अथ पंक्ति श्री देवचंजीकृत स्नात्रपूजा प्रारंभः ॥ ( पांखमी गाथा ) ॥ ढाल पहेली ॥ ॥ चउत्तिसे अतिसय जुर्ज, वचनातिसय जुत्त ॥ सो परमेसर देखी जवि, सिंहासण संपत्त ॥ १॥ ॥ ढाल ॥ ॥ सिंहासन बेठा जग जाए, देखी जविक जन गुण मणि खाप || जे दीठे तुज निर्मल नाथ, लहीए परम महोदय गण ॥ कुसुमांजलि मेलो आदि जि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. णंदा, तोरां चरणकमल सेवे चोसदा ॥कु०॥१॥ चोवीश वैरागी, चोवीश सोनागी, चोवीश जिणंदा ॥ कुण् ॥ एम कही प्रजुना चरणे पूजा करीए ॥ ॥ गाथा ॥ ॥ जो निय गुण पजाव रम्यो, तसु अनुनव एगंत॥ सुह पुग्गल आरोपतां, जो तसु रंग निरत्त ॥२॥ ॥ ढाल ॥ ॥जो निजातम गुण आणंदी, पुग्गल संगे जेह अफंदी ॥ जे परमेसर निज पद लीन, पूजो प्रणमो जव्य अदीन ॥ कुसुमांजलि मेलो शांति जिणंदा॥ तो॥॥२॥एम कही प्रजुना जानुए पूजा करीए॥ ॥ गाथा ॥ ॥ निम्मल नाण पयासकर, निम्मल गुण संपन्न । निम्मल धम्मोवएसकर, सो परमप्पा धन्न ॥३॥ ॥ ढाल ॥ लोकालोक प्रकाशक नाणी, नविजन तारण जेहनी वाणी॥परमानंद तणी नीशाणी, तसु नगते मुज मति उदाणी॥कुसुमांजलि मेलो नेम जिणंदातो ॥कु०॥३॥एम कही प्रजुना बे हाथे पूजा करीए॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवचंजीकृत स्नात्रपूजा. १३ ॥गाथा ॥ ॥जे सिद्या सिद्यति जे, सिघंसंति अणंत ॥ जसु आलंबन नविय मण, सो सेवो अरिहंत ॥४॥ ॥ढाल ॥ ॥ शिवसुख कारण जेह त्रिकाले, सम परिणामे जगत नीहाले ॥ उत्तम साधन मार्ग देखाडे, इंसादिक जसु चरण पखाले ॥ कुसुमांजलि मेलो पास जिणंदा ॥ तो० ॥ कु० ॥४॥ एम कही प्रजुना खंनाए पूजा करीए । ॥ गाथा ॥ ॥ समदिछी देस जय, साहु साहुणी सार॥आचारिज उवकाय मुणि, जो निम्मल थाधार ॥५॥ ॥ ढाल ॥ ॥चन विह संघे जे मन धागुं, मोद तणुं कारण निरधामु ॥ विविद कुसुम वर जाति गहेवी, तसु चरणे प्रणमंत वेवी ॥ कुसुमांजलि मेलो वीर जिणंदा ॥ तो ॥ कु० ॥ ५॥ एम कही प्रजुने मस्तके पूजा करीए ॥ इति पांखमी गाथा ॥ ॥ वस्तु बंद ॥ ॥ सयल जिनवर सयल जिनवर, नमिय मनरंग, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. कहाणक विहि संघविय, करिस धम्म सुप वित्त ॥सुंदर सय गसत्तरि तिबंकर, एक समय विहरति महीयल, चवण समय गवीस जिण, जम्म समय गवीस ॥ नत्तिय नावे पूजीया, करो संघ सुजगीस ॥१॥ ॥ ढाल ॥ बीजी॥ ॥ एक दिन अचिरा दुलरावती ॥ ए देशी ॥ ॥नवत्रीजे समकित गुण रम्या, जिन नक्ति प्रमुख गुण परिणम्या ॥ तजी इंजिय सुख आशंसना, करी स्थानक वीशनी सेवना ॥१॥श्रति राग प्रशस्त प्रनावता, मन नावना एहवी नावता॥सवि जीव करूं शासनरसी, इसी नाव दया मन जबसी॥२॥लही परिणाम एह जवू, नीपजावी जिनपद निर्मबुं॥ आयु बंध वचे एक नव करी, श्रद्धा संवेग ते थिर धरी ॥३॥ त्यांथी चवीय लहे नरजव उदार, नरते तेम ऐरवतेज सार ॥ महाविदेहे विजये वर प्रधान, मध्य खंडे अवतरे जिन निधान ॥४॥ ॥ अथ सुपनानी ॥ ढाल ॥ त्रीजी॥ ॥ पुण्ये सुपनह देखे,मन मांदे हर्ष विशेषे॥ गजवर उज्ज्वल सुंदर, निर्मल वृषन मनोहर ॥ १॥निर्नय Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ श्रीदेवचंद्रजीकृत स्नात्रपूजा. केशरी सिंह, लक्ष्मी तिही श्रवीद ॥ अनुपम फूलनी माल, निर्मल शशी सुकुमाल ॥ २ ॥ तेजे तरणी यति दीपे, इंद्रध्वजा जग जीपे ॥ पूरण कलश पंडूर, पद्म सरोवर पूर ॥ ३ ॥ अग्यारमे रयणायर, देखे माता गुण सायर ॥ बारमे जुवन विमान, तेरमे अनुपम रत्ननिधान ॥ ४ ॥ अग्निशिखा निरधूम, देखे माताजी अनुपम || हर्षी रायने जाषे, राजा धरथ प्रकाशे ॥ २ ॥ जगपति जिनवर सुखकर, होशे पुत्र मनोहर || इंद्रादिक जसु नमशे, सकल मनोरथ फलशे ॥ ६ ॥ ॥ वस्तु छंद ॥ ॥ पुण्यउदय पुण्य उदय, उपना जिननाह, माता तत्र रयणी समे, देखी सुपन हरखंती जागीय ॥ सुपन कही निज कंतने, सुपन अरथ सांजलो सोनागीय ॥ त्रिभुवन तिलक महागुणी, होशे पुत्र निधान ॥ इंद्रादिक जसु पाय नमी, करशे सिद्धि विधान ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ चोथी ॥ चंद्रावलानी देशीमां ॥ ॥ सोहमपति शासन कंपीयो ए, देश अवधि मन दीयो ए॥ निज खतम निर्मल करण काज, जव For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जलतारण प्रगट्यो जहाज ॥ १॥ नवअमवी पारग सबवाह, केवल नाणाश्य गुण अगाह ॥ शिव साधन गुण अंकुरो जेह, कारण जलव्यो श्रासाढी मेह ॥३॥हरखे विकसी तव रोमराय, वलयादिकमां निज तनु न माय ॥ सिंहासनथी उठ्यो सुरिंद, प्रणमंतो जिन आनंदकंद ॥३॥ सग श्रम पय सामोआवी तब, करी अंजलिय प्रणमीय मन ॥ मुखे जाखे ए क्षण आज सार, तिय लोय पहु दीगे उदार ॥४॥ रे रे निसुणो सुरलोय देव, विषयानल तापित तुम सवेव ॥ तसु शांति करण जलधर समान, मिथ्या विष चूरण गरुमवान ॥ ५॥ ते देव सकल तारण समन, प्रगट्यो तस प्रणमी हुवो सनाथ ॥एम जंपी शक स्तव करेवि, तव देव देवी हरखे सुणेवि ॥६॥ गावे तव रंजा गीत गान, सुरलोक हुवो मंगल निधान ॥ नरदेने श्रारज वंश गम, जिनराज वधे सुर हर्ष धाम ॥ ७॥ पिता माता घरे उत्सव अशेष, जिनशासन मंगल श्रति विशेष ॥ सुरपति देवादिक हर्ष संग, संयमअर्थी जनने उमंग॥७॥ शुज वेला लगने तीर्थनाथ, जनम्या सादिक हर्ष साथ॥सुख पाम्या त्रिजुवन सर्व जीव, वधा वधाइ थश्अतीव॥ए॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवचंद्रजीकृत स्नात्रपूजा. ॥ दाल ॥ पांचमी ॥ ॥ श्रीशांति जिननो कलश कहीशुं, प्रेम सागर पूर ॥ ए देशी ॥ 2 १७ ॥ श्रीतीर्थपतिनुं कलश मऊन, गाइए सुखकार ॥ नरखित्त मंगल डुड् विरुण, जविक मन आधार ॥ तिहां राव राणा हर्ष उत्सव, थयो जग जयकार ॥ दिशिकुमरी अवधि विशेष जाणी, लह्यो हर्ष पार ॥ १ ॥ निय अमर श्रमरी संग कुमरी, गावती गुणबंद ॥ जिन जननी पासे श्रावी पोहोती, गहगढ़ती आणंद ॥ हे माय ! तें जिनराज जायो, शुचि वधायो रम्म ॥ श्रम जम्म निम्मल करण कारण, करीश सूईकम्म ॥ २ ॥ तिहां भूमि शोधन दीप दर्पण, वाय वींजण धार ॥ तिहां करीय कदली गेढ़ जिनवर, जननी मकनकार ॥ वर राखमी जिनपाणि बांधी, दीए एम आशीष ॥ जुग कोमाकोमि चिरं जीवो, धर्मदायक ईश ॥ ३॥ For Personal and Private Use Only ॥ ढाल ॥ बट्ठी ॥ एकवीशानी ॥ ॥ जगनायकजी, त्रिभुवन जन हितकार ए ॥ परमातमजी, चिदानंद घनसार ए ॥ एदेशी ॥ ॥ जिण रयणीजी, दश दिशि उज्ज्वलता घरे॥ शुज लग वि० २ Jain Educationa International Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. नेजी,ज्योतिष चक्र तेसंचरेजिन जनम्याजी,जेणे श्रवसर माता घरे॥तेणे अवसरजी,शासन पण थरहरे॥ ॥त्रुटक ॥ ॥यरहरे आसन इंऽ चिंते,कोण अवसर ए बन्यो। जिन जन्म उत्सव काल जाणी,अतिही आनंद उपन्यो ॥निज सिद्धि संपत्ति हेतु जिनवर,जाणी जक्ते उम्मह्यो ॥विकसित वदन प्रमोद वधते,देवनायक गहगह्यो।। ॥ ढाल ॥ ॥तव सुरपतिजी,घंटानाद कराव ए॥सुरलोकेजी, घोषण एह देवराव ए ॥ नरक्षेत्रेजी, जिनवर जन्म हु श्र॥तसु नगतेजी, सुरपति मंदरगिरि गछे ॥ ॥त्रुटक ॥ ॥गति मंदर शिखर उपर, जवन जीवन जिन तणो ॥ जिन जन्म उत्सव करण कारण, आवजो सवि सुरगणो॥तुम शुछ समकित थाशे निर्मल, देवाधिदेव नीहालतां ॥आपणां पातिक सर्व जाशे, नाथ चरण पखालतां ॥२॥ ॥ ढाल ॥ ॥एम सांजलीजी,सुरवर कोमी बहुमली ॥ जिनवंदनजी, मंदरगिरि सामा चली ॥ सोहमपतिजी, Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवचंद्रजीकृत स्रात्रपूजा. १॥ जिन जननी घर श्रावीया ॥ जिन माताजी, वंदी स्वामी वधावीया ॥ ॥त्रुटक ॥ ॥ वधावीया जिन हर्ष बहुले, धन्य हुं कृतपुण्य ए॥ त्रैलोक्य नायक देव दीगे, मुज समो कोण अन्य ए॥ हे जगतजननी पुत्र तुमचो, मेरु मऊन वर करी॥ उत्संग तुमचे वलीय थापीश, आतमा पुएये जरी॥३॥ ॥ ढाल ॥ ॥सुरनायकजी, जिन निज करकमले उव्या ॥पंच रूपेजी,अतिशे महिमाए स्तव्या ॥ नाटक विधिजी, तव बत्रीश श्रागल वहे ॥ सुर कोमीजी, जिन दर्शनने उम्महे ॥ ॥त्रुटक ॥ ॥सुर कोमाकोमी नाचती वली, नाथ शुचि गुण गावती॥अप्सरा कोमी हाथ जोमी, हाव नाव देखावती ॥ जयो जयो तुं जिनराज जगगुरु, एम दे आशीष ए ॥ अम्ह त्राण शरण श्राधार जीवन, एक तुं जगदीश ए ॥४॥ ॥ढाल॥ ॥सुरगिरिवरजी, पांमुक वनमें चिहुं दिशे॥गिरि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० विविध पूजीसंग्रह नाग प्रथम. शिल परजी, सिंहासन सासय वसे ॥ तिहां श्राणीजी, शके जिन खोले ग्रह्या ॥ चौसहेजी, तिहां सुरपति आवी रह्या ॥ ॥त्रुटक ॥ ॥श्रावीया सुरपति सर्व जक्ते, कलश श्रेणी बनाव ए ॥ सिद्धार्थ पमुहा तीर्थ औषधि, सर्व वस्तु अणाव ए ॥अनुश्रपति तिहां हुकम कीनो, देव कोमाकोमीने ॥ जिन मानारथ नीर लावो, सवे सुर कर जोमीने ॥५॥ ॥ ढाल ॥ सातमी॥ ॥ शांतिने कारणे इंछ कलशा नरे॥ए देशी ॥ ॥श्रात्मसाधन रसी देवकोमी हसी,उबसीने धसी दीरसागर दिशि ॥ पनमदह आदि दह गंगपमुहा नई, तीर्थजल अमल लेवा जणी ते ग॥१॥जाति अम कलश करी सहस अहोतरा, बत्र चामर सिंहा. सण शुजतरा ॥ उपकरण पुप्फ चंगेरी पमुद्दा सवे, आगमे नाषीयां तेम आणी ग्वे ॥२॥ तीर्थजल जरीय कर कलश करी देवता,गावता नावताधर्म उन्नतिरता॥तिरिय नर अमरने हर्ष उपजावता,धन्य अम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवचंजीकृत स्नात्र पूजा. १ शक्ति शुचि नक्ति एम जावता॥३॥ समकित बीज निज आत्म थारोपता, कलश पाणी मिषे नक्तिजल सिंचता॥ मेरुसिहरोवरे सर्व आव्या वही, शक उत्संग जिन देखी मन गहगही ॥४॥ ॥ वस्तु बंद ॥ ॥ हंहो देवा हंहो देवा अणा कालो, अदिक पुवो तिलोय तारणो तिलोय बंध, मित्त मोह विसणो अणा तिएहा विणासणो, देवादिदेवो दिउ बोहिय कामेहिं ॥५॥ ॥ ढाल तेहीज ॥ ॥ एम पत्नणंत वण जवण जोईसरा, देव वेमाणिया नत्ति धम्मायरा॥ केवि कप्पहिया केवि मित्ता. णुगा, केवि वर रमणि वयणेण अश् छुगा ॥६॥ वस्तु बंद ॥ ॥ तब अचुय, तब अचय इंद आदेस ॥ कर जोम। सवि देवगण, लेय कलस आदेस पामीय ॥ अद्भुत रूप सरूप जुश्र, कवण एह उत्संगे सामिय ॥ इंद कहे जगतारणो, पारग अम परमेस ॥ नायक दायक धम्म निहि, करीए तसु अनिसेस ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ ढाल ॥ आठमी॥ ॥ तीर्थकमलदल उदक जरीने, पुष्कर सागर आवे ॥ ए देशी॥ ॥ पूरण कलश शुचि उदकनी धारा, जिनवर अंगे नामे॥श्रातम निर्मल नाव करंता,वधते शुजपरिणामे॥श्रच्युतादिक सुरपति मजन, लोकपाल लोकांत॥ सामानिक इंशाणी पमुहा, एम अनिषेक करंत ॥१॥ ॥गाहा ॥ ॥तव ईसाण सुरिंदो, सकं पत्नणेई,कर सुपसाउँ॥ तुम अंके महन्नाहो, पण मित्तं अम्ह अप्पेह ॥२॥ ता सिकिंदो पत्नणेई, साहमीवडलं मि बहु लाहो ॥ याणा एवं तेणं, गिएिहहवो उकयबानो ॥३॥ एम कही सर्व स्नात्रीया कलश ढाले, अने मुखथी नीचे प्रमाणे पाठ कहे॥ ॥ ढाल ॥ तेहीज ॥ ॥ सोहम सुरपति वृषन रूप करी, न्हवण करे प्रनु अंग ॥ करीय विलेपण पुप्फमाल ग्वी, वर यानरण अनंग ॥ तव सुरवर बहु जय जयरव करी, नाचे धरी आणंद ॥ मोदमार्ग सारथपति पाम्यो, नांजशुंहवे नवफंद॥४॥कोमिवत्रीश सोवन उवारी, वाजंते वर नादे॥सुरपति संघ अमरश्रीप्रजुने,जननीने सुप्रसादे॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवचंद्रजीकृत स्नात्रपूजा.. २३ श्राणी थापी एम पयंपे, अमे निस्तरीया आज ॥ पुत्र तुमारो धणी रे हमारो, तारण तरण जहाज ॥५॥मात जतन करी राखजो एहने, तुम सुत श्रम आधार ॥ सुरपति नक्ति सहित नंदीश्वर, करे जिननक्ति उदार ॥ निय निय कप्प गया सवि निर्जीर, कहेतां प्रजु गुणसार ॥ दीदा केवल ज्ञान कल्याणक, श्वा चित्त मकार ॥६॥ खरतरगड जिन आणारंगी, राजसागर उवद्याय ॥ ज्ञान धर्म दीपचंद सुपाठक, सुगुरु तणे सुपसाय ॥ देवचंछ जिननक्ते गायो, जन्ममहोत्सव बंद ॥ बोध बीज अंकुरो जलस्यो, संघ सकल आनंद ॥७॥ ॥ कलश ॥ राग वेलावल ॥ ॥एम पूजा जक्ते करो, बातम हित काज ॥तजीय विजाव निज जावमें, रमता शिवराज ॥ एम० ॥१॥ काल अनंते जे हुथा, होशे जेह जिणंद ॥संपय सीमंधर प्रनु, केवलनाण दिणंद ॥एम०॥२॥जन्ममहोत्सव एणी परे, श्रावक रुचिवंत ॥ विरचे जिनप्रतिमा तणो, अनुमोदन खंत ॥ एम० ॥३॥ देवचंड जिन पूजना, करतां जवपार ॥ जिनपमिमा जिन सारखी, कही सूत्र मकार ॥ एम० ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥श्री सकलचंदजी उपाध्यायकृत सत्तरनेदी पूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥अरिहंत मुखकज वासिनी,जगवति नारति देवि॥ समरीय पूजाविधि नपुं, तुं मुज मुखपद से वि॥१॥ ॥ आर्या, गाथा ॥ ॥ एहवण विलेवण अंगे, चरकुजुश्रलं च वासपूश्रा ए ॥ पुप्फारोहणं माला, रोहणं तह वलयारोहणं ॥१॥ चुन्नारोहण जिण', गवाण (अयारोदणं) आहरणरोहणं चेव ॥ पुप्फगिह पुप्फपगरं, भारत्ती मंगलपश्चो ॥२॥ दीवो धूवरकेवा, नेवऊ सुह फलाण ढोवणयं ॥ गीयं नटं वां, पूया नेया श्मे सतर ॥३॥ ॥प्रथम न्दवणपूजा प्रारंनः॥ ॥ ढाल रत्नमालानी ॥ देशाखरागण गीयते ॥ ॥प्रथम पूरव दिशे, कृत शुचि स्नानको, दंत मुख शुधको धोती राजी ॥ कनक मणि मंमित, विशद गंधोदके, जरीय मणि कनकनी, कलशराजी ॥१॥ जिनपनवनं गतो, जगवदालोकीने, नमति तं प्रथम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सकलचंदजी उपान्चायकृत सत्तरनेदी पूजा. १५ तो, मार्जतीशं ॥ दिवि यथैद्रादिकस्तीर्थगंधोदके, स्नपयति श्रावको तिम जिनेशं ॥ २ ॥ ॥ गीत ॥ राग अडालो, मलार ॥ केदार मिश्रित ॥ ॥ जवि तुम देखो, अब तुम देखो, सत्तर नेद जिन नक्ति ॥ अंग उपंग कही जिन गणधर, कुगति हरी दे मुक्ति || जवि तुम० ॥ १ ॥ शुचि तनु धोती धरी गंगोदक, जरी मणि ( कनक ) नी कलशालि ॥ जिन दीवे नमी पूजी पखाली, दे निज पातक गाली ॥ जवि तुम० ॥ २ ॥ समकित शुद्ध करी दुःखहरणी, विरताविरति करणी ॥ योगीसर पण ध्याने समरी, जवसमुद्रकी तरणी ॥ जवि तुम० ॥ ३ ॥ देखावती नहीं कबहुं वैतरणी, कुमतिकुं रविजरणी ॥ सकल मुनी सरकुं शुभ लहरी, शिवमंदिर नीसरणी ॥ नवि तुम० ॥ ४ ॥ इति प्रथम न्हवणपूजा समाप्ता ॥ १ ॥ ॥ द्वितीय चंदन विलेपनपूजा प्रारंभः ॥ ॥ ढाल जयमलानी | रामग्रीरागेण गीयते ॥ ॥ बावना चंदना, सरस गोसीसमा, घसीय घन सारशुं कुंकुमा ए ॥ कनक मणि जाजनां, सुरनि रस पूर्वीयां, तिलक- नव करो अंगमां ए ॥ १ ॥ चरण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम जानु करे, अंस शिर जाल गले, कंठ हृदि उदर जिन, दीजीए ए ॥ देवना देवनुं, गात्र विलेपतां, हर प्रभु पुरित, कही लीजीए ए ॥ २ ॥ ॥ गीत ॥ राग टोमी अथवा वैरामी ॥ ॥ तिलक करो प्रभु नव अंगे, कुंकुम चंदन घसी शुचि घनसार ॥ प्रभु पगे जानु कर अंस शिर जाल, गल कंठ हृदि उदरे चार ॥ अहो जाल गल कंठ हृदि उदरे चार, स्वयं पूजाकार ॥ तिलक० ॥ १॥ करीय यक्ष कर्दम अगर चुd मर्दन, लेपो मेरे जगगुरु गात ॥ हरि जिम मेरुपर रुषनकी पूजा करी, देखावती कौतुक र्डर और जाति ॥ तिलक० ॥ २ ॥ हमे तुम तन लींप्यो, तोजी नाव नांही टीप्यो, देखो प्रजुविलेपन की बात ॥ हरीयो हम ताप, ए डूजी पूजा विलेपनकी, दरो डुरितकुं शुचि कीनो गात ॥ तिलक० ॥ ३ ॥ इति द्वितीय चंदन विलेपनपूजा समाप्ता ॥ २ ॥ ॥ तृतीय चक्षुयुगलपूजा प्रारंभः ॥ || रामग्रीरागेण गीयते ॥ ॥ तिमिर संकोचनां, रयणनां लोचनां, एम कही जिन मुखे विक थाप ॥ केवलज्ञान ने केवलदर्शन, लोचन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसकलचंदजी उपाध्यायकृत सत्तरनेदी पूजा. १७ दोय हम, देव श्रापो॥१॥ अहव पाठंतरे त्रीजीय पूजामा, जुवन वैरोचन जिनप आगे॥देव चीवर समुं वस्त्र युग पूजतां, सकल सुख स्वामीनी,लील मागे॥२॥ ॥ गीत ॥ राग अधरस ॥ ॥ रयण नयण करी दोय ले के, मेरे प्रमुख दीजे ॥ केवलज्ञान ने केवलदर्शन, हम पर कृपा कर प्रसाद कीजे ॥रयण ॥९॥ देवष्य सम वस्त्र जोक अहवा, त्रीजी पूजा कीजे ॥ उपशम रस नरी नयण कटोरडे, देखी देखी प्रमुख दीजे ॥ रयण ॥२॥इति तृतीय चनुयुगलपूजा, तथा वस्त्रयुगल देवष्य वस्त्र, अंगलहणां बे पूजा समाता ॥ ॥ चतुर्थ वासपूजा प्रारंजः ॥ ॥रामग्रीरागण गीयते ॥ ॥नंदन वन तणां, बावना चंदनां, वासविधि चूरण विरचीयां ए॥ जा मंदारशें, शुद्ध घनसारशु, सुरनि सम कुसुमशु, चरचीयां ए॥ १ ॥ चनश्रीय पूजमां, सुगंध वासे करी, जे जिन सुरपते, अरचीया ए॥प्रनु तणे अंग, मनरंग नरी पूजतां, श्राज उच्चाट सवि, खरचीया ए॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥गीत ॥ राग रामग्री ॥ ॥सूनो जिनराज, तव महनं ॥ ए श्रांकणी ॥ इंसादिक परे किम हम होवत,तोजी तुम सब सहनं ॥सूनो॥१॥ सत्तर नेदे सुपदरायकी, कुमरी पूजती अंगे ॥जेम सूरियान सुरादिक प्रजुने, पूजत नवि मनरंगे ॥ सूनो॥२॥ विविध सुगंधित चूरणवासं, मुंचति अंग उवंगे॥ चनथीय पूज करत मन जानत, मिलावतीया सुख संगे ॥ सूनो॥३॥इति चतुर्थ सुगंधवासपूजा समाप्ता ॥४॥ ॥ पंचम पुष्पपूजा प्रारंजः ॥ ॥ श्राशावरीरागण गीयते ॥ ॥मोगर लाल गुलाब मालती,चंपक केतकी वेली॥ कुंद प्रियंगु नागवर जाति, बोल सिरी शुचि मेली ॥ मो॥१॥ नूमंमल जल मोकले फूले, ते पण शुद्ध अखंडे ॥ जिनपदपंकज जेम हरि पूजे, तेणी पेरे जवि तुं मंडे ॥ मो० ॥२॥ ॥ गीत ॥राग नृत्यकी आशावरी नट तथा श्रीराग॥ पारग तेरे पदपंकज पर,विविध कुसुम सोहे, हारे विविध कुसुम सोहे॥र देवनकुंआक धतुरे,तुज समो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसकलचंदजी उपाध्यायकृत सत्तरनेदी पूजा. Vए नहीं कोहे॥पारग०॥१॥ विविध कुसुमजातिशुंजब, पंचमी पूजा पूजे॥तब नविजनके रोग शोग, सवि उपअव ध्रुजे॥पारग०॥॥इति पंचम पुष्पपूजा समाप्ता॥ ॥षष्ठ पुष्पमालपूजा प्रारंनः॥ ॥ देशाखरागण गीयते ॥ ॥चंपकाशोग पुन्नाग वर मोगरा, केतकी मालती महमहंती ॥ नाग प्रियंगु शुचि कमल सुबोल सिरी, वेलि वासंतिका दमन जाति ॥१॥ कुंद मचकुंद नवमालिका वालको, पामल कोमल कुसुम गुंथी॥ सुरनिवर दाम जिनकंठे बेठी वदे, चमर मुख हुँ तुम्हे सुखी मुंथी ॥२॥ ॥ गीत ॥ राग सबाब ॥ ॥ कंपीछे दाम दी प्रनु हमेरे पाप नीठे,ज्युं शशी देखत जाय तन ताप ॥ पंचवर्णी सब कुसुमकी कंठ वी, गगने सोहती जेसे सुरपतिचाप ॥ कंठ ॥१॥ लाल चंप गुलालवेली, जाई मोगर दमन नेली ॥ गुंथी विविध कुसुम सब जाति, ही माल चडे दिशि वासती ॥ तव सुरवधू परे नरवधू गाती ॥ कंठ॥॥इति षष्ठ पुष्पमालपूजा समाप्ता ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ सप्तम कुसुमच्यांगीरचनारूप पूजा प्रारंभः ॥ ॥ गोमीरागेण गीयते ॥ ॥सातमी पूजामां वरणक फूलशुं जवि करे ए॥ चंपक दमणलो मरुन जासुलशुं चितरे ए ॥ श्रांगीय केतकी विच विच शोजती देखीए ए ॥ श्रगीय मिष शिवनारीने कागल लेखीए ए ॥ १ ॥ ॥ गीत ॥ राग मालवी ॥ गोमी ॥ ॥ कुसुम जाति श्रांगी मनखंते, पंच वर्णनी जाते रे ॥ मांदे विविध कथीपा जाते रे ॥ सूरियाजादि करे जिन पूजा, सकल सुरासुर गाते रे ॥ कुसुम० ॥ १ ॥ चंपकशुं दमणो मनरमणो, संजाराग ज्युं श्यामा रे ॥ पंच वर्ण यांगी प्रभु अंगे, रचयति ज्युं सुररामा रे ॥ कूषन कूट चक्की नामा रे ॥ कुसुम० ॥ २ ॥ इति पंच वर्ण कुसुमजातियांगीरचनारूप सप्तम पूजा समाप्ता ॥ ७ ॥ हमणां पण ते संप्रदाये विविध जातिनां फूलनी यांगी करता देखाय बे ॥ ॥ अष्टम चूर्णपूजा प्रारंभः ॥ ॥ केदार, कमोद, कल्याणरागेण गीयते ॥ दोहा ॥ ॥घनसारादिक चूरणं, मनहर पावन गंध ॥ जिनपति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसकलचंदजी उपाध्यायकृत सत्तरनेदी पूजा. ३१ अंग सुपूजतां, जिनपद नविकरे बंध ॥१॥अगर चूठ अति मर्दीयो, हिमवानुका समेत ॥ दश दिशि गंधे वासतां, पूजो जिनपद हेत ॥२॥ ॥ गीत ॥ राग कानडो॥ ॥चूरोरी माई जिनवर अंग सार कपूरे ॥ सब सुख पूरण चूरण चर्चित, तनु जरी श्राणंद पूरे ॥ चूरोरी० ॥१॥पावन गधित चूरण नरशु, मुंचात अंग जवंगे। आग्मी पूज करत तिम नविजन, मिलावतीया सुख संगे ॥ चूरोरी० ॥२॥ इति अष्टम चूर्णपूजा समाप्ता ॥७॥ यद्यपि वासपूजा पहेली पण डे, परंतु ते वास चंदननोज जाणवो, अने था चूर्णपूजा ते वास विना बीजा सुगंधव्य कर्पूरादिकनी ने ॥ ॥ नवम ध्वजपूजा प्रारंनः॥ ॥ गोडी राग, वस्तु बंद, जाफरताबेन गीयते ॥ ॥देव निर्मित देव निर्मित, गगने अति उतुंग॥धर्मध्व. जा जन मनहरण, कनक दंगत सहस्स जोयण, रणऊणंत किंकिणी निकर ॥ लघुपताकयुत, नयननूषण, जेम जिन आगल सुर वहे॥तेम निज धन अनुसार, नवमी पूजा ध्वज तणी, कहे प्रनु तुं हम तार ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ गीत ॥ राग गोमी नट ॥ ॥माई सहस्स जोयण दंम उंचो,जिनको ध्वज राजे॥ लघुपताक किंकिणीजुत, पवन प्रेरित वाजे ॥ माई ॥१॥सुर नर मनमोहन सोहन,जेम सुरध्वज कीनो॥ तेम नवि ध्वजपूजा करतां, नरजवफल लीनो ॥ माई० ॥२॥ इति नवम ध्वजपूजा समाता ॥१॥ ॥ दशम आनूषणपूजा प्रारंजः॥ ॥ गोमी धवलरागण गीमते ॥ ॥लालवर हीरमा,पांच पीरोजमा, विधि जड्या ए॥ मोतीय नीलुश्रा, लसणीया नूषणा, तिहां चड्यां ए॥ काने रविमंडल, सम जिन कुंडल, दीजीए ए॥अंगद रयणनो, मुकुट कंगवलि, कीजीए ए ॥१॥ ॥ गीत ॥ राग गोडी त्रिताल ॥ ॥ मुकुट दीयो कनक घड्यो, रयणजड्यो जिनवरशीश ॥ उर वर हार रचित कहे नूषण,दूषण हर जगदीश ॥ मुकुट ॥१॥ लालडे खरे हीरे, पांच मोतीयन रयणजडे दो कुंमल ॥ अंगद जमित सिंहासन चामर, दी पद ली श्राखंमल ॥ मुकुट ॥ ॥२॥ इति दशम आनूषणपूजा समाता ॥ १० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सकलचंदजी उपाध्यायकृत सत्तरनेदी पूजा. ३३ ॥ एकादश कुसुमगृदपूजा प्रारंभः ॥ ॥ केदारगोमीरागेण गीयते ॥ ॥ विविध कुसुमे रच्युं, विश्वकर्मा सच्युं, कुसुमगेहं ॥ रुचिर सम जागशुं, सुरविमाना जिस्युं, रयणरेहं ॥ १ ॥ तोरणजालशुं, कुसुमनी मालशुं, शोनतुं ए ॥ गुछ चंद्रोदय, कुमखावृंद जे, थोजतुं ए ॥ २ ॥ ॥ गीत || राग केदारो || अने बिहाग || ॥ मेरो मन रम्यो जिनवर कुसुमघरे, दांरे कुसुमघरे || मेरो० ॥ विविध जुगति वर कुसुमकी जाति जाति, जेसी अमरघरे ॥ मेरो० ॥ १ ॥ कुसुम कुमख चंद्रोदय तोरण, जालिक मंगप जाग ॥ एकाद शमी पूजा करतां, अविचल पद जवि माग | मेरो० ॥ २ ॥ इति एकादश कुसुमगृहपूजा समाप्ता ॥ ॥ द्वादश कुसुममेघपूजा प्रारंभः ॥ ॥ मल्लाररागेण गीयते ॥ ॥ पंच वर वरनो, विबुध जेम कुसुमनो, मेघ बरसे ॥ चमर चमरी तणां युगल रसियां फरे, त्रिजग दरषे ॥ १ ॥ पगर वर फूलना, पंचवर्णो करी, सुकृत तरशे ॥ बा - रमी पूजमां, हर्ष तेम जेम मले, कनक परसे ॥२॥ वि० ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ गीत ॥ राग मेघमल्लार ॥ ॥ मेहुला ज्युं मली वरसे, करो फूलपगर दर्षे ॥ मेहु० ॥ पंच वर्ण जानुमाने, समवसरण जेम सुर मली, तेम करे श्रावक लोक, द्वादशमी एम जिन पूजतां, जन मन मुद परसे ॥ मेहु० ॥ १ ॥ जमरपें कहावती उमते, जानु अधो वृंद पडते, ताप अधोगति नांहिं, जो हम पर प्रभु यागल पडे ॥ हम परे तस नहीं पीमा, कुसुमपूंज कहे सुख लहे, दिन दिन जरा चढते || मेहु० ॥ २ ॥ इति द्वादश कुसुममेघपूजा समाप्ता ॥ ॥ त्रयोदश अष्टमांगलिकपूजा प्रारंभः ॥ ॥ वसंतरागेण गीयते ॥ ३४ ॥ रयणहीरा जिशां, शालि वर तंडुला, वर फल्या ए ॥ स्वस्तिक दर्पण, कुंन जद्रासन, शुं मल्या ए ॥ नंदयावर्त्तक, चारु श्रीवत्सक, वर्द्धमानं ॥ मत्स्ययुगलं लिखी, अष्ट मंगल अखे, शोजमानं ॥ १ ॥ ॥ गीत ॥ राग वसंत ॥ ॥ जिनप आगल विरचो जवि लोइ, जसु दर्शन शुन होइ, ज्युं रे देख सब कोइ ॥ जिन० ॥ अतुल तंडुल करी, अष्ट मंगलावली, तेम करो जेम तुम घरे फरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसकलचंदजी उपाध्यायकृत सत्तरनेदी पूजा. ३५ हो॥ जिन॥१॥स्वस्तिक श्रीवत्स, कुंन नासन, नंदावर्तक, वर्षमानं ॥ मत्सयुग दर्पण, तेम वर फलगण, तेरमी पूजा सब, कुशल निधानं ॥जिन॥ २॥इति त्रयोदश अष्टमांगलिक पूजा समाता ॥ ॥ चतुर्दश धूपदीपकपूजा प्रारंजः ॥ ॥ मालवी गोमीरागण गीयते ॥ ॥ कृष्णागरु तणुं,चूरण करी घj, शुरू घनसारशु, नेलीयुं ए॥ कुंदरु कोतुर, कासुकस्तूरिका, अंबर तगरगुं, मेलीयुं ए॥१॥रयण कंचन तणुं, धूपधाएं घj, प्रगट प्रदीप, शोनतु ए॥ दश दिशे महमहे, अगर उखेवतां, चउदमी पूजा रज, दोनतुंए ॥२॥ ॥ गीत ॥ राग कल्याण ॥ ॥ धूपी धूमावली, जिनमुख दाहिणावर्त करती देवगति सूचती चाली ॥धूपी० ॥ कृष्णागरु अंबर मृगमदशें, नेली तेम धनसारो ॥धूप प्रदीप दशांग करंता, चौदमी पूजा नवि तारो ॥ धूपी० ॥१॥ - पंचदश गीतपूजा प्रारंजः ॥ ॥ त्रीवेणी, गोमी राग, गाथा बंधेन गीयते ॥ ॥गगननुं नहीं जेम मानं, तेम अनंत फल जिनगुण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. गानं॥ तान मान लयशंकरी गीतं, सुख दीये जेम अमृतपीतं ॥१॥ वीण वंश तल ताल उवंगे, सुरति राखी वरतंति मृदंगे ॥ जयत मान पमतालिक तालो, थायत धरीने पातक गालो ॥२॥ ॥ गीत ॥ श्रीराग ॥ ॥तुं शुज पार नहीं सुयणो,मानातीत यथा गयणो ॥तुं०॥तान मान लयशुं जिनगीतं, कुरित हरे जेम रज पवणो॥ तुं०॥ १॥ वंश उपंग ताल सिरिमंडल, चंग मृदंग तंति वीणो ॥ वाजती तान मान करी गीतं, पीतामृत परे कर लीनो ॥ तुं०॥२॥ गावती सुर गायन जेम मधुरं, तेम जिनगुणगण मणिरयणो ॥ सकल सुरासुर मोदन तुं जिन, गीत कह्यो हम तुम नयणो॥तुं०॥३॥इति पंचदश गीतपूजा समाप्ता ॥ ॥ षोडश नृत्यपूजा प्रारंजः॥ ॥ सोरठ मधुमादन रागण गीयते ॥ सरस वय वेष मुखरूप कुच शोजती, विविध नूषांगिनी सुरकुमारी॥ एक शत आठ सुर कुमर कुमरी तिहां, विविध वीणादि वा जित्रधारी ॥सरस ॥१॥ अनिनव हस्तकी हाव नावे करी, विविध जुगते बहु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसकलचंदजीउपाध्यायकृत सत्तरनेदी पूजा. ३७ नाचकारी ॥ देवना देवने देवरा जि यथा, करती नृत्यं तथा नूमिचारी ॥ सरस० ॥२॥ ॥ गीत ॥ राग शुद्ध नट्ट ॥ ॥एक शत थारा नाचे, देव कुमर कुमरी, दों दों दों मुरज गुजती, नाचती दक्ष जमरी ॥ एक०॥१॥ घन कुचयुग हारराजि, कसी कंचूकी बंधी॥सोलस सिंगार शोजित, वेणी कुसुमगंधी ॥एक० ॥॥ नट कटिकट झ उक, विच पट्टि ताल वाजे॥ देखावती जिन हस्तकी, नृत्यकी नवि लाजे ॥ एकम् ॥३॥ तिन तिनाति तंति वाजे, रणकुणंति वीणा ॥ तांडव जेम सुर करंत, तेम करो नवि लीणा ॥ एक०॥४॥ ॥ सप्तदश सर्ववाद्यपूजा प्रारंनः॥ ॥ सामेरी रागेण गीयते ॥ ॥समवसरण जेम वाजां वाजे, देवउंमुनि अंबर गाजे, ढोल निशान विशाल ॥ मुंगल जबरी पणव नफेरी, कंसाला पुमबमी वर नेरी, शरणाई रणकार ॥ १॥ मुरज वंश सुरती नवि मूके, सत्तरमी नवि पूज न चूके, वीणा वंश कहे जिन जीवो, आरती तेम मंगलपश्वो ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ गीत ॥ राग गुर्जरी ॥ ॥घणुं जीव तुं जीव जिनराज जीवो घं॥ शंख शरपाई वाजित्र बोले ॥ महुअरी परि परि देवकी डुडुनि, हे नहीं जिन तो कोइ तोले ॥ घणुं० ॥ १ ॥ ढोल निशान कंसाल तल तालशुं, जल्लरी पणव जेरी नफेरी ॥ वाजतां देव वाजित्र जाणे कहे, सकल जविको प्रजो जव न फेरी ॥ घं० ॥ २ ॥ एषी परे जविक वाजित्र पूजा करी, कहे मुखे तुं प्रभु त्रिजग दीवो ॥ इंद्र परे केम अमे जिनपपूजा करूं, खारती साखि मंगलपईवो ॥ घणुं ॥ ३ ॥ इति सप्तदश सर्ववाद्यपूजा समाप्ता ॥ ॥ कलश ॥ ॥ धन्याश्रीरागेण गीयते ॥ ॥थुषीयो थुपी यो रे प्रभु तुं सुरपति जेम थुषीयो ॥ तीन जुवन मनमोहन लोचन, परम हर्ष तब जणी यो रे ॥ प्र० ॥ १ ॥ एक शत आठ कवित नित्य अनुपम, गुणमणि गुंथी गुणीयो ॥ जविक जीव तुम थय थुई करतां, डुरित मिथ्यामति खणी यो रे ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ तपग बर दिनकर सरिखो, विजयदान गुरु मुणियो || जिनगुण संघ जगति करी पसरी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ३८ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमेघराजमुनिकृत सत्तरनेदी पूजा. ३ कुमति तिमिर सब हणीयो रे ॥ प्रजु० ॥३॥ एणी परे सत्तर नेद पूजा विधि, श्रावककुं जिन जणीयो॥ सकल मुनीश्वर काउस्सग्गध्याने, चिंतवित तस फल चुणीयो रे ॥प्रजु०॥४॥ इति कलशः ॥ ॥इति श्री सकलचंदजी उपाध्यायकृत सत्तरनेदी पूजा समाप्ता ॥ ॥ अथ श्रीमेघराजमुनिकृत सत्तरनेदी पूजा प्रारंनः॥ ॥अनुष्टुपवृत्तम् ॥ सर्वशं जिनमानम्य, नत्वा सशुरुमुत्तमं ॥ कुर्वे पूजाविधि सम्यक्,नव्यानां सुखदेतवे॥१॥ ॥ दोहा ॥ ॥दी गोयम गणहरु,समरी सरसती एक ॥ कवियण वर आपे सदा, वारे विघ्न अनेक ॥१॥ पूजा करतां जिन तणी,श्रावक कहे सुवचन ॥ते हुं नणीश विधि करी, सांजलजो एक मन्न ॥२॥ न्हवण विलेपन वस्त्रयुग, वास फूल शुन माल ॥ वरणह चूरण ध्वज नलो, बहु थालरण विशाल ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. फूलों केरे घर पगर, मंगल धूप अपार | गीत नृत्य वाजित्र ए, सत्तर हवे विस्तार ॥ ४ ॥ ॥ अथ प्रथम दवणपूजा प्रारंभः ॥ ॥ ढाल पदेखी देमनी ॥ राग विनास ॥ ॥ प्रथम जिननायक, नौमि सुखदायकं, कृतशुचि पूर्वदिशि, सकलदेहं ॥ धोती तनु श्रावरी, एकचित्त मन करी, पश्यति दर्शनं, पुण्य गेहं ॥ सिंधुगंगादिनिस्तीर्थ गंधोदकै-र्जरितमणिकनकमय, कलशयाली ॥ जविक श्रावक मली, नाहवो परि जली, संशय मन तथा वेग टाली ॥ १ ॥ ॥ गीत राग नट्ट मल्हार ॥ ॥ जिनकी इस विधि पूजा कीजे ॥ सुंदर धर्म नही विका जन, माजनम फल लीजे ॥ मेरे जिनकी इस विधि पूजा कीजे ॥ १ ॥ निर्मल अंग करी अति उज्ज्वल, अंबर ते पहरीजे ॥ अतिहि सुगंध सुरनि द्रव्यवासित, कंचन कलश नरीजे ॥ मेरे जिनकी ० ॥ २ ॥ करी मुखकोश मोरपिठ पूंजी, पहेली पूजा रचीजे ॥ कदे घन वचन लबित मनोहर, नानि मल्हार न्हवीजे ॥ मेरे जिनकी० ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमेघरजामुनिकृत सत्तरन्नेदी पूजा. १ ॥ काव्यं ॥ उजवज्राटत्तम् ॥ ॥ शचीपतिः सप्तदशप्रकारै- त्यामरैस्संघटितोपहारैः॥ वर्गांगनासुक्रमगायिनीषु, पूजांप्रनोः पार्श्वजिनस्य चक्रे॥१॥पुरंदरःपूरितहेमकुंनै-रदंजमंजोनिरलं सुगंधैः॥ साकं सुरौधैर्मघवा च सम्यक्,पूजां जिनेंदोःप्रथमांचकार ॥२॥इति न्हवणपूजा प्रथमा॥१॥ ॥ अथ द्वितीय विलेपनपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ केसर चंदन घसी घणां, मेलवी मांहे बरास॥ नव अंगे जिन पूजतां, नव निधि श्रातम पास ॥१॥ जिनप्रतिमाने विलेपतां, शीतल थाये श्राप ॥क्रोध दावानल उपशमे, जाये जवसंताप ॥२॥ ॥ राग रामग्री ॥ तथा श्राशावरी ॥ ॥कुंकुमसंयुतं,घसीय वरचंदनं,सरसघनसारगुं,मांहे मेली ॥ कंचन मणि तणां, जरीय बहु नाजनां, अगर रस कुमकुमा, तेह नेली ॥ पूजी नव अंगमां, चरण जानू करे, अंश हृदि बाहु बेहु अपार ॥ कंठ ललाट शिर, विवेपतां रंगजर,पामीए लव तणो एम पार ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ गीत राग देशाख ॥ ॥ करुं हुं पूजा जिनवर केरी, यागमवचन सुण्यां में ताये, प्रगट जइ मति मेरी ॥ करुं हुं पूजा० ॥ १ ॥ केसर चंदन जरीय कचोली, अरचुं युक्ति घलेरी ॥ मणुश्रजन्मको लाहो लीजे, जक्ति करुं श्रधिकेरी ॥ करुं हुं पूजा० ॥ २ ॥ अंजलि जोरी मोरी तनु अपनो, वात कहुं जुं जलेरी ॥ देइ शाख शालय सुख केरी, मुक्ति मंदिरकी शेरी ॥ करुं हुं पूजा० ॥ ३ ॥ ॥ काव्यं ॥ उपेंद्रवज्रावृत्तम् ॥ ४२ ॥ अंगं प्रमृज्यांगसुगंधगंध - काषायिकेनैषपटेन चंद्रः ॥ विलेपनैश्चंदनकेसराद्यैः, पूजां जिनेंदोरकरोत् द्वितीयां ॥ १ ॥ इति विलेपनपूजा द्वितीया ॥ २ ॥ ॥ अथ तृतीय वस्त्रयुगल पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ त्रीजी पूजा जिन तणी, वस्त्रयुगलनी होय ॥ नयनयुगल पण को कहे, परमार्थे एक जोय ॥ १ ॥ अंशुयुग्म अंशे ग्वी, जावो जावन एम ॥ निश्चय धर्मव्यवहार वृष, आदरशुं बहु प्रेम ॥ २ ॥ अथवा ज्ञान क्रिया करी, अंगीकरशुं धर्म ॥ असंख्य प्रदेशी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमेघराजमुनिकृत सत्तरत्नेदी पूजा. ४३ श्रातमा, निर्मल करवा मर्म ॥३॥ स्वपर विवेचन दृष्टिवर, प्रगटे एश्री नित्य ॥ अथवा दायिक दयोपशम, सम्यक दृष्टि मित्त ॥४॥ वस्त्रयुगलनी पूजना, सूरियान सुरवरे कीध ॥ त्रीजी पूजा करीयने, रत्नत्रय वर लीध ॥५॥ ॥राग देशाख ॥ ॥सुरनिअव्यवासितं,वस्त्रयुगमुज्ज्वलं,प्रजुतणे मस्तके मूकीए एनक्ति एणी परे करूं, शुद्ध समकित धरूं, पूजतां ध्यान नवि चूकीए ए॥नव तणी श्रेणिनां,कर्मपातक घणां,देखतां पाप सवि बूटीए ए॥दर्शन जिनरस, नयणनाले करी, अमृत सम रस चूंटीए ए ॥१॥ ॥ गीत ॥ राग भैरव ॥ ॥पूजाकरणं जव्याजरणं, स्यादपि नवनयहरणं ॥ पूजा ॥ कनकतंतुविराजितममलं, सौरनिगंधमुदारं ॥ नैरवकर्म विदारणशीलं, सुरनरजगदाधारं ॥ पूजा ॥१॥ अंबरयुगलं मस्तकधरितं, हे जिन शोनितदेहं ॥ ननसि यथा त्रिदशाधिपधनुषं, राजति तव तनुगेहं ॥ पूजाण ॥२॥ निजचेतसि यदि वांबसि सौख्यं, नवमकराकरपारं ॥ वंदति मेघमुनिर्जिनपूजां, तृतीयां कुरु जवसारं ॥ पूजा॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ काव्यं ॥ नपेंद्रवज्ञावृत्तम् ॥ ॥ च्युतं शशांकस्य मरीचि जिः किं, दिव्यांशुक इमती व चारु ॥ युक्त्या निवेश्यो जयपार्श्वमिंद्र:, पूजां जिनेंदोरकरो तृतीयां ॥ १॥ इति वस्त्रयुगलपूजा तृतीया ॥३॥ ॥ अथ चतुर्थ वासपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ सम्यक् ज्ञानादिक गुणे, वासित थाये आप ॥ करतां पूजा वासनी, जाये सर्व संताप ॥ १ ॥ कुमति जवासा शोषवे, टाले मिथ्या पास । शिवपुरमां वासो वसे, जो जिन पूजे वास ॥ २ ॥ शुद्धतमनी वासना, जासन जास्कर ज्योत ॥ अरिहंत वास उपासना, जवजल तारण पोत ॥ ३ ॥ राधे अनुशासना, वाधे जग यश वास ॥ साधे मारग मोनो, वासे अर्चेपास ॥ ४ ॥ ॥ राग केदारो ॥ ॥ सुरनि वस्तु सवि मेली, कुंकुम केसर नेली, कुसुमे वासित ए, रंगे राजित ए, वासे पूजो अंग, पामो शिवसुख रंग, जिनवरने नमो ए, जैम जग नवि जमो ए ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमेघराजमुनिकृत सत्तरनेदी पूजा. ४५ ॥ गीत ॥ राग मालवी गोमी ॥ ॥वीतराग नावे करी पूजिला,आपणी आपे पदवी॥ सेवीए कहा होत हे तिनकुं,निज सरखे न करे पुहवी ॥वीत ॥१॥ नौतन चारु फूल बहु वासित, पूजा जिनवर वासे ॥ चंदन पन्नग पास नीलकंठ, बोलतहि त्युं करम नासे॥वीत॥२॥चोथी पूजा तारक केरी, कीजे मालवी रागे ॥ जवनां अनेक कर्म नूरि संचित, टलत पाप वार न जागे ॥ वीत ॥३॥ ॥ काव्यं ॥ वज्राटत्तम् ॥ ॥ कर्पूरसौरन्यविलासिवासैः, श्रीखंमवासैः किल वासवोऽथ ॥ विनासुरश्रीजिननास्करेंदोः,पूजां जिनेंदोरकरोच्चतुर्थीम् ॥१॥ इति वासपूजा चतुर्थी ॥४॥ ॥ अथ पंचम बूटां फूलनी पूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा॥ ॥पंचमी पूजा फूलनी, बूटां कुसुम समूह ॥पूजो श्री अरिहंतजी, प्रगटे चित्त गुणव्यूह ॥१॥ पंच बाण पीडे नहीं, जे करे पंचमी पूज ॥ रत्नत्रयने ते वरे, मोह विबूटे ध्रुज ॥२॥ काल अनादिनी जीवने, लागी जम उर्गधि ॥ ते टाले ए पूजना, धारे ज्ञान Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. सुगंधि॥३॥वारे मिथ्यावासना, चूरे पुजल व्याधि ॥ पूरे वांबित कामना, थाये पूर्ण समाधि ॥४॥ चेतनता निर्मल हुए, पामे केवलज्ञान ॥ यश सुवास जग विस्तरे, लहे निर्वाण सुथान ॥५॥ ॥ काव्यं ॥ शार्दूलविक्रीमितत्तम् ॥ ॥गंधाढ्यैः कुसुमैर्नवैस्तु विरलैः पूजां करोति प्रनो;, नक्त्या योऽपि हरिप्रिया मिहनवे तस्य प्रसन्नो जवेत्॥ सौख्यं सर्वनवांतरेषु लनते सान्निध्यमास्थीयते, कुत्रान्यत्र सुधां विहाय गरलं पातुं क श्वेन्नरः॥ १॥ ॥ गीत ॥ राग वेलावल ॥ ॥मोकले कुसुमे करी,अरचा स्वामीनी ॥ मिथ्यात्व शिरसि, उस्सहदामिनी ॥ मोकले ॥ १॥ जगगुरु तव पूजा नविकने, मोहन कामिनी ॥ अनिनवा कुमतिने, चकवाकुल यामिनी ॥ मोकले॥२॥नरक दरद प्राचीन बहु, आवत थांनिनी ॥ पूजा पंचमी जविकने, वेलावल दायिनी ॥ मोकले ॥३॥ ॥ काव्यं ॥ नवजाटत्तम् ॥ ॥ मंदारकरूपमपारिजात-जातैरविवातकृतानु. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमेघराजमुनिकृत सत्तरनेदी पूजा. ४७ पातैः॥ पुष्पैः प्रनोरग्रथितैनवांगं, पूजां वितेने किल पंचमी सः॥ १॥ इति बूटां फूलनी पूजा पंचमी ॥ ॥ अथ षष्ठ पुष्पमालपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ही पूजा स्वामीनी, पुष्पमालनी होय ॥ शिववधू वरमाला ठवे, जेह करे नवि लोय ॥१॥ सुरनियुक्त वर कुसुम लश, करे मनोहर माल ॥ प्रजुकंठे ग्वी नावीए, झानादिक गुणमाल ॥२॥ ॥राग देशाख ॥ ॥चंपक केतकी,नागवर मालती,मोगराशोक पुन्नाग जाति ॥ कुंद पामल ग्रही, जाई जूई सही, गुंथीए सुंदर, नक्तिराती॥सकल मन रंजती, उमरगुण गुजती,वासती दह दिशि,अतिरसाली॥ सौरन रस नरी, विविध कुसुमे करी,मस्तक पग लगे,अति विशाली॥१॥ ॥ गीत ॥ राग गुंम ॥ ॥सेवंत्री वर जूई विजल सिरि, मालती सरस गुलाल रे॥केतकी चंपक पामल दमणो, गुंथी तिनकी माल रे॥१॥ दाम करीने कंठे वीए, करीए मन आणंद रे॥ परिमल केसर चमर गुंजत हे, मोहे सुरनरवृंद रे ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. दाम० ॥२॥ बडी पूजा तारक केरी, कीजे रागे गुंरु रे ॥ शुद्ध जाव घरी पूजत जिनवर, बूटत कर्म प्रचंग रे | दा०३ ॥ काव्यं ॥ उपेंद्रवज्ञावृत्तम् ॥ ॥ तैरेव पुष्पैर्विरचय्य मालां, सौरभ्यलोन मिभृंगमालां ॥ श्रारोपयन्नाकपतिर्जिनांगे, पूजां पटिष्ठीं कुरुते स्म षष्ठीं ॥ १ ॥ इति पुष्पमालपूजा षष्ठी ॥ ६॥ ॥ अथ सप्तम पंचवर्णफूलपूजा प्रारंभः ॥ ॥ पंच वर्णनां फूलनी, पूजा सातमी एड् ॥ पंचम ज्ञान प्रकाशपर, करे प्रमादनो बेह ॥ १ ॥ ए पूजा करतां थका, जावो जावना एम ॥ वर्णादिक गुण रहित तुं, अलख अवर्णी खेम ॥ २ ॥ वर्णादिक पुजलदशा, तेशुं तुज नहीं मेल ॥ तुं रत्नत्रयमयी सदा, जिन्न यथा जल तेल ॥ ३ ॥ चिदानंदघन श्रातमा, पूर्णानंद रूप ॥ शुद्धतम सत्तारसी, दर्शन ज्ञान स्वरूप ॥ ४ ॥ ॥ राग सामेरी ॥ ॥करूं पूजा करूं पूजा, नमो जिनराय, पंचवर्ण आंगी रचो, विविध रंग रंगेहिं जेलो, अति अनुपम चि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघराजमुनिकृत सत्तरनेदी पूजा. ४ त्राम करी उदय, सूर सम कांति मेलो, एणी परे जिनवर पूजतां, आपे शिवपदराज ॥ सातमी पूजा कीजीये, सीके सघलां काज ॥१॥ ॥ गीत ॥ राग कल्याण ॥ ॥ पूजो मनरंगे पूजो मनरंगे, पंच वर्ण केरी आंगी रचावो, नाखीये अंगे॥पूजो मनरंगे पूजो मनरंगे॥१॥ नव नव नाति अतिहि मनोहर, रंगे रंग जले ॥पद्मराग सम कांतिधरत तुं, जीवन आज मिले॥पूजो॥॥ लाल गुलाल फूल बिच शोन्ने, केतकी कुसुमधरे ॥ सातमी पूजा करीने मागुं, जिन कल्याण करे ॥पू०॥३॥ ॥ काव्यं ॥ नवज्राटत्तम् ॥ ॥मंदाकिनींदीवरपीवरश्री,-रक्तोत्पलैश्चंपकपाटलायैः ॥कुर्वन् विनोर्वणकवर्ण्यशोनां, पूजां प्रतेने किल सप्तमी सः॥१॥इति पंच वर्ण फूलनी पूजा सप्तमी ॥७॥ ॥ अथाष्टम चूर्णपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ अष्टमी पूजा कीजीये, लेश सुगंध बरास ॥ ए चूरणनी पूजना, करतां पूगे श्राश ॥१॥ ए पूजामां नावीये, आतम जावन एम ॥ चूरुं कर्माष्टक प्रते, वि०४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. धरी शुझातम प्रेम ॥२॥ अष्ट महा मद गालवा, टालवा आवे जीति ॥ श्रष्ट प्रवचन मातने, पालवा श्रधिकी प्रीति ॥३॥अम दिही अनुक्रमे वधे, लहे दायिक समकित ॥ आठमी पूजा जे करे, नाव धरी नवि नित ॥४॥ श्रझा जासन रमणता, पामे सहजानंद ॥॥ तत्त्व रमणतादिक बहु, प्रगटे निज गुणवृंद ॥ ५ ॥ जावघटा मेरी उण्हई, वरसे जिनपद श्रृंग ॥ घनसारह धारा करी, पूजो अरिहंत अंग ॥६॥ ॥ गीत ॥ राग सारंग ॥ ॥ वरसेजी मेरी जावघटा, जिनके चरणकमल गिरि नपर, चूर्ण सुगंध उटा ॥ वरसेजी ॥ धनसारादिक सरस मनोहर,कर ग्रही सुगंधपूटा॥दीनदयाल कृपालकुं पूजित, पुलकति अलक लटा॥वरसेजी ॥१॥ मागत हुँ हवे अष्टमी पूजा, तोरो मेरी कर्म जटा॥ मनसारंगे सेवक जंपे,अदर ए प्रगटावरसेजी॥२॥ ॥काव्यं ॥ नपेत्ववादृत्तम् ॥ ॥दनोलिपाणिः परिमर्य सद्यः, करिफालीबहुजक्तिशाली ॥ चूर्णं मुखे न्यस्य जिनस्य तूर्ण, चक्रेऽष्टमं पूजनमिष्टहेतुं ॥ १॥ इति चूर्णपूजाऽष्टमी ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघराजमुनिकृत सत्तरनेदी पूजा. ५१ ॥अथ नवमी ध्वजपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ नवमी पूजा ध्वज तणी, करतां शिवसुख होय॥ जिनचैत्योपरि बांधीये, महाध्वजा नवि लोय ॥१॥ ॥राग वेलावल परदो ॥ ॥धर्म ध्वजा लहके गगन, दंग सहित उत्तंग ॥ पवन ऊकोरी घूघरी, वाजे जिणहर शृंग ॥ १ ॥ ॥गीत ॥ ॥ मम ईश! तेरो ध्यान धरीये, हे जगदीश! पूजा नवमी करीये॥ मम ईश! तेरो ध्यान धरीये, हारे जगदीश! पूजा नवमी करीये॥एक सहस जोयण दंग उंचो, देव मोहीये॥ध्वजा गगन लेहेके रंग, नाना वर्ण सोहीये ॥हे मम॥हारे जग ॥१॥ घूघरीना घमकार सुनीये, पवनप्रेरी॥पंचरंग लागुं हीर घंटा, कनक केरी॥हे मम ॥ हारे जग ॥ २ ॥ हम तुम विच जिणंद अंतर,कर्म परदो।तुं करी कृपा जि. नराज ! वेगे, तेह मरदो॥हे मम॥हारे जग ॥३॥ ॥काव्यं नवज्राटत्तम् ॥ ॥पुलोमजामौलिनिवेशनेन, प्रदक्षिणीकृत्य जिना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम लयं तं ॥ महाध्वजं कीर्तिमिव प्रतत्य, पूजामकार्षीन्नवमीं विडौजाः ॥ १ ॥ इति ध्वजपूजा नवमी ॥ ॥ ॥ गीत ॥ राग नह नारायण ॥ ॥ इमे प्रभु दीजे हो वरदान, याचक जविक कहत हे तुमशुं ॥ जेम पामो जगमान ॥ हमे० ॥ १ ॥ पूजत जिनवर दानज देतां, जोवत हो क्युं पूंठि ॥ नव यनंद कनकगिरिसंचित, तेन गये जर मूवी ॥ हमे० ॥ २ ॥ रूप सुवर्ण नाण वर वास, वांबित फल दीयो खामी ॥ एही अवसर मत होय अदाता, सेवक कहे शिर नामी | हमे० ॥ ३ ॥ इति दानं ॥ ५ ॥ ॥ अथ दशम आमरणपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ दशमी पूजा देवनी, बहु श्रानरणनी होय ॥ अलंकार पहेरावी ये, जावन जावो सोय ॥ १ ॥ अनलंकारे सुजग ए, आत्मजाव अलंकार ॥ तोपण नक्तिउल्लासने, कारणे एड् विचार ॥ २ ॥ षणे भूषित स्वामीने, देखी हरखो जव्य ॥ जिनमुद्रा शुद्ध तत्त्वमी, वीतराग गुण सव्य ॥ ३ ॥ वीतरागना गुण वधे, देखी श्री जिनबिंब ॥ निज स्वरूप निज जावमां, For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघराजमुनिकृत सत्तरजेदी पूजा. ५३ वली होये प्रतिबिंब ॥४॥ पुजलनां नूषण तजे, ते परिचित बहु काल ॥झानादिक गुणरत्नना, पहेरे ते अलंकार ॥५॥ ॥ आर्या गीति ॥ ॥जूदेवग्रहशा, बाजरणै—षिता विदृश्यते॥हे जिन प्रजातसमये, उमुपतिबिंबं यथा नवति ॥ १ ॥ ॥ गीत ॥ राग केदारो ॥ ॥सबकुं सोहायो हो, मस्तके मुकुट नस्यो॥जाकी बी ज्योति लिप गए ग्रहगण, जैर विचे हो रयण नस्यो ॥ सबकुं०॥॥ तिलक ललाट श्रवण दोय कुंडल, सुघस्यो घाट घस्यो॥मोतिनको हार बांहे दोय अंगद, सब नूषण हो तार कस्यो ॥ सबकुं० ॥ २ ॥ दशमी पूजा करी केदारे, तिनको काज सस्यो ॥ बहु श्राजरण करी जिन दीपे, सेवकको हो छरित हस्यो ॥ सबकुं० ॥३॥ ॥ काव्यं ॥ नवजाटत्तम् ॥ ॥मुक्तावलीकुंमलबाहुरद,-कोटीरमुख्याजरणावलीनां॥प्रनोर्यथास्थाननिवेशनेन,पूजामकार्षीदशमी बिमौजाः ॥१॥इति श्राजरणपूजा दशमी ॥१०॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ अथ एकादश पुष्पगृदपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ फूल गेनी पूजना, एकादशमी होय ॥ कुसुमघरे प्रथापीने, हर्षे न वियण लोय ॥ १ ॥ फूलह केरे घर बिचे, सोहे श्री जिनराय ॥ जेम तारामां चंदलो, जोतां हर्ष न माय ॥ २ ॥ ॥ गीतं ॥ ॥ फूलघर बेठे जगत दयाल, जल थल कुसुम तपीरी परिमल, गुंजे मधुकर माल ॥ फूलघर बेठे जगत दयाल ॥ १ ॥ श्राबे कुसुम बनाये तोरण, तामें जातिघणी ॥ किनही सुजाण निपायो मंगप, जिनवर नक्ति जी ॥ फूलघर० ॥ २ ॥ कायकुं जाति केदारो गोडी, सुर नर जति जरी ॥ असंख्यगणुं फल अग्यारमी पूजा, करतां एक घरी ॥ फूलघर० ॥ ३ ॥ ॥ काव्यं ॥ उपेंद्रवज्रावृत्तम् ॥ ॥ पुष्पावली जिः परितो वितत्य, पुरंदरः पुष्पगृहं मनो ॥ पुष्पायुधाजेय जयेति जल्प, - न्नेकादशी मातनुते स्म पूजां ॥ १ ॥ इति पुष्पगृहपूजा एकादशी ॥ ११ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघराजमुनिकृत सत्तरनेदी पूजा. ५५ ॥ अथ द्वादश पुष्पपगरपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ बारमी पूजा प्रनु तणी, फूलपगरनी जाण ॥ फूलवृष्टि जिन श्रागले, विरचे नव्य सुजाण ॥१॥ ॥राग ॥ श्री॥ ॥अहो पंचरंगे नवि ! कुसुमनो पगर जरीए, रच। देवता अविरल तेम करीए ॥ तिहां अलि तपी श्रेणी गुंजे रमंती, मधुर ध्वनि रणजणे जेसी वेणुतंती ॥ क्षण विधि जिन तणी नक्ति कीजे, अचरिज देखी पुष्पपगर जरीए ॥१॥ ॥ गीत ॥राग पूर्वी ॥ ॥ सखी तुम देखन थारी, मेरे प्रजुकी सकलाई॥ सन्मुख पतंति कुसुम, मिलत नहीं कुमलाई ॥ सखी तुम॥नाहीं नाहीं ए अचरिज, जे सन्मुख थाई॥तब तव गोचर नक्त जनोके, बंधन अध जाई ॥सखी ॥१॥ तव मुख शशी विरह नावे, मिले तन दिलसाई॥ पूरथी चंद कुमुद विकसित, नेरेकी अधिकाई॥सखी० ॥२॥ सरस वदन वारि सिंचे, ते क्युं कुरमाई॥ पूजा छादशमी कही एही, कीजे चित्त लाई॥सखी ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ काव्यं ॥ नपेंद्रवज्रावृत्तम् ॥ - ॥ कराग्रमुक्तैः किल पंचवर्णै - रग्रंथपुष्पैः प्रकरं पुरोSस्य ॥ प्रपंचयन् वंचितकामवीरः, स द्वादशी मातनुते स्म पूजां ॥ १ ॥ इति पुष्पपगरपूजा द्वादशी ॥ १२ ॥ ॥ अथ त्रयोदश प्रष्ट मंगलपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ५६ ॥ तेरमी पूजा स्वामीनी, रचवां मंगल आठ ॥ यतनां श्रालेखवां, जिन सन्मुख शुभ वाव ॥ १ ॥ स्वस्तिक श्रीवत्स कुंज वली, जद्रासन शुभ जाण ॥ नंदावर्त्त ने मीनयुग, दर्पण ने वर्द्धमान ॥ २ ॥ मंगल विरची जात्री ए, शुद्धतम मंगलिक ॥ अष्ट सिद्धगुणने वरं, शासय सुख निर्जीक ॥ ३ ॥ अक्षय सुखने कारणे, अतना करी थाप ॥ ऋष्ट कर्मने दय करे, गाले सकल संताप ॥ ४ ॥ ॥ गाथा आर्या बंद ॥ ॥ श्रय मंगल पूजा, किजई जावेण जिणवराणं ॥ निय गेहे होइ सोहं, जह काले मेहबुद्धिय ॥ १ ॥ ॥ गीत ॥ राग गुर्जरी ॥ ॥ बनी पूजा तेरसमी नीकी, मंगल घाव बबील सो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघराजमुनिकृत सत्तरनेदी पूजा. ५७ हाय, ज्युं नयनोमें कीकी ॥ बनी० ॥१॥ स्वस्तिक श्रीवत्स कुंन जमासन, नंदावर्त बनाय ॥ वर्षमान मकरयुग दर्पण, कीनहीं नक्ति जराय ॥ बनी॥२॥ जे जिन श्रागल मंगल विरचे, मंगल तस घर हो ॥ पूजत जिनवर आशा पूरे, नवियण जन रहे जो ॥ बनी ॥३॥ ॥ काव्यं ॥ नवज्रास्त्तम् ॥ ॥श्रादर्शनासनवर्धमान,-मुख्याष्टसन्मांगलिकैर्जिनाग्रे॥ स राजतप्रोज्ज्वलतंकुलो-स्त्रयोदशीमातनुते स्म पूजां ॥१॥इति अष्ट मंगलपूजा त्रयोदशी ॥१३॥ ॥अथ चतुर्दश धूपपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ चौदमी पूजा धूपनी, कीजे अधिके नाव ॥ ए सेवा नवि जीवने, नवजल तारण नाव ॥१॥ कृष्णागरु उखेवता, उखेवो मुष्कर्म ॥ जमतां नूरि जवांतरे, लाधो हवे में मर्म ॥२॥ ॥ गीत ॥राग कनडो॥ ॥ जिनकी पूजा अमृतवेली, जिनवर धर्म बहुत नवि पायो॥रंगे विजन खेली ॥ जिनकी ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. कृष्णागरु लेमलय मनोहर, मृगमद मांहे नेली ॥ धूप उखेवी माग तुं जिनपे, नरक तणी गति तेली जिनकी० ॥२॥ नविक नरे जिनवर एम पूज्या, सवि सामग्री मेली ॥ चौदमी पूजा एणी परे करतां, श्रापे शिवपद केली ॥ जिनकी ॥३॥ ॥काव्यं ॥ नवजाटत्तम् ॥ ॥ कर्पूरकालागरुगंधधूप,-मुत्दिप्य धूमबलपूरितैनाः॥ घंटानिनादेन समं सुरेंज,-श्चतुर्दशीमातनुते स्म पूजां ॥ १ ॥ इति धूपपूजा चतुर्दशी ॥ १४ ॥ ॥अथ पंचदश गीतपूजाप्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ पन्नरमी पूजा गीतनी, तास कथा पत्नणेश ॥ नाव पूजानो नाव ए, टाले सकल कलेश ॥१॥ तान मान लय ध्यानथी, पालापे सवि राग ॥ अति अनुत गुण कीर्तना, करीए धरी बहु राग ॥२॥ ॥रांग देशाख ॥ ॥कमलदललोचनी, विरहःखमोचनी, सुंदरी जिन तणां गीत गावे॥निज मुखे गुण गहे, कोकिला खर कहे,श्रवण रस जणी तव, ७ श्रावे॥राग सवि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघराजमुनिकृत सत्तरनेदी पूजा. पण बालवी, जिनगुण बहु स्तवी, पालवी प्रनु तुम्हे, एक वाचा ॥ परजवे दरिसण, देय जिन तुमे, जिन श्रो कलियुगे, देव साचा ॥१॥ ॥गीतं ॥ श्रीरागण गीयते ॥ ॥ जिनगुण गावत सुरसुंदरी, चंपकवर्ण कमलदल लोयन, शशिवदनी श्रृंगार नरी॥ जिनः॥१॥ वेणु उपांग वंश सिरिमंमल, ताल मृदंग सुबंद करी॥सवि श्रीराग आलापती रंगे, सुरति धरी सखी अति मधुरी॥ जिन०॥॥श्रागे एणी पेरे सुर नरे कीधी,ते पहोता संसार तरी॥पन्नरमी पूजा एणी परे करतां, सुणी रावण जिनपदवी वरी॥ जिन ॥३॥ ॥ काव्यं ॥ नवज्राटत्तम् ॥ ॥अष्टोत्तरं स्तोत्रशतं पवित्वा, जानुस्थितः पृष्ठधरः सुरेशः॥ शक्रस्तवं प्रोच्य शिरःस्थपाणि-नत्वा जिनं संसदमावुलोक ॥१॥इति गीतपूजा पंचदशी ॥१५॥ ॥अथ षोडश नृत्यपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ सोलमी पूजा नृत्यनी, नाटक बत्रीशबछ । सूरियाज सुरनी परे, करीए नाव समृ॥१॥जव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. नाटक एहथी टले, फले मनोरथ सर्व ॥ सम्यग्दर्श ना सुख, पामे शमावे गर्व ॥ २ ॥ ॥ दोहरो ॥ ॥ देव कुमर कुमरी मली, नाचे एक शत श्रा ॥ संगतादिक परे करे, घालापे शुद्ध नाट ॥ १ ॥ ॥ राग नह ॥ गीत ॥ ॥ इंद्रादिक एम करे, पूजा तेरी ॥ गिडि गिडि डुमकी मुरज घूमे, जक्ति करे अधिकेरी ॥ इंद्रादिक० ॥ १ ॥ नख शिख लगे वेष सजी, बहु हस्त करी ॥ कुचघन वचे करयुग धरी, शोजती श्रति फिरती ॥ इंद्रा० ॥ २ ॥ वेणु वंश उपांगरव, ताल बाजती बंदे ॥ कुमर कुमरी एक शत श्राव, नृत्यती जिन वंदे ॥ इंद्रा० ॥ ॥ ३ ॥ गगने जलद नाद सुणी, नाचत सुकलापी ॥ कीजेएम सोलमी पूजा, राग नह श्रालापी ॥ इंद्रा०॥४॥ ॥ काव्यं ॥ उपेंद्रवज्रावृत्तम् ॥ ॥ श्रालोकनाकृत विदस्ततोऽस्य, गंधर्व नाट्याधिपती श्रमत् ॥ तूर्यत्रिकं सजयतः स्म तत्र, प्रजोर्निषले पुरतः सुरेंद्रे ॥ १ ॥ इति नृत्यपूजा षोशी ॥ १६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघराज मुनिकृत सत्तरनेदी पूजा. ॥ अथ सप्तदश वाजित्रपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ ही बजे महुर सर, त्रिजग सुणावे नाद ॥ वीतराग पूजा करो, अंग तजीने प्रमाद ॥ १ ॥ ॥ गीत ॥ राग नट्ट ॥ ६१ ॥ सुर पंच शब्दे की विश्व जणावती, मुक्ति तणां सुख आपतीयां ॥ जो जविका ! तुमे जिनवर पूजो, आलस तजी उछंगतीयां ॥ सुर० ॥ १ ॥ अनंत लाज जाणी वाजित्र बहु प्राणी, मधुर ध्वनि घरचे जिनुआ ॥ मनवांबित फल तत्क्षण थापे, स्थिर राखे जो ए मनुश्रा ॥ सुर० ॥ २ ॥ मेघराज मुनि वंदित रंगजर, सत्तरमी पूजाए चित्त धरूं आ ॥ नाम ठाम द्रव्य जावथी ए जिन, सकल संघने सुखकरु या ॥ सुर० ॥ ३ ॥ ॥ काव्यं ॥ उपेंद्रवज्रावृत्तम् ॥ ॥ मृदंगनेरीवर वेणुवीणा, षड्चामरीऊल्ल रिकिंकिणीनां ॥ जादिकानां च तदा निनादैः, दणं जगन्नादमयं बभूव ॥ १ ॥ मुदा ततस्तुंबरुनारदाद्याः, प्रनोर्गुणालीरुपवीणयतः ॥ सुधाशनादप्यधिकं वितेरुः सुधाशनानां हृदये प्रमोदं ॥ २ ॥ ततश्चलत्कुंम लतारद्दार, - शृंगार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. नारस्फुरदंगयष्टिः॥रंजा चिरं जावयति स्म लास्य,लीलां विनीलांगजिनादविद्युत् ॥३॥साची कृतादीव ततो घृताची, तिलोत्तमा चोत्तमनाव्यशक्तिः॥मेने मनोझा किल मेनकापि,कलाकलापस्य फले गृहीत्वा॥४॥ ॥शार्दूलविक्रीमितटत्तम् ॥ ॥श्त्येवं विधगीतवाद्यनटनैः पूजां विधाय विधा, तां मूलाहिरचय्य सप्तदशधा प्रीतिस्तदाऽऽखंमलः ॥ अर्येयं धनदत्तउज्ज्वलसरिन्नीरैः पटीरैः पटुः, कपुरैः स च मेरुनंदनवनीकल्प पुष्पैश्चिरं ॥५॥ इति वाजित्रपूजा सप्तदशी ॥१७॥ ॥ गीत ॥राग धन्याश्री॥ ॥बोली बोली रे बोली पूजानी विधि नीकी, सत्तर नेद बागम जिन नाखी॥ शिवरमणी शिर टीकी रे॥ ॥ बोली॥१॥जीवानिगमे झाताधर्मे, रायपश्रेणी प्रसिछि॥ विजयदेव ौपदीए पूज्या, सूरियाने पण कीधी रे॥बोली॥२॥अचलगछे दिन दिन दीपे,श्री धर्ममूर्ति सूरिराया।तास तणे पख महीयल विचरे, नानुलब्धि उवकाया रे ॥ बोली॥३॥तास शिष्य मेघराज पयंपे, चिरनंदोजा चंदा॥ए पूजा जे जणशे गणशे, तस घर होय आणंदारे॥ बोली०॥४॥१७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंकित श्रीवीरविजयजीकृत चोसठ प्रकारी पूजा. ६३ ॥ अथ पंडितश्रीवीरविजयजीकृत चोसठ प्रकारी पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ श्रीशंखेश्वर साहिबो, समरी सरसती माय ॥ श्रीशुभ विजय सुगुरु नमी, कहुं तपफल सुखदाय ॥ १ ॥ ज्ञान की सवि जाणता, ते जव मुगति जिणंद ॥ व्रत धरी भूतल तप तप्या, तपथी पद महानंद ॥ २ ॥ दानशक्ति जो नवि हुवे, तो तनुशक्ति विचार ॥ तप तपीए यइ योग्यता, अल्प कषाय आहार ॥ ३ ॥ परनिंदा ढंकी कपट, विधि गीतारथ पास ॥ श्राचार दिनकरे दाखीयो, ते तप कर्म विनाश ॥ ४ ॥ विविध प्रकारे तप कह्यां, आगम रयानी खाए ॥ तेहमां कर्मसूदन तपे, दिन चउसहि प्रमाण ॥ ५ ॥ ज्ञानावरणी कर्मठ, पच्चरका बेदाय ॥ उपवासादिक म कवल, अंतिम तिम अंतराय ॥ ६ ॥ उजमपुं तप पूरणे, शक्ति त अनुसार ॥ तरुवर रूपानो करो, घातीयां शाखा चार ॥ ७॥ चार प्रशाखा पातली, कर्मनो जाव विचार ॥ इंग सय श्रावन पत्र तस, कापवा कनक कुठार ॥ ८ ॥ चोसठ मोदक मूकीए, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. पुस्तक श्रागल सार ॥चोस कलशा नामीए, जिनपमिमा जयकार ॥ ए ॥ पूजासामग्री रची, जरी फल नैवेद्य थाल ॥ ज्ञानोपकरण मेलवी, ज्ञाननक्ति मनोहार ॥ १० ॥ जलकलशा चोस नरी, धरीए पुरुषने हाथ ॥ तीर्थोदक कलशा नरी, चोसठ कुमरी हाथ ॥११॥ चोस वस्तु मेलवी, मंडल रचीए सार ॥ मंगलदीवो राखीए, पुस्तक मध्य विचाल ॥ १२ ॥ स्नात्र महोत्सव कीजीए, पूजा अष्ट प्रकार ॥ ज्ञानावरण हगववा, अठ अनिषेक उदार ॥ १३ ॥ ॥अथ प्रथमदिवसेऽध्यापनीयज्ञानावरणीयकर्मसूदनाथ प्रथमपूजाष्टकप्रारंनः ॥ ॥ तत्र॥ ॥प्रथम जलपूजा प्रारंनः॥ ॥राग जोगी आशावरी॥मोतीवाला जमरजी॥ए देशी॥ __॥चरम प्रमुख चंद्रमा, सखि ! देखण दीजे ॥ हाथ थारिसा बिंबरे, सखि! मुने देखण दीजे ॥ बप्पन दिग्कुमरी कहे॥सखिण्॥ विकसित मेघकदंब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसरप्रकारी पूजा. ६५ रे॥ सखि ॥१॥ नवमंडल में न देखी। सखि०॥ प्रनुजीनो देदार रे ॥ सखि ॥ कृत्य करी घर जावती। सखि० ॥ खेलत बाल कुमार रे ॥ सखि० ॥२॥ यौवनवय सुख नोगवे। सखि ॥ श्रीमहावीर कुमार रे । सखि० ॥ ज्ञानयी काल गवेषी। सखि ॥ श्राप हुआ अणगार रे॥ सखि० ॥३॥ गुणगणुं लदी बारमुं । सखि० ॥ ज्ञानावरणी हण्यु जेम रे ॥ सखि० ॥केवल लही मुगते गया। सखि॥ अमेपण करशुं तेम रे ॥ सखि॥४॥ स्वामिसेवाथी लहे। सखि ॥ सेवक स्वामिनाव रे । सखि ॥ सालंबन निरालंबने । सखि ॥ करशुं एहवो बनाव रे॥ सखि ॥ ५ ॥ तीस कोमा कोमी सागरू। सखि॥ थिति अंतरमुहत्ते लघीस रे । सखि ॥ बंध चतुर्विध चेत\। सखि०॥ पगई विई रस देस रे॥ सखि०॥६॥ सूक्ष्म बंध उदय वली । सखि॥ उदीरण सत्ता खीण रे । सखि० ॥ स्नातक स्नान मिषे हुवे । सखि॥ज्ञान पमल मलहीण रे॥सखि० ॥७॥ सर्वांगे स्नातक यश् । सखि० ॥ करशं साहेली रंग रे । सखि ॥ सहजानंद घरे रमो। सखि ॥ श्रीशुजवीरने संग रे ॥ सखि ॥७॥ Jain Educationa fotocal For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ काव्यं ॥ उपजातिवृत्तम् ॥ तीर्थोदकैमिश्रितचंदनौधैः, संसारतापाहतये सुशीतैः॥जराजनिप्रांतरजोनिशांत्यै, तत्कर्मदाहार्थमजं यजेऽहं ॥१॥ ॥पुतविलंबितवृत्तघ्यम् ॥ ॥सुरनदीजलपूर्णघटैर्घनै,-घुसृण मिश्रितवारितैः परैः॥नपय तीर्थकृतं गुणवारिधि, विमलता क्रियता च निजात्मनः॥१॥जनमनोमणिनाजननारया, श. मरसैकसुधारसधारया ॥ सकलबोधकलारमणीयकं, सहजसिझमहं परिपूजये ॥२॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परमपुरुषाय। परमेश्वराय । जन्मजरामृत्युनिवारणाय । अज्ञानोछेदकाय । श्रीमते वीरजिनेडाय। जलंय । जलं यजामहे खादा॥इति अज्ञानोछेदकार्थं प्रथम जलपूजा समाप्ता ॥१॥ ॥अथ द्वितीय चंदनपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ मूलप्रकृतिए एक ए, उत्तरप्रकृति पांच ॥ मोह समें पण नवि समे, विण खायकनी अांच ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. ६७ तिणे तेहिज विधि साधवा, पूजो अरिहा अंग ॥ सिझस्वरूप हृदय धरी, घोली केसररंग ॥२॥ ॥ ढाल बीजी ॥ कुंबखमानी देशी॥ ॥ बीजी चंदनपूजना रे. केसरनो करी घोल ॥ प्रनुपद पूजीए॥बाहिर रंग गवेषीने रे, रंग अन्यंतर चोल ॥॥पूजीए जिन पूजीए रे, आनंदरस कबोल ॥ प्र॥१॥ ए आंकणी॥धुर पगई धुरो कर्मनी रे, बंध त्रिनंग प्रकार ॥प्र० ॥ खय उपशम गुण नीपजे रे, अमवीश उपर चार ॥ प्र० ॥२॥ त्रणसें चालीश उत्तरू रे, बहवादिक पद बार ॥॥ पूज्य विशेषावश्यके रे, नंदीसूत्र मोकार ॥ प्रण ॥३॥ बंध हेतु ते पामीए रे, मतियावरण बलेण ॥ प्र० ॥ ध्रुवबंधि प्रकृति टले रे, जब लहे खायक श्रेण ॥ प्र० ॥४॥ जिम रोहे नृप रीजव्यो रे, रीकववो एक सांई ॥ प्र० ॥ श्रीशुनवीरने श्राशरे रे, नासे कर्म बलाय ॥प्र०॥५॥ ॥ काव्यं ॥ चुतविलंबितवृत्तघ्यम् ॥ ॥ जिनपतेर्वरगंधसुपूजनं, जनिजरामरणोनवनीतिहृत् ॥ सकलरोगवियोगविपहरं, कुरु करेण सदा निजपावनम् ॥ १॥सहजकर्मकलंक विनाशनै,-रम ॥ ध्रुवबंध म रोहे नृप राशरे रे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम लनावसुवासनचंदनैः॥अनुपमानगुणावलिदायक, सहजसिझमहं परिपूजये ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ ही श्री परम॥ मतिज्ञानावरण निवारणाय श्रीमतीवीर जिनेखाय। चंदनं यणाखा॥इति मतिज्ञानावरण निवारणार्थं द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता॥२॥ ॥ अथ तृतीय पुष्पपूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा॥ ॥श्रुतझानावरणी तणो, तुं प्रनु! टालणहार॥ क्षणमें श्रुतकेवली कस्या, देश त्रिपदी गणधार ॥१॥ सुमनसवृष्टि तेणे समे, समवसरण मोकार ॥ करता सुमनस सुमनसा, प्रजुपूजा दिल धार ॥२॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ वेष न धरीए लालन केष न धरीए ॥ ए देशी॥ ॥ समवसरणे श्रुतज्ञान प्रकाशे, पूजे सुरवर फूलनी राशे ॥ स्वामी फूलनी राशे ॥ केतकी जायनां फूल मंगावो, नेदत्रिके करी पूजा रचावो ॥ स्वा०॥१॥ प्रजुपद प्रणमी श्रीश्रुत मागो, श्रुतज्ञानावरण ते जेम जाय नागो॥खाणाखय उपशम गुण जिम जिम थावे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. ६॥ तिम तिम श्रातम गुण प्रगटावे ॥ खा० ॥२॥ मति विण श्रुत न लहे को प्राणी, समकितवंतनी एह निशानी ॥ स्वा॥कृत्यादिक श्रुत नाण जणावे, खीर नीर जिम हंस बतावे॥स्वा०॥३॥गीतारथ विण उग्र विदारी, तपीया पण मुनि बहुल संसारी॥ स्वा०॥श्र पागम तप क्लेश ते जाणो, धर्मदास गणि वचन प्रमाणो॥खा॥४॥नेद चतुर्दश वीश वखाणो, उर रीत मति झान समाणो॥खाण॥मति श्रुत नाणे चउ शिव जावे, श्रुतकेवली शुजवीर वधावे ॥ खा०॥५॥ ॥ काव्यं ॥ छुतविलंबितवृत्तव्यम् ॥ ॥सुमनसां गतिदायि विधायिनां, सुमनसां निकरैः प्रनुपूजनं ॥ सुमनसां सुमनोगुणसं गिना, जन विधेहि निधेहि मनोर्चने॥१॥समयसारसुपुष्पसुमालया, सहजकर्मकरेण विशोधया ॥ परमयोगबलेन वशीकृतं, सहजसिझमहं परिपूजये ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ॐ ही श्री परम ॥ श्रुतझानावरण निवारणाय ॥ कुसुमानि य० ॥ खा ॥ इति श्रुतज्ञानावरण निवार पुष्पपूजा समाप्ता ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___० विविध पूजासंग्रह लाग प्रथम. ॥ अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ अवधिज्ञानावरणना, दयथी हुआ चिद्रूप ॥ ते श्रावरण दहन जणी, ऊर्ध्वगतिरूप धूप ॥१॥ ॥ ढाल चोथी॥राग जाति फाग ॥ सबाबरागिणी॥ ॥ जिनवर जगतदयाल, नवियां ! जिनवर जगतदयाल ॥ ए देशी ॥ ॥ ए गुण ज्ञान रसाल, नवियां ! ए गुण ज्ञान रसाल ॥धूप घटा करी ज्ञान बटा वरी, अवधि श्रावरण प्रजाल ॥ ज०॥ षट् नेदांतर वृद्धिनी रचना, जाणे खेत्र ने काल ॥ज०॥ ए॥१॥अंगुल आवली संखम संखे, पूरणे किंचुण काल ॥ ज० ॥ पूर्णावलि अंगुल पुहुत्ते, हस्ते मुहूर्त विचाल ॥ ज० ॥ ए. ॥२॥कोश दिनांतर योजन दिन नव, अव्य पर्याय विशाल ॥ ज०॥ पणवीश योजन पद अधूरे, पदे जरत नीहाल ॥ ज०॥ ए॥३॥ जंबूझीप ते मास अधिके, वरसे अढीछीप नाल ॥नम् ॥ रुचकछीप ते वर्ष पुहुत्ते, संख्याते संख्यातो काल ॥न०॥ एक ॥४॥ काल असंख छीप संखमसंखा, ज्ञान प्रत्यद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. ७१ त्रिकाल ॥ ज०॥ एक समे व अधिक शत सीके, टाली नवजंजाल ॥ ज० ॥ ए० ॥ ५ ॥ शिवराज कृषि विनंगने टाली, वरीया शिव वरमाल ॥ ज० ॥ सायर द्वीप असंख्य दिखावे, श्रीशुनवीर दयाल ॥ ज० ॥ ए० ॥ ६ ॥ ॥ काव्यं ॥ डुतविलंबितवृत्तद्वयम् ॥ ॥ अगर मुख्यमनोहरवस्तुनः, स्वनिरुपाधिगुणौध विधायिनः ॥ प्रभुशरीरसुगंध सुहेतुना ॥ रचय धूपनपूजनमर्हतः ॥ १ ॥ निजगुणा क्षयरूपसुधूपनं, स्वगुणघातलं प्रविकर्षणं ॥ विशदबोधमनंत सुखात्मकं, सहज सिद्धमहं परिपूजये ॥ २ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ - ॥ श्री श्री परम० ॥ अवधियावरण निवारपाय धूपं य० ॥ स्वा० ॥ इति अवधियावरण निवारणार्थं चतुर्थ धूपपूजा समाप्ता ॥ ४ ॥ ॥ अथ पंचम दीपकपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ मनपद्मवश्यावरणतम, दरवा दीपक माल ॥ ज्योतसें ज्योत मिलाइए, ज्ञान विशेष विशाल ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ ढाल पांचमी ॥ गोपी विनवे रे॥ ए देशी ॥ ॥ ज्योति जगमगे रे, अढीछीप प्रमाण ॥ दो नेदे करी रे, अढी अंगुलनो तरतम जाण ॥ जेह विपुलमति रे, तेहने ते नव पद निरवाण ॥ मुनिवेषज विना रे, नवि उपजे दो नेदे नाण ॥ ज्योति॥१॥ विमलातम दशा रे, जाणे ज्योतिष व्यंतर गण ॥ तीळ लोकमां रे, नाख्युं एह प्रमाण ॥अधोलोकमां रे, योजन सो अधिकेरा जाण ॥ संझी जीवना रे, जाणे मनचिंतन मंडाण ॥ ज्यो॥२॥ जुमति अव्यथी रे, अनंत अनंत प्रदेश विचार ॥असं खित नव कहे रे, पलिय असंखम नाग त्रिकाल ॥ सवि परजायनो रे, नाग अनंतो मनथी सार ॥ चारे नावथी रे,अधिका विपुलमति अणगार ॥ज्यो॥३॥ मति श्रुत नाणशुरे, मनपजाव पाम्या मुनिराय ॥ खायकनावथी रे, एक समय दश मुक्ति जाय ॥खय उपशमपदे रे, मुनिवर ते साते गुणगण ॥ श्रीशुनवीरथी रे, जंबूखामी लगे ए नाण ॥ ज्यो० ॥४॥ ॥ काव्यं ॥ ऽतविलंबितवृत्तघ्यम् ॥ ॥जवति दीपशिखापरिमोचनं, त्रिजुवनेश्वरसद्मनि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. ७३ शोजनं ॥ खतनुकांतिकरं तिमिरंदरं, जगति मंगलकारणमातरं ॥ १ ॥ शुचिमनात्म चिडुज्ज्वलदीपके, वलितपापपतंगसमूहकैः ॥ स्वकपदं विमलं परिलेजिरे, सहज सिद्धमहं परिपूजये ॥ २ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ श्री श्री परम० ॥ मनःपर्यावरणोच्छेदकाय दीपं य० ॥ खा० ॥ इति मनः पर्यवावरणोच्छेदकार्थं पंचम दीपकपूजा समाप्ता ॥ ५ ॥ ॥ अथ षष्टातपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ घनघाती घाते करी, जेह थया मुनिनूप ॥ बहिरात उच्छेदीने, अंतर आतमरूप ॥ १ ॥ ॥ ॥ ढाल बही ॥ साहेलमीयां ॥ ए देशी ॥ तपद वरवा जणी ॥ सुणो संता जी ॥ श्रत पूजा सार ॥ गुणवंता जी ॥ अक्षत उज्ज्वल तंडुला ॥ सु० ॥ उज्ज्वल ज्ञान उदार ॥ गु० ॥१॥ पंचम पगई टालवा ॥ सु०॥ वरवा पंचम ज्ञान ॥ ०॥ त्रिशलानंद नीहालीए ॥ सु० ॥ बार वरस एक ध्यान ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jy विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. गु० ॥ २ ॥ निंद शयन जागर दिशा ॥ सु० ॥ ते सवि डूरे होय ॥ ० ॥ देखे उजागर दिशा ॥ सु० ॥ उज्ज्वल पाया दोय ॥ गु० ॥ ३ ॥ लही गुणठाएं तेरमुं ॥ सु० ॥ धुरसमये साकार || गु० ॥ जावजिनेश्वर वंदीए ॥ सु० ॥ नाठा दोष अढार ॥ गु० ॥ बती पर्याये ज्ञानी ॥ सु० ॥ जाणे ज्ञेय अनंत ॥ गु० ॥ श्रीशुन. वीरनी सेवना ॥ सु०॥ आपे पद अरिहंत ॥ गु० ॥ ५ ॥ ॥ काव्यं ॥ डुतविलंबितवृत्तद्वयम् ॥ ॥ क्षितितले कृतशर्म निदानकं, गणिवरस्य पुरोऽक्षतमंगलं ॥ क्षतविनिर्मितदेह निवारणं, जवपयोधि - समुद्धरणोद्यतं ॥ १ ॥ सहजजावसु निर्मलतां डुलै, - र्विपुल दोष विशोधक मंगलैः ॥ अनुपरोधसुबोध विधानकं, सहज सिद्धमहं परिपूजये ॥ २ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ श्री परम० ॥ केवलज्ञानावरण निवारणाय श्रतं य० ॥ स्वा० ॥ इति केवलज्ञानावरणनिवारणार्थं षष्ठातपूजा समाप्ता ॥ ६ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. ७५ ॥ अथ सप्तम नैवेद्यपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ बाह्य रूप श्राहारे वधे, रूपांतर अणाहार ॥ श्रणाहारी पद पामवा, वो नैवेद्य रसाल ॥ १॥ ॥ ढाल सातमी ॥राग बिलावल ॥ ॥ नैवेद्य प्रनु आगल धरी, बहु बंदी वाजे ॥ ज्ञानावरण निवारीए, रुचकांतर नाजे ॥ हांहारे तव सांई निवाजे, हांहारे जिनशासन राजे॥०॥१॥ अज्ञानी पुण्य पापनो, नवि नेद ते जाणे ॥ नयगम नंग प्ररूपणा, हउवादे ताणे ॥ हांहारे एक आप वखाणे, हांदारे बंध उदय न जाणे ॥ नै० ॥२॥ आशातना करे ज्ञाननी, जयणा नवि पाले ॥ सुगुरु वचन नवि सदहे, पड्यो मोहनी जाले ॥हांहारे ते अनंत काले, हाहारे नरजव न नीहाले ॥ नै० ॥३॥ रोहित मत्स्यनी उपमा, सिझांते लगावे॥ज्ञानदशा शुनवीरनु, जो दर्शन पावे ॥ हांदारे अज्ञान हगवे, हांहारे ज्योति नयन जगावे ॥ नै ॥४॥ ॥ काव्यं ॥ पुतविलंबितवृत्तझयम् ॥ ॥ श्रनशनं तु ममास्त्विति बुद्धिना, रुचिरजोजन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. संचितनोजनं॥प्रतिदिनं विधिना जिनमंदिरे, शुजमते बत ढोकय चेतसा ॥१॥ कुमतबोधविरोध निवेदकै,-विहितजातिजरामरणांतकैः ॥ निरशनं प्रचुरास्मगुणालयं, सहजसिझमहं परिपूजये ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥श्री परम ॥ अज्ञानोछेदकाय नैवेद्यं य०॥स्वा ॥इतिअज्ञानोदकार्थ सप्तम नैवेद्यपूजा समाप्ता ॥७॥ ॥ अथाष्टम फलपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ॥बंधोदय सत्ता धुवा, पांचे पयमी जोय॥ देशघातिनी चार बे, केवल सर्वथी होय ॥१॥ ज्ञानाचारे वरततां, फल प्रगटे निरधार ॥ तेणे फलपूजा प्रनु तणी, करीए विविध प्रकार ॥२॥ ॥ ढाल आग्मी राग फाग।सूरती महीनानी देशी॥ ॥ ए पांचे श्रावरणनो, बंध दशम गुणगण ॥ उदय उदीरण सत्ता, खीण कहे जगजाण ॥ १॥ ज्ञानथी सासनसासमां, कग्नि करम दय जाय ॥ फलवंचकता तस टले, जोगावंचक थाय ॥ २ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १७ अरिहा पण तप करता, एकाकी रही राण ॥ श्रण ढुंता सुरकोमी, सेवे पूरण नाण ॥३॥ ज्ञानदिशा विणु तप जप, किरिया करत अनेक ॥फल नवि पामे रांक ते, रणमा रोल्यो एक ॥४॥ तेलीबलद परे कष्ट करे, जीन विण श्रुतबहेर ॥ निशिदिन नयन मिचाणे, फरतो घेरनो घेर ॥ ५॥ ज्ञान प्रथम पठी जयणा, दशवैकालिक वाण ॥ ज्ञानीने सुरतरु उपमा, झानथी फल निर्वाण ॥ ६॥ कर्मसूदन तप पूरण, फलपूजा फल सार ॥ श्रीशुजवीरना ज्ञानने, वंदीए वार हजार ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ चुतविलंबितवृत्तघ्यम् ॥ ॥ शिवतरोः फलदानपरैर्नवै,-वरफलैः किल पूजय तीर्थपम् ॥ त्रिदशनाथनतक्रमपंकजं, निहतमोहमहीधरममलं ॥ १॥ शमरसैकसुधारसमाधुरै,रनुनवाख्यफलैरजयप्रदैः ॥ अहितकुःखहरं विनवप्रदं, सहजसिझमहं परिपूजये ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॐ श्री परम ॥ प्रथमकोबेदनाय फलं य० ॥ खा॥ इति प्रथमकर्मोछेदनार्थं अष्टम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. फलपूजा समाता ॥ ७॥ कलश ॥ गायो गायो रे महावीर॥ YPAPAYPONRAIPS POPOL acrocha COcer CGYOG ॥इति प्रथमदिवसेऽध्यापनीयज्ञानावर णीयकर्मसूदनाथ प्रथमपूजाष्टकं संपू र्णम् ॥ १॥ सर्व गाथा (1) 40404040200 था प्रमाणे हवे पड़ी प्रत्येक दिवसे जे जे पूजा जणाय, ते ते पूजानां जे बे काव्यो होय ते बे काव्य अनुक्रमे ते ते पूजाना अंतमा जणवां तथा मंत्र पण सर्व पूजा दीप कहेवो,अने वटनी चोसमी पूजाना अंतमा लखेलो कलश जे जे ते पण प्रत्येक दिवसे ज्यारे आठ पूजा पूरी थाय त्यारे बेहो लणवो ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. IU ॥ अथ ॥ ॥ द्वितीय दिवसेऽध्यापनीयदर्शनावरणीयकर्मसूदनार्थं द्वितीयपूजाष्टकप्रारंभः ॥ ॥ तत्र ॥ ॥ प्रथम जलपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ दर्शनावरण ते वरण, नव पगई डुरदंत ॥ दरिसण निद्रा नेदधी, च पण कहे अरिहंत ॥१॥ बंधोदय सत्ता धुवा, पयमी नव तिम पंच ॥ निद्रा धुवोदय कही, सर्वघाती पण पंच ॥ २ ॥ दंसण तिग देशघातियां, केवल दंसण एक ॥ सर्वघाती में दाखीयो, वादलमेघ विवेक ॥ ३ ॥ विकट निकट घटपट लहे, जिम आवरणवियोग ॥ ज्ञानांतर क्षणथी सहु, सामान्ये उपयोग ॥ ४ ॥ ए आवरण बले करी, न लघुं दर्शन नाथ ॥ नैगमदर्शन नटकीयो, पाणी वलोव्युं हाथ ॥ ५ ॥ पूरण दर्शन पामवा, जजीए जवि जगवंत ॥ डूर करे श्रावरणने, जिम जलथी जलकंत ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ ढाल पहेली ॥ राग आशावरी ॥ ॥ नमो रे नमो श्रीशेनुंजा गिरिवर ॥ ए देशी ॥ ॥ मागधने वरदाम प्रजासह, गंगानीर विवेक रे ॥ दर्शनावरण निवारण कारण अरिहाने अनिषेक रे ॥ नमो रे नमो दर्शनदायकने ॥ १ ॥ ए की ॥ दर्शनदायक श्री जिनवर तुं, लायकताने लाग रे ॥ प्रीत पटंतर दोय न बाजे, जो होय साचो राग रे ॥ न० ॥ २ ॥ राग विना नवि रीफे सांइं, नीरागी वीतराग रे ॥ ज्ञाननयन करी दर्शन देखे, ते प्राणी वरुनाग रे ॥ न० ॥ ३ ॥ च दंसण प्रति सूक्ष्म बंधे, उदयादिक खिए अंतरे ॥ यावरण कठिन मल खाली, स्नातक संत प्रसंत रे ॥ न० ॥ ४ ॥ ग्रंथि विकट जे पोल पोलीयो, रोके दर्शन भूप रे ॥ श्रीशुनवीर जो नयन नीहाले, सेवक साधनरूप रे ॥ न० ॥ ५ ॥ ॥काव्यं ॥ तीर्थोदकैः॥१॥सुरनदी० ॥२॥जनमनो० ॥ ३ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ ॐ श्री ॥ बंधोदय निवारणाय जलं य० ॥ स्वा० ॥ इति बंधोदय निवारणार्थं प्रथम जलपूजा समाप्ता ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसप्रकारी पूजा. १ ॥ अथ द्वितीय चंदनपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ उपदेशक नव तत्वना, प्रजु नव अंग उदार ॥ नव तिलके उत्तर नव, पगई टालणहार ॥१॥ ॥ ढाल बीजी ॥ राग काफी, नायकी ॥ ॥ रसीया दिल दीठमी ज्योति जगार॥ ए देशी ॥ ॥ तुज मूरति मोहनगारी, रसीया तुज मूरति मोहनगारी॥ अव्यह गुण परजाय ने मुजा, चजगुण पमिमा प्यारी ॥ र॥ तु० ॥ नयगम नंग प्रमाणे न निरखी, कुमति कदाग्रह धारी ॥र० ॥ तुन ॥१॥ जिनघर तीरथ सुविहित आगम, दर्शने नयण निवारी ॥ र०॥ तु॥ चकुर्दर्शनावरण कर्म ते, बांधे मूढ गमारी ॥ र ॥ तु ॥ २ ॥ काणा निशिदिन जात्यंधापणुं, पुःखीया दीन अवतारी॥ र० ॥ तु०॥ दर्शनावरण प्रथम उदयेथी, परजव एह विचारी ॥र ॥ तु॥३॥अल्प तेज नयनातप देखी, जूए श्राडो कर धारी ॥ र० ॥ तु० ॥ जाएं पूरव नव कुमतिनी, हजीय न टेव विसारी॥ र ॥ तु ॥ ४॥ जयणायुत गुरु आगम पूजो, 190 Jain Education Intemational For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्य विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जिनपमिमा जयकारी॥ र ॥ तु० ॥ श्रीशुजवीरनुं शासन वरते, एकवीश वरस हजारी ॥ र ॥ तुळ ॥५॥ काव्यं ॥ जिनपतेः ॥१॥ सहजकर्म॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ॐ ही श्री परम ॥चकुर्दर्शनावरण निवारणाय चंदनं य० ॥ वाण ॥ इति चकुर्दर्शनावरण निवारणार्थं द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता ॥२॥ १० ॥ ॥ अथ तृतीय पुष्पपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ___॥ फूल अमूलक पूजना, त्रिशलानंदन पाय॥सुर नि पुरनि नासाप्रमुख,अचलु आवरण हाय॥१॥ ॥ ढाल त्रीजी॥राज! पधारो मेरे मंदिर॥ए देशी॥ ॥ ममणो मरु केतकी फूले, पूजाफल परकाशां जी॥नोगी निवासा संयुत श्राशा,लदणवंती नासा॥ नव नव रीए जी॥ जिनगुण माल रसाल, कंठे धरीए जी॥१॥ ए आंकणी॥गुण बहुमान जिनागमवाणी, काने धरी बहुमाने जी॥अव्य नाव बहिरातम टाली, परजव समजे शाने॥ ज० ॥२॥प्रनुगुण गावे ध्यान महावे, श्रागम शुरू प्ररूपे जी॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. ३ मूरख मूंगा न लहे परजव, न पडे वली नवकूपे ॥ न ॥३॥ परमेष्ठीने शीश नमावे, फरसे तीरथ नावे जी ॥ विनय वैयावच्चादिक करतां, नरतेशर सुख पावे ॥ ज० ॥४॥ जिम' जिम दय उपशम आवरणा, तिम गुण आविरनावे जी॥श्रीशुजवीर वचनरस लब्धे, संनिन्नश्रोत जणावे ॥ ज०॥५॥ ॥ काव्यं ॥ सुमनसांग ॥ १॥ समयसार ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ श्रचकुर्दर्शनावरण निवारणाय पुष्पाणि य० ॥ स्वा० ॥ इति अचकुर्दर्शनावरण निवारणार्थं तृतीय पुष्पपूजा समाप्ता ॥३॥११॥ ॥ अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥अवधिदर्शनावरण क्य, उपशम चगति मांहि॥ दायकनावे केवली, नमो नमो सिह उछाहिं॥१॥ ॥ ढाल चोथी ॥ चंडशेखर राजा थयो॥ए देशी॥ ॥श्रवधिरूपी ग्राहको, खट नेद विशेषे॥अवधिदर्शन तेहy, सामान्ये देखे ॥१॥ ए गुण लेश् उपन्यो, परजवथी स्वामी ॥ नवमां सुखीया श्रमे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ୦ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. तुम दर्शन पामी ॥ ए यांकणी ॥ देव निरय गतिथी लदे, गुणथी नर तिरिया ॥ काजस्सग्गमां मुनि हास्यथी, देवा उतरीया ॥ ए गु० ॥ २ ॥ परिणामे चढती दशा, रूपी द्रव्य अनंतां ॥ जघन्यथी उत्कृष्टथी, सवि द्रव्य मुतां ॥ ए गु० ॥ ३ ॥ क्षेत्र असंख्य अंगुल लघु, गुरुलोक असंखा ॥ जाग असंख्य लघु श्रावलि, उस्सप्पिणी असंखा ॥ ए गु० ॥ ४ ॥ चार नाव द्रव्य एकमां, लघुजाव विशेषे ॥ असंख्य पर्यव द्रव्य प्रत्ये, गुरुदर्शन देखे ॥ ए गु० ॥ ५ ॥ नंदी सूत्रे एणी परे, कयुं श्रवधिना ॥ निराकार उपयोगथी, दर्शन परिमाण ॥ ए गु० ॥ ६ ॥ विनंगे पण दाखीयुं, दर्शन सिद्धांते ॥ तत्त्वार टीका कड़े, समकित एकांते ॥ ए गु० ॥ ७ ॥ तस आवरण दहन जणी, धूपपूजा करीए ॥ श्रीशुनवीर शरण लही, जवसायर तरीए ॥ ए गु० ॥ ८ ॥ काव्यं ॥ अगर मुख्य० ॥ १ ॥ निजगुणाय० ॥ २ ॥ ॥ श्रथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ श्री परम० ॥ अवधियावरण निवारणाय धूपं य० ॥ स्वा० ॥ इति श्रवधियावरण निवारणार्थं चतुर्थ धूपपूजा समाप्ता ॥ ४ ॥ १२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. ७५ ॥ अथ पंचम दीपकपूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा॥ ॥ केवलदर्शनावरणनो, तुं प्रजु टालणहार ॥ ज्ञानदीपकथी देखीए, मोटो तुज आधार ॥१॥ ॥ढाल पांचमी॥रागिणी आशावरी॥गरबानी देशी॥ ॥ दीपक दीपतो रे, लोकालोक प्रमाण ॥ दर्शन दीवडो रे, हणी आवरण लदे निर्वाण ॥दी॥१॥ ए बांकणी॥दायकनावे अनादि चेतन, भाउ प्रदेश उघामा रे॥अवरनुं दर्शन देखण जमीयो, पण श्रावरण ते आमां ॥ दी॥२॥तुम सेवे ते तुम सम होवे, शक्ति अपूरव योगे रे ॥ पकश्रेणि आरोही अरिहा, ध्यान शुक्ल संयोगे ॥ दी० ॥३॥ घनघातीनो घात करीने, प्रथम समय साकारे रे ॥ समयांतर दर्शन उपयोगे, दर्शनावरण विदारे ॥ दी० ॥४॥ मूल एक बंध चार सत्तोदय, उत्तर पण एक बांधे रे॥ बहेंतालीश उदये पंचाशी, सत्ता हणी शिव साधे ॥ दी० ॥ ५॥ जगमग काका दीपक पूजा, करतां कोडि दिवाजा रे ॥ श्रीशुनवीर जिनेश्वर राजा, राज्ये रहियत ताजा ॥ दी० ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ काव्यं ॥ जवति दीप० ॥ १ ॥ शुचिमनात्म० ॥ २ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ श्री परम० ॥ केवलदर्शनावरण निवारणाय दीपं य० ॥ खा० ॥ इति केवलदर्शनावरणनिवारणार्थ पंचम दीपकपूजा समाप्ता ॥ ५ ॥ १३ ॥ ॥ अथ षष्टातपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ निद्रा डुगदल बेदवा, करवा निर्मल जात ॥ क्षत निर्मल पूजना, पूजो श्री जगतात ॥ १ ॥ ॥ ढाल बही ॥ थू लिन कहे सुण बाला रे ॥ ए देश ॥ ॥ दवे निद्रा पांचनी फेटी रे, मोहराय तणी ए चेटी रे ॥ सर्वघाती पयमी मोटी रे, निद्रा डुग बेन्हो बोटी रे ॥ १ ॥ ए बेन्हो जगत् पितराणी रे, नाना मोटा मुंजाव्या प्राणी रे ॥ जानुदत्त पूरवधर पमीया रे, दीपज्योते जोया नवि जमीया रे ॥ ए आंकणी ॥ सुखे जागे आलस मेटी रे, ते निद्रा बालवधूटी रे ॥ उनां बेतां नयां घुटी रे || जब लागे वयपनी सोटी रे ॥ ए० ॥ २ ॥ तव नयणथी निंद वबूटी रे, प्रचला Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसम्प्रकारी पूजा. ७ लक्षण गति खोटी रे ॥ हादशांगी गणिरूप पेटी रे, मुनिनयणे निता पलेटी रे ॥ए ॥३॥पूरवधर पण श्रुत मेटी रे, रह्या निगोदमां कुःख वेंटी रे॥अपूर्व बंधेथी बूटी रे,सत्तानदये बारमें खूटी रे ॥ए॥४॥ मुनिराज मलीने खूटी रे, अप्रमत्तने दंने कूटी रे॥ बल जोतीने रोती वखूटी रे, ध्यानलहेर बगाडे बूटी रे ॥ ए० ॥५॥ शुनवीर समा नहीं माटी रे, निखानी वनकटी काटी रे॥थ सादि अनंतनी बेटी रे, शिवसुंदरी सहेजे नेटी रे ॥ ए० ॥६॥ ॥ काव्यं । दितितले० ॥१॥ सहजनाव० ॥॥ ॥ अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ निशाप्रचलाविछेदनाय अदतानू य० ॥ स्वा॥इति निजामचलाविछेदनार्थ षष्ठादतपूजा समाप्ता ॥ ६॥ १५ ॥ ॥ अथ सप्तम नैवेद्यपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ आहारे उंघ वधे घणी, निसा फुःख जंमार ॥ नैवेद्य धरी प्रजु आगले, वरीए पद अणाहार॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ՄԵ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ ढाल सातमी ॥ राग गोमी ॥ तोरण आई क्युं ? चले रे ॥ ए देशी ॥ ॥ थीएसी त्रिक सांजलो रे, निद्रा जे दुःखदाय ॥ सलूणा ॥ बंध बीजा गुणवाणसें रे, बठे उदय मुनिराय ॥ सलूषा ॥ जिम जिम जिनवर पूजीए रे, तिम तिम जे कर्म ॥ स० ॥ १ ॥ संप करी सत्ता रहे रे, नव माने एक जागे ॥ स० ॥ निद्रा निद्रा तेहमां रे, कष्टे करी जे जागे ॥ स० ॥ जिम० ॥ २ ॥ प्रचलाप्रचला चालतां रे, नयणे निंद तुखार ॥ स० ॥ जागे रणसंग्राममां रे, विजली ज्युं जलकार ॥ स० ॥ जिम० ॥ ३ ॥ दिनचिंता रात्रे करे रे, करणी जे नर नार ॥ स० ॥ बलदेवनुं बल ते समे रे, नरकगति अवतार ॥ स० ॥ जिम० ॥ ४ ॥ एम विशेषावश्यके रे, वरणवीयो अधिकार ॥ स० ॥ साधुमंगली मां रहे रे, एक लघु अणगार ॥ स० ॥ जिम० ॥ ५ ॥ श्रीकी निद्रावशे रे, हणीयो हस्ती महंत ॥ स० ॥ सुतो जर निद्रावशे रे, नूतलीए दोय दंत ॥ स० ॥ जिम० ॥ ६ ॥ अंग अशुचि शिष्यनुं रे, संशय जरीया साध ॥ स० ॥ ज्ञानी वयणे काढीयो रे, हंसवनेथी व्याध ॥ स० ॥ जिम० ॥ ७ ॥ षट् मासे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. ७ निशा लदे रे, शेउवधू दृष्टांत ॥ स० ॥ निंदवियोगे केवली रे, श्रीशुजवीर जणंत ॥ स ॥ जिम ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ अनशनं० ॥१॥ कुमतबोध ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ श्री श्री परम ॥ श्रीणहीत्रिकदहनाय नैवेयं यः॥ वा०॥इति श्रीणहीत्रिकदहनार्थं सप्तम नैवद्यपूजा समाप्ता ॥ ७॥ १५ ॥ ॥अथाष्टम फलपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ विविध फले प्रनु पूजतां, फल प्रगटे निर्वाण ॥ दर्शनावरण विलय हुवे, विघटे बंधनां गण ॥१॥ ॥ ढाल थाउमी ॥ राग फाग ॥ दीपचंदीनी चाल॥ ॥ होरी खेलावत कान्हश्या, नेमीसर संगे ले जश्या ॥ ए देशी॥ ॥ होरी खेदूं मेरे साहबिया, संगे रंगे सुण हो जश्या ॥ होरी० ॥ अबिर गुलाल सुगंध विखरीया, कनककचोली केसरीया ॥ होरी० ॥१॥ खारेक बीजोरां फल टेटी, पूजे फल थाले नरीयां ॥ फाग गान गुण तान बजैया, दर्शनावरण नये मरीयां ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. होरी ॥२॥ ए प्रदर्शन विण नव फरीया, कुदेव कुतीर्थ वर्णवीया ॥ कुगुरु कुशास्त्र प्रशंसा करीया, मिथ्यात्वधर्म हश्ये धरीया ॥ होरी० ॥३॥ बहोत कुःखे बहु शोके जरीया, समकित फूषण आचरीयां॥ कुव्रत पाले ने चाले अनश्या, परमेष्ठी गुरु उल. वीया ॥होरी ॥४॥ पमणीया गुरु अपच्चरकाणीया, जगव नाखे गणधरीया ॥ दर्शनावरणी कर्म धेरैया, तीस कोमाकोमी सागरीया॥होरी॥५॥ एसे बंधको धंध घटैया, सांयुकी आणा शिर धरीया ॥ शृंगी लवण मधुरी लहेरीया, श्रीशुनवीर प्रजु मलीया ॥ होरी० ॥ ६॥ ॥ काव्यं ॥ शिवतरोः ॥ १॥ शमरसै० ॥॥ ___॥ अथ मंत्रः ॥ ॥दी श्री परम ॥ द्वितीयकर्मदहनाय फलं य० ॥ स्वा॥कलश ॥ गायो गायो॥इति हितीयकर्मदहनार्थमष्टमफलपूजा समाप्ता ॥ ॥ १६ ॥ ॥इति द्वितीय दिवसेऽध्यापनीयदर्शनावरणीयकर्मसूदनार्थं द्वितीयपूजाष्टकं संपूर्णम् ॥ २ ॥सर्व गाथा (६५) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. ९१ ॥ अथ ॥ ॥ तृतीय दिवसेऽध्यापनीयवेदनीयकर्म निवारणार्थ तृतीयपूजाष्टकप्रारंभः ॥ ॥ तत्र ॥ ॥ प्रथम जलपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ श्रीजुं अघाती वेदनी, जाव लहे शिवशर्म ॥ संसारे सवि जीवने, तब लगे एहिज कर्म ॥ १ ॥ बंधोदय ध्रुव कही, ध्रुवसत्ता होय ॥ पयमी अघाती जाणीए, शाता अशाता दोय ॥ २॥ कर्म विनाशी ने हुवा, सिद्ध बुद्ध जगवान् ॥ ते कारण जिनराजनी, पूजा अष्टविधान ॥ ३ ॥ न्हवण विलेपन कुसुमनी, जिन पुर धूप प्रदीप | अत नैवेद्य फल तणी, करो जिनराज समीप ॥ ४ ॥ ॥ ढाल पहेली ॥ रुमी ने र ढियाली रे वाल्दा०॥ देश ॥ ॥ ॥ न्दवानी पूजा रे, निरमल आतमा रे ॥ तीर्थोदकनां जल मेलाय, मनोहर गंधे ते नेलाय ॥ न्हव० ॥ १ ॥ सुरगिरि देवा रे, सेवा जिन तणी रे ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए‍ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. करतां न्हवण ते निरमल थाय, कनक रजत मणिकलश ढलाय ॥ न्हव० ॥ २ ॥ सुर बहू नाचे रे, माचे वेगशुं रे || गायण देव ते जिनगुण गाय, वैशालिक मुखदर्शन थाय ॥ न्हव० ॥ ३ ॥ चिहुं गति मांहे रे, चेतन रोलीयो रे । सुर नर जे सुखीया संसार, नारक तिरि दुःखनो नंगार ॥ न्हव० ॥ ४ ॥ शे वश सुखमां रे, खामी न सांजरवा रे ॥ तेथे हुं रऊब्यो काल अनंत, मलिन रतन नवि तेज जगत ॥ न्हव० ॥ ॥ ५ ॥ प्रजु नवरावी रे, मेल निवारशुं रे ॥ वेदनी विघटे मणि जलकंत, श्रीशुजवीर मले एकंत ॥ न्हव० ॥ ६॥ ॥ काव्यं ॥ तीर्थोदकैः ॥ १ ॥ सुरनदी ॥२॥ जनमनो० ॥३॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ श्री परम० ॥ वेदनीयकर्म निवारणाय जलं य० ॥ स्वा० ॥ इति वेदनीयकर्म निवारणार्थं प्रथम जलपूजा समाप्ता ॥ १ ॥ १७ ॥ ॥ अथ द्वितीय चंदनपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ वेदनी कर्म ती कहुं, उत्तरपयमी दोय ॥ जास विवश नवचोकमां, मूंगाणा सहु कोय ॥ १ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. ॥ ढाल बीजी ॥ राग आशावरी ॥ साहिब सहस फणा ॥ ए देशी ॥ ॥ तन विकसे मन उसे रे, देखी प्रजुनी रीत ॥ दायक दिल वसीया ॥ जूर लागी जीनमी रे, पूरण बांधी प्रीत ॥ दा० ॥ १ ॥ नयनज्योति सम प्रीतमी रे, एक सुरत दोय कान ॥ दा० ॥ वेदनी हरी धनवंतरी रे, करीए श्राप समान ॥ दा० ॥ २ ॥ वेदनी घर वासो वस्यो रे, नमीया नाथ कुनाथ ॥ दा० ॥ पाणी वलोव्युं एकलुं रे, चतुर न चढीयो हाथ ॥ दा० ॥ ३ ॥ खङ्गधार मधुलेपशुं रे, तेहवो ए संसार ॥ दा० ॥ लक्ष्ण वेदनी कर्मनुं रे, फल किंपाक विचार || दा० ॥ ४ ॥ तुज शासन पामे थके रे, लाधो कर्मनो मर्म ॥ दा० ॥ कोमि कपट कोइ दाखवे रे, पण न तजुं तुज धर्म ॥ दा० ॥ ५ ॥ पूज्य मले पूजा रचुं रे, केसर घोली हाथ ॥ दा० ॥ श्रीशुजवीर विजय प्रभु रे, मलीयो श्रविड साथ ॥ दा० ॥ ६ ॥ काव्यं ॥ जिनपतेर्वर० ॥ १ ॥ सहजकर्म० ॥ २ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ श्री श्री परम० ॥ वेदनीयलक्षण कर्म निवारणाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एव विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. चंदनं यण ॥ स्वा० ॥ इति वेदनीयलक्षणकर्मनिवारणार्थ द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता ॥॥१७॥ ॥अथ तृतीय पुष्पपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ बलीयो साथ मले थके, चोर तणुं नहीं जोर ॥ जिनपद फूले पूजतां, नासे कर्म कठोर ॥१॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ राग सारंग ॥ हो धन्ना ॥ए देशी॥ ॥कर्म कठोर पूरे करो रे॥ मित्ता॥पामी श्रीजिनराज ॥ फूलपगर पूजा रचो रे ॥ मित्ता॥ पामी नरनव आज रे॥रंगीला मित्ता ॥ ए प्रनु सेवोने ॥ ए प्रज्जु सेवो शानमां रे ॥ मित्ता॥पामो जेम शिवराज़ रे ॥रंगी॥ए॥१॥ वेदनी वश तुमे कां पमोरे॥मि॥ जेहने प्रजुशुं वेर ॥साहिब वेरी न विससो रे॥मि॥ तो होय साहिब मेहेर रे॥रंगी०॥ ए॥२॥हा गुणगणा लगे रे ॥ मि० ॥ बंध अशाता जाण ॥ शाता बांधे केवली रे ॥ मि० ॥ तेरमे पण गुणगण रे ॥ रंगी० ॥ ए० ॥३॥शाता अशाता एक पदे रे ॥ मि० ॥ चरम गुणे परिहार ॥ सत्ताउदयश्री केवली रे॥ मि॥सके परिसह अगीयाररे॥रंगी॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. एए ए० ॥ ४ ॥ तीस कोमाकोमी सागरु रे ॥ मि० ॥ लघु सातैया त्रिजाग ॥ बंध यशाता वेदनी रे ॥ मिणा हवे शाता सुविजाग रे || रंगी० ॥ ए० ॥ ५ ॥ पन्नर कोकाकोमी सागरु रे || मि० ॥ लघु दोय समय ते थिर ॥ गोयम संशय टालीयो रे || मि० ॥ जगवईमां शुजवीर रे || रंगी० ॥ ए० ॥ ६ ॥ ॥ ॥ काव्यं ॥ सुमनसां० ॥ १ ॥ समयसार० ॥ २ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ ॐ श्री परम० ॥ वेदनीयबंध निवारणाय पुष्पाणि य० ॥ स्वा० ॥ इति वेदनीयबंध निवारणार्थं तृतीय पुष्पपूजा समाप्ता ॥ ३ ॥ १७ ॥ ॥ अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ उत्तराध्ययने थिति लघु, अंतरमुहूर्त्त कहाय ॥ पन्नवणामां बार ते, शाता बंध संपराय ॥ १ ॥ शातावेदनी बंधनं, गण प्रभु पुर धूप ॥ मित दुर्गंध दूरे टले, प्रगटे आत्मस्वरूप ॥ २ ॥ ॥ ढाल चोथी ॥ विमलाचल वेगे वधावो ॥ ए देशी ॥ ॥ चमासी पारणं यावे, करी विनति निज घर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जावे ॥ प्रिया पुत्रने वात जणावे, पटकूल जरी पथरावे रे॥महावीर प्रज्जु घर आवे॥जीरण शेठजी जावना नावे रे ॥ महा॥१॥ उनी शेरीए जल बंटकावे, जाय केतकी फूल बिगवे ॥ निज घर तोरण बंधावे, मेवा मीगर थाल जरावे रे ॥ महा ॥२॥ अरिहाने दानज दीजे, देतां देखी जे रीजे ॥ षट्मासी रोग हरीजे, सीके दायक नव त्रीजे रे ॥ महा॥३॥ते जिनवर सनमुख जावू, मुज मंदिरीए पधरावें ॥ पारणुं जली नक्ते करावं, युगते जिनपूजा रचावु रे ॥ महा ॥४॥पनी प्रजुने वोलावा जश्शु, कर जोमी सामा रही\ ॥ नमी वंदी पावन थश्शु, विरति अतिरंगे वहीशुंरे ॥ महा ॥ ५॥ दया दान क्षमा शील धरशु, उपदेश सजानने करशं॥ सत्य ज्ञानदशा अनुसरशु, अनुकंपा लक्षण वरशुं रे ॥ महा ॥६॥ एम जीरण शेठ वदंता, परिणामनी धारे चढंता॥श्रावकनी सीमे ठरंता, देवउंऽनिनाद सुणंतारे॥महा ॥७॥ करी आयु पूरण शुज नावे, सुरलोक अच्युते जावे ॥ शातावेदनी सुख पावे, शुजवीर वचनरस गावे रै ॥ महा ॥ ७ ॥ काव्यं ॥ अगरमुख्य॥१॥ निजगुणादयः ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. ए७ ॥ अथ मंत्रः॥ ॥ उँही श्री परम ॥ शाताबंधापहाय धूपं य० ॥ स्वा० ॥ इति शाताबंधापहार्थं चतुर्थ धूपपूजा समाप्ता ॥४॥२०॥ ॥ अथ पंचम दीपकपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥शाताबंधक प्राणीया, दीपे एणे संसार॥ तेणे दीपकपूजा करी, हरीए फुःख अंधार ॥१॥ ॥ ढाल पांचमी॥ चतुरा चेतो चैतवनाली॥ए देशी॥ ॥सांजलजो मुनि संयमरागे, उपशम श्रेणे चमीया रे ॥ शातावेदनी बंध करीने, श्रेणि थकी ते पनीया रे ॥ सांग ॥१॥ नाखे नगवई बह तप बाकी, सात लवायु उडे रे ॥ सर्वारथसिके मुनि पोहोता, पूर्णायु नवि बगे रे ॥ सांग ॥५॥ शय्यामां पोढ्या नित्य रहेवे, शिवमारग विशामो रे ॥ निर्मल अवधिनाणे जाणे, केवली मनपरिणामो रे ॥ सांग ॥३॥ ते शय्या उपर चंदरुवे, फुबखडे मोती रे॥ विचढुं मोती चोसठ मणर्नु, फगमग जालिम ज्योति रे ॥ सांग ॥४॥ बत्रीश मणनां चल पाखलीए, सोल Jain Education e. 19. tional For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मां विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. सुषीयां रे ॥ श्रमणां सोलश मुगताफल, तिम बत्रीश चनमणियां रे ॥ सां० ॥ ५ ॥ दोमण केरां चोसठ मोती, इगशय यमवीश मणियां रे ॥ दोसय ने वली त्रेपन मोती, सर्व थने मलीयां ॥ सां० ॥ ६ ॥ ए सघलां विचला मोतीशुं, आफले वायुयोगे रे ॥ रागरागिणी नाटक प्रगटे, लवसत्तम सुर जोगे रे ॥ सां० ॥ ७ ॥ भूख तरस बीपे रसलीना, सुर सागर तेत्रीश रे ॥ शाता लहेरमां द क्षण समरे, वीरविजय जगदीश रे ॥ सां० ॥ ८ ॥ ॥ काव्यं ॥ जवति दीप० ॥ १ ॥ शुचिमनात्म० ॥ २ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ פ ॥ ॐ श्री परम० ॥ शातोत्तरसुखप्रापणाय दीपं य० ॥ स्वा० ॥ इति शातोत्तरसुखप्रापणार्थं पंचम दीपकपूजा समाप्ता ॥ ५ ॥ २१ ॥ ॥ अथ षष्टातपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ श्रतपूजाए करी, पूजो जगत्दयाल ॥ दवे अशातावेदनी, बंधनां गए नीहाल ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. ए ॥ ढाल बही ॥ बटाउनी देशी ॥ ॥प्रनो! तुज शासन मीठडं रे, समतासाधन सार॥योगनालिका रुपमी,ते तो ज्ञानीने घरबार रे॥ हुँ रोस्यो एणे संसार रे, गुण अवगुण सरिखा धार रे, हीरो हाथ खोल्यो अंधार रे, न करी ज्ञानीशं गोठमी मेरे लाल ॥१॥शोक कस्यो संसारमा रे, परने पीमा दीध ॥त्रास पमाव्या जीवने, जीव बंधीखाने लीध रे, मुनिराजनी निंदा कीध रे, मुनि संताप्या बहुविध रे, राजा देवसेनानिध रे, एक सरिय शतक परसिक रे॥न॥२॥ माणसना वधाच. ख्या रे, बेदन नेदन तास॥थापण राखी उलवी, करी चामी पमाव्या त्रास रे, दमीया पर क्रोधनिवास रे, के जूझवीया रही पास रे, केश जीवनी नांगी श्रास रे, थयो करपी कपिलादास रे ॥ न० ॥३॥ एम अशातावेदनी रे, बांधे प्राणी अनंत ॥ सूत्र विपाके सांजलो, मृगापुत्र तणो दृष्टांत रे, सुणी कंपे समकितवंत रे, सुख अक्षय पामे एकांत रे, करो श्रदतपूजा संत रे, शुजवीर नजो जगवंत रे॥ न ॥४॥ ॥ काव्यं ॥क्षितितलेऽदत॥१॥सहजनाव०॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ श्री श्री परम० ॥ अशाताबंधस्थान निवारणाय तं य० ॥ स्वा० ॥ इति शाताबंधस्थाननिवारणार्थं षष्ठाकतपूजा समाप्ता ॥ ६ ॥ २२ ॥ ॥ चप्रथ सप्तम नैवेद्यपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ न करी नैवेद्य पूजना, न धरी गुरुनी शीख ॥ लदे शाता परजवे, घर घर मागे जीख ॥ १ ॥ ॥ ढाल सातमी ॥ इमन रागिणी ॥ महारी सही रे समाणी ॥ ए देश ॥ ॥ तुज शासनरस अमृत मीतुं, संसारमां नवि दीव्रं रे ॥ मनमोहन स्वामी ॥ दीतुं पण नवि लागुं मीतुं, नारकडुःख तेणे दीतुं रे ॥ म० ॥ १ ॥ दशविध वेदन अतुल ते पावे, दुःखमां काल गमावे रे ॥ म० ॥ परमाधामी दुःख उपजावे, जव जावनाए जावे रे ॥ म० ॥ २ ॥ जेम विषमुक्ति तलार अवाजा, एक नगरे एक राजा रे ॥ ० ॥ शत्रुसैन्य समागम पहे - लो, गाम गाम विष भेट्यो रे । म० ॥ ३ ॥ धान्य मीठा मीठा जलमा, गोल खांग तरु फलमां रे ॥ म०॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. १०१ पमहो वजावी एम उपदेशे, जे मीगं जल पीशे रे ॥ म० ॥ ४ ॥ न नोज्य रसलीना खाशे, ते यममंदिर जाशे रे ॥ म० ॥ दूरदेशांगत जोजन करशे, खारां पाणी पीशे रे ॥ म० ॥ ५ ॥ ते चिरंजीव लहे सुखशाता, कदीय न होय अशाता रे ॥ म० ॥ नृपआणा करी ते रह्या सुखीया, बीजा मरण लहे दुःखीया रे ॥ म० ॥ ६ ॥ विषमिश्रित विषयारस जुत्ता, ब्रह्मदत्त नरक पहुत्ता रे ॥ म० ॥ मेघकुमर धन्नो सुखजाजा, श्रीशुनवीर ते राजा रे ॥ म० ॥ ७ ॥ ॥ काव्यं ॥ अनशनं० ॥ १ ॥ कुमतबोध० ॥ २ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ ॐ श्री परम० ॥ अशातोदय निवारणाय नैवेद्यं य० ॥ स्वा० ॥ इति शातोदय निवारणार्थं सप्तम नैवेद्यपूजा समाप्तां ॥ ७ ॥ २३ ॥ ॥ थाष्टम फलपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ श्रात्मिक फल प्रगटावी युं, टाली शात अशात ॥ त्रिशलानंदन आगले, फलपूजा परजात ॥ १ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ ढाल आमी ॥ राग वसंत धमाल ॥ नंदकुमर कैडे पड्यो, केम जरीए ॥ ए देशी ॥ ॥ वीर कुमरनी वातडी, केने कहीए ॥ केने कही ए रे ने कही ॥ नवि मंदिर बेसी रहीए ॥ सुकुमाल शरीर ॥ वी० ॥ ए कणी ॥ बालपणायी लामको नृप जाव्यो, मली चोसठ इंद्रे मल्हाव्यो ॥ इंद्राणी मली दुलराव्यो, गयो रमवा काज ॥ वी० ॥ १ ॥ ala asiaei लोकनां, केम रहीए, ॥ एनी मावडीने शुं कहीए ॥ कहीए तो अदेखां थइए, नासी श्रव्यां बाल ॥ वी० ॥ २ ॥ श्रामलकी क्रीडावशे वीटाणो, मोटो जोरिंग रोष जराणो ॥ हाथे काली वीरे ताएयो, काढी नाख्यो डूर ॥ वी० ॥ ३ ॥ रूप पिशाचनुं देवता करी चलीयो, मुज पुत्रने लेइ उबलीयो ॥ वीरमुष्टिप्रहारे वलीयो, सांजली ए एम ॥ वी० ॥ ४ ॥ त्रिशला माता मोजमां एम कहेती, सखीउने उलंजा देती ॥ कण कण प्रजुनामज लेती, तेमावे बाल ॥ वी० ॥ ५ ॥ वाट जोवंतां वीरजी घेर श्राव्या, खोले बेसारी दुलराव्या ॥ माता त्रिशलाए नवराव्या, आलिंगन देत ॥ वी० ॥ ६ ॥ यौवनवय प्रभु पामतां परणावे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १०३ पठी संयमशुं दिल लावे ॥ उपसर्गनी फोज हगवे, लीधुं केवलनाण ॥ वी०॥७॥कर्मसूदन तप नाखीयु जिनराजे, त्रण लोकनी ठकुराइ बजे ॥ फलपूजा कही शिव काजे, नविने जपगार ॥वी॥॥शाता अशाता वेदनी क्षय कीधुं, आपे अदय पद लीधुं ॥ शुजवीरनुं कारज सीधुं, नांगे सादि अनंत ॥ वी० ॥ ए॥ काव्यं ॥ शिवतरोः ॥१॥ शमरसै॥२॥ ॥ श्रथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम ॥ वेदनीयकर्मदहनाय फलं य० ॥ वाण ॥ कलश ॥ गायो गायो० ॥ इति वेदनीयकर्मदहनार्थमष्टम फलपूजा समाप्ता ॥७॥२४॥ इति तृतीयदिवसेऽध्यापनीयवेदनीय र कर्मनिवारणार्थ तृतीयपूजाष्टकं संपू र्णम् ॥ ३॥ सर्व गाथा (६६) Rod ACADAAGDAD. o . . . . . . . . . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ ॥ ॥ चतुर्थदिवसेऽध्यापनीयमोहनीयकर्मसूदनाथ चतुर्थपूजाष्टक प्रारंजः ॥ ॥ तत्र ॥ ॥प्रथम जलपूजा प्रारज्यते ॥ ॥ दोहा ॥ ॥श्रीशुनविजय सुगुरु नमी, मात पिता सम जेह ॥ बालपणे बतलावीयो, आगम निधि गुणगेह ॥१॥ गुरु दीवो गुरु देवता, गुरुथी लहीए नाण ॥ नाण थकी जग जाणीए, मोहनीनां अहिंगण ॥२॥ कष्ट ते करवं सोहिवू, अज्ञानी पशुखेल ॥ जाणपणुं जग दोहिर्बु, ज्ञानी मोहनवेल ॥३॥ अज्ञानी श्रविधि करे, तप जप किरिया जेह ॥विराधक षट्कायनो, आवश्यकमां तेह ॥४॥ मूरखमुख श्रागम सुणी, पमीया मोहनी पास ॥ श्रागम लोपे बिहुँ जणा, नरय निगोदे वास ॥५॥ मूरखसंग अति मले, तो वसीए वनवास ॥ पंडितरां वासो वसी, बेदो मोहनो पास ॥ ६॥ कुबा मिब कषाय सवि, Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. १०५ जय ध्रुवबंधि एह ॥ शेष अध्रुवबंधि कही, मिठ ध्रुवोदय गेह ॥७॥ सगवीस अध्रुवोदय कही, हवे अध्रुव सममीस॥सत्ताथी पूरे करो, ध्रुवसत्ता वीश ॥॥ मोहनी पूर थये थके, नासे कर्मसंजार ॥ कारण थी कारज सधे, पूजा अष्ट प्रकार ॥ ए॥ ॥ ढाल पहेली ॥ उधव !माधवने कहेजो॥ए देशी॥ ॥जलपूजा युगते करीए, मोहनी बंध गण हरीए, विनतमी प्रजुने करीए रे॥ चेतन चतुर थश्चूक्यो, निज गुण मोहवशे मूक्यो रे॥चे० ॥१॥ जीव हण्या त्रस जल नेटी, देश फांसो मोघर कूटी ॥मुख दाबी वाधर वेंटी रे॥ चे॥२॥ क्वेश शम्या उदेरणीया, अरिहा अवगुण मुख जणीया, बहु प्रतिपालकने हणीया रे॥०॥३॥धर्मी धर्मथी चूकवीया, सूरि पाठक अवगुण लवीया, श्रुतदायक गुरु हेलवीया रे॥ चे ॥४॥ निमित्त वशीकरणे नरीयो, तपसी नाम वृथा धरीयो, पंमित विनय नवि करीयो रे ॥ चे॥५॥ गाम देश घर परजाल्यां, पाप करी अन्य शिर ढाल्या, कपट करी बहु जन वाल्यां रे॥चे० ॥६॥ ब्रह्मचारी थ गवराणो, परदाराशुं मूंकाणो, परधन देखी मुहवाणो रे ॥ चे ॥ ७ ॥ परमोही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. मिथ्यानाषी, विश्वासघाती कूमशाखी, मुनि मी सेव्या खाखी रे॥०॥॥मोहनीबंध करी फरीयो, सित्तेर कोमाकोडी सागरीयो, हवे तुम शासन अवतरीयो रे॥चेाए॥श्रीशुनवीर मया कीजे, जिम सेवक कारज सीके, वांक गुनो बखसी दीजे रे॥चे०॥१०॥ ॥काव्यं॥ तीर्थोदकैः॥॥सुरनदी॥शाजनमनो॥३॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ उही श्री परम ॥ मोहनीयबंधस्थान निवारणाय जलं य० ॥ स्वा० ॥ इति मोहनीयबंधस्थाननिवारणार्थं प्रथम जलपूजा समाप्ता ॥१॥२५॥ ॥ अथ द्वितीय चंदनपूजा प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥बीजी चंदनपूजना, पूजो नेली कपूर ॥ अमवीस पयमी मांडेथी, चारित्रमोहनी धर ॥१॥ ॥ ढाल बीजी ॥ राग बिहाग ॥ बिलावर ॥ घमि घमि सांजरो सांई सलूणा ॥ ए देशी ॥ ॥ चंदनपूजा चतुर रचावे, मोह महीपति महेल खणावे ॥०॥ चारित्रमोहनी मूल जलावे, जिनगुण ध्यान अनल सलगावे॥ चं० ॥१॥चार अनंता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा २०७ नुबंधि विषधर, सुर वसुदत्त मुनिरूप धरावे ॥ चं० ॥ त्रण नाग एक नागणी महोटी, परिबोहण नागदत्त डसावे ॥ चं० ॥ २ ॥ जाव जीव चारनुं विष रदेवे, सनने एणी परे समजावे ॥ चं० ॥ नरक लहे समकित गुणघाते, अंते समाधिपणुं नवि पावे ॥ चं० ॥ ३ ॥ चालीश सागर कोमाकोडी, बंध उदय सास्वादन जावे ॥ चं० ॥ श्रामे गुणठाणे विषसत्ता, पर्वत रेखा क्रोध कहावे ॥ चं० ॥ ४ ॥ आठ फणालो मान मणिधर, पचरथंजने कोण नमावे ॥ चं० ॥ घनवंशी मूल माया नागणी, लोन करमजी रंग कोण हावे ॥ चं० ॥ ५ ॥ में वश कीधा मुनि किरियाथी, मंत्रमणि मोहरे वश नावे ॥ चं० ॥ जांगुली वादीने पाणी जरावे, नागदत्त वसुदत्त जगावे ॥ चं० ॥ ६ ॥ सामायिक दमक उच्चरावे, ए समो मंत्र न को जग श्रावे ॥ चं० ॥ श्री शुजवीरना शासन मांहे, नागदत्त अक्षय पद पावे ॥ चं० ॥ ७ ॥ ॥ काव्यं ॥ जिनपतेः ॥ १ ॥ सहजकर्म० ॥ २॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ उँझी श्री परम० ॥ अनंतानुबंधिदहनाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. चंदनं य० ॥ वा ॥ इति अनंतानुबंधिदहनार्थ द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता ॥२॥ २६ ॥ ॥ अथ तृतीय पुष्पपूजा प्रारंनः ॥ ॥श्रपच्चरकाणी चोकडी, टाली अनादिनी नूल ॥ परमातम पद पूजीए, केतकी जायने फूल ॥१॥ ॥ ढाल त्रीजी॥राणी रुए रंग महेलमें रे॥ए देशी॥ फूलपूजा जिनराजनी रे, विरतिने घरबार रे॥ सनेहा ॥ ते गुणलोपक अपच्चरकाणी, जे क्रोधादिक चार रे॥ सनेहा ॥ चार चतुर चित्त चोरटा रे, मोह महीपति घेर रे॥साचार॥१॥चालीश सागर कोमाकोडी, बंध थिति अनुसार रे॥स ॥ उदय विपाक अबाधक काले, वर्ष ते चार हजार रे॥ स ॥ चारण ॥२॥ बंध उदय चोथे गुणे रे, नवमे सत्ता टाल रे ॥स॥वर्ष लगे ते पाप करी रे, न खमावे गुरु बाल रे ॥ स ॥ चार ॥३॥ तिर्यंचनी गति एहथी रे, पुढवी रेखा क्रोध रे॥ स०॥ अस्थि नमाव्यु वरषे नमे रे, बाहुबली नरयोध रे ॥ स० ॥ चार ॥ ४ ॥ माया मिंढासिंग सरीसी, लोन ले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. १० कर्दम रंग रे ॥ स० ॥ अनीतिपुरे व्यवहारीयो रे, रणघंटाने संग रे ॥ स० ॥ चार ॥५॥ चार धूतारा वाणीया रे, पासेथीवाट्युं वित्त रे ॥ सम्॥ रत्नचूम परे शुन विरतिशु, लागे चतुरनुं चित्त रे ॥ स० ॥ चार ॥६॥ ॥ काव्यं ॥ सुमनसांग ॥१॥ समयसार ॥२॥ ॥ श्रथ मंत्रः ॥ ॥ श्री श्री परम ॥ अप्रत्याख्यानिनिवारणाय पुष्पाणि य० ॥ खा० ॥ इति अप्रत्याख्यानिनिवारणार्थं तृतीय पुष्पपूजा समाप्ता ॥३॥२७॥ ॥ अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ प्रत्याख्यानी चोकमी, दहन करेवा धूप ॥ पूजक ऊर्ध्व गति लहे, वलीन पडे लवकूप ॥१॥ ॥ ढाल ॥ अने हारे वादहोजी वाये जे वांसली रे॥ ए देशी ॥ ॥ श्रने हारे धूप धरो जिन श्रागले रे, कृष्णागरु धूप दशांग, श्रेणि नली गुणगणनी रे ॥ श्रने हारे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. धूपधाणुं रयणे जड्युं रे, घड्यु जात्यमयी कनकांग ॥ श्रेणिः ॥ अने हारे ॥धून॥१॥०॥ मुनिवर रूप न दाखवे रे, थिति बंध पूरवनी रीत ॥श्रेणिम् ॥ अ०॥ बंधोदय गुणगणे पांचमे रे, हवे दायक श्रेणि वदित्त ॥ श्रेणि ॥ १० ॥धू ॥२॥ अ०॥ सोल सामंतने जोलवी रे, वच्चे घेरी हण्या लश् लाग ॥श्रेणि ॥ अ० ॥ नाग आठे सेनापति रे, नव माने बीजे नाग ॥श्रेणि॥०॥धू ॥३॥ अ॥ चउमासा लगे ए रहे रे, मरणे नरनी गति जाण ॥श्रेणि॥०॥ रजरेखा सम क्रोध के रे, कठर्थन समाणो मान ॥श्रेणि॥०॥ धू॥४॥०॥ माया गोमूत्र सारखी रे, जे लोन ते खंजन रंग ॥ श्रेणि ॥ अ॥ मुनिवर मोहने नासवे रे, रही श्रीशुजवीरने संग ॥ श्रेणि ॥ अ० ॥ ५० ॥५॥ ॥ काव्यं ॥ अगरमुख्य ॥१॥ निजगुणादयः॥२॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परम ॥ प्रत्याख्या निदहनाय धूपं य० ॥खा ॥ इति प्रत्याख्यानिदहनार्थ चतुर्थ धूपपूजा समाता ॥४॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. १११ ॥अथ पंचम दीपकपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा॥ ॥ संज्वलननी चोकमी, जब जाये तव गेह ॥ ज्ञानदीवो परगट हुवे, दीपकपूजा तेह ॥ १॥ ॥ ढाल पांचमी ॥ चंप्रन जिनचंउमा रे॥ए देशी॥ ॥ जगदीपकनी श्रागले रे, दीपकनो उद्योत ॥ संज्वलनो ज्वलते थके रे, नाव दीपकनी ज्योत ॥ हो जिनजी ॥१॥ तेजे तरणिधी वमो रे, दोय शिखानो दीवडो रे, फलके केवल ज्योत ॥ ए बांकएणी ॥ बंध स्थिति पूरव परे रे, संज्वलनो तिग जाण ॥ बंध उदय सत्ता रहे रे, अनियहि गुणगण ॥ हो जि०॥ ते ॥२॥ लोन दिशा अति आकरी रे, नवमे बंध पलाय ॥ उदय ने सत्ता जाणीए रे, जे सूक्ष्मसंपराय ॥ हो जि० ॥ ते ॥ ३ ॥ साहिब श्रेणि संचयों रे, लोजनो खंड प्रचंड ॥ गुणगणां सरिखो करी रे, खेरव्यो खंडोखंग॥ हो जि०॥ ते ॥४॥ पद लगे गति देवनी रे, जलरेखा सम क्रोध ॥ नेत्रलता सम मानथी रे, चरम चरणनो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. रोध ॥ हो जि० ॥ ते ॥ ५॥ माया अवलेही समी रे, लोज हरिजा रंग॥दायकनावे केवली रे, श्रीशुनवीर प्रसंग ॥ हो जि० ॥ ते ॥६॥ ॥ काव्यं ॥ नवति दीप० ॥ १॥ शुचिमना ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ श्री श्री परम॥संज्वलनज्वलनाय दीपं य० ॥ स्वा॥ इति संज्वलनज्वलनार्थं पंचम दीपक पूजा समाप्ता ॥५॥श्ए॥ ॥ अथ षष्ठादतपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥नव नोकषाय ते चरणमां, राग द्वेष परिणाम ॥ कारण जेह कषायनां, तिण नोकषाप ते नाम ॥१॥ ॥ ढाल बही ॥ सहसावन ज वसीए, चालोने सखि ! सहसावन ज वसीए ॥ ए देशी ॥ ॥वीर कने जश् वसीए, चालोने सखि ! वीर कने जश् वसीए ॥ अदतपूजा जिननी करतां, अक्षय मंदिर वसीए ॥ हास्यादिक षट्र खटपटकारी, तास वदन नवि पसीए ॥ चा॥३॥ हास्य रति दश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. ११३ कोमाकोमी, सागर बंधन कसीए ॥ अरति ने जय शोक उगंठा, वीश कोमाकोमी खसीए॥चा॥२॥ जय रति हास्य पुगंडा अपूरव, शेष प्रमत्त बंध धसीए॥उदय अपूरव सत्ता नवमे, पंचम नागे नसीए ॥चा ॥३॥ काजव उकरतां मुनि देखे, सोहमपति मोह वसीए ॥ मोहे नमीया नाणथी पमीया, काउस्सग्गमां मुनि हसीए ॥चा॥४॥मोहनी हास्य विनोदे वसतां, जेमतेम मुखथी नसीए ॥ को दिन रति को दिन अरतिमां, शोकमति लेश घसीए॥ चा ॥५॥ संसारे सुख लेश न दीवं, नयमोहनी चिहुं दिशिए ॥ चरण उगंडाफल चंमाले, जन्म मेतारज ऋषिए ॥ चा॥६॥ मोह महीपति महा तोफाने, मुंफाणा अहनिशिए ॥ श्रीशुनवीर हजूरे रहेतां, आनंदलहेर विलसीए ॥ चा० ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ वितितले ॥१॥ सहजनाव० ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम०॥ हास्यषट्कनिवारणाय अक्षतं य० ॥ वा ॥ इति हास्यषट्कनिवारणार्थ षष्ठादतपूजा समाप्ता ॥६॥३०॥ Jain Educatio@hote Ceational For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ अथ सप्तम नैवेद्यपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥आहारे वेद उदय वधे, जेहश्री बहु जंजाल ॥ निर्वेदी आगल वो, नरी नैवेद्यनो थाल ॥१॥ ॥ ढाल सातमी ॥ राग मारु ॥ परजीयानी चाल ॥ ॥ अमे जाणी तुमारी वात रे ॥ ए देशी ॥ . ॥मलीने विद्यमशो नहीं कोय रे, मन मान्या मोहनने॥मली ॥ए आंकणी॥वेदे वाह्यो जीव, विषयी थयो । जव मांहे घणुं नटकाय रे ॥ मन ॥ मोहनीघर वस्यो, मोहनी खोलतो ॥ मले मोहन न उलखाय रे ॥ म ॥ १॥ जे गुणश्रेणे चड्या, वेदउदये पड्या ॥ अषाढाचूति मुनिराय रे॥म॥ एम अनेक ते चूक्या, तपबल वने मूक्या ॥ शक्या नहीं वेद बुपाय रे॥म॥॥महानिशीथे कह्या, नव बहुल लह्या ॥ वेदजदयरूपी राय रे ॥म॥ वेद विलुका प्राणी, करे संपदहाणी ॥ रावण नमे सीताना पाय रे॥ म०॥३॥ देव अच्युतानवासी, पूरव प्रिया पासी ॥ मणु नारीशुं लपटाय रे॥म०॥पन्नवणाए Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. ११५ कह्या, वेद विवश रह्या ॥ घर मी विदेशे जाय रे ॥ म॥४॥गले फांसो धरे, ऊंपापात करे॥मात पिताशुं न लजाय रे॥म॥ वेद त्रिहुं जदयाणे, नवमे गुणगणे ॥ मिथ्याते नपुं बंधाय रे ॥ म ॥५॥ नवम पूजा सुधी, पुरुष प्रिया बंधी ॥ हवे सत्ताथी बेदाय रे॥म॥ नर नपुंसक नारी,नवमेथी हारी॥ षट् त्रण चोथाने नाय रे ॥ म ॥६॥ नरीही नपुं जोमी, सागर कोमाकोमी ॥ दश पन्नर वीश कहाय रे ॥मवेदे नड्यो जड्यो, संसारी घड्यो॥ निर्वेदी चड्यो नहीं गय रे ॥म ॥ ७॥ अब तुं खामी मढ्यो, नरजवज फल्यो ॥ नैवेद्यपूजा फलदाय रे ॥ म ॥ श्रीशुजवीर हजूरे, रहो श्रानंद पूरे ॥ नववेदन विसरी जाय रे ॥ म० ॥ ७॥ ॥ काव्यं ॥ अनशनं०॥१॥ कुमतबोध ॥२॥ ॥ अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम ॥ वेद त्रिकसूदनाय नैवेद्यं य० ॥ खा० ॥ इति वेद त्रिकसूदनाथ सप्तम नैवेद्यपूजा समाप्ता ॥७॥३१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ अथाष्टम फलपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ मोह महाजट केशरी, नामे ते मिथ्यात ॥ फलपूजा प्रजुनी करी, करशुं तेहनो घात ॥१॥ ॥ ढाल आठमी ॥ राग वसंत, धुमार ॥ अहो मेरे ललना ॥ ए देशी ॥ ॥मोहमहीपति महेलमें वेठे, देखे श्रायो वसंत॥ ललना ॥ वीर जिणंद रहे वनवासे, मोहसे न्यारो नगवंत ॥ चतुराके चित्त चंद्रमा हो ॥१॥ मंजरी पिंजरी कोयल टहुके, फूली फली वनराय॥ ललना ॥ धर्मराज जिनराजजी खेले, होरी गोरी अजवीकाय ॥ च०॥२॥ संतोष मंत्री वमो मुख आगे, समकित मंमली नूप ॥ ललना ॥ सामंत पंच महाव्रत गजे, गाजे मार्दव गजरूप ॥ च० ॥३॥ चरण करण गुण प्यादल चाले, सेनानी श्रुतबोध ॥ ललना ॥ शीलांगरथ शिर सांई सुहावे, अध्यवसाय जस योध ॥ च० ॥ ४ ॥ मोहराय पण णे समे श्रायो, माया प्रिया सुत काम ॥ ललना ॥ मंत्री लोज जट पुर्डर क्रोधा, हास्यादि षट्रथ नाम ॥ १० ॥५॥मिथ्यात Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. ११७ मंमली राय अटारो, बंध उदय निज वगण ॥ ललना॥ समकित मिश्रमोहनी लघु नाश, उदये सत्तम सम्म जाण ॥ च ॥ ६॥ सित्तेर सागर कोमाकोमी, मिथ्यात्वनो स्थितिबंध ॥ ललना॥सत्ता त्रणनी श्रम गुणगणे, मानहस्तीए चाहे धंध ॥ च ॥ ७ ॥ तस रदक मन जिन पलटायो, मोह ते नागो जाय ॥ ललना॥ध्यान केशरीया केवल वरीया, वसंत अनंत गुण गाय ॥ च ॥ ७॥ ते शुजवीर जिणंदे दाख्यो, कर्मसूदन तप एद् ॥ ललना ॥ तपफल फलपूजा करी याचो, साचो सांगुं करो नेह ॥ च ॥ ए॥ ॥ काव्यं ॥ शिवतरोः ॥ १॥ शमरसैका ॥२॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परम ॥ दर्शनमोहनीयनिवारणाय फलानि यावाणाकलशोगायोगायो॥इति दर्शनमोहनीय निवारणार्थमष्टम फलपूजा समाप्ता ॥॥३२॥ ॥ इति चतुर्थ दिवसेऽध्यापनीयमोहनीयकर्मसूदनाथ चतुर्थपूजाष्टकं संपू. र्णम् ॥४॥ सर्व गाथा (७४) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ ॥ ॥ पंचमदिवसेऽध्यापनीयायुष्कर्मसूदनार्थ पंचमपूजाष्टक प्रारंनः॥ ॥ तत्र॥ ॥प्रथम जलपूजा प्रारंभः॥ ॥दोहा॥ ॥पंचम कर्म तणी कडं, पूजा अष्ट प्रकार ॥ मोहराय दरबारमा, जीवित कारागार ॥१॥चार श्रघाती आउखां, बंधोदय सुविचार ॥ सत्ताए पण जोमीए, अध्रुव पद निरधार ॥॥ चार गतिमां जीवमो, आयुकर्मने योग ॥ बंध उदयश्री अनुजवे, सुख दुःख केरा जोग ॥३॥ चरमशरीरी विण जिके, जीवणे संसार ॥ समय समय बांधे सही, कर्म ते सात प्रकार ॥४॥ अंतरमुहूर्ते श्राउ, नवमां एकज वार ॥ बांधी अबाधा अनुजवी, संचरीया गति चार ॥५॥ एम पुजलपरावर्त्तना, करी संसार अनंत ॥ निर्नयदायक नाथजी, मलीयो तुं जगवंत ॥६॥जलपूजा युगते करी, धरी प्रजुचरणे शीश ॥चार पयमीमां सुर गति, दायक गण कहीश ॥ ७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. ११५ ॥ ढाल पहेली ॥ शीतल जिन सहजानंदी ॥ ए देशी ॥ ॥ तीर्थोदक कलशा जरीए, अनिषेक प्रजुने करीए ॥ प्रा तिहारज शोजा धरीए, लघु गुरु श्राशातना हरीए ॥ सलूषा संत ए रीत कीजे, देववायु लहे जव बीजे ॥ स० ॥ १ ॥ परमातमपूजा रचावे, समता रस ध्यान धरावे ॥ शोक संताप अप करावे, साधु साधवीने वोहरावे ॥ स० ॥ २ ॥ गुणी राग धरे व्रत पाले, समकित गुणने अजुवाले ॥ जया अनुकंपा ढाले, करे गुरुवंदन त्रण काले ॥ स० ॥ ३ ॥ पंचाग्निताप सहता, ब्रह्मचारी वनमां वसंता ॥ कष्टे करी देह दमंता, बाल तपसी नाम धरंता ॥ स० ॥ ४ ॥ बंध करतो सातमे जाणो, उदये चोथो गुणगणो ॥ उधे सुरश्रायु प्रमाणो, सत्ता उपशम गुणगणो ॥ स० ॥ ५ ॥ लोक लोकोत्तर गुणधारी, अंते परिणाम समारी ॥ देवलोक मांहे अवतारी, शुजवीर वचन बलिहारी ॥ स० ॥ ६ ॥ ॥ काव्यं ॥ तीर्थोद कै० ॥ १॥ सुरन दी ० ॥२॥ जनमनो० ॥३॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ ॐ श्री परम० ॥ देवायुबंध स्थान निवारणाय For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. जलं य० ॥ स्वा० ॥ इति देवायुर्बंधस्थान निवारणार्थं प्रथम जलपूजा समाप्ता ॥ १ ॥ ३३ ॥ ॥ अथ द्वितीय चंदनपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ पर्याप्त पूरी करी, समकितदृष्टि देव ॥ न्हवण विलेपन केसरे, पूजे जिन तत्खेव ॥ १ ॥ ॥ ढाल बीजी ॥ कोशा वेश्या कहे रागी जी ॥ मनोहर मन गमता ॥ ए देशी ॥ ॥ दुनियामां देव न डूजाजी, जिनवर जयकारी ॥ करूं अंग विलेपन पूजा जी ॥ जि० ॥ तेम सम किती सुर पूजे जी ॥ जि० ॥ मिथ्यात्वी पण के बूजे जी ॥ जि० ॥ १ ॥ तिहां पहेली जवण निकाय जी ॥ जि० ॥ एक सागर अधिकुं याय जी ॥ जि० ॥ उत्तरथी दक्षिण हीणा जी ॥ जि० ॥ नवमां दो पलिय ते ऊणा जी ॥ जि० ॥ २ ॥ व्यंतर एक पलियनुं श्राय जी ॥ जि० ॥ सु साहिब त्रीजी निकाय जी ॥ जि॥ सहस लक्ष वरस अधिकेरे जी ॥ जि०॥ रवि चंद्र पल्योपम पूरे जी ॥ जि० ॥ ३ ॥ गढ़ रिख तारक जोमाय जी ॥ जि० ॥ पय अर्धने चोथे पाय जी ॥ जि० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसप्रकारी पूजा. १५१ सौधर्मे सागर दोय जी ॥ जि० ॥ बीजे अधिकेरां होय जी ॥ जि० ॥४॥ दोय कल्पे सगहिय जाणो जी ॥ जि० ॥ ए परमायु परिमाणो जी ॥ जि० ॥ दश चन्दश सत्तर दीजे ज।॥ ज०॥ महाशुक्र लगे ते लीजे जी ॥ जि॥हवे कीजे अधिक एक एकेजी ॥जि०॥ एकत्रीश नवमे ग्रैवेके जी॥ जि०॥ तेत्रीश ते पंच विमाने जी ॥ जि० ॥ समकितदृष्टि तिहां माने जी ॥ जि० ॥६॥ शिवसाधन बाधक टाणे जी। जि० ॥ सुरसुख ते कुःख कर। जाणे जी ॥ जि ॥ कल्याणक रंगे जीना जी॥ जि ॥ शुनवीर वचनरस लीना जी ॥ जि० ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ जिनपते ॥ १॥ सहजकर्म ॥२॥ ॥ अथ मंत्रः॥ ॥ दी श्री परम॥सुरायुर्निगमनंजनाय चंदनं य० ॥ स्वा० ॥ इति सुरायुर्निगमनंजनार्थं द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता ॥२॥३४॥ ॥ अथ तृतीय पुष्पपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ।। त्रीजी कुसुमनी पूजना, पूजे नित्य जिनराय ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. पंतिसंग करे सदा, शास्त्र जणे धरे न्याय ॥ १ ॥ न्याये उपार्जन करे, जयणायुत मुनिदान ॥ जड़क जावे नविकरे, खारंज निंदा ठगए ॥ २ ॥ परउपकारादि गुणे, बांधे मनुं श्राय ॥ तुज शासन रसीया थइ, शिवमारग के जाय ॥ ३ ॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ आसरा योगी ॥ ए देशी ॥ ॥ कुसुमनी पूजा कर्म नसावे, नागकेतु परे जावे रे ॥ सुजो जगखामी ॥ श्रायु निकाचित बे पण तहवी, कर्मनुं जोर दवावे रे ॥ सु० ॥ १ ॥ श्रेणिक सरिखा तुज गुणरागी, कर्मनी बेडी न जांगी रे ॥ सु० ॥ सुकमालिका उपनय इहां जावो, सार्थवाह घर लागी रे || सु० ॥ २ ॥ त्र्याशी लाख पूरव घर वासे, जिनवर विरति न आवे रे ॥ सु० ॥ बंध तुरिय सत्ता उदयेथी, केवली ते खपावे रे || सु० ॥ ३ ॥ त्रण पढ्योपम युगलिक श्रायु, कल्पतरु फल लीना रे ॥ सु० ॥ संखायु नर शिव अधिकारी, जाय ते जव व्रतहीना रे ॥ सु० ॥ ४ ॥ पूरवकोकि चरण फल हारे, मुनि अधिकेरे याय रे ॥ सु० ॥ श्रीशुजवीर अचल सुख पावे, चरम चोमासुं जाय रे ॥ सु० ॥ ५ ॥ ॥ काव्यं ॥ सुमनसां० ॥ १ ॥ समयसार० ॥ २ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १२३ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ नरायुर्निवारणाय पुष्पाणि य॥ वाण ॥ इति नरायुर्निवारणार्थ तृतीय पुष्पपूजा समाता ॥३॥ ३५ ॥ ॥ अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ॥ कर्म समिध दाहन नणी, धूपघटा जिनगेह ॥ कनक हुताशन योगयी, जात्यमयी निज देह ॥१॥ जिनगुणरंग सुगंगमें, ढलकत जलकत हंस ॥ श्रायु कलंक उतारतां, शोने निर्मल वंश ॥२॥ निर्मल वंश नीहालीने, कुलवंती घरनार ॥ परघर रमतो देखीने, समजावे जरतार ॥३॥ ॥ ढाल चोथी॥राग योग्य आशावरी ॥ उड जमरा कंकणी पर बेग ॥ नयणीसें ललकारुंगी॥ ॥ उम जा रे जमरा तुज मारुंगी ॥ ए देशी ॥ ॥जिनगुण धूपघटा वासंती, कुलवंती परदारंगी॥ मत जा रे पिया तुज वारंगी ॥ बालखेलमें नवि बतलायो, अब नयने ललकारुंगी ॥ म॥१॥ मात Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. पिता सयणा लजवाते, लाजत दश दोष मारुंगी॥ म॥ए तुज ख्याल बुरो उनियामें, क्या में मुख देखाउंगी ॥ म ॥२॥ रयणी घोरमें चोर फिरत हे, पियु हररोज पोकारंगी ॥ म०॥इतने दिन जलमें रहेती, सहेती उनिया गारंगी ॥ म० ॥३॥ तीन लोक साहिबकी थाना, में तेरे शिर धारंगी॥म०॥ दीपकी ज्योतसे मंदिर रहेनां, परघर चार विसारुंगी ॥म ॥४॥ चार सजाए फूल बिठाउँ, उतियांसें बिलगारंगी॥म ॥रंगमहेलमें सहेल करंतां, गोदमें पुत्त रमारंगी ॥ स० ॥ ५॥ गंगानीरसें अंग पखालं, नाथ सगांसें तारुंगी ॥ म० ॥ नवल वधूसें पुत्तसगाश, मंगलतूर बजारंगी ॥ म० ॥६॥ नाथसें होती पुत्तपनोती, सखीयां गीत उचारुंगी॥माश्रीशुजवीर चतुर चोरीमें,शिरपर खूण उतारूंगी॥म ॥ ॥ काव्यं ॥ अगरमुख्य० ॥१॥ निजगुणादयः॥२॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परम॥नरायुर्विगमादंतरंगकुटुंबप्रातये धूपं य० ॥ स्वा० ॥ इति ॥ नरायुर्विगमादतरंगकुटुंबप्राप्त्यर्थं चतुर्थ धूपपूजा समाप्ता ॥ ४ ॥ ३६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. १२५ ॥ अथ पंचम दीपकपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा॥ ॥ मनमंदिर दीपक जिस्यो, दीपे जास विवेक ॥ तस तिरियायु नहीं कदा, थानकबंध अनेक ॥१॥ ॥ढाल पांचमी॥चोरी व्यसन निवारी ए॥ए देशी॥ ॥दीपकपूजा जिन तणी, नित करतां हो अविवेक ते जाय के ॥ अविवेके करी आतमा, बंध पाडे हो तिरियंचनुश्राय के॥अज्ञानी पशु श्रातमा॥१॥ ए आंकणी ॥ शीलरहित परवंचका, उपदेशे हो पोषे मिथ्यात के ॥ वणिज करे कूम तोलशु, मुख नाखे हो कुकर्मनी वात के ॥ अ॥२॥ वस्तु उत्तम हीण जातिशु, नेलवीने हो वेचे नादान के॥ माया कपट कूम शाखीयो, करे चोरी हो नित्य भारत ध्यान के ॥०॥३॥थश्चीरोली साधवी, शेठ सुंदर हो नंदन मणियार के ॥ अविवेके परजव लहे, गोहजाति हो डेडक अवतार के ॥ अ॥४॥कूम कलंक चमावतां, नील कापोत हो लेश्या परिणाम के ॥श्रीगुनवीरना निंदकी, तिरियायु हो बांधे एणे गम के॥ ॥५॥ ॥ काव्यं ॥ जवति दीप० ॥१॥शुचिमना ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ तिर्यगायुबंधस्थाननिवारणाय दीपं य० ॥ खा० ॥ इति तिर्यगायुबंधस्थाननिवारणार्थ पंचम दीपकपूजा समाप्ता ॥ ५ ॥ ३॥ ॥अथ षष्ठादतपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ अदत पूजा पूजीए, अदय पद दातार ॥ पशु रूप निवारीने, निज रूपे करनार ॥१॥ ॥ ढाल नही ॥ मनमोहन मेरे ॥ ए देशी ॥ ॥तुम अम मेले एकग, मनमोहन मेरे ॥ मलीया वार अनंत ॥ म० ॥ शीघ्रपणे केम साहिबा ॥ म॥आप हया नगवंत ॥ म०॥१॥ बालसु मंद पराधीने॥म॥अंतर पमीयो जाय॥म०॥ एकलमा में आचस्यां ॥ म० ॥ तिरिय गतिनां श्राय ॥ मण ॥२॥ एकेजि मांदे रह्यो । म ॥ बावीश वरस हजार॥मा कुल्लक नव सत्तर कस्या ॥म॥श्वासोश्वास मोकार ॥ म॥३॥ बेइंजिय गुरु आयुथी ॥म॥जीवे वरस ते बार॥म०॥ गणपंचास वासरा ॥ म ॥ तेइंघिय अवतार ॥ म ॥ ४ ॥ उमासी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १५७ चरिंजिये ॥ म ॥ पक्ष्य पणिंदि तीन ॥ म॥ बंध कह्यो साखादने ॥ म ॥ उदये पंच मलिन ॥ म ॥ ५॥ सत्ता खसी गश् सातमे ॥ म ॥ पूज्य हुया शुनवीर ॥ म० ॥ हुँ पण मलीयो अवसरे ॥ म ॥ पूजु अदत थ श्रीर ॥ म० ॥६॥ ॥ काव्यं ॥ दितितले० ॥१॥ सहजनाव० ॥॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परम ॥ तिर्यगायुर्निवारणाय अवतान् य० ॥ खा ॥ इति तिर्यगायुर्निवारणार्थ षष्ठादतपूजा समाप्ता ॥ ६ ॥ ३० ॥ ॥ अथ सप्तम नैवेद्यपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ अणाहारी पद में कस्यां, विग्गगश्य अणंत ॥ नैवेद्यपूजा फल दीयो, अणाहारी पद संत ॥१॥ ॥ ढाल सातमी ॥ माता यशोदाजी हुलराव्यो ॥ नाव्यो मन गोपाल ॥ बालपणे वाह्यो । ए देशी ॥ ॥ श्राहार करंतां अहनिश माच्यो, नाच्यो इणे संसार ॥ सांजल विशरामी ॥ नैवेद्य थाल ग्वी जिन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. आगे, मागुपद अणाहार ॥सांगा देतां नहीं तुज वार॥ सांग॥ तुज सरिखो दातार ॥सांग॥ नहीं को श्रा संसार ॥ सांग ॥ त्रिशला मात मल्हार ॥ सांग ॥ मुज अवगुण न विचार ॥ सांग ॥१॥ मद मदर लोजी श्रति विषयी, जीव तणो हणनार ॥ सांग ॥ महारंजी मिथ्यात ने रौजी, चोरीनो करनार ॥सां०॥ घातक जिन अणगार ॥ सां० ॥ व्रतनो नंजनहार॥ सांग॥मदिरा मांस श्राहार ॥सां॥ जोजन निशि अंधार ॥ सांग ॥ गुणी निंदानो ढाल ॥सांग॥ लेश्या धुर अधिकार ॥ सांग ॥ नारकीमां अवतार ॥ सांग ॥ श्णे लक्षण निरधार ॥ सांग ॥ अवगुणनो नहीं पार ॥ सांग ॥ पण आव्यो तुज दरबार ॥ सां॥निज रूप दीयो एक वार ॥ सांग ॥ जेम विद्याधर उपगार ॥ सांग ॥ संजीवनी बूटी चार ॥ सांग ॥ साजो कीधो नरतार ॥ सांग ॥शुनवीर वडो आधार ॥सां०॥॥ ॥ काव्यं ॥ अनशनं ॥१॥ कुमतबोध ॥२॥ ॥ अथ मंत्रः॥ ॥ॐ श्री परम ॥ नरकायुबंधस्थान निवारणाय नैवेद्यं य० ॥ स्वा० ॥ इति नरकायुबंधस्थाननिवारणार्थं सप्तम नैवेद्यपूजा समाप्ता ॥ ७॥३ए ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १२ए ॥ अथाष्टम फलपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ बंधनी बेमी जंजवा, जिनगुणध्यान कुठार ॥ फलपूजाथी ते हुवे, फलथी फल निर्धार ॥१॥ ॥ढाल आठमी॥परिग्रह ममता परिहरो॥ ए देशी ॥ ॥ फलपूजा वीतरागनी, करतां पुःख पलाय ॥ सलूणे ॥अरिदापूज अरोचका, जीव ते नरके जाय॥ सलूणे ॥१॥ बंध समय चित्त चेतीए, श्यो जदये संताप ॥ स ॥ शोक वधे संतापथी, शोक नरकनी गप ॥ स ॥ बं० ॥२॥ग तिग सग दश सत्तरू, बावीश ने तेत्रीश ॥ सम् ॥ सागर साते नरकमां, नारकी पाडे चीश ॥ स० ॥ बं० ॥३॥ दश विध दाहक वेदना, वैतरणीनां पुःख ॥ स ॥ परमाधामी वश पड्या, घमीय न पामे सुख ॥ स० ॥ बं० ॥४॥ जातिसमरणे जाणता, अनुनवीया अवदात ॥ स ॥ तोपण रावण जूझतो, लक्ष्मणशं करी घात ॥ स ॥ बं० ॥५॥परमाधामी देखीने, नाखे अग्नि मकार ॥ स० ॥ चोथी नरके बूजव्या, सीतें तेणी वार ॥ स० ॥ बं० ॥६॥ रायवसु Jain Educato Integrational For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० विविध भूजासंग्रह नाग प्रथम नरके पड्या, सुन्नूम सरिखा वीर ॥ स ॥ सांजली हमा कमकमे, भ्रूज वबूटे शरीर ॥ स० ॥ बं० ॥ ॥ श्रादि तुरिय बंध उदयथी, सत्ता सातमे टाल ॥ स० ॥ कर्मसूदन तपफल दीयो, श्रीशुजवीर दयाल ॥ स० ॥ बं० ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ शिवतरो॥१॥शमरसै॥२॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ श्री परम ॥ नरकायुर्निगमविफलत्वाय फलानि यावागाकलश ॥गायोगायोगाति नरकायुर्निगमविफलत्वार्थमष्टम फलपूजा समाप्ता ॥॥४॥ ॥इति पंचम दिवसेऽध्यापनीयवायु:कर्मसूदनार्थ पंचमपूजाष्टकं संपू. र्णम् ॥५॥ सर्व गाथा (६४) XXXSCXSEXGXXXXXXXXXXXB0RRORomany Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. १३१ ॥अथ ॥ ॥ षष्ठदिवसेऽध्यापनीयनामकर्मसूदनार्थ षष्ठपूजाष्टक प्रारंनः॥ ॥ तत्र ॥ ॥प्रथम जलपूजा प्रारंभः॥ ॥ दोहा॥ ॥ प्रणमुं श्रीशंखेश्वरो, साहिब सुगुण पवित्त ॥ मुज गुरु उपकारे करी, दण दण आवे चित्त ॥१॥ नामकरम हवे दाखवू, चित्रक सरि जेह ॥ नट जेम बहुरूपी करे, तेम शुज अशुन्ने तेह ॥२॥ जंच नीच देहाकृति, खंपण देहे होय ॥ कृष्ण नील जामो घj, अशुन नाम ते जोय ॥३॥रूपे हरिबल सारिखा, ते शुन नाम वखाण ॥ मध्य तनु पीत उडालो, सुंदर रातो वान ॥४॥जैनधर्म रातो रहे, गाय गुणी गुणग्राम ॥ तेणे शुज नाम ते संपजे, श्वर अशुन ते नाम ॥ ५॥ नामकर्म पूरे करी, पाम्या नवनो पार ॥ सिझ अरूपी पद जणी, पूजा अष्ट प्रकार ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ ढाल पहेली ॥ सुतारीना बेटा तुने विनवू रे लो॥ मारे गरबे मांझवझी लाव जो ॥ रमतां अंगुठी विसरी रे लो ॥ ए देशी ॥ ॥ पिंझपयमि चौद पखालवा रे लो, अनिषेक करूं अरिहंत जो ॥ जस ज्ञानदिशा रलियामणी रे लो, करे ज्ञानी करमनो अंत जो ॥ ज्ञानीनी गोठडी मीठमी रे लो ॥१॥ नर देव निरय तिरिया गइ रे लो, ग विगल पणिं दि जाति जो ॥ तरु कीमो कीडी माखी थयो रे लो, शुं वखाणुं श्रापणी बुनियात जो ॥ झा ॥२॥ तनु उरल विवाहारगारे लो, तेज कर्म अनादिनां साथ जो ॥ त्रण आदि जपांगने टालवा रे लो, तुज सरिखो न मलीयो नाथ जो ॥ ज्ञा० ॥३॥णे नामे बंधन संघातनारे लो, पण बंधन ग्राहक पांच जो ॥ षट् संघयण आदि केवली रे लो, जो वज्रषजनाराच जो ॥ झा०॥४॥ संसारे षजनाराच डे रे लो, नाराच अरधनाराच जो ॥ किलि बेवकुं पंचम कालमा रे लो, गयां रत्न रह्यां तनु काच जो ॥ झा ॥५॥ समचउरस निगोह सादिए रे लो, कुबड़े वामण संगण जो ॥ ढुंमवालानुं एके न पांसरं रे लो, हवे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. १३३ वर्णादि वीश प्रमाण जो ॥ झा० ॥६॥ गंध वर्ण फरस रस पुग्गला रे लो, वीश सोल बोले ग्रहवाय जो ॥ जीव योग्य ग्रहण श्रम वर्गणा रे लो, राग दोष ने रस घोलाय जो ॥ ज्ञा० ॥ ७ ॥ अनुपूर्वि कही गति चारनी रे लो, जाय ताण्यो षन घर नाथ जो ॥ शुन अशुल चाल बंमी करी रे लो, शुजवीरने वलगो हाथ जो ॥ झा ॥७॥ ॥काव्यातीर्थोदकै॥१॥सुरनदी०॥॥ जनमनो॥३॥ ॥ श्रथ मंत्रः॥ ॥ उँ ही श्री परम ॥पिंमप्रकृतिविछेदनाय जलं या ॥स्वा०॥इति पिंमप्रकृति विछेदनार्थं प्रथम जलपूजा समाप्ता ॥१॥४१॥ ॥अथ द्वितीय चंदनपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा । ॥दश तिग जिनघर साचवी, पूजीशुं अरिहंत॥ दश यतिधर्म आराधीने, करुं थावर दश अंत ॥१॥ ॥ ढाल बीजी॥बजना वाव्हाने विनति रे॥ए देशी॥ ॥ साते शुद्धि समाचरी रे, पूजीशुं अमे रंगे लाल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ केसर चंदनशुं घसी रे, स्वामी विलेपन अंगे बाल ॥ लाल सुरंगी रे साहिबो रे ॥ १ ॥ नू जल जलण अनिल तरु रे, थावर पंच प्रकारो लाल ॥ सूक्ष्म नामकरम थकी रे, जरीया लोक मोजारो बाल ॥ ला० ॥ २ ॥ निज पर्याप्ति पूरया विना रे, मरता ते अपजत्ता लाल ॥ साधारण तरुजातिमां रे, जीव शरीरे अनंता लाल ॥ ला० ॥ ३ ॥ अंग उपांग जे थिर नहीं रे, नाम थिर ते दीठो लाल ॥ नानि देवे शुजाकृति रे, दुर्जग लोक अनीठो लाल ॥ ला० ॥ ४ ॥ न गमे जे स्वर लोकमां रे, दुःखर खेदनुं धामो लाल ॥ साधुं लोकने नवि गमे रे, वचन नादेय नामो लाल || ला० ॥ ५ ॥ अपजस नामथी निंदता रे, खेद विना लोक अनेको लाल ॥ श्रीशुजवीरने वि होवे रे, ए दश मांहेनी एको लाल ॥ ला० ॥ ६॥ ॥ काव्यं ॥ जिनपते० ॥ १ ॥ सहजकर्म० ॥ २ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ श्री परम० ॥ स्थावरदशक निवारणाय चंदनं य० ॥ खा० ॥ इति स्थावरदशक निवारणार्थं द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता ॥ २ ॥ ४२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १३५ ॥ अथ तृतीय पुष्पपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ ए दश पयमि पापनी, पापे बंध करंत ॥त्रप्स दश पामे जीवडो, जिम अंशे पुण्यवंत ॥१॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ रहो रहो रे जादव दो घमियां ॥ ए देशी ॥ ॥ रहो रहो रे रसन्नर दो घमियां, दो घमियां दिलसें श्रमीयां॥रहो॥ए आंकणी ॥कुसुमनी पूजा करी फल मागं, परमातम पाजं पमीयां ॥ रहो॥ पुण्य उदय त्रस नाम धरायो, अब तुम वार नहीं घमियां ॥ रहो ॥ १॥ विगडि पंचेंजि कहायो, प्रज्जु उलखाण हवे पमीयां ॥ रहो॥ बादर नाम जे नजरे देखे, उवेखे केम नजरे चमीयां ॥ रहो ॥२॥थ पर्याप्तो लब्धि करणे, चरणे श्रायो न विबमीयां ॥ रहो॥ एक तनु एक जीव कहावे, प्रत्येकमां पण अमे वमीयां ॥रहो॥३॥ दंतादिक तनु थिर थिर नामे,तहवी मन अमे थिर करीयां॥रहो॥ नानि उपर तनु शुज सहु देखे, तेणे तुम हृदयकमल धरीयां ॥रहो॥४॥ सरवने वाहो सुनगथी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. लागुं, जब श्रम घर तुम पावमीयां॥ रहो ॥सुखर सुणतां लागे मीगे, तुज गुण अंबा मंजरीयां ॥ रहो ॥५॥ आदेय नाम वचन जग माने, श्रीशुनवीर मुखे चमीयां ॥ रहो० ॥ जस गुण गावे लोक बनावे, ते जस नाम ते तुम वमीयां ॥ रहो ॥६॥ ॥ काव्यं ॥ सुमनसांग ॥१॥ समयसार ॥२॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ त्रसदशकनिवारणाय पुष्पाणि य० ॥ खा ॥ इति त्रसदशकनिवारणार्थ तृतीय पुष्पपूजा समाप्ता ॥३॥४३ ॥ ॥ अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा॥ ॥ धूपे (जनवर पूजीए, प्रत्येक दाहनहार ॥पयमि न जाये मूलथी, जब लगे ए संसार ॥१॥ ॥ढाल चोथी॥वीर जिणंद जगत्लपकारी॥ए देशी॥ ॥श्राज गइ मन केरी शंका, जब तुज दर्शन दीजी॥पूर ग लोक सन्ना नगरी, आगम अमीय ते मीठजी॥ आज ॥१॥ गुरुलघु अंगे एक न होवे, अगुरुलघु ते जाणजी ॥ सास उसास लीए Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १३७ पजातो, सासोसास प्रमाणजी ॥ आज ॥२॥ लंब गात्र मुखमां पमजीनी, पयमि उदय उपघातजी ॥ बलीयो पण नवि मुख पर श्रावे, नाम उदय पराघातजी॥आज०॥३॥ ताप करे रविबिंब जे जीवा, आतप नाम कदायजी॥अंग उपांग सुतार पुतलीयां, निर्माण घाट घमायजी ॥ श्राज ॥४॥वैक्रिय सुर खजु शशिबिंबे,ताप विना परकाशजी॥ उद्योत नामकरम में जाण्यं, आगम नयन उजाशजी ॥ श्राज ॥५॥केवल उपजे त्रिजुवन पूजे, वर अतिशय गंजी. रजी ॥ जिननाम उदये समवसरणमां, बेग श्रीशुजवीरजी ॥ आज ॥६॥ ॥ काव्यं ॥ अगरमुख्य० ॥१॥ निजगुणादयः॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम ॥ प्रत्येकाष्टप्रकृति निवारणाय धूपं य० ॥ वाण ॥ इति प्रत्येकाष्टप्रकृतिनिवारणार्थ चतुर्थ धूपपूजा समाप्ता ॥४॥ ४ ॥ ॥ अथ पंचम दीपकपूजा प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥वीश कोमाकोमी सागरु, मूल गुरु थिति बंधाय ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. उत्तरपयडि नीहालवा, दीपकपूजा रचाय ॥ १ ॥ ॥ ढाल पांचमी ॥ साहिबा मोती द्यो हमारो ॥ देश ॥ ॥ दीपकपूजा ज्योति जगावं, उत्तरपयमि तिमिर हरा | साहिबा तें थितिबंध खपाव्यो, सेवकनो दवे लाग ते फाव्यो | साहिबा संसार अटारो, मोहना मुज तारो ॥ १ ॥ एांकणी ॥ सुहुम विगलतिग बंध अढार, मागे पन्नर अवधार ॥ संघयपागिश् जुगल करीश, दश उपर डुग वुढी वीश ॥ सा० ॥ २ ॥ सुरभि मधुर शीत शुन च फासा, थिर ब सुगइ सुरडुग दश खासा ॥ पीताम्ले वली रक्त कषाये, नील कटुक वली कृष्ण तीखाये ॥ सा० ॥ ३ ॥ साडा बार पन्नर युग एके, साडा सत्तर वीश उवीए विवेके ॥ वै निरय तिरि उरल डुगंका, ते पण अथिर ब तस सास चक्का ॥ सा० ॥ ४ ॥ यावर कुखगइ जाति पणिं दि, पाप फरस डुरगंध एगिंदि ॥ बत्तीस पयमिने वीशशुं जोडी, सघले सागर कोड कोडी ॥ सा० ॥ ५ ॥ आहारकडुग जिननाम करतो, सागर एक कोडाकोडी तो ॥ जो जिननाम निकाचित कीजे, तो शुनवीर हुआ जव त्रीजे ॥ सा० ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. १३७ ॥ काव्यं ॥ जवति दीप० ॥ १ ॥ शुचिमनात्म० ॥ २ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ ॐ श्री परम० ॥ स्थितिबंध निवारणाय दीपं य० ॥ खा० ॥ इति स्थितिबंध निवारणार्थं पंचम दीपकपूजा समाप्ता ॥ ५ ॥ ४५ ॥ ॥ अथ षष्टातपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ वन्न च तेथा कम्मण, अगुरुलघु निर्माण ॥ उपघात नव ध्रुवबंधि बे, अमवन्न अध्रुवा जाण ॥ १ ॥ ॥ ढाल बही ॥ त्री जे जब वर थानक तप करी ॥ ए देश ॥ ॥ श्रतपूजा जिननी करतां, नामकरम कय जावे ॥ नामनी सरव अघाति पयडियां, वरते निज निज जावेरे ॥ प्राणी रूपी गुण निपजावो, पूज्यनी पूजा रचावो रे || प्राणी० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ थावर च ताप बेवहुं, हुंड निरयडुग जाएं | इग डु ति च जाति जोन बांधे, पामी प्रथम गुणठाएं रे ॥ प्राणी० ॥ २ ॥ मनागि संघयण तिरिडुग, दोहग तिग उद्योत ॥ अशुभ विहायोगति साखादन, बंध कहे जगवंत रे ॥ प्राणी० ॥३ ॥ मणुश्र उरलडुग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. धुर संघयण, चोथे बंध कहावे॥अजस अथिर मुग बड़े बंधे, दशमे जस बंधावे रे ॥ प्राणी ॥४॥ अगुरुलघु चन जिन निरमाण, सुरफुग सुहगश्कहीए॥ तस नव उरल विणु तणुवंगा, वर्णादिक चल लहीए रे ॥ प्राणी ॥५॥ समचरस पणिंदि जाति, बांधे अम गुणगणे॥बंधहेतु शुनवीर खपावे, उज्ज्वल ध्यानने टाणे रे ॥प्राणी ॥६॥ ॥ काव्यं ॥ वितितले० ॥१॥ सहजनाव० ॥२॥ ॥ अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम ॥ नामकर्मबंध निवारणाय अदतान्य० ॥स्वा० ॥ इति नामकर्मबंधनिवारणार्थ षष्ठादतपूजा समाता ॥ ६ ॥ ४६ ॥ ॥ अथ सप्तम नैवेद्यपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ चवन्ना तेथ कम्मण, निमित्त अथिर थिर दोय ॥ अगुरुलघु उदयिनी, शेष अध्रुव ते जोय ॥१॥ ॥ ढाल सातमी॥ देखो गति दैवनी रे ॥ ए देशी॥ ॥ नैवेद्यपूजा नावीए रे, पुजल आहार ग्रहंत ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसरप्रकारी पूजा. १४१ जाग असंखेश्राहारता रे, निर्जरे नाग अनंत॥जगत्गुरु श्रापजो रे, श्रापजो पद अणाहार ॥जग ॥१॥ ए श्रांकणी ॥ एह रीत पूरे हुवे रे, नमउदयाजब जाय॥सुहुम तिगायव धुर गुणे रे, उदय कहे जिनराय ॥ जग ॥२॥ बीजे विगल ग थावरु रे, चोथे अणश्क दोय ॥ पूर्वी उगवैक्रीडुगे रे, देव निरयगति जोय ॥ जग ॥३॥ तिरिगर उद्योत पांचमे रे, बठे थाहारक दोय ॥ चरम संहनन तिग सातमे रे, षनग उपशम होय ॥ जग ॥४॥ उरला थिर खग उगा रे,पत्तेय तिग उ संगण ॥तेय कम्म धुर संघयणने रे, अगुरुलघु चल जाण ॥ ॥ जग ॥५॥ सुसर सुसर चवन्ना रे, निर्माण उदय सयोग। ॥ सुजगाश्क जस तस तिगो रे, नरगश् पणिंदि अयोगी ॥ जग ॥ ६॥ जो जिननाम उदय हुवे रे, तो तीर्थंकर लीध ॥योग निरोध करी हुश्रा रे, श्रीशुनवीर ते सिक ॥ जग ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ अनशनं ॥१॥ कुमतबोध ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ नामकर्मउदयविछेदनाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. नैवेद्यं य० ॥ स्वा० ॥ इति नामकर्म उदय विश्वेदनार्थं सप्तम नैवेद्यपूजा समाप्ता ॥ ७ ॥ ४७ ॥ ॥ अथाष्टम फलपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ श्राहारकसग जिए नरडुगं, वैक्रियनी श्रगीयार ॥ ए ध्रुव सत्ता कही, बीजी ध्रुव संसार ॥ १ ॥ ॥ ढाल आठमी ॥ राग प्रजाती ॥ प्रजाते उठीने माता मुखकुं जोवे ॥ ए देशी ॥ ॥ यवी रूमी जगति में, पहेलां न जाणी ॥ पहेलां न जाणी रे स्वामी, पहेलां न जाणी ॥ संसारनी मायामां में, क्लोव्युं पाणी ॥ ० ॥ ए - कणी ॥ कल्पतरुनां फल लावीने, जे जिनवर पूजे ॥ काल अनादि कर्म ते संचित, सत्ताथी भ्रूजे ॥ ० ॥१॥ यावर तिरि नरयायव ए डुग, इग विगला लीजे ॥ साधारण नवमे गुणगणे, धुर जागे बीजे ॥ श्र० ॥ २ ॥ केवल पामी शिवगति गामी, शैलेशी टाणे ॥ चरम समय दो मांहे स्वामी, अंतिम गुणठाणे ० ॥ ३ ॥ बाकी नामकरमनी पयमि, सघली ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १४३ तिहां जावे ॥ अजरामर निकलंक वरूपे, निःकर्मा थावे ॥ श्रा० ॥ ४॥ ते सिद्ध केरी पमिमा पूजे, सिझमयी होवे ॥ नाश्धोश निरमल चित्ते, आरीसो जोवे ॥ आ ॥५॥कर्मसूदन तप केरी पूजा, फल ते नर पावे ॥ श्रीशुनवीर स्वरूप विलोकी, शिववह घर यावे॥ आ० ॥६॥ ॥ ए॥ काव्यं ॥ शिवतरो० ॥ १॥ शमरसै ॥२॥ ॥ अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ नामकर्मसत्ताविछेदनाय फलानि य॥स्वा॥कलश॥गायो गायो॥इति नामकर्मसत्ताविछेदनार्थमष्टम फलपूजा समाप्ता॥॥४॥ ॥ इति षष्ठदिवसेऽध्यापनीयनामकर्मनिवारणार्थ षष्ठपूजाष्टकं संपूर्णम् ॥ ६॥ सर्व गाथा (६४) Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ अथ ॥ सप्तमदिवसेऽध्यापनीयगोत्रकर्मसूदनार्थं सप्तमपूजाष्टक प्रारंभः ॥ ॥ तत्र ॥ ॥ प्रथम जलपूजा प्रारभ्यते ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ गोत्रकरम हवे सातमुं, व्याप्युं इणे संसार ॥ गोत्रकरम बेद्या विना, नवि पामे जवपार ॥ १ ॥ चक्रम संयोगथी, घमतो घट कुंनार ॥ घी जरीयो घट एकमे, बीजे मदिरा बार ॥ २ ॥ उंच नीच गोत्रे करी, जरीयो या संसार ॥ कर्मदहन करवा जणी, पूजा अष्ट प्रकार ॥ ३ ॥ ॥ ढाल पहेली ॥ राग अलैयो ॥ बिलावल ॥ में कीनो नहीं, प्रभु विना रशुं राग ॥ ए देशी ॥ ॥ केशरवासित कनक कलशशुं, जलपूजा यमिषेक ॥ सम तिरंगे सद्गुरु संगे, धरतो विनय विवेक ॥ को सही, या रीत गोतको बंध ॥ या रीत गोतको बंध ॥ में की० ॥ या० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ बहुश्रुत For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १४५ नक्ति करतां सघला, पूज्या युगपरधान ॥ गीतारथ एकाकी रहेतां, पामे जग बहुमान ॥ में की॥२॥ अज्ञानी टोले पण नोले, बोले पर नाव ॥ आलोयण देतो नजकने, पामे विराधकनाव ॥ में की ॥३॥ बोधगुरुने बाणे हणतो, पग अणफरसी राय ॥श्रझानी मुनि उग्रविहारी, बाजीगरनो न्याय ।। में की॥४॥ मंमुथा श्रावकने कहे स्वामी, होय जिनधर्म आशात ॥ अणजाण्यो श्रुत अर्थ वदंतां, साची गुरुगम वात ॥ में की० ॥ ५ ॥ ज्ञानी गुरुनी सेवा करतां, श्राराधे जिनधर्म ॥ अणुव्रत धरतो तप अनुसरतो, निर्मल गुण ग्रहे पर्म ॥ में की ॥६॥ नणे जणावे वली जिन आगम, आशातन वरजंत ॥ श्रीशुजवीर जिनेश्वरजक्ते, उत्तम गोत्र बांधत ॥ में की ॥७॥ ॥काव्यातीर्थोदकै० ॥१॥सुरनदी॥॥जनमनो॥३॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ श्री श्री परम ॥ गोत्रबंध निवारणाय जलं य० ॥ स्वा० ॥ इति गोत्रबंधनिवारणार्थं प्रथम जलपूजा समाप्ता ॥१॥४॥ Jain Educatioविvernoonal For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ अथ द्वितीय चंदनपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ ज्ञानादिक गुण नवि हणे, बंध उदयमें कोय ॥ तिणे अघाती ते कही, गोत्रनी पयमि दोय ॥१॥ ॥ ढाल बीजी ॥प्रतिमा लोपे पापीया, योगवहन उपधान जिनजी ॥ ए देशी ॥ ॥जिनतनु चंदन पूजतां, उत्तम कुल अवतार ॥ जिनजी ॥ गोत्र वडे प्राणी वडो, मान लहे संसार॥ जिनजी ॥ तुं सुखीयो संसारमां ॥१॥ उत्तम कुलना उपन्या, सूत्र कह्या अणगार ॥ जिवाचक सूरिपदवी लहे, उंच गोत्र अवतार ॥ जि० ॥ तुंग ॥॥ उग्र जोग वली राजवी, हरिवंशे जिनदेव ॥ जि० ॥ वासवकल्पे आवतां, चक्री हरिबल देव ॥ जि ॥ तुं० ॥ ३ ॥ नीच गोत्र थावर समा, मणि हीरो ऊलकंत ॥ जि० ॥ गंगा दीरसमुज्नां, यमनाजल वदंत ॥ जि०॥ तुं॥४॥ कल्पतर सहकारनां, केतकी पत्र ने फूल॥जि०॥मंगल कारण शिर धरे, मंद पवन अनुकूल ॥ जि० ॥ तुं० ॥ ५ ॥ एम संसारे प्राणीया, उत्तम गोत्र विशेष ॥ जि०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १४७ मान लहे मघवा वली, बाहुबली जरतेश ॥ जि० ॥ तुंग॥ ६॥ धर्मरयणनी योग्यता, उंच गोत्र कहाय ॥ जि ॥ श्रीशुजवीर जिनेश्वरु, सिकारथ कुल जाय ॥जि०॥ तुं० ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ जिनपते ॥ १॥सहजकर्म ॥२॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ दी श्री परम ॥ उच्चैर्गोत्रातीताय चंदनं य० ॥ स्वा० ॥ इति उच्चैर्गोत्रातीतार्थं द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता ॥५॥५०॥ ॥ अथ तृतीय पुष्पपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥जिनवर फूले पूजतां, उंच गोत्र बंधाय ॥ उत्तम कुलमा अवतरी, कर्मर हित ते थाय ॥१॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ सुण गोवालणी गोरसमां ॥ ए देशी ॥ ॥ सुण दयानिधि, उत्तम कुल अवतरतां पार न श्राव्यो ॥ सद्गुरु मले, तुज आगम अजवाले मुज समजाव्यो॥ ए आंकणी ॥ समकित संजुत व्रत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. आचरतां, जिनपूजा फूलपगर जरतां ॥ श्रावक मुनि दशमुं गुण धरता, उंच गोत्र तणो बंधज करतां ॥ सु॥१॥ तुमे सत्ता उदये अनुनवीयो, शैलेशीकरण करी खवीयो।ते रस चखवी मुज हेलवीयो, एक खामी जे नवि नेलवीयो ॥ सु० ॥२॥ एके समये एक बंधाये, तेणे ए अध्रुवबंधी थाये ॥ सत्तोदय अध्रुव कहेवाये, सुखीया थए जब ए जाये ॥ सु ॥३॥ लघु बंधे श्रम मुहरत करीयो, उंच गोत्रे गुरु विश् श्राचरीयो ॥ दश कोमाकोमी सागरीयो, दशसें वरसे जोगवी फरीयो ॥ सु॥४॥ हवे में तुज आणा शिर धरीयो, थ अंत कोमाकोमी सागरीयो ॥ मोटो दरियो पण में तरीयो, शुजवीर प्रज्जु सेवन फलीयो ॥ सु० ॥५॥ ॥ काव्यं ॥ सुमनसांग ॥१॥ समयसार॥॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परम ॥ उच्चैर्गोत्रस्थितिविवेदनाय पुष्पाणि य० ॥ स्वा० ॥ इति उच्चैर्गोत्रस्थितिविछेदनार्थं तृतीय पुष्पपूजा समाप्ता ॥३॥५१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजाकृत चोसठप्रकारी पूजा. १४ए ॥ अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ पयमि दोय श्रघातिनी, गोत्र करमनी एह ॥ नीच गोत्र कारण कहुं, जे अनुनवीयां तेह ॥१॥ ॥ ढाल चोथी ॥ गायो गौतम गोत्र मुणींद, रस वैराग्य घणो श्रायो॥ ए देशी ॥ ॥जिनवरअंगे पूजा धूप, धूपगति उंचे नावी॥पामी पंचेंजिनां रूप, नीच गति मुज केम श्रावी ॥१॥ कहीए कारण सुणजो देव, तुज आगमरस नवि जाव्यो॥ न करी बहुश्रुत केरी सेव, अरुचिपणुं अंतर लाव्यो॥॥जणे नणावे मुनिवर जेह, निंदा तेह तणी जाखी॥परगुण ढांकी अवगुण लेह, कूडी वात तणो साखी ॥३॥ विण दीनी अणसांजली वात, लोक वच्चे चलवे पापी ॥ चामी करतां पाडी जाति, वामी गुण तणी कापी ॥४॥ गुण अवगुण में सरिखा कीध, अरिहा नक्ति नवि कीधी ॥ उत्तम कुल जाति प्रसिक, वाह्यो मद गारव गिफि॥५॥नीच गण सेवंतां नाथ, बंधे नीच गोत्र करीयो ॥श्रीशुनवीरनो फाल्यो हाथ, सहेजे नवसायर तरीयो॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ काव्यं ॥अगरमुख्य०॥१॥ निजगुणादयः॥२॥ ॥अंथ मंत्रः॥ ॥उँ ही श्री परम ॥ नीचैर्गोत्रबंधस्थानोछेदनाय धूपं य० ॥ खा०॥इति नीचैर्गोत्रबंधस्थानोछेदनार्थ धूपपूजा समाप्ता ॥४॥५५॥ ॥ अथ पंचम दीपकपूजा प्रारंनः॥ - ॥दोहा॥ ॥ कागप्रसंगे हंस नृप, बाण प्राण परिहार ॥ गंगाजल जलधि मले, नीच गण सुविचार ॥१॥ ॥ ढाल पांचमी ॥ जुवढे कोश् रमशो नहीं रे ॥ ॥ए देशी ॥ ॥ फानसदीपक ज्योति धरी रे, पूजा रचुं मनो. हार॥प्रनुजी ॥ नीच कुले हवे नहीं रे रहुं रे॥ पूजा अरुचि जावे करी रे, नीच कुले अवतार ॥ प्र०॥१॥ तुज पागल नवि दीप धस्यो रे, नापिक हाथ मशाल ॥प्र॥मातंग जंगित जाति कही रे, काढे अशुचिखाल॥०॥२॥माली गोवाली कोली तेली रे, मोची ने शुचिकार ॥प्र०॥त्रण वनेचर पापीयो रे, दोय अफास विचार ॥ प्र॥३॥ वणी मग मादण रांक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. १५१ कुली रे, निलुककुल अवतार ॥ प्र० ॥ जिनदर्शन नवि शीश नमे रे, ते शिर वदेता नार ॥प्र॥४॥ गर्दन जंबुक नीच तिरी रे, किदिबषिया जे देव ॥प्र॥ जा दीए सुर भागले रे, परजवनिंदक देव ॥प्र०॥ ५ ॥ जीव मरीचि कुलमदथी रे, विप्र त्रिदंभिक थाय ॥प्राश्रीशुनवीर जिनेश्वरु रे, देवानंदा घर जाय॥प्र० ॥६॥ काव्यं ॥ जवति दीप० ॥१॥शुचिमना॥२॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ॐ ही श्री परम ॥ नीचैर्गोत्रोदयनिवारणाय दीपं य० ॥ खा० ॥ इति नीचैर्गोत्रोदय निवारणार्थं पंचम दीपकपूजा समाप्ता ॥५॥ ५३॥ ॥ अथ षष्ठादतपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥नीच कुलोदय जिनमति, पूर थकी दरबार ॥ तुज मुख दरशन देखतां, लोक वडो व्यवहार ॥१॥ ॥ ढाल ही ॥ वंदो वीर जिनेश्वर राया॥ए देशी॥ ॥अदतपूजा गोधूम केरी, नीचैर्गोत्र विखेरी रे॥ तुज आगमपूर सुंदर शेरी, वक्र नहीं जवफेरी रे ॥ श्रदत॥१॥सासायण लगे बंध कहावे, पांचमे Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. उदये लावे रे ॥ गुणगणुं जब बहुं श्रावे, उदयथी नीच खपावे रे ॥ ॥॥हरिकेशी चंमाले जाया, संयमधर मुनिराया रे॥नीच गोत्र उदयेथी पलाया, उंच कुले श्रुत गाया रे ॥ अ०॥३॥ समय अयोगी उपांते आवे, सत्ता नीच खपावे रे ॥ अध्रुवबंधी उदय कहावे, ध्रुवसत्ता तिरिनावे रे ॥ ॥४॥ सातश्या दोय नाग लगेरी, जीव विपाकी वडेरी रे॥ वीश कोमाको मि सागर केरी, ए थिति बंध घणेरी रे ॥०॥५॥ ए थितिबंध करंतां स्वामी, तुम सेवा नवि पामी रे॥श्रीशुनवीर मख्या विशरामी, हवे केम राखं खामी रे ? ॥ १० ॥६॥ काव्यं ॥ दितितले० ॥१॥ सहजनावण ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ दी श्री परम ॥नीचैर्गोत्रसत्तास्थितिबंधनिवारणाय श्रदतान् य०॥स्वा॥इति नीचैर्गोत्रसत्तास्थितिबंधनिवारणार्थ षष्ठादतपूजा समाप्ता ॥६॥५॥ ॥ अथ सप्तम नैवेद्यपूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा॥ ॥ नैवेद्यपूजा सातमी, सात गति अपमान ॥ करवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १५३ वरवा शिवगति, विविध जाति पकवान ॥१॥ ॥ ढाल सातमी ॥ राग सारंग ॥ हम मगन नये प्रजुझानमां ॥ ए देशी ॥ ॥मीग मेवा जिनपद धरतां, अणाहारी पद लीजीए॥जिनराजनी पूजा कीजीए ॥ विग्रहगतिमा वार अनंती, पामे पण नवि रीजीए ॥ जि० ॥१॥ उंचनीच गोत्रेते होवे, कारण पूर करीजीए ॥जि०॥ अरिहा आगे रागे मागो, सेवकने शिव दीजीए ॥ जि ॥२॥ अगुरुलघु पद गोत्र विनाशी, पाम्य बंधन बीजीए॥जि०॥योगी वियोगी रहत अयोगी, चरम तिनाग घटीजीए ॥ जि० ॥३॥ श्रात्मप्रदेशमयी अवगाहन, शिवदेत्रेते रहीजीए॥जि॥बत्रीश अंगुल लघु अवगाहन, खेत्र समी गुरु लीजीए ॥ जि० ॥४॥ मस्तक सम सघले लोकांते, गुरुगमनाव पतीजीए ॥ जि ॥ अगुरुलघु अवगाहन एके, सिक अनंत नमीजीए ॥ जि० ॥५॥ फरसित देश प्रदेश असंखह, गुणा अनंत ग्वीजीए ॥ ज० ॥ श्रीशुजवीर जिनेश्वर बागम, अमृतनो रस पीजीए॥ जि० ॥६॥ ॥ काव्यं ॥ अनशनं ॥१॥ कुमतबोध ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ श्री परम० ॥ अगुरुलघुगुणप्रापणाय नैवेद्यं य० ॥ स्वा० ॥ इति अगुरुलघुगुणप्रापणार्थं सप्तम नैवेद्यपूजा समाप्ता ॥ ७ ॥ ५५ ॥ ॥ अथाष्टम फलपूजा प्रारंभः ॥ ॥ गोत्रकरम नाशे करी, सिद्ध हुआ महाराज ॥ फलपूजा तेहनी करी, मागो अविचल राज ॥ १ ॥ || ढाल आमी ॥ केरबानी देशी ॥ ॥ मेंबी सेवक तोरा पायका, डुनियांके सांई ॥ सेवक हम केश् कालका, दुनियां के सांई ॥ मेंबी से० ॥ एकणी ॥ सुणीए देवाधिदेवा, फलपूजाकी सेवा, दीजीए शिवफल राजीए ॥ ० ॥ में० ॥ परिशाटन थइ, अफुसमाण गर, जीत्यो जगत् केरी बाजीए ॥ ० ॥ में० ॥ १ ॥ गोत्रकरम हरी, ज्योतसें ज्योत मली, आप बिराजो रंग महेलमें ॥ ० ॥ में० ॥ सुख अनंत लहे, सेवक दूर रहे, लाजीए अमो सारा शहरमें ॥ डु० ॥ में० ॥ २ ॥ संसारसुख लीयो, वग्ग अनंत कीयो, तोजी न एक प्रदेशमें ॥ ० ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसप्रकारी पूजा. १५५ में॥ सिद्धको सुख लीनो, ताको एकांश कीनो, मावे न लोकाकाशमें ॥ 5 ॥ में ॥३॥ ताको जो अंश देवे, तामें क्या हानि होवे, साहिब गरीब निवाजीए ॥०॥ में ॥ महेर नजर जोवे, सेवककाम होवे, लोक लोकोत्तर जीए ॥ ॥ में ॥४॥ कर्म कठिन जड्यो, सायुंके मुख चड्यो, बात करत हम लाजीए॥०॥में॥आपहिते जे गायो, कर्मपमल बायो, एतनो अंतर नांजीए ॥ ॥ में ॥५॥ श्रेणिक आदे नवा, उंबी सांयुकी दवा, जिनपद लेत बिराजीए॥5॥ में॥साची नगति कही, कारण योग सही, करजे कोमी दीवाजीए ॥०॥में॥६॥ कर्मसूदन तपे, नाम प्रजुको जपे, जागीए ज्ञान अवाजीए॥०॥में॥को न नाम लेवे, स्वामी श्राशीष देवे, श्रीगुनवीरबले गाजीए ॥ 3 ॥ में ॥ ७॥ ॥ काव्यं ॥ शिवतरोः ॥ १॥ शमरसैक० ॥॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ॐ ही श्री॥ परम ॥गोत्रातीताय फलानि यण ॥ खा॥इति गोत्रातीतार्थमष्टम फलपूजा समाप्ता॥ कलश॥गायो गायो॥॥५६॥इति सप्तमदिवसेऽध्यापनीयगोत्रकर्मसूदनार्थ सप्तमपूजाष्टकं संपूर्णम् ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ ॥ ॥अष्टमदिवसेऽध्यापनीयअंतरायकर्मसूदनार्थ मष्टमपूजाष्टकप्रारंजः॥ ॥ तत्र॥ ॥ प्रथम जलपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ श्रीशंखेश्वर शिर धरी, प्रणमी श्रीगुरुपाय ॥ वंबित पद वरवा नणी, टालीशुं अंतराय ॥१॥ जेम राजा रीज्यो थको, देतां दान अपार ॥मारी खोज्यो थको, वारंतो तेणी वार ॥२॥ तेम ए कर्म उदय थकी, संसारी कहेवाय ॥ धर्म करम साधन नणी, विघन करे अंतराय ॥३॥श्ररिहाने अवलंबने, तरीए इणे संसार ॥ अंतराय उछेदवा, पूजा श्रष्ट प्रकार ॥४॥ ॥ ढाल पहेली ॥ मारी अंबाना वमला हेठ, नस्यां सरोवर लहेस्खो से डेरे ॥ ए देशी ॥ . ॥ जलपूजा करी जिनराज, आगल वात वीती कहो रे ॥ कहेतां नवि आणो लाज, कर जोमीने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसप्रकारी पूजा. १५७ आगल रहो रे॥जल ॥१॥जिनपूजानो अंतराय, आगम लोपी निंदा जजी रे॥ विपरीत प्ररूपणा थाय, दीन तणी करुणा तजी रे ॥ जल ॥२॥ तपसीन नम्या अणगार, जीव तणी में हिंसा सजी रे॥नवि मलीयो था संसार, तुम सरिखो रे श्रीनाथजी रे ॥ जल० ॥३॥ रांक उपर कीधो कोप, मागं कर्म प्रकाशीयां रे॥धरमे मारगनो लोप, परमारथ केतां हांसीया रे ॥ जल॥४॥जणतांने कस्यो अंतराय, दान दीयंतां में वारीयां रे ॥ गीतारथने हेलाय, जुठ बोली धन चोरीयां रे॥जल ॥५॥नर पशुओं बालक दीन, नूख्यां राखी आपे जम्यो रे ॥ धर्म वेलाए बलहीन,परदाराशुंरंगे रम्यो रे ॥जल०॥६॥ कूडे कागलीए व्यापार, थापण राखीने उलवी रे॥ वेच्या परदेश मोकार, बाल कुमारिका नोलवी रे ॥ जल ॥७॥ पंजरीए पोपट दीध, केती वात कडं घणी रे ॥ अंतराय करम एम कीध, ते सवि जाणो बो जगधणी रे ॥ जलम् ॥ ॥ जले पूजंती हिजनारी, सोमेशरि मुगति वरी रे ॥ शुजवीर जगत् आधार, आणा में पण शिर धर रे॥ जल०॥ए॥ काव्यातीर्थोदकैः ॥१॥ सुरनदी॥शाजनमनो॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ मंत्रः॥ ॥ॐ ही श्री परम०॥ विघ्नस्थानकोछेदनाय जलं य० ॥ स्वा० ॥ इति विघ्नस्थानकोछेदनार्थं प्रथम जलपूजा समाप्ता॥१॥७॥ ॥ अथ द्वितीय चंदनपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा॥ ॥ शीतल गुण जेहमां रह्यो, शीतल प्रजुमुखरंग ॥ आत्म शीतल करवा नणी, पूजो अरिहाअंग ॥१॥ अंगविलेपन पूजना, पूजो धरी घनसार ॥ उत्तरपयमि पंचमां, दानविघन परिहार ॥२॥ ॥ढाल बीजी॥कामणगारो ए कूकडो रे॥ए देशी॥ ॥ करपी जूंमो संसारमा रे, जेम कपीला नार ॥ दान न दी, मुनिराजने रे,श्रेणिकने दरबार ॥ कल ॥१॥ करपी शास्त्र न सांजले रे, तेणे नवि पामे धर्म ॥ धर्म विना पशु प्राणीयो रे, बंडे नहीं कुकर्म ॥ क० ॥२॥ दान तणा अंतरायथी रे, दान तणो परिणाम ॥ नवि पामे उपदेशथी रे, लोक न ले तस नाम ॥क०॥३॥ कृपणता अति सांजली रे, नावे घर अणगार ॥ विश्वासी घर आवता रे, कल्पे मुनि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. १५५ श्राचार ॥ क० ॥ ४॥ करपी लक्ष्मीवंतने रे, मित्र सजान रहे दूर ॥ अल्पधनी गुण दानथी रे, वंडे लोक पंडुर ॥ क० ॥ ५॥ कल्पतरु कनकाचवे रे, नवि करतां उपकार ॥ तेथी मरुधर रुमो केरडो रे, पंथग बाय लगार॥क०॥६॥चंदनपूजा धन वावरे रे, क्षय उपशम अंतराय ॥ जिम जयसूर ने शुनमति रे, दायिक गुण प्रगटाय ॥ क० ॥॥श्रावक दान गुणे करी रे, तुंगिया जंग ज्वार ॥ श्रीशुजवीरे वखाणीया रे, पंचम अंग मजार ॥ क० ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ जिनपते ॥१॥ सहजकर्म ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ . ॥ॐ श्री श्री परम ॥ दानांतरायनिवारणाय चंदनं य॥ स्वा० ॥ इति दानांतराय निवारणार्थ द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता ॥ २॥ ७ ॥ ॥ अथ तृतीय पूष्पपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥हवे त्रीजी सुमनस तणी, सुमनस करण स्वजाव॥ जावसुगंध करण नणी, अव्य कुसुम प्रस्ताव ॥१॥ मालतीफूले पूजती, लाजविघन करी हाण ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. वणिकसुता लीलावती, पामी पद निरवाण ॥२॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ उरा राजी आवो रे, कई एक वातडली ॥ ए देशी ॥ ॥ मनमंदिर श्रावो रे, कहुं एक वातमली ॥ अज्ञानी संगे रे, रमीयो रातडली ॥ मनः॥१॥ व्यापार करेवा रे, देश विदेश चले ॥परसेवा देवा रे, कोमी न एक मले ॥ मन० ॥२॥राजगृही नयरे रे, कुमक एक फरे॥ निदाचरवृत्तिए रे, फुःखे पेट नरे ॥ मन० ॥३॥ लानांतराये रे, लोक न तास दीए॥ शिक्षा पामंतो रे, पोहोतो सातमीए ॥ म०॥४॥ ढंढण अणगारो रे, गोचरी नित्य फरे ॥ पशुओं अंतराये रे, श्रादार विना विचरे ॥म ॥५॥श्रादीश्वर साहिब रे, संयमनाव धरे ॥ वरसीतप पारj रे, श्रेयांस राय घरे । म ॥ ६॥ मिथ्यात्वे वाह्यो रे, श्रारतिध्यान करे ॥ तुज आगमवाणी रे, समकिती चित्त धरे ॥ म० ॥ ७॥ जेम पूर्णीयो श्रावक रे, संतोष जाव धरी ॥ नित्य जिनवर पूजे रे, फूलपगर जरी॥म॥७॥ संसारे नमतां रे, हुं पण श्रावी जल्यो ॥अंतराय निवारक रे,श्रीशुनवीर मल्यो ॥माए॥ ॥ काव्यं ॥ सुमनसांग ॥१॥ समयसार ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १६१ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ लानांतरायोछेदनाय पुष्पाणि य० ॥ स्वा० ॥ इति लानांतरायोछेदनार्थ तृतीय पुष्पपूजा समाप्ता ॥३॥५ए ॥ ॥ अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा॥ ॥ कर्म कठिन कठ दाहवा, ध्यान हुताशन योग ॥ धूपे जिन पूजी दहो, अंतराय जे जोग ॥१॥ एक वार जे नोगमां, आवे वस्तु अनेक ॥ श्रशन पान विलेपने, नोग कहे जिन बेक ॥२॥ ॥ ढाल चोथी ॥ राग श्राशावरी ॥ डेमो __ नांजी ॥ ए देशी॥ ॥बाजी बाजी बाजी जूट्यो बाजी, जोग विघनघन गाजी॥नूस्यो॥यागम ज्योत न ताजी ॥जूल्यो॥ कर्म कुटिल वश काजी ॥जूदयो ॥ साहिब सुण थक्ष राजी ॥ नूल्यो॥ए आंकणी ॥ काल अनादि चेतन रजले, एके वात न साजी ॥ मयणा नईणी न रहे बानी, मलीयां मात पिताजी ॥ नूल्यो० ॥१॥ अंतराय थानक सेवनथी, निर्धन गति उपराजी ॥ वि० ११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. कूपनी बाया कूप समावे, श्छा तेम सवि लांजी ॥ जूट्यो ॥२॥ नैगम एक नारी धूती पण, घेवर नूख न जागी॥ जमी जमा पाठो वलीयो, ज्ञानदिशा तव जागी ॥ चूल्यो॥३॥ कबही कष्टे धनपति थावे, अंतराय फल पावे ॥ रोगी परवश अन्न अरुचि, उत्तम धान न नावे॥चूल्योग॥४॥दायिकनावे नोगनी लब्धे, पूजा धूप विशाला ॥वीर कहे लव सातमे सिझा, विनयंधर नूपाला॥ नूल्यो॥५॥ ॥ काव्यं ॥ अगरमुख्य० ॥१॥ निजगुणादयः॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम ॥ नोगांतरायदहनाय धूपं य० ॥ वाण ॥ इति नोगांतरायदहनाथ चतुर्थ धूपपूजा समाप्ता ॥४॥६० ॥ ॥ अथ पंचम दीपकपूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ ॥ उपनोग विघन पतंगीयो, पमत जगत् जीउ ज्योत ॥ त्रिशलानंदन ागले, दीपकनो उद्योत ॥१॥ जोगवी वस्तु जोगवे, ते कहीए उपनोग ॥ नूषण चीवर ववना, गेहादिक संयोग ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. १६३ ॥ ढाल पांचमी ॥ राग काफी ॥ अरनाथकुं सदा मेरी वंदना ॥ ए देशी ॥ ॥ जिनराजकुं सदा मेरी वंदना ॥ वंदना वंदना वंदना रे॥जिनराजकुं स ॥ए आंकणी॥ उपजोगांतराय हावी, जोगीपद महानंदना रे॥जि०॥अंतराय उदये संसारी, निर्धनने परबंदना रे ॥ जिण ॥१॥ देश विदेशे घर घर सेवा, नीमसेन नरिंदनारे ॥ जि ॥ सुणीय विपाक सुखी गिरनारे, हेलक तेह मुणींदना रे॥जि॥२॥बावीश वरस वियोगे रहेती, पवनप्रिया सती अंजना रे ॥ जि० ॥ नल दमयंती सती सीताजी, षट मासी आक्रंदना रे ॥ जि०॥३॥ मुनिवरने मोदक पमिलानी, पठी करी घणी निंदना रे ॥ जि० ॥ श्रेणिक देखे पानस निशिए, मम्मण शे विडंबना रे ॥ ज० ॥४॥ एम संसार विडंबन देखी, चाहुं चरण जिनचंदना रे ॥ जि ॥ चकवी चाहे चित्त तिमिरारि, जोगी ब्रमर अरविंदना रे॥ जि० ॥५॥ जिनमति धनसिरिदो साहेली, दीपक पूज अखंमना रे ॥ जि० ॥ शिव पामी तेम नवि पद पूजो, श्रीशुजवीर जिणंदना रे ॥ जि० ॥ ६ ॥ ॥काव्यं ॥जवति दीप० ॥१॥शुचिमनात्म॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम ॥तुर्य विनोबेदनाय दीपं य ॥ स्वा० ॥ इति तुर्य विनोबेदनार्थं पंचम दीपकपूजा समाप्ता ॥५॥ ६१ ॥ ॥अथ षष्ठादतपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ वीर्य विघन धनपमलमें, अवराणुं रवितेज ॥ काल ग्रीष्म सम ज्ञानश्री, दीपे आत्म सतेज ॥१॥ अक्षत शुद्ध अखंमशु, नंदावर्त विशाल ॥ पूरीप्रनु सन्मुख रही, थुणीए जगत् दयाल ॥३॥ ॥ ढाल बही॥ राग बंगाली केरबो ॥ सफल न मेरी थाजुकी घरीयां ॥ ए देशी ॥ ॥ जिणंदा प्यारा मुणींदा प्यारा, देखोरी जिणंदा नगवान् ॥ देखोरी जिणंदा प्यारा ॥ ए आंकणी॥ चरम पयमिको मूल विखरीयां, चरम तीरथ सुलतान ॥ दे० ॥ दर्शन देखत मगन नये हे, मागत दायिक दान ॥ दे ॥१॥पंचम विघनको खय उपशमसें, होवत हम नहीं लीन ॥ दे०॥ पांगल वलहीणा पुनियामें, वीरो सालवी दीन ॥ दे ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १६५ हरिबल चक्री शक ज्यु बली ए, निर्बल कुल श्रवतार ॥ दे० ॥ बाहुबली बल श्रदय कीनो, धन धन वालीकुमार ॥ दे०॥३॥सफल यो नरजन्म हमेरो, देखत जिनदेदार ॥ दे० ॥ लोहचमक ज्युं जगतिसें हलीए, पारस सांझ विचार ॥ दे०॥४॥ कीरयुगल बीहि चंचुमें धरते, जिन पूजत नए देव ॥दे॥अदतसे अदतपद देवे, श्रीशुजवीरकी सेव ॥ दे०॥५॥ ॥ काव्यं ॥ तितितले०॥१॥सहजनाव० ॥॥ ॥ अथ मंत्रः॥ ॥ उँ ही श्री परम ॥ वीर्यांतरायदहनाय श्रदतान् य० ॥ स्वा० ॥ इति वीर्यांतरायदहनार्थं षष्ठादतपूजा समाप्ता ॥ ६ ॥ ६ ॥ ॥ अथ सप्तम नैवेद्यपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा॥ ॥ निर्वेदी श्रागल धरो, शुचि नैवेद्यनो थाल ॥ विविध जाति पकवानशुं, शाली अमूलक दाल ॥१॥ अणाहारी पद में कस्यां, विग्गह गश्च अणंत ॥ पूर करो एम कीजीए, दी अणाहारी नदंत॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ ढाल सातमी ॥ राग काफी ॥ ॥ अखियनमें गुलजारा ॥ ए देशी ॥ ॥अखियनमें अविकारा, जिणंदातेरी अखियनमें अविकारा ॥ राग दोष परमाणु निपाया, संसारी सविकारा ॥जि०॥ शांतरुचि परमाणु निपाया, तुज मुखा मनोहारा ॥ जि० ॥१॥ अव्य गुण परजाय ने मुखा, चउगुण चैत्य उदारा ॥ जि०॥पंच विघन घन पडल पलाया, दीपत किरण हजारा ॥ जि० ॥२॥ कर्म विनाशी सिहखरूपी, गतीस गुण उपचारा ॥ जि० ॥वरणादिक वीश पूर पलाया, आगिई पंच निवारा ॥ जि ॥३॥ तीन वेदका उद कराया, संगरहित संसारा ॥ जि०॥ अशरीरी जवबीज दहायो, अंग कहे आचारा ॥ जि० ॥४॥ अरूपी पण रूपारोपणसें, उवणा अणुयोग द्वारा ॥ जि०॥ विषम काल जिनबिंब जिनागम, नवियणकुंआधारा ॥ जि० ॥५॥ मेवा मीगर थाल जरीने, षट्रस नोजन सारा ॥ जि० ॥ मंगल तूर बजावत आवो, नर नारी कर थारा ॥ जि० ॥६॥ नैवेद्य ठवी जिन आगे मागो, हलि नृप सुर अवतारा। जि० ॥ टाली अनादि आहारविकारा, सातमे लव अणादारा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १६७ जि० ॥ ७॥ सगविह शुद्धि सातमी पूजा, सगगई सगजय हारा ॥ जि० ॥ श्रीशुनवीर विजय प्रजु प्यारा, जिनागम जयकारा ॥ जि० ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ श्रनशनं ॥१॥ कुमतबोध ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम ॥ सिझपदप्रापणाय नैवेद्यं य॥स्वा॥इति सिझपदप्रापणार्थ सप्तम नैवेद्यपूजा समाप्ता ॥ ७ ॥ ६३॥ ॥ अथाष्टम फलपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ॥ अष्ट कर्मदल चूरवा, थाउमी पूजा सार ॥प्रजु आगल फल पूजतां, फलथी फल निर्धार ॥१॥ इंसादिक पूजा जणी, फल लावे धरी राग॥ पुरुषोत्तम पूजी करी, मागे शिव फल त्याग ॥२॥ ॥ ढाल आठमी ॥ राग धन्याश्री॥ गिरुषा रे गुण तुम तणा ॥ ए देशी ॥ ॥प्रजु तुज शासन अति नबुं,माने सुर नर राणो रे ॥ मिल अजव्य न उलखे, एक अंधो एक काणो रे॥प्र० ॥१॥ आगमवयणे जाणीए, कर्म तणी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. गति खोटी रे॥तीश कोमाकोमि सागरु,अंतराय थिति मोटी रे ॥ प्र० ॥॥ध्रुवबंधी उदयी तथा, ए पांचे ध्रुवसत्ता रे ॥ देशघातिनी ए सही, पांचे अपरियत्ता रे ॥प्र०॥३॥ संपराय बंधे कही, सत्ताउदये थाकी रे ॥ गुणगणुं लही बारमुं, नाठी जीव विपाकी रे ॥प्र० ॥४॥ ज्ञानमहोदय तें वस्यो, झछि अनंत विलासी रे ॥ फलपूजा फल आपीए, अमे पण तेहना श्राशी रे ॥ प्र० ॥ ५॥ कीरयुगलशुं पुगता, नारी जेम शिव पामी रे ॥ अमे पण करशुं तेहवी, नक्ति न राखं खामी रे॥ प्र॥६॥ साचि जक्ते रीजवी, साहिब दिलमां धरशुं रे॥ उत्सव रंग वधामणां, मनवांडित सवि करशुं रे ॥ प्र०॥ ७॥ कर्मसूदन तप तरु फले, ज्ञानअमृत रस धारा रे ॥ श्रीशुजवीरने श्राशरे, जगमां जयजयकारा रे ॥ प्र० ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ शिवतरोः ॥ १॥ शमरसै॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम॥ अष्टमकोबेदनाय फलानि य॥स्वा० ॥ इति अष्टमकर्मोदनाथ अष्टम फलपूजा समाप्ता ॥॥६४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसप्रकारी पूजा. १६ हवे प्रत्येक दिवसे याउमी पूजाने अंते कलश नणीने पली काव्य अने मंत्र जणवा.ते कलशप्रारंजीए डीए॥ ॥ राग धन्याश्री ॥ तूगे तूठो रे ॥ ए देशी ॥ ॥गायो गायो रे महावीर जिनेश्वर गायो॥ त्रिशला माता पुत्र नगीनो, जगनोतात कहायो॥ तप तपतां केवल प्रगटायो, समवसरण विरचायो रे ॥ महा॥१॥ रयण सिंहासण बेसी चनमुख, कर्मसूदन तप गायो॥ श्राचारदिनकरे वर्षमान सूरि, नवि उपगारे रचायो रे ॥ महा०॥२॥प्रवचनसारोकार कहावे,सिझसेन सूरिरायो॥दिन चउसक प्रमाणे ए तप, उजमणे निरमायो रे॥ महा॥३॥ उजमणाथी तपफल वाधे, श्म नाखे जिनरायो । झान गुरु उपगरण करावो, गुरुगम विधि विरचायो रे ॥महा॥४॥आठ दिवस मली चोस पूजा, नव नव नाव बनायो॥नरजव पामी लाहो लीजे, पुण्ये शासन पायो रे ॥ महा॥५॥ विजयजिनेंद्र सूरीश्वरराज्ये, तपगठ केरो रायो ॥ खुशाल विजय मानविजय विबुधना, श्राग्रहथी विरचायो रे ॥ महाण ॥६॥वम उशवाल गुमानचंदसुत,शासनरागसवायो ॥ गुरुनक्ति शा जवानचंद नित्य, अनुमोदन फल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. पायो रे ॥ महा० ॥ ७ ॥ मृग बलदेव मुनि रथकारक, त्रण हुआ। एक गयो । करण करावण ने अनु मोदन, सरिखां फल निपजायो रे || महा० ॥ ८ ॥ श्री विजयसिंह सूरीश्वर केरा, सत्यविजय बुध गायो ॥ कपूर विजय तस खिमा विजय जस, विजयपरंपर ध्यायो रे ॥ महा० ॥ ए ॥ पंमित श्रीशुभ विजय सुगुरु मुज, पामी तास पसायो ॥ तास शिष्य धीरविजय सलूणा, श्रागम राग सवायो रे ॥ महा० ॥ १० ॥ तस लघु बांधव राजनगर में, मिथ्यात्वपुंज जलायो ॥ पंमित वीरविजय कविरचना, संघ सकल सुखदायो रे ॥ महा० ॥ ११ ॥ पहेलो उत्सव राजनगर में, संघ मली समुदायो ॥ करता जेम नंदीसर देवा, पूरण हर्ष सवायो रे ॥ मद्दा० ॥ १२ ॥ ॥ कलश ॥ श्रुतज्ञान अनुभव तान मंदिर, बजावत घंटो करी ॥ तव मोहपुंज समूल जलते, जांगते सग ठीकरी ॥ हम राजते जग गाजते दिन, अखय तृतीया आज || वीर विक्रम वेद मुनि वसु, चंद्र वर्ष विराजते ॥ १ ॥ ( संवत् १८७४ ) ॥ इति श्रष्टम दिवसेऽध्यापनीयमंतराय कर्मसूदनार्थमष्टमपूजाष्टकं संपूर्णम् ॥ ८ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसवप्रकारी पूजा. १७१ ॥ अहीं श्रावे कर्मनुं मूल उजेदवाने अर्थे प्रत्येक कर्म आश्रयी उपवास थकी मांडीने अष्ट कवल पर्यतनुं तप दिन आठ सुधी करवं, तेने कर्मसूदन तप कहे . ते तप आवे कर्मनुं मली चोसठ दिवस पर्यंत करवू. तेनो यंत्र लखीए बीए. कर्मनी जे कर्मसूदन .. संख्या श्राश्री तप कना रवं ते कर्मना अंक नामर्नुकोष्टक. " १ज्ञानावरणीय. १ १२ १ २ दर्शनावरणीय ११ , ३ वेदनीयकर्म. १ १ १ १ १ १ १ ४ मोहनीयकर्म. १ १ १ १ १ १ १ ५ आयुःकर्म. १ १ १ १ १ १ १७ ६ नामकर्म. १ १ १ १ १ १ १ ७ गोत्रकर्म. १ १ १ १ १ १ १७ G अंतरायकर्म. १११११११ न उपवास. - एकासगुं. एकसीथ. नीवी. || एकलगणुं. आयंबिल. mmm एकदाती. ~~~ | aaaaaaaaa अष्ट कवल. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥अथ ॥ ॥ पंमितश्रीवीरविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा प्रारंनः॥ ॥ तत्र ॥ ॥प्रथम जलपूजा प्रारच्यते ॥ ॥दोहा॥ ॥ सरस वचन रस वरसती, बंनी प्रणमी जेह॥ जगवर धुर वसुधासुते, हुं पण प्रणमुं तेह ॥१॥ श्रीशंखेश्वर शिर नमी, पत्नणुं पूजाविचार ॥अंगादिक त्रिक पूजना, उत्तर अष्ट प्रकार॥२॥ न्हवण विखेवण कुसुमनी, जिन पूर धूप प्रदीप ॥ अदत नैवेद्य फल तणी, करो जिनराज समीप ॥३॥ दीरोदक चीवर धरी, तन मन वच संतोष ॥ उत्तरासंग सुविधि करो, श्राउपमो मुखकोश ॥४॥ प्रथम सुगंधजले जरी, कनककलशनी श्रेणि ॥ नर नारी करसंपुटे, धरीए हर्ष जरेण ॥५॥ ॥ ढाल ॥ राग देशाख ॥ ॥ विशद गंधोदके, वासित कुसुमादिके, वलीय सुवासना महमहे ए ॥ श्यो महमहे ए॥१॥ जमित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. १७३ मणि माणिके, कलश सोवन तथा जरीय धरी हाथने सुर रहे ए ॥ इयो सुर रहे ए ॥ २ ॥ मेरुगिरि उपरे, मेघवाहन करे, हर्षजर दियडले जल ती ए ॥ इयो जल तणी ए ॥ ३ ॥ जिन ती पूजना, डुरित दुःख धूजना, द्रव्य ने जाव नेदे जणी ए ॥ इयो नेदे जणी ए ॥ ४ ॥ इति ढाल ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ जलपूजा जुगते करो, मेल अनादि विनाश ॥ जलपूजाफल मुज हजो, मागो एम प्रभु पास ॥ १ ॥ ॥ अथ गीतं ॥ घने होजी रे ॥ ए देशी ॥ ॥ सुरराज ज्युं जवि, जलपूजा युगते करो रे ॥ सुरराज ज्यं जवि, मागध ने वरदाम, सनेहा ॥ सुर० ॥ देवनई परमासना रे ॥ सुर० ॥ क्षीरोदधि शुचि गम ॥ सनेहा ॥ १ ॥ सुर० ॥ जलपूजा युगते करो रे ॥ ए यांकण॥सुर॥श्रमविध कलशा जल जरी रे ॥ सुर० ॥ न्हवण करे जेम देव ॥ सनेहा ॥ सुर० ॥ तेम तीर्थोदक मेलीने रे ॥ सुर० ॥ अरिहा न्हवण करेव ॥ सनेहा ॥ २ ॥ सुर० ॥ मिश्रित केशर उषधि रे ॥ सुर० ॥ कर्मयमल दूर जाय ॥ सनेहा ॥ सुर० ॥ श्रात्म विमल केवल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. लदे रे ॥ सुर॥ कारणे कारज थाय ॥ सनेहा ॥३॥सुर० ॥ विप्रवधू जलपूजथ। र ॥ सुर० ॥ सोमेसरी तस नामसनेहा ॥ सुर॥जग जस शुन सुख संपदारे॥सुर॥पामी अविचल ठाम ॥ सनेहा ॥४॥ सुर० ॥ इति गीतं ॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ श्री श्री परमपुरुषाय । परमेश्वराय । जन्मजरामृत्युनिवारणाय । श्रीमते । जिनेडाय। जलं यजामहे स्वाहा ॥ए मंत्र जणी कलश नामीए॥इति प्रथम न्हवणपूजा समाप्ता ॥१॥ ॥अथ द्वितीय चंदनपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ आतमगुण वासन जणी, चंदनपूजा सार ॥ जेम मघवा अपर करे, तेम करीए नर नार ॥१॥ ॥ ढाल ॥ रामग्रीरागण गीयते ॥ ॥ हर्ष उलट धरी, सुरनि जस विस्तरी, बावना चंदन सरस लीजे ॥१॥ घसीय उरस परी, मांहि केसर धरी, मन वचन काय थिरता करीजे॥॥कनक मणिए घमी, रत्नकचोलमी, माहे जरी नेत्र जिन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. १७५ गुं ग्वीजे ॥३॥ चरण जानु करे, अंश शिर लाल गले, तर उदर प्रजु नव तिलक कीजे ॥४॥ ॥दोहा॥ ॥ शीतल गुण जेहमा रह्यो, शीतल प्रमुख रंग॥ श्रात्म शीतल करवा नणी, पूजो अरिहाअंग॥१॥ ॥ गीतं ॥ राग काफी ॥ कुंबखमानी देशी ॥ ॥हरिचंदन घनसारशुंरे, अव्य तिलक नव अंग॥ जिनेसर पूजीए ॥ शिवसुंदरी शिर सोहतुं रे, नावतिलक मनरंग ॥जिने॥१॥पढम चन निज थानके रे, तिलक विमल सुखकार॥ जिने ॥ गात्र विलेपन पूजना रे, जगद्गुरु जयकार ॥ जिने० ॥२॥ क्रोध अनल शीतल थये रे, रीज बनी तुज मुज ॥ जिने॥ दण क्षण पुलक प्रमोदशुं रे, अजब गति प्रनुपूज॥ जिने॥३॥ जिम जयसूर ने शुनमति रे, दंपती पद निर्वाण ॥ जिने ॥ चंदनपूजा जिन तणी रे, करतां शुन कल्याण ॥ जिने ॥४॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ जी श्री परम ॥ चंदनं य॥ स्वा॥ इति द्वितीय विलेपनपूजा समाप्ता ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ अथ तृतीय पुष्पपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ हवे त्रीजी सुमनस तणी, सुमनस करण खनाव ॥ नावसुगंध करण जणी, अव्य कुसुम प्रस्ताव ॥१॥ ॥ ढाल ॥राग मियानी धन्याश्री॥जाति रेखतानी ॥ मोरी माय रे मुने जान दे ॥ ए देशी ॥ ॥सुरनाथ ज्युं विलोक पूजो, जिनप जो नहीं मले ॥सौगंधि कुसुम विविध जातिगुं, मेलवी धन मोकले ॥ सुर ॥१॥ मोगरो चंपक मालती सुम, केतकी वर जासुले ॥ प्रियंगु ने पुन्नाग नागं, दाउदी वर पामले ॥ सुर० ॥२॥ सदा सोहागण जाई जुई, बोलसिरी सेवंत रे ॥ मचकुंद ने चंबेली वेली, उगीयां शुचि जलयले ॥ सुर० ॥३॥ लेश सुरनि सुम जिनचरण पूजो, पूजीया आखंमले॥ शिवसुंदरी वरमालिका सुम, थापीए पारगगले ॥ सुर० ॥४॥ ॥दोहा॥ ॥ सुरनि अखंम कुसुम ग्रही, पूजो गतसंताप ॥ सुमजंतु जव्यज परे, करीए समकित गप ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. १७७ ॥ गीतं ॥ राग काफी ॥ अरनाथकुं सदा मेरी वंदना ॥ ए देशी ॥ ॥पूजो श्रीजिनचंदने रे, नवि पूजो श्री जिनचंदने ॥ शिव वरीए पुरित निकंदीने रे॥ज०॥ ए टेक ॥ सरस सुगंध कुसुम वर जाति, पद्म मक्षिका कुंदने रे ॥ ज० ॥ दमणो मरु वर सहकारो, लावो वली मचकुंदने रे ॥ ज० ॥१॥ लाल गुलाब बकुल कोरंटो, केवमो कुसुम अखंमने रे ॥ ज० ॥ पूजो जवि तेम परम प्रमोदे, पूज्या जेम शक्रंदने रे ॥ न ॥२॥धतूरे पूजत शिव विषयी, नर वायस पिचुमंदने रे ॥ ज० ॥ निरीदकुं कुसुमे सुर सेवत, परपुष्टा माकंदने रे ॥ ज० ॥३॥ शुज त्रिक योगे वीर कहे जिन, पूजी हरो नवफंदने रे ॥ न ॥ वणिगधुश्रा लीलावती पूजत, पामी पद महानंदने रे ॥ ज० ॥४॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परम ॥ पुष्पाणि य० ॥ स्वा॥ इति तृतीय पुष्पपूजा समाप्ता ॥३॥ वि० १२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा॥ ॥ कर्मसमिधु दाहन जणी, ध्यानानल सलगाय॥ अव्यधूप करी पातमा, सहज सुगंधित थाय ॥१॥ ॥ ढाल ॥राग मालवी गुडो ॥ ॥ जवजय चूरणो, कृष्ण अगर तणो, चूरण करी सुरनि मने ए ॥१॥ अंबर तगरनो, शुचितर अगरनो, वली घनसार बरासने ए॥२॥कुंदरु तुरुकनो, कस्तूरी पुरकनो, नेलीए मेलवी चंदने ए॥३॥नव नव रंगनो, शुद्ध दशांगनो, धूप सुगंध जिनंदने ए ॥४॥ धूपधाणुं जणुं, कंचन रयणर्नु, पावक निर्धूम परजले ए॥५॥ जिनपमंदिर जतां, धूप उखेवतां, दश दिशि महमहे परिमले ए ॥६॥ इति ढाल॥ ॥ दोहा ॥ ॥ध्यानघटा प्रगटावीए, वाम नयन जन धूप ॥ मिलतगंध उरे टले, प्रगटे आत्मस्वरूप ॥१॥ ॥ गीतं ॥ सबाब रागिणी ॥ जाति फाग ॥ ॥जिनवर जगत्दयाल ॥ नवियां ॥ जिनवर जगत्दयाल ॥ जिनपद सेवत धूप उखेवत, सुरवर नयन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. १७ हजार ॥ नवियां ॥ जि० ॥ तेम नवि शुद्ध दशांग उखेवो, माहे साकर घनसार ॥ नवि०॥ जि० ॥१॥ परिमल वदने ध्रप कहत हे, सणजो बहिविशाल ॥ज॥जि ॥जिनपद सेवत ऊर्ध्व गति हम, तेम जवि शिवसुखमाल ॥ ज० ॥ जि० ॥२॥ सिखरूपी अरूपी विमलता, वेदी समय त्रिकाल ॥०॥ जि० ॥ एहवा प्रजु पमिमा वामांगे, धरीए धूप रसाल ॥ न ॥ जि० ॥ ३॥ चोथी पूजा चिहुं गतिहार वारी कर्मकी जाल ॥ ज० ॥ जि० ॥ वीर कहे नव सातमे सिझा, विनयंधर नूपाल ॥ न०॥जि०॥॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परम ॥ धूपं य० ॥ स्वा० ॥ इति चतुर्थ धूपपूजा समाप्ता ॥४॥ ॥ अथ पंचम दीपकपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ पंचमी गति वरवा जणी, पंचमी पूजा रसाल ॥ केवल रत्न गवेषवा, धरीए दीपक माल ॥१॥ ॥ ढाल ॥ राग पूर्वी ॥ ॥ दीपक ज्योति बनी नवरंगा, दीनदयालके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. दाहिण अंगा॥दीपणारयणजमित वर्तुल नाजनमें, धेनुहविष जरीए उबरंगा॥दीप०॥१॥प्राणी उगा. रण कारण फानस, करीए ज्युं नविाय पतंगा॥दी० ॥ जगमग ज्योतिरां दीपक धरीए, अनुनव दीपक सम कितसंगा ॥ दी० ॥॥ जिनमंदिर जश् दीप प्रगट धरी, श्राशय शुभ विमल जल गंगा ॥ दी०॥ ध्यान विमल करतां नवि नासे, दीप विराजथी मोहनुजंगा ॥ दी॥३॥तिम मिथ्यात्व तिमिरकुं हरीए, शार्वर तमहर व्योमपतंगा ॥ दी० ॥ गोश्न देखत नासत तस्कर, ज्युं जिनदर्शन जात अनंगा॥दी०॥४॥ ॥ दोहा॥ ॥ऽव्यदीप सुविवेकथी, करतां फुःख होय फोक॥ नावप्रदीप प्रगट हुवे, नासित लोकालोक ॥१॥ ॥ गीतं ॥ राग आशावरी ॥ गरबानी देशी ॥ ॥ दीपक दीपतो रे, लोकालोक प्रमाण ॥एहवो दीवमो रे, प्रगटे पद निरवाण ॥ दी० ॥ऽव्य थकी दीपकनी पूजा, करतां दो गति रोको रे॥प्रजुपमिमा श्रादर्श करीने, आतमरूप विलोको॥दी॥एदवो ॥ १॥ शुद्ध दशा चेतनकुंप्रगटे, विघटे नवजव कूपो रे ॥ चिदानंद जककोल घटाशें, केवलदीप अनूपो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. १७१ ॥ दी॥ एहवो ॥२॥ पमत पतंग न धूमकी रेखा, नहीं चंचल मारुते रे॥घृत विण पूरे पात्र न तापे, वली नवि मेल प्रसूते ॥ दी॥एदवो ॥३॥ पाप पतंग पमत तेम दीपक, करती दो साहेली रे ॥ जिनमति धनसिरी वरी शिवसुखने, वीर कहे रंगरेली ॥ दी० ॥ एहवो ॥४॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ है श्री परम ॥ दीपमाला य० ॥ स्वा॥ इति पंचम दीपकपूजा समाप्ता ॥५॥ ॥ अथ षष्ठादतपूजा प्रारंलः ॥ ___॥ दोहा ॥ ॥ अक्षय पद साधन तणी, अदतपूजा सार ॥ जिनप्रतिमा आगल मुदा, धरीए नवि नर नार॥१॥ ॥ ढाल ॥ राग बिलावल ॥ ॥ जगत्प्रनु आगल नवि, वर अक्षत धरीए ॥ मणि मुक्ताफल खेश्ने, वली स्वस्तिक करीए॥हांहां रे वली स्वस्तिक करीए ॥हांहां रे करी पातक हरीए ॥ हांहां रे ही पूजा समरीए ॥ हांहां रे प्रवहण नर दरिये॥हांहारे जवसायर तरीए॥हांहां रे पद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ____ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. अदर वरीए॥जगत् ॥१॥अथवा उज्ज्वल तंडुला, जरी थालने लावो ॥स्वस्तिक चिहुँ गति चूरणो, वच्चे रत्नने गवो ॥दांहारे वच्चे रत्नने गवो॥हांहां रे घनसार वसावो॥हांहां रे गोधूमादि अणावो ॥ दोहां रे तस पुंज बनावोहांहां रे अनुजव लय लावो॥हांहां रे (जो) होये शिवपुर जावो॥जगत्॥२॥इति ढाल॥ ॥ दोहा ॥ . ॥शुफ अखंग अक्षत ग्रही, नंदावर्त्त विशाल ॥ पूरी प्रनु सन्मुख रहो, टाली सकल जंजाल ॥१॥ ॥अथ गीतं ॥ राग बिहागमो॥ ॥शिवनारी मुज प्यारी, दिलनर देखाव हो शिवनारी॥हारे प्रजु तुं तेहनो अधिकारी,दिलजर देखाव हो शिवनारी ॥ए टेक ॥ शालिव्रीहि गोध्रमको ढगलो, प्रनु सन्मुख नर नारी ॥ दिल ॥ धरी अदत अदत पद वरीए, आधि व्याधि नवहारी ॥ दिल ॥१॥ शंजु स्वयं जगतको त्रायक, नायक जगदाधारी ॥ दिल ॥तीर्थपति सुलतान जिनेश्वर, अविचल पद दातारी ॥ दिल ॥२॥ दवह गुण पजाय ने मुद्दा, चजगुण पाममा प्यार ॥ दिल०॥ अव्यादत धरतां श्ह लोके, राज कि नंमारी॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. १३ दिल ॥३॥ मरुदेवानंदन पद पूजत, अव्य नाव सुखकारी ॥ दिल॥अनुनव अमरालय शुज सुखने, कीरयुगल नवप्यारी ॥ दिल ॥४॥ इति गीतं ॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परम ॥ अक्षतान् य० ॥ खा॥ शति षष्ठादतपूजा समाप्ता॥६॥ ॥ अथ सप्तम नैवेद्यपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ निर्वेदी आगल ग्वो, शुचि नैवेद्य रसाल ॥ विविध जाति पक्वान्नशुं, नरी अष्टापद थाल ॥१॥ ॥ ढाल ॥ राग काफी ॥ ॥ पुरुषोत्तम गुणखाणी हो, पारग पुरुषोत्तम गुणखाणी ॥ ए टेक ॥ हवे नैवेद्य रसाल ग्वीजे, प्रजु आगल नवि प्राणीमरकी अमृत पाक पतासां, फेणी सरस सोहाणी हो॥पारग पुरु०॥१॥लाखणसाक्ष मगदल साटा, घेवर थाल जराणी ॥ सेव कंसार ने सकरपारा, पेंमा बरफी प्राणी हो ॥ पारग पुरु०॥२॥ खाजां खुरमा खीर खांग घृत, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. पापम पूरी वखाणी ॥ मोतैया कलिसार ने डोगं, एम पक्वान्न मिलाणी हो ॥ पारग पुरु०॥३॥प्रनु पुर ढोइ करो फुःखहाणी, मागो जोमी पाणी ॥ पतितपावन जिन मुजने दीजे, अणाहारी शिवराणी हो ॥ पारग पुरु०॥४॥इति ढाल ॥ ॥दोहा ॥ ॥श्रणाहारी पद में कस्यां, विग्गहगश्य अणंत ॥ घर करी ते दीजीए, श्रणाहारी शिवसंत ॥१॥ ॥ अथ गीतं ॥ वंशावनमा एकज गोपी ॥ ए देशी ॥ ॥ दाटक थाल जरी पक्वान्ने, शाल दाल शाक पाक रे॥श्रनुजव रस सिंचत नविलहीए,अमृत पदवी नाक रे ॥ हाटक ॥१॥ ताल कंसाल मृदंग बजावत, देता अढलक दान रे ॥ नर नारी जिनगुण गावत श्रावो, जिनमंदिर बहुमान रे।हाटक॥२॥ प्रनु आगे नैवेद्य उवीने, अणाहारी पद मागो रे ॥ पुजलजाव अनादिनी ईहा, टाली जजो प्रजु रागो रे ॥ हाटक० ॥३॥ सग जय वारक सातमी पूजा, करतां गश् सगवारी रे॥वीर कहे हली नृप सुरसुखथी, सातमे नव शिवनारी रे॥हाटक ॥४॥इति गीतं ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत श्रष्टप्रकारी पूजा. १५ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम ॥ नैवेद्यं य० ॥ स्वा० ॥ इति सप्तम नैवेद्यपूजा समाप्ता ॥७॥ ॥ अथाष्टम फलपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा॥ ॥ अष्टमी गति वरवा जणी,आठमी पूजा सार॥ तरु सिंचत फल पामीए, फलथी फल निरधार ॥१॥ ॥ ढाल ॥ राग गोमी, मारुणी ॥ ॥ मुगति फली रे फली रे फली, अहो नवियां हो मुगति फली ॥ कुमति टली सुमति नली, एम नर नारी मली रे मली ॥ अहो ना ॥ मुगः ॥ ए टेक ॥ फलपूजा करीए फलकामी, निर्मल श्रीफल लाय ॥ अहो ॥ दाडिम जाख अखोम बदामो, पूगीफल समुदाय ॥ श्रहो० ॥ मुगण॥ कुम०॥ सुमण ॥ एम० ॥१॥मिष्टांग लीबू खारेक कदली, सीताफल अजिराम ॥ अहो ॥ जमरुख तरबुज नीमजां कोहलां, समरी समरी जिननाम ॥ अहो ॥ मुग ॥ कुम० ॥ सुम० ॥ एम० ॥२॥ चुयफल नारिंग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. पिस्तां खरबुज, फनस अंगुर जंबीर॥अहो ॥ शुन चामीकर थाल जरीजे, सिंगोमां अंजीर ॥ अहो ॥ मुग० ॥ कुम ॥ सुम० ॥ एम० ॥३॥ इति ॥ ॥दोहा॥ ॥ इंसादिक पूजा जणी, फल लावे धरी राग ॥ पुरुषोत्तम पूजी करी, मागे शिवफल त्याग ॥१॥ ॥ अथ गीतं ॥ श्मन रागिणी ॥ महारी सही रे समाणी ॥ ए देशी ॥ ॥ हरि परे फल मागो नविलोका, फलथी शिवफल रोका रे ॥ धन धन जिनराया॥रायण बीजोरां फल टेटी, पूजत शिववढू नेटी रे ॥ धन ॥१॥ इत्यादिक शुचि फल नवि लावो, थाल विशाल जरावो रे ॥ धन ॥ वर्ष नरे जिनमंदिर श्रावो, जिनवर आगल गवो रे ॥ धन ॥२॥ एम फलपूजा जे नवि करशे, ते शिवरमणी वरशे रे ॥धनः॥ पूजो नवियण निर्मल बुद्धि, पण करी सगविह शुधिरे ॥ धन ॥३॥ कीरयुगलशुं उगता नारी, पूज्या जिन जयकारी रे ॥ धन ॥ कहे शुनवीर अचल सुख लीधो, अंत करमनो कीधो रे ॥ धन ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. १७७ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ दी श्री परम ॥ फलानि य० ॥ वा ॥ इति श्रष्टम फलपूजा समाप्ता ॥७॥ ॥अथ कलश ॥राग धन्याश्री॥वामानंदन जग०॥ ॥ए देशी॥ ॥णविध अष्ट प्रकारी पूजा, करशे तस नित्य सुख शाता ॥ सिकि बुधि दिहि अम नविजन, पामी श्रम पवयण माता॥हरि परे जक्ति करो प्रजु केरी ॥१॥राग द्वेष टाली जिन पूजत, अष्टमी गति अनुक्रमे लहे॥श्रष्ट कर्म समताए बाली, नील तरु वन हिम दहे ॥ हरि परे॥२॥ तपगल श्रीविजयसिंह सूरीश्वर, सत्यविजय पंन्यास वरो॥ कपूर समुजाल खिमा विजय जस, विजय सदा सौजाग्य करो ॥हरि॥३॥तास शिष्य शुजविजय सोनागी, तस अनुमति जिनराय सही॥ गावत हर्ष कबोल जराया, राजनगर चनमास रही ॥ हरि ॥४॥ संवत् अढार अहावन वरपे, नाउपदे सित पद जलो ॥ द्वादशी दिन गुरुवार मनोहर, ए अच्यास जयो सफलो ॥ हरि॥ ५॥ सुरगुरु पण न शके करी वर्णन, जिन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. थुणीया में मंदमति ॥ जलधिमान कहे जेम बालक, निज शक्ते पंखी वदती ॥ हरि ॥ ६॥शक्ति विना पण तेम प्रनु गाया, गुणमाला नवि कंठ धरो॥वीरविजय कहे संघ सकल नवि, जर शिवमंदिर लील करो॥हरि॥७॥इति कलश ॥इति श्रीवीरविजयजी विरचितअष्टप्रकारी पूजा समाप्ता॥सर्व गाथा॥१॥ ॥अथ ॥ ॥ पंडित श्रीवीरविजयजीकृत पंचकल्याणक___ महोत्सवेऽष्टप्रकारी पूजा प्रारंजः ॥ ॥तत्र ॥ ॥ च्यवनकल्याणके प्रथम पुष्पपूजा प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ श्रीशंखेश्वर साहिबो, सुरतरु सम अवदात ॥ परिसादाणी पासजी, षटदर्शन विख्यात ॥१॥ पंचमे श्रारे प्राणीया, समरे उठी सवार ॥ वांबित पूरे फुःख हरे, वंडं वार हजार ॥२॥ अवसर्पिणि त्रेवीशमा, पार्श्वनाथ जब हूंत ॥ तस गणधरपद पामीने, थाशो शिववधूकंत॥३॥दामोदर जिनमुख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पंचकल्याणक पूजा. १ए सुणी, निज आतम उकार ॥ तदा आषाढी श्रावके, मूर्ति जरावी सार ॥४॥ सुविहित आचारज कने, अंजनशलाका कीध ॥ पंचकल्याणकउत्सवे, मार्नु वचनज लीध ॥५॥सिमखरूप रमण जणी, नौतम पडिमा जेह ॥ थापी पंचकल्याणके, पूजे धन्य नर तेह ॥ ६॥ कल्याणकउत्सव करी, पूरण हर्ष निमित्त ॥ नंदीसर जश् देवता, पूजे शाश्वत चैत्य ॥७॥ कल्याणक पूजन सहित, रचना रचरांतेम॥ उर्जन विषधर डोलशे, सजान मनशुंप्रेम ॥७॥ कुसुम फल अदत तणी, जल चंदन मनोहार ॥धूप दीप नैवे द्यशं, पूजा श्रष्ट प्रकार ॥ ए॥ ॥ ढाल ॥ प्रथम पूरव दिशे ॥ ए देशी॥ ॥प्रथम एक पीठिका, जगमग दीपिका, थापी प्रनु पास ते, उपरे ए ॥ रजत रकेबीयो, विविध कुसुमे जरी, हाथ नर नारी धरी, उच्चरे ए॥१॥ कनकबाढूनवे, बंध जिननामनो, करीय दशमे देव, लोकवासी ॥ सकल सुरथी घणी, तेजकांति नणी, वीश सागर सुख, ते विलासी ॥२॥ देत्र दश जिनवरा, कल्याणक पांचसें, उत्सव करत सुर साथ\ ए॥ थश्य अग्रेसरी, सासय जिन तणी, रचत पूजा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रए विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. निज हाथरों ए ॥३॥ योगशास्त्रे मता, मास षटु थाकता, देवने फुःख बहु जातिनुं ए॥ते नविनीपजे, देव जिन जीवने, जोवतां गण उपपातनुं ए॥४॥ मुगतिपुर मारगे, शीतल बगहमी, तीर्थनी नूमि, गंगाजले ए ॥ चैत्य अनिषेकता, सुकृततरु सिंचता, जक्ते बहुला नवि, जव तरे ए॥५॥वारण ने असी, दोय वचमां वसी, काशी वाराणसी, नयरीए ए॥ अश्वसेन नूपति, वामा राणी सती, जैनमति रति, अनुसारीए ए॥६॥चार गति चोपमा,च्यवनना चूकवी, शिव गया तास घर, नमन जावे ॥बालरूपे सुर तिहां, जननी मुख जोवतां, श्रीशुनवीर थानंद पावे॥७॥ ॥ काव्यं ॥ उपजातिवृत्तम् ॥ ॥ जोगी यदालोकनतोऽपि योगी, बनूव पाताल पदे नियोगी ॥ कल्याणकारी पुरितापहारी, दशा वतारी वरदः स पार्श्वः ॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ उँही श्री परमपुरुषाय, परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय,श्रीमते जिनेप्राय,पुष्पाणि यजामदेखाहा॥इतिच्यवनकट्याणके प्रथम पुष्पपूजा॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पंचकल्याणक पूजा. १९१ ॥अथ ॥ ॥च्यवनकल्याणके द्वितीय फलपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ कृष्ण चतुर्थी चैत्रनी, पूर्णायु सुर तेह ॥ वामा मात उदर निशि, अवतरीया गुणगेह ॥१॥ सुपन चतुर्दश मोटकां, देखे माता ताम ॥ रयणी समे निज मंदिरे, सुखशय्या विश्राम ॥२॥ ॥ ढाल ॥ मिथ्यात्व वामीने कोश्या समकित पामी रे ॥ ए देशी॥ ॥ रुमो मास वसंत फली वनराजी रे, रायण ने सहकार वाहा ॥ केतकी जाय ने मालती रे, उमर करे ऊंकार वाल्हा ॥ कोयल मदनर टर्कती रे, बेठी आंबाडाल वाहा ॥ हंसयुगल जल जीलता रे, विमल सरोवर पाल वाहा॥ मंद पवननी लहेरमां रे, माता सुपन नीहाल वाल्हा ॥ ए आंकणी॥ दीगे प्रथम गज उज्ज्वलो रे, बीजे वृषन गुणवंत वाव्हा ॥ त्रीजे सिंहज केसरी रे, चोथे श्रीदेवी महंत वाहा॥ माल युगल फुल पांचमे रे, के रोहिणीकंत वाल्हा ॥ उगतो सूरज सातमे रे, बाग्मे वज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. लड़कंत वाब्दा ॥ रुमो मास० ॥ १ ॥ नवमे कलश रूपा तणो रे, दशमे पद्मसर जाए वाल्हा ॥ श्रग्यारमे रत्नाकरु रे, बारमे देवविमान वाल्दा ॥ गंज रत्ननो तेरमे रे, चउदमे वह्निवखाप वाल्हा ॥ उतरतां आकाशथी रे, पेसंता वदन प्रमाण वाब्दा ॥ रुमो० ॥ २ ॥ माता सुपन लही जागीयां रे, अवधि जुवे सुरराज वाल्दा ॥ शक्रस्तव करी वंदीया रे, जननी उदर जिनराज वाल्हा ॥ एणे समे इंद्र ते श्रावीया रे, मा आगल धरी लाज वाल्हा ॥ पुण्यवती तुमे पामीयुं रे, त्रण भुवननुं राज्य वाब्दा ॥ रुडो० ॥ ३ ॥ चउद सुपनना अर्थ कही रे, इंद्र गया निज गम वाल्हा ॥ चनसह इंद्र मली गया रे, नंदीसर जिनधाम वाल्दा ॥ च्यवन कल्याणक उत्सवे रे, श्री फलपूजा गम वाल्हा ॥ श्रीशुनवीर तेणे समे रे, जगत् जीव विश्राम वाल्हा || रुमो० ॥ ४ ॥ ॥ काव्यं ॥ जोगी यदा० ॥ १ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॐ श्री परम० ॥ फलानि य० ॥ स्वा० ॥ ॥ इति च्यवनकल्याणके द्वितीय फलपूजा संपूर्णा ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पंचकल्याणक पूजा. १५३ ॥अथ ॥ ॥जन्मकल्याणके तृतीय अदतपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ रविउदये नृप तेझीया, सुपनपाठक निज गेह ॥ चनद सुपनफल सांजली, वलीय विसा तेह ॥१॥ त्रण ज्ञानशं जपना, त्रेवीशमा अरिहंत ॥ वामाजर सर हंसलो, दिन दिन वृद्धि लहंत ॥२॥ डोहला पूरे नूपति, सखी वृंद समेत ॥ जिन पूजे अदत धरी, चामर पंखा लेत ॥३॥ ॥ ढाल ॥ चित्त चोखे चोरी नवि करीए॥ए देशी ॥ रमती गमती हमुने साहेली, बिहु मली लीजीए एक ताली ॥ सखि आज अनोपम दीवाली॥ लील विलासे पूरण मासे, पोष दशम निशि रढीयाली ॥ सखिम् ॥ १॥ पशु पंखी वसीयां वनवासी, ते पण सुखीयां समकाली॥सखि॥ण राते घर घर उत्सवसे, सुखीयां जगतमें नर नारी ॥ सखि० ॥॥ उत्तम ग्रह विशाखायोगे, जनम्या प्रजुजी जयकारी ॥सखि०॥साते नरके थयां अजुवालां, थावरने पण सुखकारी ॥ सखि० ॥३॥ मात नमी आठे दिक वि० १३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ დე विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. कुमरी, अधोलोकनी वसनारी ॥ सखि० ॥ सूतिघर ईशाने करती, योजन एक अशुचि टाली ॥ सखि० ॥ ४ ॥ ऊर्ध्वलोकनी व कुमारी, वरसावे जल कुसुमाली ॥ सखि० ॥ पूर्व रुचक छ दर्पण धरती, दक्षिपनी म कलशाली ॥ सखि० ॥ ५ ॥ श्रम पछिमनी पंखा धरती, उत्तर अव चामर धारी ॥ सखि० ॥ विदिशिनी चल दीप धरती, रुचक द्वीपनी चठ बाली सखि० ॥ ६ ॥ केल तणां घर त्रण करीने, मर्दन स्नान अलंकारी ॥ सखि० ॥ रक्षा पोटली बांधी बिहुने, मंदिर मेल्यां शणगारी ॥ सखि० ॥ ७ ॥ प्रभु मुखकमले अमरी जमरी, रास रमंती लटकाली ॥ सखि० ॥ प्रभुमाता तुं जगतनी माता, जगदीपकनी धरनारी ॥ सखि० ॥ छ ॥ माजी तुज नंदन घएं जीवो, उत्तम जीवने उपकारी ॥ सखि० ॥ बप्पन दिक्कुमरी गुण गाती, श्रीशुनवीर वचनशाली ॥स खि० ॥णा ॥ काव्यं ॥ जोगी यदा० ॥ १ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ श्री श्री परम० ॥ तान् य० ॥ स्वा० ॥ इति जन्मकल्याण के तृतीय अतपूजा संपूर्णा ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पंचकल्याणक पूजा. १९०५ ॥ अथ ॥ ॥ जन्मकल्याण के चतुर्थ जलपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ चलितासन सोहमपति, रची वैमान विशाल ॥ प्रभु जन्मोत्सव कारणे, आवंता तत्काल ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ काज सिद्धां सकल दवे सार ॥ ए देशी ॥ ॥ हवे शक्र सुघोषा वजावे, देव देवी सर्व मिलावे ॥ करे पालक सुर अनिधान, तेणे पालक नामे विमान ॥ १ ॥ प्रभु पासनुं मुखडुं जोवा, जवजवनां पातक खोवां ॥ चाले सुर निज निज टोले, मुख मंगलिक माला बोले ॥ प्र० ॥२॥ सिंहासन बेठा चलीया, हरि बहु देवे परवरीया ॥ नारी मित्रना प्रेरया यावे, केक पोताने जावे ॥ प्रभु ॥ ३ ॥ हुकमे केइ नक्ति नरेवा, वली केश्क कौतुक जोवा ॥ दय कासर केशरी नाग, फणी गरुम चढ्या केइ बाग ॥ प्रभु० ॥ ४ ॥ वादन वैमान निवास, संकीर्ण थयुं श्राकाश ॥ के बोले करता तामा, सांकमा जाइ पर्वना दहाडा ॥ प्रभु ॥ ५ ॥ इहां आव्या सर्व आणंदे, जिनजननीने हरि वंदे पांच रूपे हरि प्रभु हाथ, एक ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रए६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. बत्र धरे शिर नाथ ॥ प्रजु० ॥६॥बे बाजु चामर ढाले, एक बागल वज्र जलाले ॥ जश् मेरु धरा उत्संगे, इंछ चोस मलीया रंगे ॥ प्रजु ॥७॥ हीरोदक गंगा वाणी, मागध वर दामनां पाणी॥ जाति थाना कलश जरीने, अढीसें अनिषेक करीने ॥प्रजु ॥ ॥ दीवो मंगल आरति कीजे, चंदन कुसुमे करी पूजे॥गीत वाजितना बहु गठ, श्रालेखे मंगल आठ॥प्र ॥ए॥इत्यादिक उत्सव करता, ज माता पासे धरता॥ कुंमलयुग वस्त्र उशीके, दमो गेमी रतनमयी मूके॥प्रजु०॥१०॥ कोमि बत्रीश रत्न रूपैया, वरसावी इंज उच्चरीया ॥ जिनमाताशं जे धरे खेद, तस मस्तक थाशे बेद ॥ प्रजु ॥ ११ ॥ अंगुठे अमृत वाही, नंदीसर करे अग॥दे राजा पुत्र वधाइ, घर घर तोरण विरचा ॥प्रनु० ॥१२॥ दश दिन उंचव मंमावे,बारमे दिन नात जिमावे॥नाम थापे पार्श्वकुमार,शुनवीर विजय जयकार॥प्रजु॥१३॥ ॥ काव्यं ॥ नोगी यदा ॥१॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ जलं य०॥ वा ॥ ॥ इति जन्मकल्याणके चतुर्थ जलपूजा संपूर्णा ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पंचकल्याणक पूजा. १५७ ॥ अथ ॥ ॥ जन्मकल्याण के पंचम चंदनपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ मृतपाने या, रमता पासकुमार ॥ अहिलंबन नव कर तनु, वरते अतिशय चार ॥ १ ॥ यौवन वय प्रभु पामता, मात पितादिक जेह ॥ परपावे नृपपुत्रिका, प्रजावती गुणगेह ॥ २ ॥ चंदन घसी घनसारशुं, निज घर चैत्य विशाल ॥ पूजोपकरण मेलवी, पूजे जगत्दयाल ॥ ३ ॥ ॥ ढाल || बालपणे योगी हुआ, माइ जिक्षा धोने ॥ ए देशी ॥ ॥ सोना रूपाके सोगठे, सांयां खेलत बाजी ॥ इंद्राणी मुख देखते, हरि होत हे राजी ॥ १ ॥ एक दिन गंगा के बिचे, सुर साथ बहोरा ॥ नारी चकोरा अप्सरा, बहोत करत निहोरा ॥ २ ॥ गंगाके जल कीलते, बांदी बादलीयां ॥ खावन खेल खेलायके, सवि मंदिर वलीयां ॥ ३ ॥ बेठे मंदिर मालीये, सारी श्रालम देखे || हाथ पूजापा ले चले, खानपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. विशेषे ॥ ४॥ पूज्या पमुत्तर देत हे, सुनो मोहन मेरे ॥ तापसकुं बंदन चले, उठी लोक सवेरे ॥५॥ कम योगी तप करे, पंच अग्निकी ज्वाला ॥ हाथे लालक दामणी, गले मोहनमाला ॥६॥ पासकुंअर देखण चले, तपसीपे आया ॥ उहीनाणे देखके, पीने योगी बोलाया ॥ ७॥ सुण तपसी सुख लेनकुं, जपे फोगट माले ॥ अज्ञानसे अगनि बिचे, योगकुं परजाले ॥ ॥ कम कहे सुण राजवी, तुमे अश्व खेला ॥योगीके घर हे बडे, मत को बतलाउँ ॥ ए ॥ तेरा गुरु कोन हे बमा, जिने योग धराया॥ नहीं उसखाया धर्मकुं, तनुकष्ट बताया ॥ १० ॥ हम गुरु धर्म पिडानते, नहीं कवमी पासे ॥ नूल गये मुनिया दिशा, रहते वनवासे ॥ ११॥ वनवासी पशु पंखीयां, एसे तुम योगी ॥ योगी नहीं पण जोगीया, संसारके संगी ॥ १२॥ संसार बूरा डोरके, सुण हो लघु राजा ॥ योगी जंगल सेवते, वेश धर्म अवाजा ॥ १३ ॥ दया धर्मको मूल है, क्या कान फूंकाया ॥ जीवदया नह जानते, तप फोकट माया ॥ १४ ॥ बात दयाकी दाखीए, नूल चूक हमारा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पंचकल्याणक पूजा. १ए। बेर बेर क्या बोलणां, एसा डाकडमाला ॥१५॥सांई हुकमसे सेवके, बडा काष्ठ चिराया ॥नाग नीकाला ए किला, परजलती काया ॥ १६ ॥ सेवक मुख नवकारसे, धरणे बनाया ॥नागकुमारे देवता, बहु कि पाया ॥ १७ ॥ राणी साथ वसंतमे, वन जीतर पेठे ॥ प्रासाद सुंदर देखीने, उहां जाकर बेठे ॥ १७ ॥ राजीमतीकुं डोमके, नेम संजम लीना ॥ चित्रामण जिन जोवते, वैरागे जीना ॥१॥लोकांतिक सुर ते समे, बोले कर जोरी ॥अवसर संजम लेनका, अब बेर हे थोरी ॥२०॥ निज घर आये नाथजी, पिया खिण खिण रोवे ॥ मात पिता समजायके, दान वरसी देवे ॥१॥ दीन दुःखी सुखीया कीया, दारिजकुं चूरे ॥ श्रीशुजवीर हरि तिहां, धन सघलो पूरे ॥२५॥ ॥ काव्यं ॥ जोगी यदा ॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ही श्री परम ॥ चंदनं य॥ वा ॥ इति जन्मकल्याणके पंचम चंदनपूजा संपूर्णा ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ तत्र॥ ॥ दीदाकल्याणके षष्ठ धूपपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ वरसीदानने अवसरे, दान लीए जव्य तेह ॥ रोग हरे षट्मासनो, पामे सुंदर देह ॥ १॥ धूपघटा धरी हाथमां, दीदाश्रवसर जाण ॥ देव असंख्य मल्या तिहां, मानुं संजमगण ॥२॥ ॥ ढाल ॥ देखो गति दैवनी रे ॥ ए देशी॥ ॥त्रीश वरस घरमां वस्या रे, सुखजर वामानंद ॥ संयम रसीया जाणीने रे, मलीया चोसठ इंद॥ नमो नित्य नाथजीरे, निरखत नयनानंद ॥ नमो ॥१॥ ए आंकणी ॥ तीर्थोदक वर औषधि रे, मेलवता बहु गठ ॥ आठ जाति कलशा जरी रे, एक सहस ने पाठ ॥ नमो ॥२॥ अश्वसेन राजा धुरे रे, पागल सुर अनिषेक ॥ सुरतरुपेरे अलंकस्या रे, देव न जूले विवेक ॥ नमो॥३॥ विशाला नृप शिविका रे, बेग सिंहासन नाथ ॥ बेठी वडेरी दक्षिणे रे, पट शाटक लेश हाथ ॥ नमो ॥४॥ वाम दिशे अंब धातरी रे, पाउल धरी शणगार ॥ बत्र धरे Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पंचकल्याणक पूजा. २१ एक यौवना रे, ईशान फल कर नारी ॥ नमो ॥५॥ अग्निकोणे एक यौवना रे, रयणमय पंखो हाथ ॥ चलत शिबिका गावती रे, सर्व साहेली साथ ॥ नमो० ॥६॥ शक ईशान चामर धरे रे, वाजिबनो नहीं पार ॥ आउ मंगल आगल चले रे, इंसध्वजा जलकार ॥ नमो० ॥ ७॥ देव देवी नर नारी रे, जो करे प्रणाम ॥ कुलमां वडेरा सजाना रे, बोले प्रजुने ताम ॥ नमो ॥ ॥ जीतनिशाण चडावजो रे, मोहनी करी चकचूर ॥ जेम संवत्सर दानश्री रे, दारिज काढ्यं धर ॥ नमो॥ ए ॥ वरघोडेथी उतस्या रे, काशी नयरनी बार ॥आश्रमपद उद्यानमा रे, वृक्ष अशोक रसाल ॥ नमो०॥ १० ॥अहम तप नूषण तजी रे, उच्चरे महावत चार ॥ पोष बहुल एकादशी रे, त्रण सयां परिवार ॥ नमो ॥११॥ मनःपर्यव तव उपर्नु रे, खंध धरे जगदीश ।। देवपूष्य ईश दीयुरे,रहेशे वरस चततीश ॥नमो॥१५॥ काउस्सग्गमुनाए रह्या रे, सुर नंदीश्वर जात॥मात पिता वंदी वयां रे, श्रीशुजवीर प्रजातन०॥१३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. काव्यं ॥ नोगी यदा ॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ श्री श्री परम ॥ धूपं य० ॥ स्वा॥ ॥इति दीदाकल्याणके षष्ठ धूपपूजा संपूर्णा ॥६॥ ॥अथ ॥ ॥ केवलज्ञानकल्याणके सप्तम दीपक पूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥सारथधनघरे पारणं, प्रथम प्रजुए कीध ॥ पंच दिव्य प्रगटावीने, तास मुक्तिसुख दीध ॥१॥ जगदीपक प्रगटाववा, तप तपता रही राण ॥ तेणे दीपकनी पूजना, करता केवलनाण ॥२॥ ॥ ढाल ॥ महावीर प्रनु घर आवे ॥ ए देशी॥ ॥प्रनु पारसनाथ सिधाव्या, कादंबरी अटवी श्राव्या॥ कुंड नामे सरोवर तीरे, जमु पंकज निर्मल नीरे रे ॥ मनमोहन सुंदर मेला ॥ धन्य लोक नगर धन्य वेला रे॥मन॥१॥ए आंकणी॥ काउस्सग्गमुजा प्रजु गवे, वनहाथी तिहां एक श्रावे ॥ जल शुंढ नरी नवरावे, जिनअंगे कमल चढावे रे ॥मन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पंचकल्याणक पूजा. २०३ ॥ २ ॥ कलिकुंम तीरथ तिहां थावे, हस्ती गति देवनी पावे ॥ वली कौस्तुन वन श्राणंदे, धरणेंड विनय धरी वंदे रे ॥ मन० ॥ ३ ॥ त्रण दिन फणी बत्र धरावे, हित्रा नगरी वसावे ॥ चालता तापस घर पूंठे, निशि वी वस्या वम देवे रे ॥ मन० ॥ ४ ॥ थयो कमर मरी मेघमाली, श्राव्यो विनंगे नीहाली ॥ उपसर्ग कस्या बहु जाति, निश्चल दीठी जिनबाती रे ॥ मन० ॥ ५ ॥ गगने जल जरी वादली, वरसे गाजे वीजली ॥ प्रभुनासा उपर जल जावे, धरणेंद्र प्रिया सह आवे रे ॥ मन० ॥ ६ ॥ उपसर्ग ही प्रभु पूजी, मेघमाली पापथी धूजी ॥ जिनजक्ते समकित पावे, बेहु जण स्वर्ग सिधावे रे ॥ मन० ॥ ७ ॥ श्राव्या काशी उद्याने, रह्या स्वामी काउस्सग्गध्याने ॥ अपूरव वीर्य उल्लासे, घनघाती चार विनाशे रे ॥ मन० ॥ ८ ॥ चोराशी गया दिन आखा, वदि चैतर चोथ विशाखा ॥ हम तरु धातकी वासी, थया लोकालोक प्रकाशी रे ॥ मन० ॥ एए ॥ मले चोसठ इंद्र ते वार, रचे समवसरण मनोहार ॥ सिंहासन खामी सुहावे, शिर चामर बत्र धरावे रे ॥ मन० ॥ १० ॥ चोत्रीश अतिशय थावे, वनपाल वधामणी लावे ॥ श्रश्वसेन ने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. वामा राणी, प्रनावती हर्ष नराणी रे॥ मनः॥११॥ सामश्युं सजी सहु वंदे, जिनवाणी सुणी आणंदे॥ ससरो सासु बहू साथे, दीक्षा लीधी प्रजुहाथे रे ॥मनः॥१२॥ संघ साथे गणीपद धरता, सुर ज्ञान महोत्सव करता ॥ स्वामी देवबंदे सोहावे, शुजवीर वचनरस गावे रे ॥ मन ॥ १३ ॥ ॥ काव्यं ॥ जोगी यदा०॥६॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम ॥ दीपं य० ॥ स्वा॥ इति केवलज्ञानकल्याणके सप्तम दीपकपूजा संपूर्णा ॥७॥ अथ निर्वाणकल्याणकेऽष्टम नैवेद्यपूजा प्रारंनः ॥दोहा॥ ॥शुन आदे दश गणधरा, साधु सोल हजार॥ श्रमतीस सहस ते साधवी, चार महाव्रत धार ॥१॥ एक लख चउसठ सहस ,श्रावकनो परिवार ॥सगविस सहस ते श्राविका, तिग लख उपर धार ॥२॥ देशविरतिधर ए सहु, पूजे जिन त्रण काल ॥प्रनुपमिमा आगल धरे, नित्य नैवेद्यनो थाल ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पंचकल्याणक पूजा. १५ ॥ढाल॥एक समे सामलियाजी॥वृंदावनमां॥ए देशी॥ ॥रंगरसीया रंगरस बन्यो।मनमोहनजी ॥को बागल नवि कहेवाय ॥ मनडं मोडं रे, मनमोहनजी ॥ वेधकता वेधक लदे॥ मनः॥बीजा बेग वा खाय ॥ मन ॥१॥लोकोत्तर फल नीपजे ॥ मन॥ मोटो प्रजुनो उपकार ॥ मन० ॥ केवलनाण दीवाकरु ॥ मन ॥ विचरंता सुरपरिवार ॥ मन ॥२॥ कनक कमल पगलां वे ॥ मन ॥ जल बुंद कुसुम वरसात ॥मन०॥ शिरबत्र वली चामर ढले ॥मन॥ तरु नमतां मारग जात ॥ मन ॥३॥ उपदेशी केश तारीया॥मन॥ गुण पांत्रीश वाणी रसाल ॥मन॥ नर नारी सुर अप्सरा॥ मनः॥प्रनु आगल नाटकशाल ॥ मन० ॥४॥ अवनीतल पावन करी ॥ मन ॥ अंतिम चोमासु जाण ॥ मन ॥ समेतशिखर गिरि श्रावीया।मनणा चमता शिवघर सोपान ॥मन ॥५॥ श्रावण सुदि आपम दिने ॥मन। विशाखाए जगदीश॥ मन ॥ अपसण करी एक मासन ॥ मन ॥ साथे मुनिवर तेत्रीश॥मन॥६॥ काउस्सग्गमा मुक्ति वस्या ॥ मन ॥ सुख पाम्या सादि अनंत ॥ मन ॥ एक समय समश्रेणिश्री Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.०६ विविधः सूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ मन० ॥ निःकर्मा च दृष्टांत ॥ मन० ॥ ७ ॥ सुरपति सघला तिहां मले ॥ मन० ॥ क्षीरोदधि आणे नीर ॥ मन० ॥ स्नान विलेपन भूषणे ॥ मन० ॥ देवडूष्ये स्वामिशरीर ॥ मन० ॥ ८ ॥ शोजावी धरी शिबिका || मन० ॥ वाजित्र ने नाटक गीत ॥ मन० ॥ चंदन चय परजालता ॥ मन० ॥ सुरजक्ति शोक सहित ॥ मन० ॥ ॥ शुज करे ते उपरे ॥ मन० ॥ दाढादिक स्वर्गे सेव ॥ मन० ॥ जावउद्योत गये थके ॥ मन० ॥ दीवाली करता देव ॥ मन० ॥ १० ॥ नंदीसर उत्सव करे ॥ मन० ॥ कल्याणक मोक्षानंद ॥ मन० ॥ वर्ष अढीसें श्रांतरुं ॥मन०॥शुनवीर ने पास जिणंद ॥ म०११ ॥ अथ गीतं ॥ घरे आवो ढोला ॥ ए देशी ॥ ॥ उत्सव रंग वधामणां, प्रभु पासने नामे ॥ कल्याएक उत्सव कीयो, चढते परिणामे ॥ उत्सव ॥ १ ॥ शत वर्षायु जीवीने, अक्षय सुख स्वामी ॥ तुम पद सेवा जतिमां, नवि राखुं खामी ॥ ज० ॥ २ ॥ साची जक्ते साहेबा, रीको एक वेला || श्री शुजवीर दुवे सदा, मनवांबित मेला ॥ ७० ॥ ३ ॥ ॥ अथ कलश ॥ ॥ गायो गायो रे, शंखेश्वर साहेब गायो ॥ यादव For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पंचकल्याणक पूजा. २०७ लोकनी जरा निवारी, जिनजी जगत् गवायो॥पंच कल्याणक उत्सव करतां, श्रम घर रंग वधायो रे ॥शंखे ॥१॥ तपागल श्री सिंहसूरिना, सत्य विजय बुध गयो । कपूरविजय गुरु खिमा विजय तस, जशविजयो मुनिरायो रे ॥ शंखे० ॥२॥ तास शिष्य संवेगी गीतारथ,शांत सुधारस नाह्यो॥श्री शुनविजय सुगुरु सुपसाये, जयकमला जग पायो रे ॥शंखे ॥३॥ राजनगरमां रही चोमासु, कुमति कुतर्क हगयो ॥ विजयदेवेंज सूरीश्वर राज्ये, ए अधिकार बनायो रे ॥ शंखे ॥४॥अढारसें नेव्याशी अदय त्रीज, अदत पुण्य उपायो ॥ पंडित वीरविजय पद्मावती, वांडित दाय सहायो रे ॥ शंखे ॥ ॥ काव्यं ॥ नोगी यदा ॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ श्री श्री परम ॥ नैवेद्यं य० ॥ खा ॥ इति निर्वाणकल्याणके अष्टम नैवेद्यपूजा संपूर्णा ॥७॥ ONE तिमितश्रीवीरविजयजीकृतपंचकल्याणकमहोत्सवेऽष्टप्रकारी पूजा संपूर्णा ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ ॥ ॥ पंडितश्रीवीरविजयजीकृत छादशव्रत पूजा प्रारंनः॥ ॥ तत्र प्रथम ॥ ॥श्रावकगुणवर्णनकाव्यम् ॥ ॥ उच्चैगुणैर्यस्य निबछमूलं, सत्कीर्तिशाखाविनयादिपत्रम् ॥ दानं फलं मार्गणपदिलोजि, जीयाचिरं श्रावककल्पवृक्षः॥१॥ ॥दोहा॥ ॥ सुखकर शंखेश्वर प्रनु, प्रणमी शुज गुरु पाय॥ शासननायक गायशु, वर्षमान जिनराय ॥१॥समवसरण सुरवर रचे, वन महसेन मकार ॥संघ चतुविध थापीने, नूतल करत विहार ॥२॥ एक लख श्रावक व्रतधरा, उंगणसाठ हजार ॥ सूत्र उपासके वर्णव्या, दश श्रावक शिरदार ॥ ३॥ प्रजुहाथे व्रत उच्चरी, बार तजअतिचार ॥गुरु वंदी जिननी करे, पूजा विविध प्रकार ॥ ४॥ मुनिमारग चिंतामणि, श्रावकसुरतरु साज ॥ बेहु बांधव गुणगणमे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीर विजयजीकृत छादशव्रत पूजा. २०ए राजा ने युवराज ॥ ५॥ शिवमारग व्रतनो विधि, सातमा अंग मोजार ॥पंचम थारे प्राणीने, सुणतां होय उपकार ॥ ६ ॥ तेणे कारण पूजा रचुं, अनुपम तेर प्रकार ॥ उतरवा नवजलनिधि, ए आरा बार ॥७॥ सुरतरु रूपानो करी, नील वरणमें पान ॥ रक्त वरण फल राजतां, वाम दिशे तस गण ॥७॥ तेर तेर वस्तु शुचि, मेलबीए नव रंग ॥ नर नारी कलशा जरी, तेर यो जिनअंग ॥ ए ॥ न्हवण विलेपन वासनी, माल दीप धूप फूल ॥ मंगल अदत दर्पणे, नैवेद्य ध्वज फल पूर ॥ १० ॥ ॥अथ ॥ ॥ समकितारोपणे प्रथम जलपूजा प्रारंभः॥ ॥ ढाल ॥रत्नमालानी ॥प्रथम पूव दिशे ॥ए देशी॥ ॥चतुर चंपापुरी, वन मांहे उतरी, सोहम जंबूने एम कहे ए ॥ वीर जिन विचरता, नवपुर श्रावता, वचन कुसुमे व्रत महमहे ए ॥१॥शांत संवेगता, वसुमती योग्यता, समकित बीज आरोप कीजे ॥ सृष्टि ब्रह्मा तणी, विष्णु शंकर धणी, एक राखे एक संहरीजे ॥२॥ गौरूप चाटणी, वाव्य अवृत वि० १४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. तणी, त्रिपुर ने केशवा त्रण हणीजे ॥जूठ मंमाणनी, वाणी पुराणनी, कुगुरुमुख माकिणी पूर कीजे ॥३॥ हरि हर बंनने, देवी अचंनने, पामी समकित नवि चित्त धरीजे ॥ दोषयी वेगला, देव तीर्थकरा, उठी प्रनाते तस नाम सीजे ॥४॥अति. शये शोजता, अन्य मत थोजता, वाणी गुण पांत्रीश जाणीए ए ॥ नाथ शिवसार्थवा, जगतना बांधवा, देव वीतराग ते मानीए ए ॥५॥ जोग आचारने, सुगुरु अणगारने, धर्म जयणा युत आदरो ए ॥समकित सारने, बंमी अतिचारने, सिकपमिमा नति नित्य करो ए॥६॥श्रेणिक खायके, दीर गंगो. दके, जिन अनिषेक नित्य ते करे ए॥सिंची अनुकूलने, कल्पतरुमूलने, श्रीशुलवीरपद अनुसरे ए॥७॥ ॥ श्रथ काव्यं ॥ शार्दूलविक्रीमितवृत्तम् ॥ ॥श्रकासंयुतछादशवतधराः श्राकाः श्रुते वर्णिताः ॥ आनंदादय दिग्मिताः सुरजवं त्यक्त्वा गमिष्यंति वै ॥ मोदं तद्वतमाचरख सुमते चैत्यानिषेकं कुरु ॥ येन त्वं व्रतकल्पपादपफलाखादं करोषि स्वयम् ॥१॥ ए काव्य प्रत्येक पूजा दी कहेवू ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत छादशव्रत पूजा. २११ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ दी श्री परमपुरुषाय। परमेश्वराय । जन्मजरामृत्युनिवारणाय।श्रीमते । जिनेप्राय। जलं यजामहे वाहा ॥ ए मंत्र पण प्रत्येक पूजा दीप कहेवो ॥इति समकितारोपणे प्रथम जलपूजा समाप्ता ॥१॥ ॥अथ प्रथमव्रते द्वितीय चंदनपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ दसण नाण चरण तणा, आठ श्राप अतिचार ॥ अणसण वीर्याचारना, पण तिग तपना बार ॥१॥ सुंदर समकित उच्चरी, लही चोथु गुणगण ॥ चढी पंचम पगथालीए, थूल थकी पच्चरकाण ॥२॥ ॥ ढाल ॥ वाहे अमृत पाई उलेख्यां, वाल्हेजीए अमने रे ॥ ए देशी ॥ ॥ आवोश्रावो जशोदाना कंत,श्रम घर श्रावो रे ॥ नक्तिवत्सल नगवंत, नाथ शे नावो रे ॥ एम चंदनबाला बोलडे, प्रनु आवी रे ॥ मुगी बाकला माटे पागा, वलीने बोलावी रे ॥ आ॥१॥संकेत करीने खामी, गया तमे वनमां रे ॥ थ केवली केवली कीध, धरी जो मनमां रे ॥ अमे केसर केरा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. कीच, करीने पूजुं रे ॥ तोहे पहेले व्रत अतिचार, थकी हुं ध्रुजुं रे ॥ ० ॥ २ ॥ जीवहिंसानां पच्चरकाण, थूलथी करीए रे ॥ डुविहं तिविदेणं पाठ, सदा अनुसरीए रे ॥ वासी बोलो विदल निशिनद, हिंसा टालुं रे ॥ सवा विश्वा केरी जीव, दया नित्य पालु रे ॥ ० ॥ ३ ॥ दश चंदरुथा दश गण, बांधीने रही ए रे || जीव जाये एहवी वात, केहने न कही ए रे ॥ वध बंधन ने वविछेद, जार न जरीए रे ॥ जात पाणीनो विच्छेद, पशुनेन करीए रे ॥ श्र० ॥४॥ लौकिक देव गुरु मिथ्यात्व त्र्याशी नेदे रे ॥ तुज श्रागम सुणतां आज, होय विच्छेदे रे ॥ चोमासे पण बहु काज, जयणा पालुं रे || पगले पगले महाराज, व्रत जुवालुं रे ॥ ० ॥ ५ ॥ एक श्वास मांहे सो वार, समरुं तुमने रे ॥ चंदनबाला ज्यं सार, आपो थमने रे ॥ माबी हरिबल फलदाय, एत्रत पाली रे ॥ शुन वीर चरण सुपसाय, नित्य दीवाली रे ॥ श्रा० ॥ ६ ॥ ॥ काव्यं ॥ श्रद्धा संयुक्त० ॥ १ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ श्री ॥ परम० ॥ चंदनं य० ॥ स्वा० ॥ ॥ ॐ ॥ इति प्रथमत्रते द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता ॥ २ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ श्रीवीरविजयजीकृत द्वादशत्रत पूजा. ॥ अथ द्वितीयत्रते तृतीय वासपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ चूर्ण सरस कुसुमे करी, घसी केसर घनसार ॥ बहुल सुगंधि वासथी, पूजो जगत्दयाल ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ राग भैरवी ॥ यमुनामां जाइ पड्यो रे, बालक मेरो यमुनामां जाइ पड्यो || ए देशी ॥ ॥ मुक्तिसें जाइ मध्यो, मोहन मेरो मुक्तिसें जाइ मल्यो || मोहसें क्युं न कस्यो रे ॥ मोहन० ॥ नामकरम निर्जरणा देते, जक्तको नाव जखोरे ॥ मो० ॥ उपदेशी शिवमंदिर पहोते, तोसे बनाव ग्यो रे ॥ मो० ॥ १ ॥ यानंदादिक दश युं बोली, तुम कने व्रत उच्चस्यो रे । मो० ॥ पांच मोटकां जूठ न बोले, मेंबी आश नस्यो रे ॥ मो० ॥ २ ॥ बीजुं व्रत धरी जूठ न बोलुं, पण अतिचारे मस्यो रे । मो० ॥ वसु राजा श्रासनसें पडीयो, नरकावास जरयो रे ॥ मो० ॥ ३ ॥ मांसाहारी मातंगी बोले, जानु प्रश्न धरयो रे ॥ मो० ॥ जूठा नर पग भूमिशोधन, जल बंटकाव कस्यो रे ॥ मो० ॥ ४ ॥ मंत्रनेद रह नारी न कीजे, अती खाल हयो रे || मो० ॥ कूट लेख मिथ्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. उपदेशे, व्रतको पाणी ऊस्यो रे ॥ मो० ॥ ५ ॥ कमल शेठ ए व्रत सुखीयो, जूनसें नंद कल्यो रे ॥ मो० ॥ श्रीशुजवीर वचन परती ते, कल्पवृक्ष फल्यो रे ॥मो० ॥६॥ ॥ काव्यं ॥ श्रद्धा संयुत० ॥ १ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ श्री परम० ॥ वासं य० ॥ स्वा० ॥ ॥ इति द्वितीयत्रते तृतीय वासपूजा समाप्ता ॥ ३ ॥ ॥ अथ तृतीयत्रते चतुर्थ पुष्पमालपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ सुरतरु जाय ने केतकी, गुंधी फूलनी माल || त्रिशलानंदन पूजीए, वरीए शिव वरमाल ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ हुं ने श्रमारो हरजीवनजी ॥ ए देशी ॥ ॥ प्रभुकंठे ववी फूलनी माला, थूल थकी व्रत उच्चरीए रे । चित्त चोखे चोरी नवि करीए ॥ खामिश्रदत्त कदापि न लीजे, जेद अढारे परिहरीए रे ॥ चित्त० ॥ १ ॥ नवि करीए तो जवजल तरीए रे ॥ चित्त० ॥ ए कणी ॥ सात प्रकारे चोर कह्यो बे, तृण तुष मात्र न कर धरी रे ॥ चित्त० ॥ राजदंग उपजे ते चोरी, नातुं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत छादशव्रत पूजा. १५ पड्यं वली विसरीए रे॥चित्त॥न॥२॥कूडे तोले कूडे मापे, अतिचारे नवि श्रतिचरीए रे॥ चित्त॥ या नव परजव चोरी करतां, वध बंधन जीवित हरीए रे ॥ चित्त ॥ न० ॥३॥ चोरी- धन न ठरे घरमां, चोर सदा नूखे मरीए रे॥ चित्त ॥ चोरनो को धणी नवि होवे, पासे बेठां पण मरीए रे॥चित्त॥ न० ॥४॥परधन लेतां प्राणज लोधा, पंचेंजियहत्या वरीए रे ॥ चित्त०॥व्रत धरतां जगमांजश उज्ज्वल, सुरलोके जश् अवतरीए रे ॥ चित्त ॥ न ॥५॥ तिहां पण सासय पमिमा पूजी, पुण्य तणा पोठी जरीए रे॥चित्त०॥जलकलशा जरी जिन अनिषेके, कल्पतरु रुडो फलीए रे ॥ चित्त॥न॥६॥धनदत्त शेठ गयो सुरलोके, ए व्रतशाखा विस्तरीए रे ॥ चित्तम् ॥ श्रीगुनवीर जिनेश्वर जक्ते, सासय सुख शिवमंदिरीए रे ॥ चित्त ॥ न ॥ ७॥ ॥ काव्यं ॥श्रमासंयुतम्॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम ॥ पुष्पमाला य०॥ स्वा॥ ॥इति तृतीयव्रते चतुर्थ पुष्पमालपूजा समाता ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ अथ चतुर्थव्रते पंचम दीपकपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ चोथु व्रत हवे वरणवू, दीपक सम जस ज्योत ॥ केवल दीपक कारणे, दीपकनो उद्योत ॥ १॥ ॥ ढाल ॥ वृंदावनना वासी रे, विठला तें मुजने विसारी ॥ ए देशी॥ ॥ए व्रत जगमा दीवो,मेरे प्यारे, एव्रत जगमां दीवो ॥ ए टेक ॥ परमातम पूजीने विधिलं, गुरु आगल व्रत लीजे ॥ अंतिचार पण दूर करीने, परदारापूर कीजे ॥मेरे॥ निज नारी संतोषी श्रावक, अणुव्रत चोथु पाले॥ देव तिरी नर नारी नजरे, रूप रंग नवि धारे॥मेरे ॥१॥व्रतने पीमा कामनी क्रीमा, उरगंधा जे बाली ॥ नासा विण नारी पण रागे, पंचासकमां टाली ॥ मेरे ॥ विधवा नारी बालकुमारी, वेश्या पण परजाती ॥ रंगे राती पुर्बल गाती, नरमारण ए काती ॥ मेरे ॥२॥परनारीहेते श्रावकने, नव वामो निरधारी ॥ नारायण चेडा महाराजे, कन्यादान निवारी ॥मेरे॥जरतरायने राज नलावी, राम रह्या वनवासे ॥ खरपूषण नारी सविकारी, देखी न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत छादशवत पूजा. १७ पड्या पासे ॥ मेरे० ॥ ३॥ दश शिर रावण रणमा रोल्यो, सीता सतीमां मोटी॥सर्व थकी जो ब्रह्मव्रत पाले, नावे दान हेम कोटि । मेरे ॥ वैतरणीनी वेदन मांहे, व्रत नांगे ते पेसे ॥ विरतिने प्रणाम करीने, इंसनामां बेसे ॥मेरे॥४॥मदिरा मांसथी वेद पुराणे, पाप घणुं परदारा ॥ विषकन्या रंमा पण अंधा, व्रतनंजक अवतारा ॥मेरे॥व्रत संजाले पाप पखाले, सुर तस वांबित साधे॥ कल्पतरु फलदायक ए व्रत, जग जश कीरति वाधे॥ मेरे ॥ ५॥ दशमे अंगे बत्रीश उपम, शीलवती व्रत पाली ॥ नाथ नीहाली चरणे आयो, नेह नजर तुम नाली ॥ मेरे० ॥ हाथी मुखसे दाणो निकसे, कीमी कुटुंब सह खावे ॥ श्रीशुनवार जिनेश्वर साहेब, शोना अम शिर पावे ॥ मेरे ॥६॥ ॥ काव्यं ॥ श्रद्धासंयुतम् ॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम ॥ दीपं य० ॥ स्वा० ॥ ॥इति चतुर्थव्रते पंचम दीपकपूजा समाप्ता ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ अथ पंचमत्रते षष्ठ धूपपूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा॥ ॥ अणुव्रत पंचम श्रादरी, पांच तजी अतिचार॥ जिनवर धूपे पूजीए, त्रिशला मात महार ॥१॥ ॥ ढाल ॥ मारी अंबाना मांडवमा हेच ॥ ए देशी॥ ॥मनमोहनजी जगतात,वात सुणो जिनराजजी रे॥ नविमलीयो या संसार, तुम सरिखो रे श्रीनाथजी रे ॥ ए आंकणी ॥ कृष्णागरु धूप दशांग, उखेवी करूं विनति रे ॥ तृष्णातरुणी रसलीन, हुँ रऊल्यो रे चारे गति रे ॥ तिर्यंच तरुनां मूल, राखी रह्यो धन उपरे रे ॥ पंचेंडि फणीधररूप, धन देखी ममता करे रे ॥ मन ॥१॥ सुर लोनी बे संसार, संसारी धन संहरे रे ॥ त्रीजे जव समरादित्य, साधु चरित्रने सांजले रे॥नरनव मांहे धन काज, जाऊ चढ्यो रणमां रड्यो रे ॥ नीचसेवा मूकी लाज, राज्यरसे रणमां पड्यो रे ॥ मन ॥२॥ संसार मांहे एक सार, जाणी कंचन कामनी रे॥ न गणी जपमाला एक, नाथ निरंजन नामनी रे ॥ नाग्ये मलीया नगवंत, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत द्वादशत्रत पूजा. २१ ॥ अवसर पामी व्रत यादरुं रे ॥ गयो नरके मम्मण शेव, सांजली लोनथी सरुं रे ॥ मन० ॥ ३ ॥ नवविध परिग्रह परिमाण, आणंदादिकनी परे रे ॥ अथवा इछा परिमाण, धण धन्नादिक उच्चरे रे || वली सामान्ये षट् नेद, उत्तर चोसठ दाखीया रे ॥ दशवैकालिक निर्युक्ति, नद्रबाहु गुरु जाखीया रे ॥ मन० ॥ ५ ॥ परिमाण अधिकुं होय, तो तीरथे जइ वावरो रे ॥ रोकाये जवनुं पाप, बाप खरी जिननी धरो रे ॥ धन शेठ धरी धनमान, चित्रावेली ने परिहरी रे ॥ शुनवीर प्रजुने ध्यान, संतोषे शिवसुंदरी रे ॥ मन० ॥ ५ ॥ ॥ काव्यं ॥ श्रद्धा संयुत० ॥ १ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ कूँ। श्री परम० ॥ धूपं य० ॥ स्वा० ॥ ॥ इति पंचमत्रते षष्ठ धूपपूजा समाप्ता ॥ ६ ॥ ॥ अथ षष्ठते सप्तम पुष्पपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ फूल मुलक मेघ ज्युं, वरसावी जिनचंग ॥ गुंणवत त्रणे तेहमां दिशि परिमाणने रंग ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ढाल॥ राग सारंग॥दायक दिल वसीया॥ए देशी॥ ॥ समवसरण सुरवर रचे रे, पूजाफल अशेष ॥ साहिब शिव वसीया ॥ रायपसेणी सूत्रमा रे, करे सुरियाज विशेष ॥ साहि० ॥१॥ पूज्यनी पूजा तेम करी रे, करुं आशा परिमाण ॥सा॥चार दिशा विमलातमा रे, हिंसाए पच्चरकाण ॥ सा ॥२॥ आश करुं अरिहा तणी रे, पंच तजी अतिचार ॥ सा॥ तुम सरिखो दीगे नहीं रे, जगमां देव दयाल ॥सा० ॥३॥वरसी वरस्या ते समे रे, विप्र गयो परदेश ॥ सा ॥ संयम लेश सुखीयो कस्यो रे, लाखीणो दे खेस ॥ सा ॥ ४ ॥ हुँ पण ते दिन के गति रे, केवली जब जिनराज ॥ सा ॥ शासन देखी ताहाँ रे, आव्यो तुम शिर लाज ॥ सा ॥५॥ ए व्रतश्री शिवसुख लद्यु रे,जेम महानंद कुमार ॥सा॥श्रीशुनवीर जिनेश्वरु रे, अमने पण श्राधार ॥सा ॥६॥ ॥ काव्यं ॥ श्रजासंयुतम् ॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ पुष्पाणि य० ॥ स्वा॥ ॥ इति षष्ठव्रते सप्तम पुष्पप्रजा समाप्ता ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत छादशवत पूजा. २५१ ॥ अथ सप्तमव्रते अष्टमाष्टमांगलिक पूजा प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ अष्ट मंगलनी पूजना, करीए करी प्रणाम ॥ श्राठमी पूजाए नमो, जावमंगल जिननाम ॥१॥ उपनोगे परिजोगथी, सप्तम व्रत उच्चार ॥ बीजु गुणव्रत एहमां, वीश तजो अतिचार ॥२॥ ॥ ढाल ॥सुतारीना बेटा तुने विनवू रे लो॥ए देशी॥ ॥व्रत सातमे विरति आदरं रे लो, करो साहेब जो मुज महेर जो॥तुज श्रागम बारीसो जोवतां रेलो, दूर दीतुं ने शिवपुर शहेर जो ॥१॥ मने संसारशेरी विसरी रे लो, जिहां बार पाडोशी चाम जो॥निस रहेQ ने नित्य वढवाम जो॥मने॥ए आंकणी॥फल तंबोल अन्न उपनोगमां रेलो,घर नारीचीवर परिजोग जो ॥ करी मान नमुं नित्य नाथने रे लो, जेथी जाये नवोजव शोक जो ॥ मने॥२॥ प्रजुपूजा रचुंअठ मंगले रे लो, परहांसी तजी अति रोष जो॥ अति उनट वेश न पहेरीए रे लो, नवि धरीए मलिनता वेश जो ॥ मने ॥३॥ चार मोटी विगय करी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्श्श् विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. वेगली रेलो, दश बार अजय निवार जो ॥ तिहां रात्रिनोजन करतां थका रे लो, मांजार घुम अवतार जो ॥ मने० ॥ ४ ॥ बले राहल व्यंतर नूतकां रे लो, केश कंटक जूनो विकार जो ॥ त्रण मित्रचरित्रने सांजली रे लो, करो रात्रिजोजन चोविहार जो ॥ मने० ॥ ५ ॥ गामां वहेल वेचे नामां करे रे लो, अंगारकरम वनकर्म जो ॥ सर कूप उपल खणतां थका रे लो, नवि रहे श्रावकनो धर्म जो ॥ मने० ॥ ६ ॥ विष शस्त्र वेपार दांत लाखनो रे लो, रस केश निलंबन कर्म जो ॥ शुक मेना न पालीए पांजरे रे लो, वनदाहे दहे शिवशर्म जो ॥ मने० ॥ ७ ॥ यंत्र पिला रस नवि शोषीए रे लो, तेणे करजो मया महाराज जो ॥ नहीं खोट खजाने दीजीए रे लो, शिवराज वधारी लाज जो ॥ मने० ॥ ८ ॥ राजमंत्री सुता फल पामती रे लो, व्रतसाधक बाधक टाल जो ॥ शुजवीर प्रजुना नामथी रे लो, नित्य पामीए मंगलमाल जो ॥ मने० ॥ ॥ ॥ काव्यं ॥ श्रद्धासंयुत० ॥ १ ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ श्री परम० ॥ अष्टमंगलानि य० ॥ खा० ॥ ॥ ॐ ॥ इति सप्तमव्रते अष्टमाष्टमांगलिक पूजा समाप्ता ॥८॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत छादशवत पूजा. १५३ ॥ अथाष्टमवते नवमादतपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ॥ दंडाये विणहेतुए, वलगे पाप प्रचंग ॥ प्रनु प्रजी व्रत कारणे, ते कई अनरथदंग ॥१॥ वजन शरीरने कारणे, पापे पेट नराय ॥ ते नवि अनरथदंम बे, एम नाखे जिनराय ॥२॥ ॥ ढाल ॥ वेगलो रहे वरणागीया ॥ ए देशी ॥ ॥ नेक नजर करो नाथजी, जेम जाये दालिदर श्राजथी जी हो । नेक० ॥ अमे अक्षत उज्ज्वल तंडुले, करी पूजा कहुं जिन श्रागले जी हो। ने॥ श्रावी पोहोतो बुं पंचम कालमां, संसार दावानल जालमां जी हो॥ने०॥१॥ ध्यान भारत रौजे मंमीयो, गम गम अनर्थे दंमीयो जी हो ॥ने॥ उपदेश में पापनो दाखीयो, कूमी वाते थयो हुं साखीयो जी हो ॥ने॥॥आरंज कस्या घणी नातिना, में युद्ध कस्यां केश्जातिनां जी हो॥नेारथ मूशल माग्यां श्रापीयां, जतां पंथे ते तरुवर चांपीयां जी हो ॥ ने ॥३॥ वली वादे ते वृषन दोमावीया, करी वातोने लोक समावीया जी हो ॥ ने० ॥ चार विकथाए पुण्यधन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. हारीयो, जेम अनीतिपुरे व्यवहारीयो जी हो ॥ ने ॥४॥ तिहां चार धूतारा वाणीया, जरे पेट ते पापे प्राणीया जी हो ॥ ने० ॥रणघंटा वचन जो पालीयुं, तो रत्नचूडे धन वालीयुं जी हो ॥ ने ॥५॥ तेम अरिहानी आणा पालशु, व्रत लेश्ने पाप पखालगुं जी हो ॥ ने ॥ अतिचार ते पांच निवारशू. गुरुशिदा ते दिलमां धारयुंजी हो ॥ ने ॥६॥वीरसेन कुसुमसिरि दो जणां, व्रत पाली थयां सुखीयां घणां जी हो ॥ ने ॥ अमे पामीए लीलविलासने, शुजवीर प्रजुने शासने जी हो ॥ ने ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ श्रद्धासंयुत ॥१॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परम ॥ अक्षतान् य० ॥ स्वा०॥ ॥श्त्यष्टमव्रते नवमादतपूजा समाप्ता॥ ए॥ ॥अथ नवमत्रते दशम दर्पणपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा॥ ॥ दशमी दर्पणपूजना, धरी जिन पागल सार॥ श्रातमरूप नीहालीने, कहुँ शिदाबत चार ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत छादशव्रत पूजा. १२५ ॥ ढाल ॥ सुण गोवालणी ॥ ए देशी॥ ॥ हे सुखकारी!आ संसार थकी जो मुजने उबरे ॥ हे उपकारी ! ए उपकार तुमारो कदिय न विसरे ॥ ए टेक॥नवमे सामायिक उच्चरीए,अमे दर्पणनी पूजा करीए ॥ निज आतमरूप अनुसरीए, समता सामायिक संवरीए॥हे सु॥॥ सामान्ये जिहां मुनि. वर जाले, अतिचार पांच एहना टाले ॥ साधु परे जीवदया पाले, निज घर चैत्ये पौषधशाले॥ ॥॥ राजा मंत्री ने व्यवहारी, घोमा रथ हाथी शणगारी॥ वाजिन गीत आगल पाला, परशंसे षट् दरशनवाला ॥ दे० ॥३॥ एणी रीते गुरु पासे श्रावी, करे सामायिक समता लावी ॥ घमी बे सामायिक उच्चरीए, वली बत्रीश दोषने परिहरीए ॥ हे ॥४॥ लाख अंगणसाउ बाणुं कोमी, पचवीश सहस नवसे जोडी॥ पचवीश पस्योपम जाकेलं, ते बांधे आयु सुर केलं ॥ हे॥५॥ सामायिक व्रत पाली युगते, ते नव धन मित्र गयो मुगते॥आगमरीते व्रत हुं पावू, पंचम गुणगणुं अजुवायूँ ॥ हे॥६॥ तुमे ध्येयरूप ध्याने आवो, शुजवीर प्रजु करुणा लावो॥नहीं वार अचल सुख साधते, घमी दोय मलो जो एकांते ॥हे॥७॥ Jain Education usional For Personal and Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ काव्यं ॥ श्रमासंयुतम् ॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ ही श्री परम० ॥ दर्पणं य० ॥ स्वा० ॥ ॥इति नवमसामायिकवते दशम दर्पणपूजा समाप्ता॥ ॥ अथ दशमव्रते एकादश नैवेद्य पूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ विग्रहगति पूरे करी, आपो पद श्रणाहार ॥ श्म कही जिनवर पूजीए, उवी नैवेद्य रसाल ॥१॥ ॥ ढाल ॥ तेजे तरणिधी वमो रे ॥ ए देशी ॥ ॥ दशमे देशावका शिके रे, चउद नियमसंखेप॥ विस्तारे प्रनु पूजतां रे, न रहे कर्मनो लेप हो जिनजी ॥१॥क्ति सुधारस घोलनो रे, रंग बन्यो हे चोलनो रे पलक न गेड्यो जाय ॥ ए श्रांकणी ॥ एक मुहरत दिन रातिनुं रे, पद मास परिमाण ॥ संवत्सर श्छा लगे रे, ते रीते पञ्चरकाण हो जिनजी॥ नक्ति ॥२॥ बारे व्रतना नियमनोरे, संदेप एहमां थाय ॥ मंत्रबले जेम वीबी, रे, फेर ते मंके जाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत छादशवत पूजा. २७ हो जिनजी ॥ जक्ति ॥३॥गंउसी घरसी दीपसी रे, एहमा सर्वसमाय॥दीपक ज्योते देखतां रे, चंदविमंसग राय हो जिनजी॥नक्ति०॥॥ पण अतिचार निवारीने रे, धनद गयो शिवगेह ॥ श्रीशुनवीरशुं माहरे रे,साचो धर्मसनेह हो जिनजी॥जक्ति॥५॥ ॥ काव्यं ॥ श्रमासंयुतम् ॥६॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ दी श्री परम ॥ नैवेद्यं यः॥स्वा॥इति दशमदेशावका शिकवते एकादश नैवेद्यपूजासमाप्ता॥ ॥अथ एकादशव्रते छादश ध्वजपूजाप्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥पडह वजावी अमारिनो,ध्वज बांधो शुज ध्यान॥ पोसह व्रत अगीयारमे, ध्वजपूजा सुविधान ॥१॥ ॥ ढाल ॥ वगमानो वासी रे, मोर शीद मारीयो । ॥ए देशी ॥ ॥ प्रजुपडिमा पूजीने पोसह करीए रे, वातने विसारी रे विकथा चारनी॥प्राये सुरगति साधे पर्वने दिवसे रे, धर्मनी गया रे तरु सहकारनी ॥ शीतल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. नहीं गया रे श्रा संसारनी ॥ कूमी ने माया रे श्रा संसारनी॥काचनी कायारे डेवट गरनी॥साची एक माया रे जिन अणगारनी ॥१॥ए आंकणी॥एंशी जांगे देश थकी जे पोसह रे, एकासण कयुरे श्रीसिमांतमें ॥ निज घर जश्ने जयणा मंगल बोली रे, जाजन मुख पूंजी रे शब्द विना जमे ॥ शीतल ॥ कू० ॥ का॥ साची० ॥२॥ सर्वथी श्राप पहोरनो चलविहार रे, संथारो निशि रे कंबल डालनो॥ पांचे परवी गौतम गणधर बोख्या रे, पूरव श्रांक तीस गुणो ने लाजनो ॥ शी० ॥ कू० ॥ का॥सा०॥३॥ कार्तिक शेठे पाम्यो हरिअवतार रे, श्रावक दश वीश वरसे स्वरगे गया॥ प्रेतकुमार विराधकनावने पाम्यो रे, देवकुमार व्रत रे आराधक थया ॥ शी॥ कू॥ का ॥ सा ॥४॥ पण अतिचार तजी जिनजी व्रत पालुं रे, तारक नाम साचुं रे जो मुज तारशो॥ नाम धरावो निर्यामक जो नाथ रे, नवोदधि पार रे तो उतारशो ॥ शी० ॥ कू० ॥ का ॥सा०॥५॥ सुलसादिक नव जणने जिनपद दीधा रे, करमे ते वेला रे वसीयो वेगलो ॥ शासन दी ने वली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत छादशवत पूजा. शए लागुं मीतुं रे, आशाजर आव्यो रे खामी एकलो ॥ शी० ॥ कू० ॥ का ॥ सा ॥६॥ दायक नाम धरावो तो सुख आपो रे, सुरतरुनी आगे रे शी बहु मागणी ॥ श्रीशुजवीर प्रजुजी मोघे काले रे, दीयंता दान रे शाबासी घणी॥शी०॥कू०॥का०॥सा०॥७॥ ॥ काव्यं ॥ श्रमासंयुतम् ॥१॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परम ॥ ध्वजं य० ॥ स्वा॥ ॥ इति एकादशवते छादश ध्वजपूजा समाप्ता॥१२॥ ॥ अथ द्वादशवते त्रयोदश फलपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥अतिथि कह्या अणगारने, संविनाग व्रत तास॥ फलपूजा करी तेरमी, मागो फल प्रजु पास ॥१॥ ॥ ढाल ॥ नमरा ! जूधर शे नाव्या ॥ए देशी॥ ॥ उत्तम फलपूजा कीजे, मुनिने दान सदा दीजे, बारमे व्रत लाहो लीजे रे ॥ श्रावकव्रत सुरतरु फलीयो ॥ मनमोहन मेलो मलीयो रे ॥ श्रावक ॥१॥ ए आंकणी ॥ देश काल श्रमाक्रमीए, उत्तर पारणे दान दीए, तेहमां पण नवि अतिचरीए रे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥श्रा ॥२॥ विनति करी मुनिने लावे, मुनि बेसण आसण गवे, पमिलाने पोते नावे रे ॥ श्रा० ॥३॥ दश मगलां प्रठे जावे, मनिदाने जे नवि आवे, व्रतधारी ते नवि खावे रे ॥ श्रा० ॥४॥मुनि अठते जमे दिशि देखी, पोसह पारण विधि जाखी, धर्मदास गणि जे साखी रे॥श्रा०॥५॥ एकादश पमिमा वहीया, सुरउपसर्गे नवि पमीया, कामदेव प्रनु मुख चमीया रे॥ श्रा० ॥६॥ गुणकर शेठ गया मुक्तं, हूँ पण पाव॑ ए युक्ते, श्रीशुजवीर प्रनु जक्ते रे ॥श्रा॥७॥ ॥अथ सर्वोपरि गीतं॥ ॥ निशिदिन जोडं वाटमी, घरे आवो ढोला ॥ ॥ ए देशी ॥ ॥ विरतिपणे हुँ विनवू, प्रनु अम घर श्रावो ॥ सेवक स्वामिनावथी, नथी कोश्नो दावो ॥ वि० ॥१॥लील विलासी मुक्तिना,मुज तेह देखावो ॥ मनमेलो मेली करी, फोकट ललचावो ॥ वि० ॥२॥ रंग रसीला रीकीने, त्रिशलासुत श्रावोथाये सेवक तुम आवते, चनद राजमां चावो ॥ वि ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत छादशव्रत पूजा. २३१ पंथ वचे प्रजुजी मल्या, हजु अरधे जावो ॥ निर्नय निज पुर पामतां, प्रजु पाको वोलावो ॥ वि०॥४॥ श्रेणि चढी शैलेशीए, परिशाटन जावो॥ एक समय शिवमंदिरे, ज्योते ज्योति मिलावो ॥ वि० ॥५॥ नाटक उनिया देखते, नवि होय अनावो॥श्रीशुलवीरने पूजतां, घेर घेर वधावो ॥ वि० ॥६॥ ॥ काव्यं ॥ श्रझासंयुतम् ॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ फलं य० ॥ खा० ॥ ॥इति छादशवते त्रयोदश फलपूजा समाप्ता॥१३॥ ॥ अथ कलश ॥ राग धन्याश्री॥ ॥ गायो गायो रे, महावीर जिनेश्वर गायो ॥ वीरमुख व्रत उच्चरीयां जेम, नर नारी समुदायो । एकशो चोवीश अतिचार प्रमाणे, गाथाए नाव बनायो रे॥महा ॥१॥ व्रतधारीने पूजानो विधि, गणधर सूत्र गुंथायो ॥ निर्जय दावे शिवपुर जावे, जेम जगमाल उपायो रे ॥ महा ॥२॥तपगड श्रीविजयसिंह सूरिना, सत्यविजय सत्य पायो॥ कपूर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. विजय गुरु खिमाविजय तस, जशविजयो मुनिरायो रे ॥ महा० ॥३॥ श्रीशुजविजय सुगुरु सुपसाये, श्रुत चिंतामणि पायो॥विजयदेवेंज सूरीश्वर राज्ये, ए अधिकार रचायो रे ॥ महा ॥४॥ कष्ट निवारे वंडित सारे, मधुरे कंठे महायो॥ राजनगरमा पूजा जणावी, घर घर उत्सव थायो रे॥ महा०॥५॥मुनि वसु नाग शशी संवत्सर, (१७) दीवालीदिन गायो ॥ पंमित वीरविजय प्रजुध्याने, जग जस पमह वजायो रे ॥ महा० ॥६॥ ॥ इति पंमितश्रीवीरविजयजीकृत छादशत्रतपूजा संपूर्ण ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पीस्तालीश श्रागमनी पूजा. २३३ ॥ अथ ॥ ॥ पंमित श्रीवीरविजयजीकृत पीस्तालीश आगमनी प्रष्टप्रकारी पूजा प्रारंभः ॥ ॥ तत्र ॥ ॥ प्रथम जलपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ श्रीशंखेश्वर पासजी, साहेब सुगुण गरिह ॥ शुभ गुरु चरण पसायथी, श्रुतनिधि नजरे दीठ ॥ १ ॥ शासननायक वंदीए, त्रिशला मात मल्हार ॥ जस मुखी त्रिपदी लड़ी, सूत्र रचे गणधार ॥ २ ॥ सुधर्मा गणधर तणी, रचना वरते सोय ॥ द्वादश अंग थकी अधिक सूत्र नहीं जग कोय ॥ ३ ॥ श्रागे आगम बहु दतां, अर्थविदित जगदीश ॥ कालवशे संप्रति रह्यां, आगम पीस्तालीश ॥ ४ ॥ श्रथमते केवल रवि, मंदिरदीपक ज्योत ॥ पंचम श्रारे प्राणीने, श्रागमनो उद्योत ॥ ५ ॥ प्रथम ज्ञान पछी दया, दशवैकालिक वा ॥ वस्तुतत्त्व सवि जाणीए, ज्ञानथी पद निर्वाण ॥ ६ ॥ ज्ञाननक्ति करतां थका, पूज्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जिन अणगार ॥ ते कारण बागम तणी, पूजा नक्ति विशाल ॥ ७॥ ज्ञानोपकरण मेलीए, पुस्तक आगल सार॥पीठ रची जिनबिंबने, थापीजे मनोहार॥७॥ झानउदय अरिहा तणी, सांजली देशना सार ॥ देव देवी नंदीश्वरे, पूजा विविध प्रकार॥ए॥ तेम श्रागम हैडे धरी,पूजो श्रीजिनचंद॥ध्येय ध्यान पद एकथी, पामो पद महानंद ॥ १० ॥ न्हवण विलेपन कुसु मनी, धूप दीप जलकार ॥अक्षत नैवेद्य फल तणी, पूजा श्रष्ट प्रकार ॥११॥ ॥ ढाल ॥ अने हारे व्हालोजी वाये जे वांसली रे॥ ए देशी ॥ ॥ अने हारे गंगा वीरसमुना रे, जलकलश जरी नर नारी ॥ ज्ञाने वमा श्रुतकेवली रे ॥१०॥ न्हवण करो प्रनु वारने रे, हाष्टवादना नाषणहार ॥हा॥१॥ अ॥ पांचे नेद तेदना रे, सांजलतां विकसे नाण ॥ झा ॥१०॥ परिकरमे सात श्रेणिजे रे, अठ्याशी सूत्र वखाण ॥ ज्ञा० ॥॥ श्र०॥ पूर्वगते चनद पूर्व में रे, महामंत्र ने विद्या जरेल ॥ झा ॥ अ॥जंबू वेलंधर देवतारे, धरे पूर्व समुज्नी वेल ॥ ज्ञा० ॥३॥ अ॥ दश वस्तु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पीस्तालीश श्रागमनी पूजा. ३५ विनयी लण्या रे, पहेले पूरव उत्पाद ॥ झा० ॥ अ० ॥ वस्तु चन्द अग्रायणं। रे, श्रम वस्तु वीर्यप्रवाद ॥ ज्ञा० ॥ ॥ अ ॥ अस्तिप्रवादे अढार रे, बार वस्तु ज्ञानप्रवाद ॥झा॥4॥ सत्यप्रवादे दोय वस्तु के रे, सोल वस्तु यात्मप्रवाद ॥ज्ञा ॥५॥ ॥ कर्मप्रवादे त्रीश धारीए रे, वीश वस्तु पूरव पचरकाण ॥झा० ॥ अ०॥ पन्नर विद्याप्रवादमा रे, बार वस्तु कही कल्याण ॥ ज्ञान ॥६॥ अ०॥प्राणावायमां तेर रे, त्रीश वस्तु क्रियाविशाल ॥ ज्ञा० ॥अ॥ पणवीशे करी सोहतुं रे, चउदमुं लोकबिंदु सार ॥ ज्ञा० ॥॥ अ॥ पुंज मशी खखे त्रणसें रे, त्र्याशी गज सोल हजार ॥ झा ॥ अ॥ श्रीशुजवीरना गणधरु रे, रचतां त्रीजो अधिकार ॥ ज्ञा० ॥७॥ दोहा॥ ॥ दश पूरव पूरण जणे, लब्धि कीराश्रव होय ॥ तेणे जिनकल्प निवारीयो, ज्ञान समो नहीं कोय ॥१॥ ॥ अथ गीतं ॥ मनमोहन मेरे ॥ ए देशी ॥ ॥नेद चोथो हवेसांजलो॥मनमोहन मेरे॥दृष्टि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. वाद अनुयोग || म० ॥ दोय ने करी शीखीयो ॥ म० ॥ जंबू गुरु संयोग ॥ म० ॥ १ ॥ पंचम नेदे चूलिका ॥ म० ॥ पहेले पूर्वे चार ॥ म० ॥ बार ने श्राव दश चूलिका ॥ म० ॥ चोथा पूरव लगे सार ॥ म० ॥ २ ॥ दश पूरवे नयी चूलिका ॥ म० ॥ नंदी सूत्र विचार ॥ ० ॥ दृष्टिवाद ए बारमुं ॥ ०॥ अंग हतुं सुखकार ॥ म० ॥ ३ ॥ बार वरस डुकालीए ॥ म० ॥ बारमुं अंग ते लीध ॥ ० ॥ संप्रतिकाले नवि पडे ॥ म० ॥ हवो काल प्रसिद्ध ॥ म० ॥ ४ ॥ मंदमति परमादथी ॥ म० ॥ पूर्व गयां अविलंब ॥ म० ॥ श्री शुज - वीरने शासने ॥ म० ॥ पूजो आगम जिनबिंब ॥ म० ॥ ५ ॥ इति प्रथम जलपूजा समाप्ता ॥ १ ॥ ॥ अथ द्वितीय चंदनपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ दवे पीस्तालीश वरण, कलियुगमां आधार ॥ आगम अगम अरथ जयां, तेहमां अंग अग्यार ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ इमन रागिणी, धन धन जिनवाणी ॥ ए देश ॥ ॥ ॥ चंदनपूजा चतुर रचावो, नागकेतु परे जावो रे ॥ धन धन जिनवाणी ॥ राय उदाइ प्रजुगुण गावे, For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पीस्तालीश बागमनी पूजा.५३७ पद्मावतीने नचावे रे ॥ध ॥ १॥ काल सदा जे अरिहा थावे, केवलनाण उपावे रे॥ध०॥श्राचा. रांग प्रथम उपदेशे, नामनी नजना शेषे रे ॥धण ॥२॥ आचार रथ वेहेता मुनि धोरी, बहुश्रुत हाथमा दोरी रे ॥ध॥ पंच प्रकारे आचार वखाणे, गलीया बलद केम ताणे रे ॥ ध० ॥३॥दो श्रुतखंध आचारांग केरा, संखित अणुऊंगदारा रे॥ध॥ संख्याती नियुक्ति कहीश, अद्ययणा पणवीश रे ॥ध०॥४॥ पदनी संख्या सहस बढार, नित्य गणता अणगार रे ॥ध॥सूत्र कृतांगे जावजीवादि, त्रणसें त्रेसठ वादी रे ॥ ध० ॥ ५॥ अध्ययन ते त्रेवीश ने बीजे, अवर पूरव परे लीजे रे ॥ ध० ॥ मुगुणां पद हवे सघले अंगे, दश गणां गणांगे रे॥ ध॥६॥ दश अध्ययने श्रुतखंध एको, हवे समवायांग को रे ॥ ध० ॥शत समवाय श्रुतखंध एके, धारीए अर्थ विवेके रे ॥ ध०॥ ७॥ जगवती पंचमुं अंग विशेषा, दश हजार उद्देशा रे ॥ध ॥एकतालीश शतके शुजवीरे, गौतम प्रश्न हजूरे रे॥ध०॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम॥ दोहा ॥ ॥ निर्युक्ति प्रतिपत्ति, सघले ते समजाव ॥ बीजी अर्थप्ररूपणा, ते सवि जुजुया नाव ॥ १ ॥ ॥ अथ गीतं ॥ कुंबखमानी देशी ॥ ॥ ज्ञाताधर्म वखाणीए रे, दश बोल्या तिहां वर्ग ॥ प्रभु उपदेशीया ॥ जं ते कोमी कथा कही रे, सांजलतां अपवर्ग ॥ प्र० ॥ १ ॥ उगणीश अध्ययने करी रे, वे श्रुतखंध सुजाव ॥ प्र० ॥ उपासकदशांगमां रे, दश श्रावकना जाव ॥ प्र० ॥ २ ॥ अंतगडे म वर्ग बे रे, अणुत्तरोववाई त्रण वर्ग ॥ प्र० ॥ एक सूत्रे मुक्ति वरया रे, बीजे गया जे सर्ग ॥ प्र० ॥ ३ ॥ प्रश्नव्याकरण सूत्रमां रे, दश अध्ययन वखाण | प्र० ॥ सूत्र विपाके सांजलो रे, वीश अध्ययन प्रमाण ॥ प्र० ॥ ४ ॥ बे श्रुतखंधे जाखीया रे, दुःख ख केरा जोग ॥ प्र० ॥ एम एकादश अंगनी रे, नति करो गुरुयोग ॥ प्र० ॥ ५ ॥ श्रागमने यवबतां रे, उलखीए अरिहंत ॥ प्र० ॥ श्रीशुनवीर ने पूजतां रे, पामो सुख अनंत ॥ प्र० ॥ ६ ॥ इति द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता ॥ २ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पीस्तालीश व्यागमनी पूजा. १३० ॥ अथ तृतीय पुष्पपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ अंग तणां उपांग जे, बार कह्यां जगवंत ॥ गणधर पूरवधर तणी, रचना सुणीए संत ॥ १ ॥ ॥ ॥ ढाल ॥ राग सारंग ॥ हो धन्ना ॥ ए देशी ॥ || ज्ञानावरण डूरे करो रे मित्ता, पामी अंग उपांग || फूल पगर पूजा रचोरे मित्ता, वीर जिनेश्वर अंग रे || रंगीला मित्ता ॥ ए प्रभु सेवोने ॥ ए प्रभु सेवो शानमां रे मित्ता, ज्ञान लहो जरपूर रे || रंगीला मित्ता ॥ ए प्रभु सेवोने ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ सामइयं जववाईमां रे मित्ता, करतो कोणिक नूप ॥ अंबड शिष्यने वरणव्या रे मित्ता, प्रश्न ते सिद्ध स्वरूप रे || रंगीला मित्ता ॥ ए ॥ २ ॥ रायपसेणी सूत्रमां रे मित्ता सूर्याजनो अधिकार ॥ जीवा निगम त्रीजुं सुणो रे मित्ता, दश अध्ययन विचार रे ॥ रंगीला मित्ता ॥ ए० ॥ ३ ॥ श्यामसूरि रचना करी रे मित्ता, पन्नवणा महासूत्र ॥ बत्रीश पद गुरु पासथी रे मित्ता, मित्ता, धारो अर्थ विचित्र रे || रंगीला मित्ता ॥ ० ॥ ४ ॥ जंबूदीवपन्न त्तिए रे मित्ता, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जंबलीप विचार ॥ बहा सूरपन्नत्तिमां रे मित्ता, रविमंगल ग्रह चार रे॥रंगीला मित्ता॥ ए॥५॥ चंदपन्नत्ति पाहुडे रे मित्ता, ज्योतिषचक्र विशेष ॥ श्रागम पूजो प्राणीया रे मित्ता, कहे शुजवीर जिनेश रे॥ रंगीला मित्ता ॥ ए॥६॥ ॥दोहा॥ ॥ नवममसमें न देखीयो, प्रजुजीनो देदार ॥ आगमपंथ लह्या विना, रमल्यो हुँ संसार ॥ १॥ ॥ अथ गीतं ॥ वीर जिणंद जगत्जपकारी॥ ॥ए देशी॥ ॥ केतकी जायनां फूल मगावी, पूजो अंग उपांगजी ॥ बंनी लीपी श्रीगणधरदेवे, प्रणमी नगवर अंगजी ॥ केत॥१॥ श्रापमुं निरयावलि उपांगे, देवादिक अधिकारजी॥ कप्पवडंसग नवम उपांगे, दश अध्ययन उदारजी ॥ केत० ॥ ॥ पुफिया नामे उपांग डे दशमुं, वली पुप्फचूलिया जाणजी ॥ बारमुं वन्हिदशाए सघले, दश अध्ययन प्रमा. णजी ॥ केत ॥ ३ ॥ गीतारथ मुख श्रमीय जरंतुं, श्रागम लाग्युं मीठजी ॥ ध्र थर लोकसन्नाबारी, ताजुदर्शन दीजी ॥ -. .. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पीस्तालीश श्रागमनी पूजा. २४१ केत॥४॥ दर्शनथी जो दर्शन प्रगटे, विघटे जवजल पूरजी ॥ नावकुटुंबमें मंदिर महाबु, श्रीशुनवीर हजूरजी ॥ केत० ॥५॥ इति तृतीय पुष्पपूजा समाप्ता ॥३॥ ॥ अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ आज पयन्ना डे घणा, पण लही एक अधिकार ॥ दश पयन्ना तेणे गण्या, पीस्तालीश मकार ॥१॥ ॥ ढाल ॥ साचं बोलो शामलीया ॥ ए देशी ॥ ॥ एक जन श्रुतरसीयो बोले रे॥हो मनमान्या मोहनजी ॥ प्रजु ताहारे नहीं कोय तोले रे ॥ हो मन ॥ अमे धूपनी पूजा करीए रे ॥ हो ॥ पुगंध अनादिनी हरीए रे ॥ हो ॥१॥ तुम दर्शन लागे प्यारं रे ॥ हो० ॥ अंते ने शरण तुमारं रे॥ हो॥ चनसरण पयन्नु पहेलु रे ॥ हो ॥ श्रमे शरण कह्यु वदेवं रे ॥ हो ॥२॥लही अर्थ मनोपम रीफुरे ॥ हो॥ आउरपञ्चकाण ते बीजुं रे॥ हो॥ सांजलतां जक्तपरिज्ञा रे॥ हो० ॥ परिहरगुंचारे संज्ञारे ॥ हो ॥३॥ संथारा पयन्नो सीधो रे ॥ हो० ॥ वि.58 For Personal and Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. सुकोशल मुनिए कीधो रे॥हो॥ नाखी तंडुलवियाली रे॥हो॥तुमे गर्जनी वेदना टाली रे॥हो ॥४॥अमने पण फुःख ए महोटुं रे॥हो॥ सन्मुख न जुठ ते खोटुं रे ॥ हो ॥ कांश महेर नजरथी देखो रे ॥ हो ॥ शुं रागीने उवेखो रे॥हो ॥५॥ रंग लागो चोल मजीठे रे॥हो॥ नवि जाये माकण दीठे रे ॥ हो ॥ अमे रागी थश्ने कहीशुं रे ॥ हो ॥ शुनवीरने चरणे रही\ रे ॥ हो ॥६॥ ॥दोहा॥ ॥ प्रजुचरणे रहेतां नजे, ज्ञान सुधारस कंद ॥ जिनवाणी रसीया मुनि, पामे परमानंद ॥१॥ ॥ अथ गीतं ॥ राग मालवी ॥ वंदो वीर जिनेश्वर राया ॥ ए देशी॥ ॥त्रिशलानंदन वंदन कीजे, ज्ञान अमृतरस पीजे रे ॥ हो चंदा विजय पयन्नो, विनये वडो मुनि धन्नो रे ॥ त्रिशला ॥१॥ गुरुविनये सुकलाए वाधे, राधावेध ते साधे रे॥देविंदथुइ पयन्ने रसीया, संथारे मुनि वसीया रे ॥ त्रिशला ॥२॥ मरणसमाधि पयन्ने नावे, प्रनु साथे लय लावे रे॥ महापच्चरकाण पयन्नो गावे, पाप सकल वोसिरावे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पीस्तालीशागमनी पूजा.२४३ रे ॥ त्रिशला ॥३॥ गणिविजाए नाव घणेरा, जाणे मुनि गंजीरा रे ॥ साधे कार्य लगननी होरा, श्रीशुजवीर चकोरा रे ॥ त्रिशला ॥४॥ इति चतुर्थ धूपपूजा समाप्ता ॥४॥ ॥ अथ पंचम दीपकमालपूजा प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ ज्ञानावरणी तिमिरने, हरवा दीपकमाल ॥ ज्योतिसें ज्योति मिलाइए, ज्ञान विशेष विशाल ॥१॥ ॥ ढाल ॥ चंप्रजु जिनचंडमा रे ॥ ए देशी ॥ ॥ जगदीपकनी आगले रे, दीपकनो उद्योत ॥ करतां पूजा पांचमी रे, नाव दीपकनी ज्योत हो जिनजीतेजे तरणिथी वमोरे, दोय शिखानो दीवडो रे, फलके केवल ज्योत ॥ १॥ दसूत्र जिन नाखीयां रे, निशीथ धुर सिहांत ॥ आलोयण मुनिराजने रे, धारे गंनीरवंत हो जिनजी॥ते॥दो॥ ॥ ज० ॥२॥ जितकल्पमा सेवतां रे, चरण करण अणगार ॥ पंचकल्प दे लण्या रे, पंच जला व्यवहार हो जिनजी ॥ ते० ॥ दो ॥ ज० ॥ ३॥ व्यवहार बेदे दाखीया रे, उत्सर्ग ने अपवाद ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. दशाकल्पमा दश दशा रे, उपदेश्यो अप्रमाद हो जिनजी॥ ते॥दो० ॥ऊ॥४॥छेद महानिशीथमां रे, जाखे जगनो नाथ ॥ उपधानादि श्राचारनी रे, वात गीतारथ हाथ हो जिनजी ॥ ते॥ दो ॥ ज० ॥ ५ ॥ धर्मतीर्थ मुनिवंदना रे, वरते श्रुत आधार ॥ शासन श्रीशुजवीरनुं रे, एकवीश वरस हजार हो जिनजी ॥ ते ॥ दो ॥ ज० ॥ ६॥ ॥ दोहा ॥ ॥ श्रुतज्ञानावरणी तणो, तुं प्रजु टालणहार ॥ दणमें श्रुतकेवली कस्या, देश त्रिपदी गणधार ॥१॥ ॥ अथ गीतं ॥ तोरण आश् क्युं चले रे॥ए देशी॥ ॥धन धन श्रीअरिहंतने रे, जेणे उलखाव्यो लोक ॥ सलूणा ॥ ते प्रजुनी पूजा विनारे, जनम गमाव्यो फोक ॥ सलूणा ॥१॥ जेम जेम अरिहा सेवीए रे, तेम तेम प्रगटे ज्ञान ॥ स ॥ ज्ञानीना बहुमानथी रे, ज्ञान तणां बहुमान ॥ स० ॥ जेम० ॥२॥ ज्ञान विना श्राडंबरी रे, पामे जग अपमान ॥ स ॥ कपट क्रियाजनरंजने रे, मौनवृत्ति बगध्यान ॥ स ॥ जेम० ॥३॥ मत्सरी खरमुख उजाले रे, करता उग्र विहार ॥ स०॥पाप श्रमण करी दाखीया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पीस्तालीश यागमनी पूजा. १४५ रे, उत्तराध्ययन मकार ॥ स० ॥ जेम० ॥ ४ ॥ ज्ञान विना मुक्ति नहीं रे, किरिया ज्ञानीने पास ॥ स० ॥ श्रीशुवीरनी वाणीए रे, शिवकमला घरवास ॥ स०॥ जेम० ॥ ५ ॥ इति पंचम दीपकमालपूजा समाप्ता ॥ ॥ अथ षष्टातपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ चरम समय डुप्पसह लगे, वरते श्रुत विछेद ॥ मूल सूत्र तेथे जाखीयां, ते कहेशुं च नेद ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ राग सारंग ॥ हम मगन जए प्रभु ज्ञानमां ॥ ए देश ॥ ॥ जिनराजनी पूजा कीजीए ॥ ए टेक ॥ जिनपकिमा आगे प्रनुरागे, अक्षत पूजा कीजीए॥ कृतपद जि. लाप धरीने, आगमनो रस पीजीए ॥ जिन० ॥ १ ॥ प्रजुपमा देखी प्रतिबुद्धा, पूरवयी उद्धरीजीए ॥ दशवैकालिक दश अध्ययने, मनक मुनि हित कीजीए ॥ जिन० ॥ २ ॥ उत्तराध्ययन ते बी जुं श्रागम, मूल सूतरमां गणीजीए ॥ अध्ययनो बत्रीश रसालां, सरुसंगे सुबीजीए ॥ जिन० ॥ ३ ॥ सोल प्रहरनी देशना देतां, चतुर चकोरा रीजीए ॥ श्रीशुनवीर जिनेश्वर श्रागम, अमृतनो रस पीजीए ॥ जिन० ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ दोहा ॥ ॥ ज्ञानउदय करवा जणी, तप करता जिनदेव ॥ ज्ञाननिधि प्रगटे तदा, समवसरण सुर सेव ॥ १ ॥ ॥ अथ गीतं ॥ राग काफी ॥ खियनमें गुलजारा ॥ ए देशी ॥ ॥ श्रागम विकारा, जिणंदा तेरा आगम बे यविकारा॥ ए टेक ॥ ज्ञानज्योति प्रगटे घट मांहे, जेम रवि किरण हजारा॥ जि०॥ मिथ्यात्वी पुर्नय स विकारा, तगतगता नहीं तारा ॥ जि० ॥ १ ॥ त्रीजुं उंघनिर्युक्ति वखाएं, मुनिवरना श्राचारा ॥ जि० ॥ चोथुं आवश्यक अनुसरतां, केवली चंदनबाला ॥ जि० ॥ २ ॥ श्रल्पागम तप क्लेश ते जाणो, बोले उपदेशमाला ॥ जि० ॥ ज्ञानजक्ति जिनपद नीपजावे, नामे जयंत भूपाला || जि० ॥ ३ ॥ सायरमां मीठी मेहेरावल, श्रृंगी मत्स्य श्राहारा ॥ जि० ॥ शरण विहीना दीना मीना, र्जर ते सायर खारा ॥ जि० ॥ ४ ॥ पंचम काल फणी विषज्वाला, मंत्र मणी विष दारा ॥ जि० ॥ श्रीशुनवीर जिनेश्वर आगम, जिनपकिमा जयकारा ॥ जि० ॥ ५ ॥ इति षष्ठाक्षतपूजा समाप्ता ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only २४६ - Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पीस्तालीश श्रागमनी पूजा.२४७ ॥ अथ सप्तम नैवेद्यपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा॥ ॥ नैवेद्यपूजा सातमी, सात गति अपहार ॥ सात राज्य ऊरध जश, वरीए पद अणाहार ॥१॥ ॥ ढाल ॥ विमलाचल वेगे वधावो ॥ ए देशी॥ ॥ नित्य जिनवर मंदिर जइए, मेवा मीग थालमें लहीए ॥ नैवेद्यनी पूजा करीए, तेम झाननी आगल धरीए रे ॥ श्रुत आगम सुंदर सेवो, मनमंदिर आगम दीवो रे॥श्रुतः॥१॥पहेढुं अनुयोगकुवारे, साते नय नंगप्रकारे ॥ निदेपानी रचना सारी, गीतारथवचने धारी रे॥ श्रुत॥मनः॥२॥ बीजु श्रुत नंदी वंदी, सुणतां दिल होय आनंदी॥ सवि सूत्र तणो सरवायो, जल्पे त्रिशलानो जायो रे ॥ श्रुतम् ॥ मन ॥३॥ मति आदि पंच प्रकार, नाख्या के ज्ञान अधिकार ॥ बहुला दृष्टांत देखावी, शुनवीरे रीत उलखावी रे ॥ श्रुतम् ॥ मन ॥४॥ ॥दोहा॥ ॥ए पीस्तालीश वर्णव्यां,आगम जिनमत माहि॥ मणुथजन्म पामी करी, नक्ति करो उत्साही॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ अथ गीतं ॥ राग वसंत फाग ॥ वीरकुमरनी वातमी, केने कहीए ॥ ए देशी ॥ ॥ श्रागमनी यशातना, नवि करीए ॥ नवि करीए रे नवि करीए, श्रुतनक्ति सदा अनुसरीए, शक्ति अनुसार ॥ श्राग० ॥ १ ॥ ज्ञानविराधक प्राणीया, मतिहीना ॥ ते तो परजव दुःखीया दीना, नरे पेट ते पराधीना, नीच कुल अवतार ॥ ० ॥ २ ॥ अंधा लूला पांगुला, पिंमरोगी ॥ जनम्या ने मातवियोगी, संताप घणो ने शोगी, योगी अवतार ॥ ० ॥ ३ ॥ मूंगा ने वली बोबमा, धनहीना ॥ प्रिया पुत्र वियोगे लीना, मूरख श्रविवेके जीना, जाणे रणनुं रोऊ ॥ ० ॥ ४ ॥ ज्ञान ती आशातना, करी पूरे ॥ जिननक्ति करो नरपूरे, रहो श्रीशुनवीर हजूरे, सुख मांहे मगन्न ॥ ० ॥ ५ ॥ इति सप्तम नैवेद्यपूजा समाप्ता ॥ ७ ॥ ॥ अथाष्टम फलपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ ज्ञानाचारे वरततां ज्ञान लहे नर नार ॥ जिनआगमने पूजतां, फलथी फल निरधार ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पीस्तालीश बागमनी पूजा.श्व ॥ ढाल ॥ सुण गोवालणी ॥ ए देशी॥ ॥ हो साहिबजी, परमातम पूजानुं फल मुज आपो ॥ हो साहिबजी, लाखिणी पूजा रे शे फल नापो ॥ उत्तम उत्तम फल हुं लावू, अरिहानी श्रागल मूकावं ॥आगमविधि पूजा विरचावू, उनो रहीने नावना नावें ॥ हो॥१॥ जिनवर जिन आगम एक रूपे, सेवंतां न पमो नवकूपे॥आराधन फल एहनां कहीए, था जव मांहे सुखीया थश्ए ॥ हो ॥२॥ परजव सुरलोके ते जावे, इंसादिक अपर सुख पावे ॥ तिहां पण जिनपूजा विरचावे, उत्तम कुलमां जश् उपजावे ॥ हो० ॥३॥ तिहां राज्य शकि परिकर रंगे, श्रागम सुणतां सद्गुरुसंगे ॥ आगमशुं राग वली धरता, जिनागम जिनपूजा करता ॥ हो ॥४॥ सिद्धांत लखावीने पूजे, तेथी कमे सकल पूरे भ्रूजे ॥लहे केवल चरण धमे पामी, शुजवीर मले जो विश्रामी ॥ हो ॥५॥ ॥ दोहा॥ ॥ केवलनाण लही करी, पामी अंतर जाण ॥ शैलेशीकरणे करी, पामो अविचल गण ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम ॥ अथ ॥ गीतं ॥ राग पूर्वी ॥ घमी घमी सांजरो सां सलूपा ॥ ए देशी ॥ ॥ नित नित सिद्ध नजो जवि जावे, रूपातीत जे सहज खनावे ॥ नित० ॥ ज्ञान ने दर्शन दोय विलासी, साकार उपयोगे शिव जावे ॥ नि० ॥ १ ॥ कर्म वियोगी योगी केरे, चरम समय एक समय सिधावे ॥ नि० ॥ निश्चय नयवादी एम बोले, व्यवहारे समयांतर लावे || नि० ॥ २ ॥ अगुरुलघु अवगाहनरूपे, एक अवगाद अनंत वसावे ॥ नि० ॥ फरसित देश प्रदेश संखा, सुंदर ज्योतसें ज्योत मिलावे ॥ नि० ॥ ३ ॥ श्रधिव्याधि विघट्या जव केरा, गर्जावास तणां दुःख नावे ॥ नि० ॥ एक प्रदेशमां सुख अनंतुं, ते पण लोकाकाशे न मावे ॥ नि० ॥ ४ ॥ परमातम रमणीनो जोगी, योगीश्वर पण जेहने ध्यावे ॥ नि० ॥ फलपूजार्थी ए फल पावे, श्रीशुजवीर वचनरस गावे ॥ नि० ॥ ५ ॥ इत्यष्टम फलपूजा समाप्ता ॥ ॥ अथ कलश ॥ ॥ गायो गायो रे, महावीर जिनेश्वर गायो ॥ श्रागमवाणी अमीय सरोवर, जीलत रोग घटायो ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत पीस्तालीश बागमनी पूजा.२५१ मिथ्यात मेल उतारी शिर पर, श्राणामुकुट धरायो रे ॥ महा॥१॥ तपागल श्रीसिंहसूरिना, सत्यविजय बुध गायो ॥ कपूरविजय शिष्य खिमाविजय तस, जशविजयो मुनिरायो रे ॥ महा० ॥२॥तास शिष्य संवेगी गीतारथ, श्रीशुजविजय सवायो ॥ तास शिष्य श्रीवीरविजय कवि, ए अधिकार बनायो रे ॥ महा ॥३॥ राजनगरमें रहीय चोमासुं, अज्ञानहीम हरायो ॥ सूत्रअर्थ पीस्तालीश आगम, संघ सुणी हरखायो रे ॥ महा॥४॥ अढारसें एकाशी मागशिर, मौनएकादशी ध्यायो॥ श्रीशुनवीर जिनेश्वर आगम, संघने तिलक करायो रे ॥ महा ॥५॥ इति कलशः समाप्तः॥ ॥इति पंमितश्रीवीरविजयजीकृत पीस्ता लीश आगमनी पूजा संपूर्ण ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ पंडितश्रीवीरविजयजीकृत श्रीशत्रुंजयमहिमागति नवाणुंप्रकारी पूजा प्रारंभः ॥ ॥ तत्र ॥ ॥ प्रथम पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ श्रीशंखेश्वर पासजी, प्रणमी शुज गुरु पाय ॥ विमलाचल गुण गाइशुं समरी शारद माय ॥ १ ॥ प्राये ए गिरिशाश्वतो, महिमानो नहीं पार ॥ प्रथम जिणंद समोसा, पूर्व नवाएं वार ॥ २ ॥ अढीय द्वीपमा एसमो, तीर्थ नहीं फलदाय ॥ कलियुग कल्पतरु वमो, मुक्ताफलशुं वधाय ॥ ३ ॥ यात्रा नवाएं जे करे, उत्कृष्ट परिणाम || पूजा नवाएं प्रकारनी, रचतां अविचल धाम ॥ ४ ॥ नव कलशे श्रनिषेक नव, एम एकादश वार || पूजा दीव श्रीफल प्रमुख, एम नवाएं प्रकार ॥ ५ ॥ Jain Educationa International " ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ कुंबखमानी देशी ॥ ॥ यात्रा नवाएं करीए सलूणा, करीए पंच सनात ॥ सुनंदाको कांत नमो ॥ गणणुं लख नवकार गणजे, दोयम बह सात ॥ सु० ॥ १ ॥ रथयात्रा प्रदक्षिणा दीजे, पूजा नवाएं प्रकार ॥ सु०॥ For Personal and Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत नवाणुंप्रकारी पूजा. १५३ धूप दीप फल नैवेद्य मूकी, नमीए नाम हजार ॥ सु० ॥२॥ आप अधिक शत टुंक जलेरी, महोटी तिहां एकवीश ॥ सु० ॥ शत्रुजयगिरि टुंक ए पहेली, नाम नमो निशदीश ॥ सु० ॥३॥ सहस अधिक अठ मुनिवर साथे, बाहुबली शिवगम ॥ सु०॥बाहुबली टुंक नाम ए बीजं, त्रीजुमरुदेवी नाम ॥ सु० ॥४॥ पुंमरीकगिरि नाम ए चोथु, पांच कोमी मुनि सिफ ॥ सु०॥ पांचमुं हुंक रैवतगिरि कहीए, तेणे ए नाम प्रसिक ॥ सु॥५॥ विमलाचल सिझराज नगीरथ, प्रणमीजे सिहदेव ॥ सु० ॥ नहरी पाली एणे गिरि श्रावी, करीए जन्म पवित्र ॥ सु०॥ ६॥ पूजाए प्रजु रीज रे, साधुं कार्य अनेक ॥ सु० ॥ श्रीशुनवीर हृदयमा वसजो, अलबेला घमी एक ॥ सु० ॥७॥ ॥ अथ काव्यं ॥ सुतविलंबितवृत्तम् ॥ ॥ गिरिवरं विमलाचलनामकं, रुपनमुख्यजिनांघिपवित्रितं ॥ हृदि निवेश्य जलैर्जिनपूजनं, विमलमाप्य करोमि निजात्मकं ॥१॥ ए काव्य प्रत्येक पूजा दीप कहे ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परमपुरुषाय, परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय, श्रीमते. जिनेसाय, जलादिकं यजामहे स्वाहा ॥ ए मंत्र पण प्रत्येक पूजा दीठ कहेवो॥इति प्रथम पूजानिषेके उत्तरपूजा समाप्ता॥ ॥अथ द्वितीय पूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ एके कुं मगQ नरे, गिरि सन्मुख उजमाल ॥ कोमि सहस नवनां कस्यां, पाप खपे तत्काल ॥१॥ ॥ ढाल ॥ राग पूर्वी ॥ घमी घमी सांजरो शांति सलूणा ॥ ए देशी ॥ ॥ गिरिवर दरिसण विरला पावे, पूरवसंचित कर्म खपावे ॥ गिरि० ॥षन जिनेश्वरपूजा रचावे, नव नवे नामे गिरिगुण गावे ॥ गिरि ॥१॥ए आंकणी ॥ सहस्रकमल ने मुक्ति निलय गिरि, सिकाचल शतकूट कहावे॥ गिरि०॥ ढंक कदंब ने कोडिनिवासो, लोहित तालध्वज सुर गावे ॥ गिरि ॥२॥ ढंकादिक पंच कूट सजीवन, सुर नर मुनि मली नाम थपावे ॥ गिरि० ॥ रयणखाण जडी बूटी गुफाउँ, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत नवाणुंप्रकारी पूजा. २५५ रसकूपिका गुरु श्हां बतावे॥ गिरि॥३॥पण पुण्यवंताप्राणी पावे,पुण्य कारण प्रजुपूजा रचावे॥गिरि ।। दश कोटी श्रावकने जमाडे, जैन तीर्थयात्रा करी आवे ॥ गिरि ॥ ४ ॥ तेथी एक मुनि दान दीयंता, लाज घणो सिकाचल थावे ॥ गिरि० ॥ चंडशेखर निज नगिनी जोगी, ते पण ए गिरि मोके जावे ॥ गिरि ॥ ५ ॥ चार हत्यारा नर परदारा, देव गुरुअव्य चोरी खावे ॥ गिरि० ॥ चैत्री कार्तिकी प्रनम यात्रा, तप जप ध्यानयी पाप जलाने॥गिरि०॥६॥ षजसेन जिन श्रादे असंख्या, तीर्थंकर मुक्तिसुख पावे ॥ गिरि ॥ शिववद वरवा ममप ए गिरि, श्रीशुनवीर वचनरस गावे ॥ गिरि ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ गिरिवरं० ॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ इति द्वितीयानिषके उत्तरपूजा समाप्ता ॥ सर्व गाथा ॥२१॥ ॥ अथ तृतीय पूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ॥ नेम विना त्रेवीश प्रनु, आव्या विमल गिरीद॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. नावी चोवीशी श्रावशे, पद्मनानादि जिणंद ॥१॥ ॥ ढाल ॥ मनमोहन मेरे ॥ ए देशी॥ ॥ धन धन ते जग प्राणीया, मनमोहन मेरे ॥ करता नक्ति पवित्र ॥म॥ पुण्यराशि महाबल गिरि ॥ म ॥ दृढशक्ति शतपत्र ॥ म० ॥१॥ विजयानंद वखाणीए ॥ म० ॥ नकर मदापीठ ॥ म० ॥ सुरगिरि महागिरि पुण्यथी । म ॥ आज में नजरे दीत ॥ म ॥२॥ एंशी योजन प्रथमारके॥ म०॥ सित्तेर साठ पचास ॥ मग ॥बार योजन सात हाथनो ॥ मग ॥बहे पोहोलो प्रकाश ॥म॥३॥ पंचम काले पामवो ॥ म ॥ उलहो प्रजुदेदार ॥ म ॥ एकेंख्यि विकलेजिमां ॥ म ॥ काढ्यो अनंतो काल ॥ म ॥ ४॥पंचेंप्रिय तिर्यंचमां ॥म॥नहीं सुखनो लवलेश ॥ म० ॥ घुर्णाकर न्याये लह्यो ॥ म० ॥ नरलव गुरुजपदेश ॥ म ॥५॥ बहुश्रुत चरणनी सेवना ॥ म॥ वस्तुधर्म उलखाण ॥म॥ आत्मखरूप रमणे रमे ॥म०॥ न करे जूठ मफाण ॥ मग ॥६॥ कारणे कारज नीपजे ॥ म०॥ अव्य ते नाव निमित्त म०॥निमित्तवासी आतमाम बावनाचंदन शीत ॥ म०॥७॥ अन्वयव्यतिरेके करी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत नवाणुंप्रकारी पूजा. १५७ ॥ म० ॥ जिनमुख दर्शनरंग ॥ म० ॥ श्रीशुनवीर सुखी सदा ॥ ० ॥ साधक किरिया असंग ॥ म० ॥८॥ ॥ काव्यं ॥ गिरिवरं० ॥ ॥ ॐ कूँ श्री परम० ॥ इति तृतीया जिषेके उत्तरपूजा समाप्ता ॥ सर्व गाथा ॥ ३० ॥ ॥ अथ चतुर्थ पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ शेत्रुंजी नदी न्हाइने, मुख बांधी मुखकोश ॥ देवयुगादि पूजीए, आणी मन संतोष ॥ १ ॥ ॥ ढाल || अने हांरे वाहालोजी वाये बे वांसली रे ॥ ए देशी ॥ ॥ अने हांरे, वाहालो वसे विमलाचले रे, जिदां हुआ उद्धार अनंत ॥ वा० ॥ श्र० ॥ वाहालाथी नहीं वेगला रे, मुने वाहालो सुनंदानो कंत ॥ वा० ॥ १ ॥ ० ॥ श्रा अवसर्पिणी कालमां रे, करे जरत प्रथम उद्धार ॥ वा० ॥ ० ॥ बीजो उद्धार पाट मेरे करे दंडवी रज भूपाल ॥ वा० ॥ २ ॥ श्र० ॥ सीमंधर वयां सुणी रे, त्री जो करे ईशानेंद्र ॥ वा० ॥ Jain Educationtational For Personal and Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. अ०॥ सागर एक कोमि अंतरे रे, चोथो उकार माहेंज ॥ वा ॥३॥ अ० ॥ दश कोमिवली सागरे रे, करे पंचम पंचम इंड॥ वा०॥०॥एक लाख कोमिसागरे रे, उझार करे चमरेंजवा ॥४॥ ॥ चक्री सगर उझार ते सातमोरे, आठमो व्यंतरेंजनो सार ॥ वा ॥ १० ॥ते अनिनंदन चंप्रनु समे रे, करे चंडजसा उफार ॥वा॥५॥१०॥नंदन शांति जिणंदना रे, चक्रायुध दशम उमार॥वा०॥०॥ अगीयारमो रामचंजनो रे, बारमो पांमवनो उधार ॥वा॥६॥०॥वीश कोमिमुनि साथे पांमवा रे, यहां वरीया पद महानंद ॥ वा ॥१०॥ महानंद कर्मसूमण कैलास डे रे, पुष्पदंत जयंत श्रानंद ॥ वा ॥ ७॥ श्र॥श्रीपद हस्तगिरि शाश्वतो रे, ए नाम ते परम निधान ॥वा॥०॥श्रीशुजवीरनी वाणीए रे, धरी कान करो बहुमान॥वा॥॥ - ॥ काव्यं ॥ गिरिवरं ॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम॥इति चतुर्थानिषेके उत्तरपूजा समाप्ता ॥ सर्व गाथा ॥ ३५॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत नवाणुंप्रकारी पूजा. १५ ॥ अथ पंचम पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ चोथे आरे ए थया, सवि महोटा सूक्ष्म उद्धार बच्चे ॥ ढाल ॥ तेजे थया, कहेतां नावे तरणिथी वो रे ॥ उद्धार ॥ पार ॥ १ ॥ ए देशी ॥ ॥ संवत् एक अ ंतरे रे, जावमशानो उद्धार ॥ करजो मुज साहिबा रे, नावे फरी संसार हो जिनजी ॥ जक्ति हृदयमां धारजो रे, अंतर वैरी वारजो रे, तारजो दीनदयाल ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ बाहरु मंत्रीए चौदमो रे, तीर्थे कस्यो उद्धार ॥ बार तेरोत्तर वर्षमां रे, वंश श्रीमाली सार हो जिनजी ॥ ति० ॥ २ ॥ संवत् तेर एकोत्तरे रे, समरोशा उसवाल ॥ न्यायद्रव्य विधि शुद्धता रे, पन्नारमो उद्धार हो जिनजी ॥ जक्ति० ॥ ३ ॥ पन्नरसें सत्याशीए रे, सोलमो ए उद्धार ॥ कर्माशाए करावीयो रे, वरते बे जयकार हो जिनजी ॥ जति० ॥ ४ ॥ सूरि डुप्पसह उपदेशथी रे, विमलवाहन नूपाल ॥ बेल्लो उद्धार करावशे रे, सासयगिरि उजमाल हो जिनजी ॥ नक्ति ॥ ५ ॥ व्यगिरि सिद्धशेखरो रे, महाजस ने माध्यवंत ॥ पृथ्वीपीठ दुःखहर गिरि रे, मुक्तिराज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. मणिकंत हो जिनजी ॥ जति० ॥ ६ ॥ मेरुमहीधर ए गिरिरे, नामे सदा सुख थाय ॥ श्रीशुजवीरने चित्तथी रे, घमी न महेल जाय हो जिनजी ॥ नक्ति ० ॥ ७ ॥ ॥ काव्यं ॥ गिरिवरं० ॥ ॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ श्री श्री परम० ॥ इति पंचमानिषेके उत्तरपूजा समाप्ता ॥ सर्व गाथा ॥ ४७ ॥ ॥ अथ षष्ठ पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ सिद्धाचल सिद्धिवस्या, गृही मुनिलिंग अनंत ॥ आगे अनंता सीकशे, पूजो जवि जगवंत ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ चतुरेमें चतुरी कोण, जगतकी मोहनी ॥ ए देशी ॥ ॥ सखरे में सखरी कोण, जगतकी मोहनी ॥ रुषज जिनंदकी पडिमा जगतकी मोहनी ॥ रयणमय मूर्ति जरा, जगतकी मोहनी ॥ हां हां रे ॥ जग० ॥ प्यारे लाल, जगतकी मोहनी ॥ ए श्रकणी ॥ जरते जराइ सोय, प्रमाना ले करी ॥ कंचन गिरिए बेठाइ, देखत डुनिया वरी ॥ हां हां रे देखत० ॥ प्या० ॥ देख० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत नवाणुंप्रकारी पूजा. १६१ ॥१॥सखरे०॥सातमोझारमे चक्री सगर, सुर चिंतवी ॥ःखम काल विचार, गुफामें जा वी॥हां हां रे गुफा॥प्या०॥ गु०॥ देव देवी हररोज, पूजनकुंजावते ॥ पूजाको गठ बनाय, सांयुं गुण गावते ॥हां हां रे सांयुंग ॥ प्या० ॥ सायुं ॥२॥ सखरे ॥ श्रप्सरा चूंघट खोलके, आगे नाचते ॥ गीत गान उर तान, खमा हरि देखते ॥ हां हां रे खडा ॥ प्या ॥ खण ॥ जिनगुण अमृतपानसें, मगन न घमी ॥ उम उम उमके पाजं, बलैयां ले खडी॥हां हां रे बलै ॥ प्या॥ ब० ॥३॥ सखरे०॥ या रीत नक्तिमगन्नसें, सुर सेवा करे॥सुरसान्निध्य नर दर्शन, नव त्रीजे तरे ॥ हां हां रे नव० ॥ प्या० ॥ न० ॥ पछिम दिशि सोवन्न, गुफामें मादहते ॥ तीने कंचन गिरि नाम के, उनिया बोलते॥हां हां रे उनि॥ प्या ॥ ॥४॥ सखरे ॥ आनंदघर पुण्यकंद, जयानंद जानीए॥ पातालमूल विजास, विशाल वखानीए ॥ हां हांरे विशा॥ प्यारे॥ वि०॥ जगतारण अकलंक,ए तीरथ मानीए॥श्रीशुनवीर विवेके,प्रजुकुं पीठानीए॥हां हां रे प्रजु॥प्या॥प्र०॥५॥सखरे॥ काव्यं ॥ गिरिवरं ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परम ॥ इति षष्टानिषेके उत्तरपूजा समाप्ता ॥ सर्व गाथा ॥ ५४॥ ॥ अथ सप्तम पूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ नमि विनमि विद्याधरा, दोय कोमिमुनिराय ॥ साथे सिछिवधू वस्या, शत्रुजय सुपसाय ॥ १॥ ॥ ढाल ॥ सहसावनमां एक दिन खामी ॥ ए देशी ॥ ॥श्राव्यां दुं आश नस्यां रे, वालाजी अमे आव्यां रे आश नस्यां ॥ ए बांकणी ॥ नमि पुत्री चोसठ मलीने, झषन पाउँ पस्यां ॥ कर जोमी विनये प्रनु आगे, एम वयणां उच्चस्यां रे ॥ वा ॥१॥ नमि विनमि जे पुत्र तुमारा, राज्यनाग विसस्या॥ दीनदयाले दीधो पामी, आज लगे विचस्यारे॥वा॥२॥ बाह्य राज्य उनगी प्रनु पासे, आवे काज सस्यां । अमे पण तातजी कारज साधु, सान्निध्य आप कस्यां रे ॥ वा०॥३॥ एम वदंती पागे चढंती, अणसण ध्यान धस्यां ॥ केवल पामी कर्मने वामी, ज्योतसें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत नवाणुंप्रकारी पूजा. १६३ ज्योति मध्यां रे ॥ वा० ॥ ४ ॥ एक श्रवगाहने सिद्ध अनंता, डुग उपयोग वस्या | फरसित देश प्रदेश || संखित, गुणाकार करया रे ॥ वा० ॥ ५ ॥ श्रकर्मक महातीरथ देमगिरि, अनंतशक्ति जस्यां ॥ पुरुषोत्तम ने पर्वतराजा, ज्योतिरूप धयां रे ॥ वा ॥ ६ ॥ विलास सुन एनामे, सुणतां चित्त उखां ॥ श्रीशुनवीर प्रभु अनिषेके, पातक दूर दस्यां रे ॥ वा० ॥ ७ ॥ ॥ काव्यं ॥ गिरिवरं० ॥ ॥ ॐ ॐ श्री परम० ॥ इति सप्तमानिषेके उत्तरपूजा समाप्ता ॥ सर्व गाथा ॥ ६२ ॥ ॥ थाष्टम पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ वि ने वालिखिलजी, दश कोमि अणगार ॥ साथे सिद्धिवधू वस्या, वंडुं वारंवार ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ तोरण आइ क्युं चले रे ॥ ए देशी ॥ ॥ जरतने पाटे नूपति रे, सिद्धि वरया एणे वाय ॥ सलूपा ॥ श्रसंख्याता तिहां लगे रे, हुआ श्रजित जिनराय ॥ सलूणा ॥ १ ॥ जेम जेम ए गिरि नेटीए रे, तेम तेम पाप पलाय ॥ स० ॥ अजित जिने For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. श्वर साहिबो रे, चोमासुं रही जाय ॥ स ॥ जे० ॥२॥ सागर मुनि एक कोडिशुं रे, तोड्या कर्मना पास ॥ स० ॥ पांच कोमि मुनिराजशंरे, नरत लह्या शिववास ॥ स ॥ जे ॥३॥ आदीश्वर उपकारथी रे, सत्तर कोकि साथ ॥ स० ॥ अजितसेन सिकाचले रे, काल्यो शिववहू हाथ ॥ स॥जे ॥४॥ अजितनाथ मुनि चैत्रनी रे, पूनमे दश हजार ॥स ॥ आदित्ययशा मुक्ति वस्या रे, एक लाख यणगार ॥ स० ॥ जे ॥५॥अजरामर देमकरु रे, श्रमरकेतु गुणकंद ॥ स ॥ सहस्रपत्र शिवंकरु रे, कर्मदय तमःकंद ॥ स ॥ जे० ॥६॥राजराजेश्वर ए गिरि रे, नाम डे मंगलरूप ॥ स०॥ गिरिवर रज तरुमंजरी रे, शीश चढावे नूप ॥ स० ॥ जे॥७॥ देवयुगादिपूजतारे, कर्म होये चकचूर ॥साश्रीशुजवीरने साहिबा रे,रहेजो हश्मा हजूर ॥साजे०॥७॥ काव्यं । गिरिवरं ॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ॐ ही श्री परम ॥ इति अष्टमानिषेके उत्तरपूजा समाप्ता ॥ सर्व गाथा ॥ ३१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत नवाएंप्रकारी पूजा. १६५ ॥ अथ नवम पूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ ॥ राम जरत त्रण कोमिशु, कोमिमुनि श्रीसार॥ कोडि सामी श्राप शिव वस्या, सांब प्रद्युम्न कुमार॥१॥ ॥ ढाल ॥ उँचो ने अलबेला रे ॥कामण गारो कानुडो ॥ ए देशी॥ ॥सिकाचल शिखरे दीवो रे॥आदीश्वर अलबेलो ॥जाणे दर्शन अमृत पीवो रे ॥या॥ शिव सोमजसानी लारे रे ॥आ॥ तेर कोडि मुनि परिवारे रे ॥आ॥ सि॥१॥करे शिवसुंदरीतुं श्राएं रे॥श्रा॥ नारदजी लाख एकाएं रे॥ आ॥ वसुदेवनी नारी प्रसिकि रे ॥ आ॥ पांत्रीश हजार ते सिकि रे ॥श्रा० ॥ सि ॥२॥ लख बावन ने एक कोडिरे ॥श्रा ॥ पंचावन सहसने जोडी रे॥था॥सातसें सत्योतेर साधु रे ॥ श्रा०॥ प्रजु शांति चोमासुं की, रे॥ आ० ॥ सि ॥३॥ तव ए वरीया शिवनारी रे ॥ था ॥ चौद सहस मुनि दमितारि रे ॥ श्राण ॥ प्रद्युम्नप्रिया अचंनी रे ॥ श्रा० ॥ चौथालीशसें वैदी रे ॥ श्रा०॥ सि ॥४॥ थावच्चापुत्र हजारे रे ॥ आ॥ शुक परिव्राजक ए धारे रे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ आ ॥ सेलग पणसय विख्याते रे ॥ श्राण ॥ सुल मुनि सय साते रे ॥ श्रा० ॥ सि॥५॥जव तरीया तेणे नवतारण रे ॥०॥गजचं महोदय कारण रे ॥ आ॥ सुरकांत अचल अनिनंदो रे ॥ आ ॥ सुमति श्रेष्ठा जयकंदो रे ॥ ॥ सिण ॥६॥ इहां मोक्ष गया के कोटी रे॥श्रा॥अमने पण आशा मोटी रे॥ श्रा०॥श्रमासंवेगे जरीयो रे ॥श्रा॥में मोटो दरियो तरीयो रे॥ आ॥सि॥॥ श्रझा विण कुण इहां आवे रे ॥ अ०॥लघु जलमां केम ते नावे रे ॥ श्रा॥तेणे हाथ हवे प्रनु जालो रे॥॥शुजवीरने हश्डे वाहालो रे॥ ॥सिमाज॥ काव्यं ॥ गिरिवरं ॥१॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ॐ श्री श्री परम ॥ इति नवमानिषेके उत्तरपूजा समाप्ता ॥ गाथा ॥ ७ ॥ ॥ अथ दशम पूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा॥ ॥ कदंब गणधर कोमिझुं, वली संप्रति जिनराज॥ थावच्चा तस गणधरु, सहस\ सिमां काज ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत नवाणुंप्रकारी पूजा. २६७ ॥ ढाल ॥ धन्य धन्य जिनवाणी ॥ ए देशी॥ ॥ एम केश सिद्धि वस्या मुनिराया, नामश्री निर्मल काया रे॥ए तीरथ तारु॥जाली मयाली ने उवयाली, सिझा अनशन पाली रे ॥ ए० ॥१॥ देवकी षट् नंदन यहां सिझा, श्रातम उज्ज्वल कीधा रे ॥ ए० ॥ उज्ज्वल गिरि महापद्म प्रमाणो, विश्वानंद वखाणो रे ॥ ए० ॥२॥ विजयन ने इंस प्रकाशो, कहीए कपर्दी वासो रे॥ए॥मुक्ति निकेतन केवलदायक, चर्चगिरि गुणलायक रे॥ए॥३॥ ए नामे जय सघला नासे, जयकमला घर वासे रे ॥ ए० ॥ शुक राजा निज राज्यविलासी, ध्यान धरे षट् मासी रे ॥ ए॥४॥ अव्यसेवनथी साजा ताजा, जेम कूकडो चंद राजा रे ॥ ए० ॥ ध्याता ध्येय ध्यानपद एके, जावधी शिवफल टेके रे ॥ए ॥५॥ मालने ठंमी ब्रह्मने वलगो, जाण न थाये श्रलगो रे ॥ ए० ॥ मूल ऊर्ध्व अध शाखा चारे, बंदपुराणे विचारे रे ॥ ए० ॥६॥ इञ्जिय मालां विषय प्रवालां, जाणंता पण बाला रे ॥ ए० ॥अनुनव अमृताननी धारा, जिनशासन जयकारा रे ॥ ए॥७॥ चार दोष किरिया बंमाणी, योगा Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. वंचक प्राणी रे ॥ए॥ गिरिवर दर्शन फरसन योगे, संवेदनने वियोगे रे ॥ ए॥॥ निर्जरतो गुणश्रेणे चमतो, ध्यानांतर जर अडतोरे॥ए॥श्रीशुलवीर वसे सुख मोजे, शिवसुंदरीनी सेजे रे॥ए॥ए॥ ॥ काव्यं ॥ गिरिवरं ॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ दी श्री परम ॥ इति दशमाजिषेके उत्तरपूजा समाप्ता ॥ सर्व गाथा ॥ ए० ॥ ॥ अथ एकादश पूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ शत्रुजय गिरिमंमणो, मरुदेवानो नंद ॥ युगलाधर्म निवारको, नमो युगादि जिणंद ॥१॥ ॥ ढाल ॥वीरकुंवरनी वातडी केने कहीए॥ए देशी॥ तीरथनी आशातना, नवि करीए॥नवि करीए रे नवि करीए, धूप ध्यानघटा अनुसरीए, तरीए संसार ॥ तीरथ ॥१॥ ए आंकणी॥ आशातना करतां थकां धनहाणी ॥ नूख्यां न मले अन्न पाणी, काया वली रोगे जराणी, आ जवमा एम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरविजयजीकृत नवाएंप्रकारी पूजा. श्६ए ॥ती० ॥२॥ परजव परमाधामीने, वश पमशे ॥ वैतरणी नदीमा जलशे, अग्निने कुंडे बलशे, नहीं शरणुं को ॥ती॥३॥पूरव नवाणुं नाथजी, यहां आव्या ॥ साधु केश मोद सधाव्या, श्रावक पण सिकि सुहाव्या, जपतां गिरिनाम ॥ ती ॥४॥ अष्टोत्तरशतकूट ए, गिरिठामे ॥ सौंदर्य यशोधर नामे, प्रीतिमंडण कामुक कामे, वली सहजानंद ॥ ती० ॥५॥ महेंअध्वज सरवारथ, सिक कहीए ॥प्रियंकर नाम ए सहीए, गिरिशीतल गये रहीए, नित्य करीए ध्यान ॥ती॥६॥ पूजा नवाणुं प्रकारनी, एम कीजे ॥ नरजवनो लाहो लीजे, वली दान सुपात्रे दीजे, चढते परिणाम ॥ ती ॥७॥ सेवन फल संसारमां, करे लीला॥रमणी धन सुंदर बाला, शुजवीर विनोद विशाला, मंगल शिवमाल ॥ ती॥॥इति एकादशानिषेके उत्तरपूजा समाप्ता॥ ॥ अथ कलश ॥ धन्याश्रीरागण गीयते ॥ ॥गायो गायो रे विमलाचल तीरथ गायो, पर्वतमा जेम मेरु महीधर, मुनिमंमल जिनरायो॥तरुगणमा जेम कल्पतरुवर, तेम ए तीर्थ सवायो रे ॥ वि०॥१॥ यात्रा नवाणुं शहां अमे कीधी, रंग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. तरंग जरायो॥ तीरथगुण मक्ताफल माला. संघने कंठे उवायो रे ॥ वि० ॥२॥ शेठ हेमालाइ हुकम लहीने, पालीताणा शिर गयो । मोतीचंद मलुकचंदराज्ये ॥ संघ सकल हरखायो रे ॥ वि० ॥३॥ तपगल सिंह सूरीसर केरा, सत्य विजय सत्य पायो॥ कपूर विजय गुरु खिमा विजय तस, जश विजयो मुनिरायो रे ॥ वि०॥४॥ श्रीशुनविजय सुगुरु सुपसाये, श्रुतचिंतामणि पायो ॥ विजयदेवेंज सूरीश्वर राज्ये, पूजा अधिकार रचायो रे ॥ वि०॥५॥पूजा नवाणुं प्रकारी रचावो, गावो ए गिरिरायो ॥ विधियोगे फल पूरण प्रगटे, तव दम्वाद हगयो रे॥ वि० ॥६॥वेद ४ वसु गज प्रचंड संवत्सर (१७७४), चैत्री पूनम दिन ध्यायो॥पंमित वीरविजय प्रजुध्याने, आतम आप उरायो रे ॥ वि० ॥७॥इति कलशः॥ ॥ काव्यं ॥ गिरिवरं॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परम ॥ ॥ इति पंडितश्रीवीरविजयजीकृत श्रीशजयमहिमागर्मित नवाणुंप्रकारी पूजा संपूर्णा ॥ सर्व गाथा॥१६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीविजयलक्ष्मीसूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. २७१ ॥अथ श्रीविजयलक्ष्मीसूरिकृत विंशति स्थानक तपःपूजा प्रारंनः॥ ॥ तत्र प्रथम श्रीअरिहंतपदपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा॥ ॥ श्रीशंखेश्वर पासजी, सकल जंतु हितकार ॥ प्रणमी पदयुग तेहना, स्तवनपूजा रचुं सार ॥१॥ बहुविध तप जप दाखीया, लोक लोकोत्तर सब ॥ वीश स्थानक सम को नहीं, सशुरु वदे पसल ॥२॥ अरिहंतादिक पद तणुं, कारण ए तप सत्य ॥ त्रिकयोगे प्रजु पूजीए, नावणुं जेहवी शक्त॥३॥ निर्मल पीठ त्रिकोपरि, स्थापी जिनवर वीश ॥ पूजोपकरण मेलवी, पूजीए विश्वावीश ॥४॥ एक एक पद वर्णव करी, पूजा पंच प्रकार ॥ श्रमविध एकवीश जाणीए, सेवो सत्तर उदार ॥५॥ सजल कलश श्रम जातिना, जिनाणा शिर धार ॥ पूजे स्थानक वीशने, तस नहीं छरित प्रचार ॥ ६ ॥ परम पंच परमेष्ठीमां, परमेश्वर नगवान् ॥चार निखेपे ध्याइए, नमो नमो जिनजाण ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ ढाल ॥ श्रादि जिणंद मया करो ॥ ए देशी ॥ ॥श्रीअरिहंतपद ध्याइए, चोत्रीश अतिशयवंता रे॥ पांत्रीश वाणी गुणे नस्या, बार गुणे गुणवंतारे ॥श्री० ॥१॥अमहिय सहसलक्षण देहे,अथसंख्य करे सेवा रे ॥ त्रिहुँ कालना जिन वांदवा, देव पंचम महादेवा रे ॥ श्री० ॥२॥ पंच कल्याणक वासरे, त्रिजुवन थाय उद्योत रे ॥ दोष अढार रहित प्रजु, तरण तारण जग पोत रे ॥श्री॥३॥ षट्काय गोकुल पालवा, महागोप कहेवाय रे ॥ दया पमह वजमाववा, महामाहण जगताय रे ॥ श्री० ॥४॥ नवोदधि पार पमामता, चोथो वर्ग देखावे रे ॥ नाव निर्यामक लावीयो, महासबवाह सोहावे रे ॥श्री॥५॥असंख्य प्रदेश निर्मल थया, बतीपर्याय अनंता रे ॥ नवनवा झेयनी वर्त्तना, अनंत अनंती जाणंता रे ॥ श्री०॥६॥पिंग पदस्थ रूपस्थमा, अव्य गुण पर्याये ध्याया रे॥देवपालादि सुखी थया, सौजाग्य लक्ष्मीपद पाया रे॥श्री०॥७॥ इति श्रीअरिहंतपदपूजा प्रथमा ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विजयलक्ष्मी सूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. १७३ ॥ अथ द्वितीय सि६पदपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ गुण अनंत निर्मल थया, सहज स्वरूप उजास ॥ अष्ट कर्ममल दय करी, जये सिद्ध नमो तास ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ गुणरसीया ॥ ए देशी ॥ ॥ श्री सिद्धपद आराधीए रे, कय कीधां यम कर्म रे ॥ शिव वसीया ॥ अरिहंते पण मानीया रे, सादि अनंत स्थिति शर्म रे ॥ शिव० ॥ १ ॥ गुण एकत्रीश परमातमा रे, तुरियदशा श्राखाद रे ॥ शिव० ॥ एवंनूतनये सिद्ध थया रे, गुणगणनो श्रह्लाद रे ॥ शिव० ॥ २ ॥ सुरगण सुख त्रिहुं कालनां रे, अनंत गुणां ते कीध रे ॥ शिव० ॥ अनंत वर्गे वर्गित कस्या रे, तोपण सुख समिध रे ॥ शिव० ॥ ३ ॥ बंध उदय उदीरणा रे, सत्ता कर्म अजाव रे ॥ शिव० ॥ ऊर्ध्व गति करे सिद्धजी रे, पूर्व प्रयोग सद्भाव रे ॥ शिव० ॥ ४ ॥ गति पारिणामिक नावथी रे, बंधन बेदन योग रे ॥ शिव० ॥ असंगक्रिया बले निर्मलो रे, सिद्धगतिनो उद्योग रे ॥ शिव० ॥ ५ ॥ पएसंतर फरसता रे, एक समयमां सिद्ध रे ॥ शिव० ॥ वि० १८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. चरम त्रिनाग विशेषथी रे, अवगाहन घन कीधरे ॥ शिव ॥६॥ सिफशिलानी उपरे रे, ज्योतिमां ज्योति निवास रे ॥ शिव० ॥ हस्तिपाल परे सेवतां रे, सौजाग्यलक्ष्मी प्रकाश रे ॥ शिव० ॥७॥ इति श्रीसिझपदपूजा द्वितीया ॥२॥ ॥ अथ तृतीय प्रवचनपदपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ जावामय उषधसमी, प्रवचन अमृतवृष्टि॥त्रिजुवनजीवने सुखकरी, जय जय प्रवचनदृष्टि ॥१॥ ॥ढाल॥में कीनो नहीं प्रजु बिन उरशुं राग॥ए देशी॥ ॥प्रवचनपदने सेवीए रे,जैन दर्शन संघरूप॥श्ररिहा पण नमे तीर्थने रे, समवसरणना नूप॥में कीनो सहि प्रवचनपदशुराग ॥प्रवचनपदशुंराग, में कीनो सहि ॥॥॥ए आंकणी॥प्रवचन नक्तिरागथी रे, थया संजव जिनराय॥सघलां धर्मकारज तणां रे, एहमां पुण्य समाय॥ में॥२॥पापक्षेत्र सात वारीए रे, पुण्यक्षेत्र सात गम॥सवा लाख जिनमंदिरां रे, जिनमंडित पुर ग्राम ॥में॥३॥सवा कोडि जिनबिंबने रे, जरावे संप्रति राय ॥ ज्ञाननंमार एकवीश कस्या रे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीविजयलक्ष्मीसूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. १७५ कुमर नरिंद शुज गय॥ में ॥ ४॥ यथोचित चतविद संघनी रे, जरतादिक परे नक्ति ॥अव्य नावथी आदरो रे, योग अवंचक शक्ति ॥ में ॥५॥ पदस्थ ध्याने करी आत्मने रे, तन्मय करण प्रकार ॥ सहजानंद विलासतां रे, सौलाग्यलक्ष्मी पद धार ॥ में ॥ ६ ॥ इति प्रवचनपदपूजा तृतीया ॥३॥ ॥ अथ चतुर्थ आचार्यपदपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ उत्रीश बत्रीशी गुणे, युगप्रधान मुणींद ॥ जिनमत परमत जाणता, नमो तेह सूरीद ॥१॥ ॥ ढाल ॥ आवो आवो रे सयण, जगवती सूत्रने सुणीए ॥ ए देशी ॥ ॥सरसती त्रिजुवनस्वामिनी देवी, सिरिदेवी यदाराया ॥मंत्रराज एपंच प्रस्थाने, सेवे नित्य सुखदाया॥ नवि तुमे वंदोरे,सूरीश्वर गडराया॥१॥ए आंकणी॥ त्रण कालना जिनवंदन होये,मंत्रराज समरणथी।युगप्रधान सम नावाचारज, पंचाचार चरणथी॥ ज० ॥ २॥पनिरूवादिक चौद गुणधारी, दांति प्रमुख दश धर्म ॥बार नावना नावित निजातम, ए त्रीशगुण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. वर्म ॥ ज० ॥ ३ ॥ आठ प्रमाद तजी उपदेशे, विकथा सात निवारे ॥ चार शिक्षा करी जन परिबोहे, चन अनुयोग संजारे ॥ ज० ॥ ४ ॥ बारसें बन्नं गुणे गुणवंता, सोहम जंबू महंता ॥ आयरिया दीठे ते दीग; स्वरूपसमाधि उसंता ॥ ज० ॥ ५ ॥ युगप्रधान सूरि वीश उदये, दोय हजार ने चार ॥ समयागम अनुजव अन्यासी, थाशे जगजन मनोहार ॥ ज० ॥ ६ ॥ ए पद सेवतो पुरुषोत्तम नृप, जिनवर पदवी लहीया ॥ सौभाग्यलक्ष्मी सूरि जावे जजत, नविक जीव गहगहीया ॥ ज० ॥ ७ ॥ इति श्राचार्य पदपूजा चतुर्थी ॥ ॥ अथ पंचम थविरपदपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ तजी पर परिणति रमणता, लदे निज जाव स्वरूप ॥ थिर करता जवि लोकने, जय जय थविर अनूप ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ तपशुं रंग लाग्यो । ए देशी ॥ ॥ पंचम पदने गाइए रे, जाव थविर अधिकार रे ॥ लौकिक मातपिता कह्यां रे, लोकोत्तर व्रत धार ॥ गुणीजन वंदो रे ॥ वंदो वंदो रे थविर महाराज, डुरित निकंदो रे ॥साए श्रांकण॥॥ संयमयोगे सीदता रे, बाल गिलाना दिं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीविजयलक्ष्मीसूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. १७७ साधु रे ॥ यथोचित सहाय देवे करी रे, टाले सर्व उपाधि ॥ गुण ॥२॥वीश वर्ष पर्यायथी रे, साठ वर्ष वय हुँत रे ॥ चोथा अंग उपर नण्या रे, श्रुत थविरा ए नणंत ॥ गुं०॥३॥ मेघ अश्मत्ता थिर कस्या रे, त्रिशलानंदन देव रे॥ पचास सहस साधु साधवी रे, संबंध कही कामदेव ॥गुण॥४॥गणांगे दश थविरा कह्या रे, रत्नत्रयना निधान रे॥ते श्हां प्रशस्त जावे ग्रह्या रे, अव्यादिक अनुमान ॥ गु० ॥ ५ तप श्रुत धीरज ध्यानथी रे,अव्य गुण पर्याय ज्ञाता रे॥खरूपरमण थविरा जला रे, नहीं पलितांकुर त्राता ॥ गुण ॥६॥ ए पद साधतो जावधी रे, पद्मोत्तर महाराय रे॥तीर्थंकरपदवी लही रे, सौनाग्यलक्ष्मी सुखदाय ॥ गुण ॥ ७ ॥ इति थविरपदपूजा पंचमी ॥५॥ ॥ अथ षष्ठ उपाध्यायपदपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ॥ बोध सूक्ष्म विणु जीवने, न होय तत्व प्रतीत॥ जणे जणावे सूत्रने, जय जय पाठक गीत ॥१॥ ॥ ढाल ॥ रसीयानी ॥ ॥ श्री उवद्याय बहुश्रुत नमो जावगुं, अंग उपांगना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जाण मुणींदा ॥जणे जणावे शिष्यने हित करी, करे नवपक्षव पहाण विनीता॥श्री॥१॥अर्थ सूत्र कहेवाना विनागथी, सूरीश्वर पाठक सार सोहंता॥जव त्रीजे अविनाशी सुख लहे, युवराज परे अणगार महंता॥श्री॥२॥चौद दोष जत्राथविनीत शिष्यने, करे पन्नर गुणवंत विदिता॥ग्रहण श्रासेवन शिक्षादानथी समय जाणे अनेकांतसुज्ञानी॥श्रीगा३॥श्रीवश्यक पचवीश शीखवे वांदणे, पचवीश क्रियानो त्याग विचारी ॥ पचवीश नावना नावे महाव्रती, शुन पचवीशी गुणराग सुधारी ॥ श्री० ॥४॥ पय जों दक्षिणावर्त शंख शोजीए, तेम नय नाव प्रमाण प्रवीणा॥हय गय वृषन पंचानन सारिखा, टाले परवादी अनिमान अदीना॥श्री॥५॥वासुदेव नरदेव सुरपति उपमा, रवि शशी मारीरूप दीपंता॥जंबू सीता नदी मेरु महीधरो, स्वयंजू उदधि रयण नूप जयंता ॥श्री॥६॥ए सोल उपमा बहुश्रुतने कही, उत्तराध्ययने रसाल जिएंदा ॥ महीपाल वाचकपद सेवतो, सौजाग्यलक्ष्मी सुविशाल सूरीदा ॥श्री० ॥७॥ इति उपाध्यायपदपूजा षष्ठी ॥६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विजयलक्ष्मी सूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. १७७ ॥ अथ सप्तम साधुपदपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ स्याद्वाद गुण परिणम्यो, रमता समता संग ॥ साधे शुद्धानंदता, नमो साधु शुभ रंग ॥ १॥ ॥ ढाल ॥ कर्मपरीक्षा करण कुमर चल्यो रे ॥ ए देशी ॥ ॥ मुनिवर तपसी कृषि श्रणगारजी रे, वाचंयम व्रती साध ॥ गुण सत्यावीशे जेह अलंकरया रे, विरमी सकल उपाध ॥ जवियण वंदो रे सातमुं पद जलं रे ॥ १ ॥ एकणी ॥ नवविध जावलोच करे संयमी रे, दशमो केशनो लोच ॥ गणत्रीश पासवा नेद बे रे, वारे तस नहीं जग शोच ॥ ज० ॥२॥ दोष समतालीश आदारना वारता रे, अतिक्रम न करे चार ॥ मुनिने अर्थे समारे मंदिरां रे, परिहरे एह आचार ॥ ज० ॥ ३ ॥ नरना दोष ढार निवारीने रे, दीक्षा शिक्षा दीए सार ॥ पुण्य पाप पुल हेयरूपता रे, सम जावे मुगति संसार ॥ ज० ॥ ४ ॥ सत्य हेतु जव अटवी मूकवा रे, फरस्युं बहु गुणठाण ॥ योग अध्यातम ग्रंथनी चिंतना रे, किरिया नाप पहाए ॥ ज० ॥ ५ ॥ पूरव व्रत विराधक योगथी रे, कूटलिंगीपएं थाय ॥ दंजजाल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जंजाल सवि परिहरे रे, चरण रसिक कदेवाय ॥ न॥६॥ कोमि सहस नव साधु संयमी रे, स्तवीए गीतारथ जेह ॥ वीरला परे तीर्थपति हुवे रे, सौजाग्यलक्ष्मी गुणगेह ॥ ज० ॥७॥ इति साधुपदपूजा सप्तमी ॥७॥ ॥ अथ अष्टम ज्ञानपदपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ अध्यातम झाने करी, विघटे नवज्रमजीति ॥ सत्य धर्म ते ज्ञान , नमो ज्ञाननी रीति ॥१॥ ॥ ढाल ॥धरणीक मुनिवर चाल्या गोचरी॥ए देशी॥ ॥ज्ञानपद जजीए रे,जगत् सुहंकरु,पांच एकावन्न नेदे रे॥सम्यग्ज्ञान जे जिनवर नाषीयुं,जमता जननी उछेदे रे॥हा॥१॥ए आंकणी ॥ नदाजद विवेचन परगडो, खीर नीर जेम हंसो रे ॥जाग अनंतमोरे अक्षरनो सदा, अप्रतिपाति प्रकाश्योरे॥झा०॥२॥ मनथी न जाणे रे कुंजकरण विधि, तेहथी कुंज केम थाशे रे ॥ ज्ञान दयाथी रे प्रथम नियमा, सदसनाव विकासे रे॥झा॥३॥ कंचननाएं रे लोचनवंत लहे, अंधोअंध पुलाय रे ॥ एकांतवादी रे तत्त्व पामे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीविजयलक्ष्मीसूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. २७१ नहीं, स्वाछाद रस समुदाय रे ॥ झा॥४॥ ज्ञान नया जरतादिक नव तस्या,झान सकल गुण मूल रे॥ ज्ञानी ज्ञान तणी परिणति थकी, पामे जवजल कूल रे॥ज्ञा॥५॥अटपागम ज उग्र विहार करे, विचरे उद्यमवंत रे ॥ उपदेशमालामा किरिया तेहनी, कायकलेश तस हुँत रे ॥ ज्ञा०॥६॥ जयंत नूपो रे झान आराधतो, तीर्थंकरपद पामे रे ॥ रवि शशी मेह परे ज्ञान अनंतगुणी, सौजाग्यलक्ष्मी हितकामे रे ॥ ज्ञा० ॥ ७ ॥ इति ज्ञानपदपूजाऽष्टमी ॥७॥ ॥अथ नवम सम्यक्त्वदर्शनपदपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ लोकालोकना जावजे, केवलिनाषित जेह॥सत्य करी अवधारतो, नमो नमो दर्शन तेह ॥१॥ ॥ढाल ॥नमो रे नमो श्रीशत्रुजय गिरिवर॥ए देशी। ॥श्रीदर्शनपद पामे प्राणी, दर्शनमोहनी पूररे॥ केवली दी ते मी माने,श्रका सकल गुण नूर रे॥ प्रजुजी सुखकर समकित दीजे॥द॥१॥ ए आंकणी॥ विघटे मिथ्या पुजल श्रातमथी, तेहज समकित वस्त रे॥ जिनप्रतिमादर्शन तस होवे, पामीने समकित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्य विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. दस्त रे ॥प्र॥२॥ दोविध दर्शन शास्त्रे जाख्यु, अव्य नाव अनुसार रे ॥जे निज नयणे धर्ममें जोवे, ते ऽव्य दर्शन धार रे॥प्र० ॥३॥ जिनवंदन पूजन नमनादिक, धर्मबीज निरधार रे॥योगदृष्टिसमुच्चय मांहे, एह कह्यो अधिकार रे ॥ प्र०॥४॥ यद्यपि अबल अडे तोही पण, आयति हितकर सोय रे ॥ सिनव परे एहथी पामे, नाव दर्शन पण कोय रे॥प्र०॥५॥समकित सकल धरमनोआश्रय,एहनां खटुं उपमान रे॥चारित्र नाण नहीं विण समकित, उत्तराध्ययन वखाण रे॥ प्र॥६॥दर्शन विण किरिया नवि लेखे, बिंड यथा विण अंक रे॥दश माहे नव अंक अनेद, तेम कुसंगे निकलंक रे॥प्र॥७॥ अंतर्मुहूर्त पण जे जीवे, पाम्युं दर्शन साररे॥अर्धा पुजलपरियट मांहे, निश्चय तस संसार रे ॥प्रण ॥॥गत समकित पूरव बकायुष, दो विनु समकितवंत रे॥ विण वैमानिक श्रायु न बांधे, विशेषावश्यक कहंत रे॥प्र०॥ए॥नेद अनेक ले दर्शन केरा, समसह नेद उदार रे ॥ सेवतो हरिविक्रम जिन थाये, सौजाग्यलक्ष्मी विस्तार रे ॥प्र० ॥१०॥ इति सम्यक्त्वदर्शनपदपूजा नवमी ॥ ए॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीविजयलक्ष्मीसूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. १७३ ॥अथ दशम विनयपदपूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ ॥ शौचमूलथी महा गुणी, सर्व धर्मनो सार ॥ गुण अनंतनो कंद ए, नमो विनय आचार ॥१॥ ॥ ढाल ॥ माला किहां रे ॥ ए देशी ॥ ॥ विनयपद दशमुं परकाश्युं, पंच नेद सामान्ये रे॥दशविह तेर प्रकारे जाणो, बावन नेद विधाने रे॥ विनयपद सेवो रे॥अरिहंता जिहां मुख्य ॥वि॥॥ए आंकणी॥गसउनेद सिद्धांते गाया, सघला गुणनो थाधार रे॥शम दमादिक गुण सवि साचा, राच्याजे विनय विचार रे॥वि०॥२॥अरिहादिकनो जाव प्र. शस्ते, विधिए विनय करंतो रे॥आहारी पण उपवास तणुं फल,निरंतर अनुसरतो रे॥वि॥३॥दोय हजार ने बोल चिहुँत्तर, देववंदन विधि डारो रे ॥चारसें बाएं बोल विचारी, गुरुवंदन अवधारो रे॥ वि०॥४॥ गुरुविनये रत्नत्रय पामे, संवर तप निऊरणा रे ॥कर्मक्षये केवल गुण तेहथी, मोद अनंत सुख वरणारे॥ वि० ॥५॥ पांच वंदनमां नाववंदन ते, उपयोगे शुज लहीए रे॥अरिहादिकनो विनय जावतो, चेतन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. तप कहीए रे ॥ वि०॥६॥ अव्य नाव दोय नय विशुद्धो, धन्नो ए पद सेवंतो रे ॥ श्रझा जासन तत्वरमण लही, सौनाग्यलक्ष्मी दीपंतो रे ॥ वि० ॥७॥ इति विनयपदपूजा दशमी ॥ १० ॥ ॥ अथ एकादश चारित्रपदपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा॥ ॥ रत्नत्रय विणु साधना, निष्फल कही सदीव ॥ नावरयणनुं निधान डे, जय जय संयम जीव ॥१॥ ॥ ढाल ॥ अजित जिणंदशुं प्रीतमी ॥ ए देशी ॥ ॥ चारित्रपद शुज चित्त वस्युं, जेह सघलाहो नयनो उझार ॥ पाठ करम चय रिक्त करे, निरुत्ते हो चारित्र उदार ॥चा॥१॥ए आंकणी॥ चारित्रमोद अनावथी, देश संयम हो सर्व संयम थाय ॥श्राप कषाय मिटावीने,देश विरति होमनमांठहराय॥चानाशाबार कषाय मनथी मटे, सर्व विरति हो प्रगटे गुणराशि॥ देशश्री सर्व संयम विषे,अनंतगुणी हो विशुझिसमास ॥ चा० ॥३॥ संयमगुणगण फरस्या विना, तत्वरमणता हो केम नाम कहेवाय॥गज पाखर खर नहीं वहे, एहनी गुरुता हो आतममा समाय ॥ चा॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीविजयलक्ष्मीसूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. २७५ वर्ष संयमना पर्यायमां, अनुत्तरनां हो सुख अतिक्रम होय ॥शुक्ल शुक्ल परिणामयी,संयमथी हो क्षणमा सिकि जोय ॥ चा ॥५॥ सर्व संवर चारित्र लही, पामे अरिदा हो सहि मुक्तिनुं राज ॥ अनंतर कारण चरण डे, शिवपदनु हो निश्चय मुनिराज ॥ चा० ॥६॥ सत्तर नेद संयम तणा, चरण सित्तरी हो कही आगम मांहि ॥ वरुणदेव जिनवर थयो, विजयलक्ष्मी हो प्रगटे उत्साही ॥ चा० ॥ ॥ इति चारित्रपदपूजा एकादशी ॥११॥ ॥ अथ घादश ब्रह्मचर्यपदपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा॥ ॥ जिनप्रतिमा जिनमंदिरां, कंचननां करे जेह॥ ब्रह्मवतथी बहु फल लहे,नमो नमो शीयल सुदेह ॥१॥ ॥ ढाल ॥ क्युं जाणुं क्युं बनी श्रावही ॥ ए देशी ॥ ॥ब्रह्मचर्यपद पूजीए, व्रतमा मुकुट समान हो विनीत ॥ शीयल सुरतरु राखवा, कही नव वाम नगवान् हो विनीत ॥ नमो नमो बंनवयधारिणं ॥१॥ए आंकणी ॥कृत कारित अनुमति तजे,दिव्य औदारिक काम हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. विनीत ॥ त्रिकरण योगे ए परिहरे, नेद अढार गुणधाम हो विनीत ॥ना॥ दशअवस्था कामनी,त्रेवीश विषय हरंत हो विनीत ॥ अढार सहस शीलांगरथे, बेग मुनि विचरंत हो विनीत ॥न॥३॥ऽव्यथी चार दारा तजे, नावे परपरिणति त्याग हो विनीत॥दश समाहि गण सेवतां, त्रीश अबंज नाम याग हो विनीत॥न०॥४॥ दीए दान सोवन कोमिनु, कंचनचैत्य कराय हो विनीत ॥ तेहथी ब्रह्मवत धारतां, अगणित पुण्य समुदाय हो विनीत ॥ नमो० ॥५॥ चोराशी सहस मुनिदानवें, गृहस्थ नक्ति फल जोय हो विनीत ॥ क्रिया गुणगणे मुनि वमा, जाव तुल्य नहीं कोय हो विनीत ॥न॥६॥दशमे अंगे वखाणीयो, चंडवर्मा नरिंद हो विनीत ॥ तेम आराधी प्रजुता वस्यो, सौलाग्यलदमी सूरींद हो विनीत ॥ न० ॥॥ इति ब्रह्मचर्यपदपूजा छादशी ॥१५॥ ॥ अथ त्रयोदश क्रियापदपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ आत्मबोध विण जे क्रिया, ते तो बालकचाल॥ तत्त्वारथथी धारीए, नमो क्रिया सुविशाल ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीविजयलक्ष्मीसूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. ७ ॥ ढाल॥सुण बहेनी पियुमो परदेशी ॥ए देशी ॥ ॥ध्यानक्रिया मनमां श्राणीजे, धर्म शुकल ध्यायीजे रे॥ आर्त रौजना कारण किरिया, पंचवीशने वारीजे रे ॥ ध्यानक्रिया जजो निशिदिन प्राणी ॥१॥ए आंकणी॥कंचनकांति परमेष्ठिरूपे, लोकालोक प्रमाण रे॥सर्व शांतिकर जाल ठेकाणे, ध्यावो प्रणव गुणखाण रे ॥ ध्या० ॥२॥ तेर क्रियागण तेर काठिया तजी, करणसित्तरी जीए रे ॥ योग अमदिहि सम्यक्त्वकिरिया, श्रातम सुखकर जजीए रे॥ध्या॥३॥ पहेली चल दिहि ज्ञानाधारे, रत्नत्रयाधारे चार रे॥श्रड कर्म ये उपशमे विचित्रा, उघदृष्टि बहु प्रकार रे॥ध्या ॥४॥विष गरल हीनादिक वारो, तहेतु अमृत धारो रे॥प्रीति नक्ति वचन असंगे, शुज परिणति सुधारो रे॥ध्या॥५॥ अंतरतत्त्व विषय प्रतीते, ए ज्ञानकिरिया साची रे॥अक्रियावादी कृष्णपदी, शुक्ल पदी किरियावाची रे॥ध्या॥६॥अशुल ध्यानगण त्रेसठ वारी, ध्यान शतक मन धारी रे॥हरिवाहन तीर्थकर हुर्ड, सौजाग्यलक्ष्मी दिल धारी रे ॥ध्या ॥७॥इति क्रियापदपूजा त्रयोदशी ॥ १३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ अथ चतुर्दश तपःपदपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ कर्म तपावे चीकणां, नाव मंगल तप जाण ॥ पचास लब्धि उपजे, जय जय तप गुणखाण ॥१॥ ॥ ढाल ॥ अलगी रहेने, रहेने, रहेने, रहेने, अलगी रहेने ॥ ए देशी ॥ - ॥ तपपदने पूजीजे हो प्राणी, तपपदने पूजीजे ॥ ए आंकणी ॥ सर्व मंगलमा पहेढुं मंगल, निकाचित टाले ॥ क्षमा सहित जे श्राहार निरीहता, श्रातमझकि नीहाले हो प्राणी ॥ तप० ॥१॥ ते जव मुक्ति जाणे जिनवर, त्रण चल ज्ञाने नियमा ॥ तोये तप आचरण न मूके, अनंत गुणो तपमदिमा हो प्राणी ॥ तप० ॥२॥ पीठ अने महापीठ मुनीश्वर, पूरव जव मति जिननो ॥ साधवी लखमणा तप नवि फलीयु, दंन गयो नहीं मननो हो प्राणी ॥ तप० ॥३॥ अग्यार लाख ने एंशी हजार, पांचसें पांच दिन ऊणा ॥ नंदन शषिए मासखमण करी, कीधां काम संपून्नां हो प्राणी ॥ तप० ॥४॥ तप तपीया गुणरत्न संवत्सर, खंधक दमाना दरिया ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीविजयलक्ष्मीसूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. चौद हजार साधुमां अधिका, धन्ना तपगुण जरीया हो प्राणी ॥ तप० ॥५॥ षड़ नेद बाहेर तपना प्रकाश्या, अन्यंतर षडू नेद ॥ बार नेदे तप तपतां निर्मल, सफले अनेक उमेद हो प्राणी ॥ तप॥६॥ कनककेतु एद पदने श्राराधी, साधी श्रातम काज तीर्थंकरपद अनुनव उत्तम, सौजाग्यलदमी महाराज हो प्राणी ॥ तप० ॥ ॥ इति तपःपदपूजा चतुर्दशी ॥ १४ ॥ ॥ अथ पंचदश गोयमपदपूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा॥ ॥ बह तप करे पारj, चउनाणी गुणधाम ॥ए सम शुज पात्र को नहीं, नमो नमो गोयम स्वाम॥१॥ ॥ ढाल ॥ दादाजी मोहे दर्शन दीजे हो ॥ ए देशी॥ ॥दान सुपात्रे दीजे हो नविया,दान सुपात्रे दीजे॥ए यांकणी॥लब्धि अठ्यावीश ज्ञानी गोयम, उत्तम पात्र कहीजे हो ॥ नम्॥१॥महर्त्तमांचौद प्ररव रचीयां. त्रिपदी वीरथी पामी॥चौदसैं बावन गणधरवांद्या, ए पद अंतरजामी हो ॥०॥२॥गणेश गणपति महामंगल पद, गोयम विण नवि जो ॥ सहस्र कमलदल वि० १९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Iur विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. सोवन पंकज, बेठा सुर नर पूजो हो ॥ ज० ॥ ३॥ क्षीणमोदी मुनि रत्नपात्र सम, बीजा कंचन सम पात्र ॥ रजतना श्रावक समकित वा अविरति लोह मट्टी पत्ता हो ॥ ज० ॥ ४ ॥ मिथ्यात्वी सहस्थी एक अणुव्रती, अणुव्रती सहस्सथी साधु ॥ साधु सहस्रथी गणधर जिनवर, अधिका टाले उपाधि हो ॥ ज० ॥ ५ ॥ पांच दान दश दानमां मोटां, अजय सुपात्र विदिता ॥ एहथी हरिवाहन दुर्ज जिनवर, सौभाग्यलक्ष्मी गुणगीता हो ॥ ज० ॥ ६ ॥ इति गोयमपदपूजा पंचदशी ॥ १५ ॥ ॥ अथ षोमश जिनपदपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ दोष ढारे कय गया, उपना गुण जस अंग ॥ वैयावच्च करीए मुदा, नमो नमो जिनपद संग ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ चौद लोकके पार कहावे ॥ ए देशी ॥ ॥ जिनपद जगमां जांचं जाणो, खरूपरमण सुविलासी ॥ सोल कषाय जीते ते जिनजी, गुणगण अनंत उजासी ॥ जिनपद जपीए, जिनपद नजीए, जिनपद श्रति सुखदायी ॥ १ ॥ ए श्रांकणी ॥ श्रुत हि मनः For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विजयलक्ष्मी सूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. २०१ पर्यव जिनजी, बनमा वीतरागी ॥ केवली जिनने वचन अगोचर, महिमा जिन वरुनागी ॥ जि० ॥ २ ॥ जिनवर सूरि वाचक साधु, बाल थविर गिलाणी ॥ तपसी चैत्य श्रमण संघ केरी, वैयावच्च गुणखाणी ॥ जि० ॥ ३ ॥ गुणिजन दशनो वैयावच्च कीजे, सहुमां जिन वर मुख्य ॥ वैयावच्च गुण अप्पमिवाई, जिनश्रागम दित शिख्य ॥ जि० ॥ ४ ॥ नीच गोत्र बांधे नहीं कबहुँ, करे उंच गोत्रनो बंध | गाढ कर्मबंध शिथिल होवे, उत्तराध्ययने प्रबंध || जि० ॥ ५ ॥ मनशुद्धे ए पदने आराधी, जिभूतकेतु जिन होवे ॥ विजय सौभाग्यलक्ष्मी सूरि संपद्, परमानंद पद जोवे ॥ जि० ॥ ६ ॥ इति जिनपदपूजा षोकशी ॥ १६ ॥ ॥ अथ सप्तदश संयमपदपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ शुद्धतमगुण में रमे, तजी इंद्रिय श्राशंस ॥ थिर समाधि संतोषमां, जय जय संयमवंश ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ कुंवर गंजारो नजरे देखतांजी ॥ ए देशी ॥ ॥ समाधिगुणमय चारित्रपद जलुंजी, सत्तरमुं सुखकार रे॥वीश समाधिदोष निवारीनेजी, उपन्यो गुण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रएर विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. संतोष श्रीकार रे॥नमो नमो संयमपदने मुनिवराजी ॥१॥ए शांकणी॥अनुकंपा दीनादिकनी जे करेजी, ते कहीए व्यसमाधि रे॥सारणादिक कही धर्म मांदे स्थिर करेजी, ते लहीए नावसमाधि रे॥नमो॥२॥ व्रत श्रावकनांबार नेदे कह्यांजी, मुनिनां महाव्रत पंच रे॥ सत्तर एजव्य नावथी जाणीनेजी, यथोचित करे संयमसंच रे ॥ नमो ॥३॥ चार निदेपे सात नये करीजी,कारण पांच संजाररे॥त्रिपदी साते नांगे करी धारीएजी, शेयादिक त्रिक अवधार रे ॥ नमो॥४॥ चार प्रमाणे षड्व्ये करीजी,नव तत्त्वे दिल लाव रे॥ सामायिक नव छारे विचारीएजी, एम षट् श्रावश्यकनाव रे ॥ नमो ॥५॥चार सामायिक आगममां कह्यांजी, सर्व विरति अविरुफ रे ॥ पांच नेद बे संयम धर्मनाजी, निर्मल परिणामे सवि शुधरे ॥ नमो० ॥ ६॥ समाधिवर गणधरजी जाचीयोजी, चोवीश जिनने करी प्रणाम रे ॥ पुरंदर तीर्थकर थयो एहथीजी, सौजाग्यलदमी गुणधाम रे॥नमो० ॥७॥ इति संयममपदपूजा सप्तदशी ॥ १७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीविजयलक्ष्मीसूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. २९३ ॥अथअष्टादश अनिनवज्ञानपदपूजाप्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ ज्ञानवृक्ष सेवो नविक, चारित्र समकित मूल॥ अजर अगम पद फल लहो, जिनवर पदवी फूल ॥१॥ ॥ ढाल ॥ कोश्लो पर्वत धुंधलो रे लाल ॥ ए देशी ॥ ॥अनिनवज्ञान गणो मुदा रे लाल, मूकी प्रमाद विनाव रे॥हुंवारी लाल ॥ बुद्धिना श्राप गुण धारीए रे लाल, श्राप दोषनो अनाव रे ॥ हुँ वारी लाल ॥ प्रणमो पद अढारमुंरे लाल ॥१॥ए आंकणी॥देशाराधक किरिया कही रे लाल, सर्वाराधक ज्ञान रे॥ हुँ॥ मुहर्तादिक किरिया करे रे लाल,निरंतर अनुजवज्ञान रे॥हुँ॥प्र॥२॥ज्ञान रहित किरिया करे रे लाल, किरिया रहित जे ज्ञान रे ॥ हुँ ॥ अंतर खजुश्रा रवि जिस्यो रे लाल, षोमशकनी ए वाण रे ॥ ९ ॥ प्र०॥३॥बह अहमादि तपे करी रे लाल, अज्ञानी जे शुद्ध रे ॥ हुँ०॥ तेहथी अनंतगुणशुकतारे लाल, झानी प्रगटपणे लक रे ॥ हुं॥॥४॥राचे न जूठ किरिया करी रे लाल, ज्ञानवंत जुवो युक्ति रे ॥ हुं०॥जूठ साच बातमझानथी रे लाल, परखे निज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शएत विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. निज व्यक्ति रे॥९॥०॥५॥पांचनेद ज्ञानना रे लाल, तेह आराधे जेह रे॥ हुं ॥सागरचंड परे प्रजु हुवे रे लाल, सौजाग्यलक्ष्मी गुणगेह रे ॥ हुं० ॥प्र॥६॥इति अजिनवज्ञानपूजाऽष्टादशी ॥१७॥ ॥अथ एकोनविंशति श्रुतपदपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ वक्ता श्रोता योग्यथी, श्रुत अनुनवरस पीन ॥ ध्याता ध्येयनी एकता, जय जय श्रुतसुख लीन ॥१॥ ॥ ढाल ॥ अविनाशीनी सेजमीए रंग, लागो मोरी ___ सजनीजी ॥ए देशी ॥ ॥ श्रुतपद नमीए नावे नविया, श्रुतडे जगत्वाधारजी॥ःसम रजनी समये साचो,श्रुतदीपकव्यवहार ॥ श्रुतपद नमीएजी॥१॥ए शांकणी ॥बत्रीश दोष रहित प्रजुआगम,आठ गुणे करी जरीयुंजी॥अर्थथी अरिहंतजीए प्रकाश्यु, सूत्रथी गणधर रचीयुं॥श्रुण ॥२॥गणधर प्रत्येकबुझे गुंथ्यु,श्रुतकेवलीदश पूर्वीजी। सूत्र राजा सम अर्थ प्रधान, अनुयोग चारनी ऊर्वी ॥ श्रु०॥३॥ जेटला अक्षर श्रुतना जपावे, तेटलां वर्ष हजारजी ॥ स्वर्गनां सुख अनंतां विखसे, पामे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीविजयलदमीसूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. श्एए जवजलपार ॥ श्रु० ॥ ४ ॥ केवलथी वाचकता माटे, ने सुथनाण समबजी ॥ श्रुतज्ञनी श्रुतझाने जाणे, केवली जेम पसब ॥ श्रु॥५॥ काल विनय प्रमुख ने अमविध, सूत्रे ज्ञानाचारजी ॥ श्रुतज्ञानीनो विनय न सेवे, तो थाये अतिचार ॥श्रु०॥६॥चउद नेदे श्रुत वीश नेदे , सूत्र पीस्तालीश नेदेजी ॥ रत्नचूड आराधतो थरिहा, सौजग्यलक्ष्मी सुख वेदे॥ श्रु०॥ ७॥ इति श्रुतपदपूजा एकोनविंशतिः॥ १५॥ ॥ अथ विंशति तीर्थपदपूजा प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ तीरथयात्र प्रनाव , शासनउन्नति काज ॥ परमानंद विलासतां, जय जय तीर्थजहाज ॥१॥ ॥ ढाल ॥ गिरुथा रे गुण तुम तणा ॥ ए देशी ॥ ॥ श्री तीरथपद पूजो गुणिजन, जेहवी तरीए ते तीरथ रे ॥ अरिहंत गणधर नियमा तीरथ, चउविह संघ महातीरथ रे ॥ श्री० ॥ १॥ ए श्रांकणी ॥सौकिक अडसठ तीर्थने तजीए, लोकोत्तरने जजीए रे॥ लोकोत्तर अव्य नाव उनेदे, थावर जंगम जजीए रे ॥श्री॥२॥ पुंमरीकादिक पांचे तीरथ, चैत्यना पांच Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. प्रकार रे ॥ थावर तीरथ एह जणीजे, तीर्थयात्रा मनोहार रे॥श्री०॥३॥ विहरमान वीश जंगम तीरथ, बे कोमि केवली साथ रे ॥ विचरंता फुःख दोहग टाले, जंगम तीरथनाथ रे॥ श्री० ॥४॥संघ चतुर्विध जंगम तीरथ, शासनने शोजावे रे॥ अमतालीश गुणे गुणवंता,तीर्थपति नमे नावे रे ॥श्री०॥५॥तीरथपद ध्यावो गुण गावो, पंचरंगी रयणने लावो रे ॥ थाल नरी नरी तीर्थ वधावो, गुण अनंत दिल लावो रे॥ श्री०॥६॥मेरुप्रन परमेश्वर हुर्ड, एह तीरथने प्रनावे रे ॥ विजयसौनाग्यलदमी सूरि संपद, परम महो. दय पावे रे॥श्री० ॥७॥इति तीर्थपदपूजा विंशतिः॥ ॥ढाल ॥ ॥घणुंजीव तुंजीव,जिनराज जीवो घणुं॥ए देशी॥ ॥ घणुं पूज तुं पूज, थानकपद पूज तुं, सम्यग् जाव गुण, चित्त आणी ॥ जिनवरपद तणुं, हेतु जे ए नहुँ, को नहीं एहसमुं,समयवाणी ॥घj॥१॥ए आंकणी ॥वीश वीश वस्तु,मेलवी करी उजवो, नरजव पामीने, लाहो लीजे॥तपफल वाधशे,उजमणा थकी, जिनवर गणधर, एम वदीजे॥ घणुंग॥२॥ खंनायत बंदिरे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीविजयलक्ष्मीसूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. श्ए सुंदर नावीया, श्रावक श्राविका, पुण्यवंता ॥ वीश थानक तणी, जक्ति करे जावधी, शासनउन्नति, अति करंता ॥ घj०॥३॥ तास तणे आग्रहे, स्तवन पूजा रची, शुरू करो श्रुतधरा, पुण्य जाणी॥ विजयआनंद गणि, विजयसौजाग्य सूरि,विजयलक्ष्मी सूरि, जैन वाणी ॥ घणुं ॥४॥ इति ढाल समाप्ता ॥ ॥ कलश ॥ ॥ एम वीश थानक, तवन कुसुमे, पूजीयो शंखेश्वरो ॥ संवत् समिति, वेद, वसु, शशी, (१७४५); विजयदशमी मन धरो ॥ तपगल विजयानंद पटधर, श्रीविजयसौनाग्य, सूरीश्वरो॥श्रीविजयलक्ष्मी, सूरि पजणे, सयल संघ मंगल करो ॥१॥ ॥इति श्रीविजयलक्ष्मीसूरिकृता विंशति स्थानकपदपूजा समाप्ता ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एत विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥अथ ॥ ॥श्रीनंदीश्वरवीपपूजा प्रारंजः॥ ॥ अथ प्रथम पूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ ॥प्रणमुं शांति जिणंदने, चउद रयणपति जेह ॥ कंचनवणे सोहता, लक्षण लक्षित देह ॥१॥ सुरगिरि अष्टापद गिरि, गिरनार बाबू तेम ॥ समेतशिखर ए पांचमो, वंषु बहु धरी प्रेम ॥२॥समरी शारद मातने, रचुं पूजा हुँ रसाल ॥ जेम सुणतां नवि प्राणीने, हर्ष वधे तत्काल ॥३॥ विस्तीर्ण जिनजुवनमां, रची नंदीश्वर छीप ॥ तदनंतर प्रजु थापीने, करो अनिषेक प्रदीप॥४॥ एकादश अनिषेक श्हां, सामान्ये धरो चित्त ॥ आउ अधिक शत तो करो, होय विशेष प्रीत ॥५॥ सकल सामग्री मेलवी, श्रद्धावंत नर नार ॥ जल कलशा निज कर धरो, पामवा नवजलपार ॥६॥ रही सम श्रेणी बिहुं दिशे, वाजते मंगल तूर ॥ पूजा प्रजुनी जणावीए, करवा अघ चकचूर ॥७॥ ॥ ढाल पदेली॥ ॥ अने हारे वालो वसे विमलाचले रे॥एदेशी ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर्मचंद्रजीकृत नंदीश्वरद्वीपपूजा. IUU ॥ छाने हांरे शासननायक जगविनु रे, स्याद्वादना जाणहार, ज्ञान वडो गुण प्रभु कहे रे ॥ श्री त्रिशला - नंदन वीर ॥ ज्ञा० ॥ ० ॥ पांच प्रकारे ते ज्ञान बे रे, मति श्रुत अवधि श्रीकार ॥ ज्ञा० ॥ १ ॥ श्र० ॥ मनः पर्यव केवल जलुं रे, जे प्रगटे दुःख नहीं कोय ॥ ज्ञा० ॥ श्र० ॥ ऊर्ध्व श्रधो तिर्छा लोकनुं रे, जे निश्चे ज्ञानयी होय ॥ ज्ञा० ॥२॥ ० ॥ सुरलोक गेवि श्रणुत्तरे रे, जिनप्रतिमा पूजे जे देव ॥ ज्ञा०॥ ० ॥ जाणे ते केवलज्ञानथी रे ॥ ऊर्ध्व लोके रह्या सिद्धदेव ॥ ज्ञा० ॥ ३ ॥ ० ॥ भुवनपति अधोलोकमां रे, प्रजुनी करे नक्ति रसाल ॥ ज्ञा० ॥ श्र० ॥ तिर्खा लोके व्यंतर ज्योतिषी रे, जिनपूजा करे त्रण काल ॥ ज्ञा० ॥ ४ ॥ ० ॥ जंबू धातकी खंगमां रे, पुष्करार्द्ध द्वीप मोकार ॥ ज्ञाणाश्रणा करी न करी प्रतिमा तपी रे, करे पूजा सुर नर नार ॥ ज्ञा० ॥ ५॥ श्र०॥ दश देत्रे दश चोविशी रे, पांच विदेहे वीश विहरमान ॥ ज्ञा० ॥ श्र० ॥ ते प्रजुनी वाणी सुणे रे, जवि पामवा निश्चय ज्ञान ॥ ज्ञा० ॥ ६ ॥ श्र० ॥ ते माटे श्रावक जावशुं रे, प्रभु पूजो थइ उजमाल ॥ज्ञा०॥०॥ कहे धर्मचंद्र जिनध्यानश्री रे, लड़े केवलज्ञान विशाल ॥ झा० ॥ ॥ इति श्री प्रथम ढाल समाप्ता ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ___ स्तुतिः॥ काव्यं ॥ शार्दूल विक्री मितवृत्तम् ॥ स्नातस्याऽप्रतिमस्य मेरुशिखरे, शच्या विनोःशैशवे॥ रूपालोकन विस्मयाहृतरस, ब्रांत्या चमच्चकुषा॥उन्मृ. टं नयनप्रजाधवलितं, हीरोदकाशंकया ॥ वक्त्रं यस्य पुनः पुनः स जयति,श्रीवर्डमानो जिनः॥१॥ए काव्य प्रत्येक पूजा दी कहे,अने त्यारपती कलश ढोलवा. ॥दोहा॥ ॥सहु प्रजुने कल्याणके, चलितासन हरि होय॥ श्रावी जे उत्सव करी, जाय नंदीसर सोय ॥१॥ एक गिरिनिश्राए कह्या, गिरि दधिमुख जे चार ॥ गिरि रतिकर अम जाणवा, चैत्य तेर सुविचार॥२॥ एम चजादाशनां मेलव्या, बावन चत्य ते होय ॥ बिंब उ सहस्स चारसें, अमतालीशने जोय ॥३॥ हरि आदे सुर बहु मली, मुक्ताफल बेश हाथ ॥ हर्षे वधावे नाथने, जाचे अनंती आथ ॥ ४ ॥ पूर्व दिशे अंजनगिरे, सोहमख मनरंग ॥आवी तिहां उत्सव करे, तजवा चगति संग ॥५॥ ॥ढाल बीजी॥ ॥ नरतने पाटे नूपति रे ॥ ए देशी॥ ॥ हवे नंदीसरछीपनी रे, देखी रचना सार॥ सलूणा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर्मचंद्रजीकृत नंदीश्वरछीपपूजा. ३०१ ॥सुरमनमधुकर जश्वस्या रे, प्रजुपद कमले अपार ॥ स ॥ ह ॥ १॥ सो कोमि ने त्रेसठ वली रे, जोयण चोराशी लाख ॥ स० ॥ पहोलपणे छीप आग्मो रे, सूत्रमा जेहनी साख ॥ स ॥ ह ॥ २॥पूर्व दिशे मध्य नागमा रे, गिरि अंजन देवरमण ॥ स ॥ चोराशी सहस्स ते जोयणा रे, जंचो कहे श्रमण ॥ स ॥ ह० ॥३॥ हजार दश नीचे उपरे रे, जामपणुं एक सहस्स ॥ स ॥ सहस्स जोयण कंद रे, सहीए गुरुथी रहस्य ॥ स० ॥हा॥४॥ बसें एकत्रीश सहस्स डे रे, उपर त्रेवीश जाण ॥ स० ॥ अधो परिधिना ए जोयणा रे, अंजनगिरिनां प्रमाण ॥ स ॥ ह ॥५॥त्रण सहस्स एकसो बासरे, जे ऊर्ध्व परिधिना होय ॥ सम्॥ जगतारक थरिहा विना रे, कही न शके ते कोय॥ स०॥ ह॥६॥ जे देवरमणे चैत्य ने रे, जंचुं बहोंतेर जोयण ॥ स० ॥ सो जोयण लांबुं पहोवू रे, पञ्चास ए प्रजुवयण ॥ स० ॥ ह ॥ ७॥ चउबारो माण रत्ननो रे, सूत्रमा कहे नगवंत ॥ स० ॥ देव नामे पूर्व हार जे रे, तिहां देव गुणवंत ॥स॥हण ॥७॥ दक्षिणे असुर देवता रे, पछिम उत्तर जाण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ स ॥ नाग ने सोवन्न सोहता रे, ए नामे द्वार वखाण ॥ स ॥ ह० ॥ ए॥ चैत्य मध्ये मणिपीलिका रे, लांबी पहोली सोल ॥ स० ॥ जोयण आठ उंची कही रे, लोकप्रकाशे ए बोल ॥ स ॥६० ॥ १०॥ लांबो पहोलो पीठिका समो रे, देवबंदो अनिराम ॥ स ॥ जोयण सोल अधिक उंचो रे, सोहे पीठिका गम ॥ स ॥ ह ॥ ११॥ ते मध्ये सिंहासने रे, जिनप्रतिमा जयकार ॥ स ॥ सगवीश सगवीश चिहुं दिशे रे, शाश्वती नामे चार ॥ स० ॥ ह ॥ १२ ॥ ते जिनप्रतिमा वंदीने रे, मी प्रमादने बेक ॥ स ॥ तीर्थजले कलशा जरी रे, देव करे अनिषेक ॥ स ॥ ह० ॥१३॥ केसरे पूजी गुण स्तवे रे, देव देवी धरी नेह ॥ स ॥ धर्मचं जिन पूजतां रे, वर्षे मोतीना मेह ॥ स॥हा॥१४॥ काव्यं । स्नात॥इति प्रथमानिषेके प्रथम पूजा स० ॥ ॥अथ दितीय पूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ ॥ करुं वर्णन बहु नावथी, शेष रह्यो अधिकार ॥ सुणो नविजन एक चित्तथी, न रहे पाप लगार ॥१॥ दविणे अंजनगिरि तिहां, चमर नामे सुरनाथ ॥ करे मोटव अहाश्नो, वरवा शिववधू हाथ ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर्मचंद्रजीकृत नंदीश्वरछीपपूजा. ३०३ ॥ ढाल त्रीजी॥ ॥ ए व्रत जगमां दीवो मेरे प्यारे॥ए॥ए देशी ॥ ॥दक्षिण दिशिए अंजनगिरिजे, नामे ते नित्योद्योत ॥ चमर सम जे श्याम रतन, तेहनी डे बहु ज्योत ॥ मेरे प्यारे, वंदो बे कर जोमी॥१॥श्री नंदीश्वर चैत्यने पूज्यां, नाखे कर्मनेत्रोमी ॥ मेरे ॥ ए श्रांकणी॥ तिहां प्रासादछार चार जे, ते जंचां जोयण सोल ॥ आठ जोयण विस्तारे ने तेम, प्रवेश जोयण श्राप बोल ॥ मेरे ॥२॥ चार दीव एक एक मुखमंगप, ते वली पडसाल सरिखा ॥ते आगल प्रेदामंप जे, घर समझानीए निरख्या॥मेरे॥३॥ए मंडप जोयण सो लांबा, पहोला जोयण पच्चास ॥ सोल जोयणना ऊंचा जाख्या, सुणतां होय उदास ॥ मेरे ॥४॥ बेहु मंडपे त्रण त्रण हार, ते वली कह्या चार चार ॥ हवे प्रेक्षामंम्प मध्ये, वज्र अदाटक सार॥मेरे ॥५॥ते मध्ये मणिपीठिका एक पहोली, लांबी जोयण श्रा॥ चार जोयणनी उंची जाणो, जीवानिगमे ए पाठ ॥ मेरे ॥६॥ ते उपर हरि योग्य सिंहासन, चं वे काक ऊमाल ॥ वच्चे वजने आंकडे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. वलगी, मुक्ताफलनी जे माल ॥ मेरे ॥ ७॥ ते प्रेदामंम्पनी आगल, मणिपीविका एक सोहे ॥ सोल जोयण लांबी ने पहोली, देखतां सुरमन मोहे ॥ मेरे० ॥ ॥ श्राप जोयण उंची ते उपर, चैत्य शुज कहे नाणी ॥ ते सोल जोयण लांबी पहोली, सोल अधिक उंची जाणी ॥ मेरे ॥ ए॥ते उपर पाठ मंगल दीपे, तेथी चार दिशे चार ॥ मणिपीठिका लांबी पहोली, आठ जोयण चित्त धार ॥ मेरे ॥ १० ॥ चार जोयणनी ने ते उंची, ते पीठ उपर गुणधाम ॥ थुन सन्मुख अरिहंतनी प्रतिमा, बेठी तस कीजे प्रणाम ॥ मेरे० ॥ ११॥ देव देवी ते अरिहा पूजे, मनमां आणी विवेक ॥ कहे धर्मचंड नविजन प्रेमे, करो जिनने अनिषेक ॥ मेरे ॥ १५ ॥काव्यं ॥ स्नात॥इति द्वितीयाभिषेके द्वितीय पूजा समाप्ता ॥२॥ ॥ अथ तृतीय पूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा॥ ॥ वली इंज बव करे, पछिम गिरिए सार ॥ तेहy वर्णन हवे करूं, बुद्धि तणे अनुसार ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर्मचंद्रजीकृत नंदीश्वरद्वीपपूजा. ३०५ ॥ ढाल चोथी ॥ ॥ सांजल रे तुं सजनी मोरी ॥ ए देशी ॥ || पश्चिम दिशे अंजनगिरि जे, चैत्य एक तिहां लहीए जीरे ॥ ते चैत्यनां द्वार चारथी, मुखमंगप प्रेक्षा कहीए ॥ जिनवर नमीए जीरे ॥ जिनवर नमीए जावे जविजन, जिन बे जगत् याधार ॥ जि० ॥ १ ॥ ए यांकणी ॥ ते आगल चैत्य थुन धारो, वारो मनथी अज्ञान जीरे ॥ मणिपीठ ते आगल सोहे, ते पीठिका समान ॥ जि० ॥ २ ॥ चैत्यतरु ते उपर दीपे, ते चैत्यवृने आगे जीरे ॥ एक मणिपीठिका लांबी पहोली, चंद्रकलाने अर्ध जागे ॥ जि० ॥ ३ ॥ चार जोयण उंची ते उपर, महेंद्रध्वज जे रुडो जीरे ॥ साठ जोयण ते उंचो सोहे, जोयण एक पहोलो जंको ॥ जि० ॥ ४ ॥ नंदा पुष्करिणी ते श्रागे, जोयण सो ने पच्चास जीरे ॥ लांबी पहोली जंगी दश जे, देखतां होये उल्लास ॥ जि० ॥ ५ ॥ तिहांथी चार दिशे वन चार वली, ते नंदीश्वर द्वीपे जीरे ॥ रुषजानन चंद्रानन स्वामी, वारिषेण वर्द्धमान दीपे ॥ जि० ॥ ६ ॥ ते प्रजुनी पूजा वि० २० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. सुर सारे,करवा जवजय पूर जीरे॥कहे धर्मचं जिन थनिषेक, नवि करो वाजते तूर ॥जि०॥७॥काव्यं॥ स्नात०॥ इति तृतीयानिषेके तृतीय पूजा समाप्ता ॥३॥ ॥अथ चतुर्थ पूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा ॥ ॥ शानवनी उत्तर दिशे, अंजनगिरिए आय ॥ करे उत्सव अहाश्ना, जिनगुण रंगे गाय ॥१॥ ॥ढाल पांचमी॥ ॥ महारी सहि रे समाषी ॥ ए देशी॥ ॥ उत्तर दिशे अंजन गिरि नाम, कह्यो रमणिक अनिराम रे॥धन धन जिनवाणी, जेमां सर्वनी संख्या वखाणी रे ॥धन ॥ए आंकणी॥ तिहां चैत्ये एकसो ने श्रा, पमिमा ए सूत्रमा पारे॥धन॥१॥नाग नूत यद ने आशाधर, ए दो दो प्रजु दीअमर रे ॥ धन ॥ प्रतिमा आठ ए विनय करती, प्रतिमा दोय चमर विऊंती रे॥धन॥॥प्रनु पूंठे एक बत्रधर जाणो, ए सासय जावे वखाणो रे ॥धन ॥ हवे पूजा उपकरण कहीए, श्राठे अधिक सो लहीए रे॥ धन ॥३॥ जे अष्ट मंगल फूलनी दाम, कुंज ध्वज दर्पण श्रनिराम रे॥धनम्॥ पुप्फ चंगेरी बत्र भंगार, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर्मचंजीकृत नंदीश्वरछीपपूजा. ३०७ घंट धूप घटी श्रीकार रे ॥ धन० ॥४॥ ए श्रादि उपकरण घणेरां, रजत मणिनां जलेरां रे॥धन॥ प्रासादनूमिए वेल ने बूटा, गम गम सोनाना बूटा रे॥धन ॥५॥ मूल प्रासाद मध्ये शत पाठ, सोल जिननो छारे ग रे॥धन॥सर्व ए पमिमा एकसो चोवीश, सुर प्रणमे नमावी शीश रे॥धन ॥६॥ कर धरी कलशा रजत मणिना, सुर गुण गाये जगतधणीना रे॥धनवीणा मृदंग तालने अमरी, वजावे जे रागने समरी रे॥ धन ॥७॥ करे जिनस्नात्र विधिए एम, चंदने पूजे धरी प्रेम रे ॥धन०॥प्रजुगुण गावानी नित्यमेव, धर्मचं मुनिने ए टेव रे ॥धन ॥७॥ काव्यं ॥ स्नात० ॥ इति चतुर्थाभिषेके चतुर्थ पूजा समाता ॥४॥ ॥अथ पंचम पूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ ॥ लोकपालनो दधिमुखे, उत्सवनो अधिकार ॥ कहीशु नविजन सांजलो, जेम सुख लहो पार॥१॥ ॥ढाल ही॥ ॥ रंगरसीया रंगरस बन्यो॥ ए देशी ॥ ॥प्रजु शिवरसीया वसीया दिले ॥मनमोहनजी॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. विधि विष्णु शंकर न सोहाय ॥मनडु मोयु रे मनमोहनजी ॥पूजतां पमिमा जिनराजनी॥ मन ॥ नवनवना छरित पलाय ॥ मन॥१॥ अंजनगिरि ए चारथी ॥ मन ॥ चार दिशाए लाख लाख ॥ मन ॥ जोयण गये जे वाव्य ले ॥ मन० ॥ लाख जोयणनी ते नाष्य ॥ मन॥२॥जोयण दश जंमी कही॥ मन ॥ मत्स्य विनानुं जल सोय ॥ मन ॥ वाव्य एकने चारे दिशे ॥ मन० ॥त्रण त्रण सोपान ते होय॥मनः॥३॥रत्नतोरण चारे दिशे॥ मन॥ ते फलके तेजे अपार ॥ मन ॥ पणसय जोयण पूर वाव्यथी॥ मन ॥ चल दिशाए वन चार ॥ मन० ॥४॥ पहोलपणे शत पांचनां ॥ मन० ॥ लांबा पुष्करिणी प्रमाण ॥ मन०॥ वाव्य मध्ये एक दधिमुख ॥ मन॥ स्फाटिक रत्ननो जाण ॥ मन ॥५॥ चोसठ सहस्स जोयण उंचो॥ मन०॥ नीचे उपर दश हजार ॥ मन ॥ जामपणे ते जाणवो ॥ मन०॥ सहस्स जोयण कंद विचार ॥ मन ॥६॥ एम सोले दधिमुख जाणजो॥मन॥ सर्व प्यालाने थाकार ॥ मनः॥ सोल जपर सोल चैत्य ॥ मन ॥ अंजनगिरि सरखा धार॥मन०॥ ७॥ एकसो चोवीश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर्मचंद्रजीकृत नंदीश्वरद्वीपपूजा. ३० चैत्य दीठ ॥ मन० ॥ अरिहंतनी प्रतिमा सार ॥ मन० ॥ लोकपाल सघला तिहां मली ॥ मन० ॥ करे निषेक कड़े तार ॥ मन० ॥ ८ ॥ तेम श्रावक मनरंगशुं ॥ मन० ॥ जिनवरने करो अभिषेक ॥ मन० ॥ कहे धर्मचंद्र जिन पूजतां ॥ मन० ॥ पामीए शिवगतिने एक ॥ मन० ॥ ए ॥ काव्यं ॥ स्नात० ॥ ॥ इति पंचमानिषेके पंचम पूजा समाप्ता ॥ ५ ॥ ॥ अथ षष्ठ पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ चंद्रकला बमण कर्या, होय रतिकर मान ॥ तिहां जिनचैत्ये मूरति पांचसें धनुष्य प्रमाण ॥ १ ॥ जुवनपति व्यंतर तथा, ज्योतिषीना वली देव ॥ वैमानिक सुरवर इहां, करे जिनवरनी सेव ॥ २ ॥ ॥ ढाल सातमी ॥ राग सारंग ॥ ॥ जिनराज पूजी लाहो लीजीए ॥ ए श्रकणी ॥ ॥ शिवसुखनो निलाष करो तो, जिनयाणा शिर वहीजीए ॥ जिन० ॥ वाव्य वाव्यना अंतर वच्चे, रतिकर दो दो लही जी ए ॥ जिन० ॥ १ ॥ दश सहस्स जोयण लांबा पहोला, एक सहस्स उंचा कहीजीए ॥ जिन० ॥ पद्मराग मणिनां जे दीपे, जलरी - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. संगण सुपीजीए ॥ जिन० ॥ २ ॥ बत्रीश रतिकरे वत्रीश चैत्ये, प्रभु वंदी सुर हर्षीजीए ॥ जिन॥ तीर्थो - दकना कलश जरीने, जिना निषेक करीजीए॥ जिनव ॥ ३ ॥ केसर चंदने रिहा पूजी, फूल टोमर कंठे ठवीजीए ॥ जिन० ॥ कनकपत्र कोरी करीने, बच्चे बच्चे रत्न जमीजीए ॥ जिन० ॥ ४ ॥ सुर परे जविजन पूजा रचावी, लखमीनो लाहो लीजीए ॥ जिन० ॥ कहे धर्मचंद्र जिनेश्वर साहिब, दवे शिवसुख मुज दीजीए ॥ जिन० ॥ ५ ॥ काव्यं ॥ स्नात० ॥ इति षष्ठानिषेके षष्ठ पूजा समाप्ता ॥ ६ ॥ ॥ अथ सप्तम पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ सोहम ईशानेंद्रनी, अग्रमहिषी (आठ) आठ ॥ तेना जड जे सोलमां, प्रभुचैत्यनो ठाठ ॥ १ ॥ ॥ ढाल आठमी ॥ कुमखडानी देशी ॥ ॥ ए द्वीपना मध्य जागमां रे, चार विदिशे जे चार ॥ प्रभु उपदेशीया ॥ रतिकर सर्व रतनमयी रे, सहस्सना उंचा धार ॥ प्रभु० ॥ १ ॥ दश सहस्स लांबा पहोला रे, अढी जोयण कंद ॥ प्रभु० ॥ एकत्रीश सदस्स उपर बसें रे, त्रेवीश कड़े जिनचंद ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर्मचंजीकृत नंदीश्वरछीपपूजा. ३११ परिधिनां जोयण धारीए रे, नाखीए अज्ञान चूर ॥ प्रजु ॥ रतिकरथी चारे दिशे रे, लाख जोयण जश्ए पूर॥प्रनु०॥३॥ राजधानी चारे तिहां रे, गिरि चार मलीने सोल॥प्रनु०॥अग्नि नैईतना गिरिपूंठे रे,धुर हरिललनानी बोल ॥ प्रनु० ॥४॥ वाव्य ईशानना गिरि पूंठे रे, ईशानउनी था॥प्रनु०॥राजधानी श्रग्रमहिषीनी रे, सिमांते ए पाठ॥प्रजु॥५॥ जोयण एक लाख लाखनी रे, नगरी सोहे ए सोल ॥प्रजु०॥ए प्रजुवाणी ते सदहे रे, जेने धर्मगुंरंगचोल ॥प्रजु ॥६॥ जिहां सोल चैत्य दीप डे रे, प्रतिमा एकसो वीश॥ प्रजु॥तिहां अग्रमहिषी आवीने रे, स्नात्र करे वसा वीश॥प्रजु०॥७॥तेम तुमे नविजन नावशुं रे, पूजो श्रीअरिहंत ॥ प्रजु० ॥ धर्म कहे जिन सेवतां रे, पामीए सुख अनंत ॥ प्रजु० ॥॥ ॥ काव्यं ॥ स्नात० ॥ इति सप्तमानिषेके सप्तम पूजा समाप्ता ॥ ॥ अथ अष्टम पूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ॥ति लोके देहरां, बत्रीशसें मन श्राण ॥जंगणसाठ उपर कह्यां, हवे करूं बिंब वखाण ॥१॥ त्रण लाख एकाएं सहस्स, त्रणसें ने वली वीश ॥ शाश्वती पमिमा एटली, हुं प्रणमुं निशिदिश ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ ढाल नवमी॥ ॥ मनमोहन मेरे ए देशी ॥ ॥ कुंमल छीप सोहामणो॥ मनमोहन मेरे॥ चार तिहां जिनगेह॥मा जिनपडिमा चारसे उन्मुं॥मन॥ वंडं हूं धरी नेह॥म॥१॥रुचक छीपे चार चैत्य ने ॥माचारसे बन्नु जिनराज॥मा मेरुवने एंशी देहरां ॥ म॥ बन्नुसें जिन वंडं आज ॥ म ॥२॥ पांच मेरु चूलिकाए ॥मः॥प्रासादे बसें जिनराय॥म॥ गजदंते वीश देहरां॥म॥बिंब चोवीशसें समुदाय ॥ म० ॥३॥ देव उत्तर कुरुक्षेत्रमां॥म०॥ जिनघर दश विशाल ॥ मग ॥ बारसे बिंबने पूजतां ॥ म० ॥ पाप जाये पायाल ॥ म ॥४॥ एंशी वखारागिरिए ॥ म ॥ प्रासाद एंशी धार ॥ मग ॥ बन्नु अधिक जिन शाश्वता ॥म॥पूजीए नव हजार॥म॥५॥ कुल गिरिए त्रीश देहरां ॥ म० ॥ त्रीशसें जिनवर जाण ॥ म०॥ चैत्य चालीश दिग्गजे ॥म०॥ अड ताली शत जिनजाण ॥ म० ॥६॥ दीर्घवैताढ्ये देहरां ॥ म ॥ एकसो सित्तेर प्रमाण ॥ म॥वीश हजार बिंब चारसें ॥ म ॥ नविजन पूजो सुजाण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर्मचंजीकृत नंदीश्वरछीपपूजा. ३१३ ॥ म ॥ ७॥ जंबू प्रमुख तरुए वली ॥ म०॥ चैत्य अग्यारसे सित्तेर ॥ म ॥ चालीश हजार ने चारसें म ॥ लाख पूजीने त्यो शिवशर ॥ म०॥७॥ चैत्य हजार कंचन गिरिए ॥ म॥बिंब लाख ने वीश हजार ॥ म ॥ एंशी अहे एंशी देहरांम०॥ बन्नुसे बिंब जुहार ॥ म० ॥ ए ॥ चैत्य कुंडे त्रणसें एंशी ॥ म० ॥ बिंब पीस्तालीश हजार ॥ म ॥ उपरे उसे जिनवरा ॥ म ॥ समरो उठी सवार ॥ म॥१०॥ महानदीए सित्तेर कह्याम॥चोराशीसें अरिहंत म ॥ वीश प्रासाद यमक गिरे ॥ म ॥ चोवीशसें लगवंत ॥ म० ॥११॥ वृत्तवैताढये वीश ॥ म० ॥ शाश्वतां जिनगेह ॥ म ॥ बिंब चोवीशसें पूजतां ॥ म० ॥ थाये निर्मल देह ॥ म ॥ १२॥ खुकारे चार देहरां ॥ म ॥ चारसें एंशी जिनबिंब ॥ म ॥ ते जिनवरने पूजतां ॥ म० ॥ पाप जाये अविलंब ॥ म॥१३॥मानुष्योत्तरे चार देहरां ॥म॥ चारसे एंशी नगवान॥म॥व्यंतर मांहे असंख्य ले ॥ म ॥ जिनघर बिंबनुं मान ॥म० ॥१४॥असंख्य ज्योतिषीमां कह्यां ॥ म॥ जिनघर ने जिनराय ॥म॥धर्म कहे प्रनु पूजतां ॥म॥ शिवसुख वहेलु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. थाय ॥ म० ॥ १५ ॥ काव्यं ॥ स्नात० ॥ इति अष्टमानिषेके अष्टम पूजा समाप्ता ॥७॥ ॥ अथ नवम पूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ॥ सात कोमि बहोत्तेर लाख, अधोलोके जिनगेह॥ तेरसें नेव्याशी कोमि, साठ लाख बिंब एद ॥१॥ ॥ ढाल दशमी॥ ॥ काज सीधां सकल हवे सार ॥ ए देशी ॥ ॥ हवे असुरकुमारे देहरां, कह्यां चोसठ लाख जलेरां ॥एकसोपन्नर कोमिजाएं, पमिमा वीश लाख वखाणुं ॥१॥ सासय जिनवरने पूजीजे, नरजवनो लाहो लीजे ॥ वली नागकुमारे कहीए, चैत्य लाख चोराशी लहीए ॥ एकसो ने एकावन कोमि, वीश लाख नमुं कर जोडी ॥ सा० ॥२॥ चैत्य बहोत्तेर लाख विचार, सुवर्णकुमारे श्रीकार॥एकसो ने उंगणत्रीश कोम, साठ लाख उपर जिन जोड ॥ सा० ॥३॥ विद्युत् श्रग्नि छीप कुमार, उदधि दिग स्त नित सार ॥ चैत्य षनिकाये वखाणो, लाख बोतेर बोतेर जाणो ॥ सा ॥४॥ कोमि एकसो ने उनीश, लाख एंशी नमो निशदिश ॥ एक निकाये एटला Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर्मचंद्रजीकृत नंदीश्वरछीपपूजा. ३१५ होय, तेम पांच निकाये जोय ॥ सा० ॥ ५॥जिनप्रासाद बन्न लाख, वायुकुमार मांहे नाख ॥ कोड एकसो बहोत्तेर जिनराय, एंशी लाख पूजे कुःख जाय ॥ सा ॥६॥ अधोलोकना जिनवर गाया, जग सुजश पमह वजाया॥कहे धर्म नवि उजमाल, थर पूजो जगत्दयाल ॥ सा ॥७॥काव्यं ॥स्नातक ॥ इति नवमानिषेके नवम पूजा संपूर्णा ॥ ए॥ ॥ अथ दशम पूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ ॥ ऊर्ध्व लोके जिनवर घर, लाख चोराशी जाण॥ सहस्स सत्ताएं उपरे, त्रेवीशर्नु परिमाण ॥१॥ एकसो बावन कोमिजिन,लाख चोराणुं सार॥सहस्स चुमालीश वंदीए, सातसें ने साठ धार ॥२॥ ॥ ढाल अगीयारमी॥ ॥ सिझाचल शिखरे दीवो रे॥आदे०॥ए देशी॥ ॥सौधर्मे चैत्यज कहीए रे॥अरिहा पूजो अलबेला॥ लाख बत्रीश संख्या लहीए रे ॥ ॥ लाख साठ सत्तावन कोमि रे॥०॥पमिमा वंदो कर जोमी रे॥ अ० ॥१॥ चैत्य अडवीश लाख जाणो रे ॥०॥ ईशान खर्गे वखाणो रे॥०॥कोडि पच्चास ने लाख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. चाली रे ॥ अ० ॥ वंदो प्रतिमा रढियाली रे॥ अण ॥२॥जिनवरना बार लाख देहरां रे॥१०॥ सनत्कुमारे जलेरां रे ॥०॥ साठ लाख ने कोडि एकवीश रे ॥ १०॥ पडिमा कहे त्रिजग ईश रे॥ अण ॥३॥ माहें चोथं चित्त धारो रे ॥अ॥प्रासाद आठ लाख संजारो रे ॥ अ॥ कोडि चउद ने लाख चाली रे ॥ अ॥प्रजुध्याने सदा दीवाली रे ॥ श्रम ॥४॥ पांचमे प्रासाद लाख चार रे ॥ श्र० ॥ सात कोडि वीश लाख जिन धार रे ॥ १० ॥ लांतके सहस्स पच्चास रे ॥ अ० ॥ नेq लाख जिन नमीए उदास रे॥अ॥५॥सातमे शुक्र देवलोके रे॥१०॥ प्रासाद चालीश सहस्स थोके रे॥ अ०॥ पमिमा बहोंत्तेर लाख मान रे॥०॥सदा धरीए एदनुं ध्यान रे॥०॥६॥ आठमुं सहस्रार ते कहीए रे॥१०॥ जिनघर हजार बलहीए रे॥०॥ दश लाख ने एंशी हजार रे ॥ श्र० ॥ हुं प्रणमुं उठी सवार रे॥श्रण ॥७॥ श्राणत प्राणते जिनगेह रे॥०॥ नाखे चारसें अरिहा तेह रे ॥१०॥बहोंतेर हजार जिनराय रे ॥ अ० ॥ जस प्रणम्या पातक जाय रे॥श्र० ॥ ७॥ आरण अच्युते वंदो रे ॥ अ०॥ चैत्य त्रणसे Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर्मचंद्रजीकृत नंदीश्वरद्वीपपूजा. ३१७ सुणी आणंदो रे ॥ ० ॥ चोपन सहस्स देवाधिदेव रे ॥ ० ॥ जस सारे सुरपति से व रे ॥ श्र० ॥ ५ ॥ एकसो ग्यार धुर त्रिके रे ॥ ० ॥ जिनचैत्य धारो सुविवेके रे ॥ श्र० ॥ त्रण से वीश तेर हजार रे ॥ ८० ॥ पूजतां पामे जवपार रे ॥ ० ॥ १० ॥ त्रिक बीजीए एकसो सात रे ॥ ० ॥ पडिमा बार सदस्स विख्यात रे ॥ ० ॥ श्रवसें अधिक नमो चाली रे ॥ ० ॥ सुर पूजे जावे नीहाली रे ॥ श्र० ॥ ११ ॥ त्रिक त्रीजीए एकसो सार रे ॥ ० ॥ प्रथमो बिंब बार हजार रे ॥ ० ॥ अनुत्तरे पांच चैत्य विशाल रे ॥ ० ॥ बसें जिन नमो थइ उजमाल रे ॥ ० ॥ १२ ॥ एम कल्प कल्पातीत देवा रे ॥ ० ॥ द्रव्य जावे करे जिनसेवा रे ॥ ॥ ० ॥ कहे धर्म जवि नित्य पूजो रे ॥ ० ॥ जगतारक देवन डूजो रे ॥ ० ॥ १३ ॥ काव्यं ॥ स्नात० ॥ इति दशमा निषेके दशम पूजा संपूर्णा ॥ १० ॥ ॥ अथ एकादश पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ पन्नर क्षेत्रे प्रभु तणी, पडिमा सासय जेह ॥ तेनां पदपंकज नमुं करवा पापनो बेह ॥ १ ॥ " Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ ढाल बारमी॥ ॥ चोवीश चोकनी देशी ॥ ॥दे साहेबजी ! नेक नजर करी नाथ सेवकने तारो, हे साहेबजी ! महेर करी पूजानुं फल मुज आलो॥ ए श्रांकणी ॥ प्रनु तुज मूरति मोहन वेली, पूजे सर अपबरा अलबेली, वर धनसार केशरशं नेली ॥ हे सा॥१॥ सिकाचल तीर्थ नवि सेवो, चउद देत्रे तीर्थ नहीं एवो, एम बोले देवाधिदेवो ॥ हे सा ॥२॥ गिरनारे जइए नेम पासे, श्हां जावी जिन सिकि जाशे, जस ध्याने पातकमां नासे ॥हे सा॥ ३॥ बुगढे आदि जिनराया, नेमनाथ शिवादेवी जाया, जस चोस इंछे गुण गाया ॥ हे साप ॥४॥ वली समेतशिखरे जगना ईश, गया मोदे जिनराया वीश, ध्येय ध्यावो नविजन निशदिश ॥ हे सा॥५॥ अष्टापदे सकल करम टाली,प्रजु वरीया शिववधू लटकाली, आदीश्वर पूजतां दीवाली ॥ हे सा॥६॥ ए श्रादे तीर्थ प्रणमो रंगे, वली पूजो प्रजुने नव अंगे, कहे धर्मचंग अति उमंगे ॥ हे सा॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मचंद्रजीकृत नंदीश्वरद्वीपपूजा. ॥ कलश ॥ राग धन्याश्री ॥ ॥ गायो गायो रे नंदीसर तीर्थ में गायो, जंघा विद्याचारण मुनिवर, जिहां सुरनो समुदायो ॥ किन्नर किन्नरी खेचर यावे, तेम चोसठ सुररायो रे ॥ नंदी० ॥ १ ॥ श्रपरा इंद्राणी मनरंगे, स्नात्र करे सुखदायो || करे नृत्य सुकंठे गावे, जिन पूजी मोह घटायो रे ॥ नंदी० ॥ २ ॥ तपगछपति श्री दयासू रिना, खुशाल विजय उवकायो ॥ तास बंधव सुगुण गीतारथ, कल्याणचंद्र सवायो रे ॥ नंदी० ॥ ३ ॥ विजयदेवेंद्र सूरीश्वरराज्ये, ए अधिकार रचायो ॥ दमण बंदरे रही चोमासुं, रूपनदेव सुपसायो रे ॥ नंदी० ॥ ४ ॥ अढारसें बन्नुं जाऊपद मासे, संववरी दिन गायो ॥ प्रभु समुदाय कवि धर्मचंद्रे, संघ सकल हरखायो रे || नंदी० ॥ ५ ॥ इति एकादशा निषेके एकादशं पूजा संपूर्णा ॥ ११ ॥ ॥ इति क विधर्मचंद्रजीकृता श्रीनंदीश्वरद्वीपपूजा समाप्ता ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ३१ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ ॥ ॥ श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्यायकृत नवपदपूजा प्रारंनः॥ ॥ तत्र ॥ ॥ प्रथम अरिदंतपदपूजा प्रारंजः॥ ॥ काव्यं ॥ उपजातिवृत्तम् ॥ ॥ जप्पन्नसन्नाणमदोमयाणं, सप्पाडिदेरासणसंठियाणं ॥ सदेसणाणंदियसकाणाणं, नमो नमो दोउ सया जिणाणं ॥१॥ ॥जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥नमोऽनंतसंतप्रमोदप्रदान, प्रधानाय नव्यात्मने जावताय ॥ थया जेहना ध्यानश्री सौख्यनाजा, सदा सिझाचक्राय श्रीपाल राजा ॥२॥ कस्यां कर्म धर्मर्म चकचूर जेणे, जलांजव्य नवपदध्यानेन तेणे॥ करी पूजना जव्य नावे त्रिकाले,सदा वासीयोआतमा तेणे काले ॥३॥ किंके तीर्थंकर कर्म उदये करीने, दीए देशना जव्यने हित धरीने ॥सदा आठ महापामिहारे समेता, सुरेशे नरेशे स्तव्या ब्रह्मपुत्ता ॥४॥ कस्यां घातियां कर्म चारे अलग्गां, जवोपग्रही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयशोविजयजीकृत नवपदपूजा. ३१ चार जे जे विलग्गां ॥ जगत् पंच कल्याणके सौख्य पामे, नमो तेह तीर्थंकरा मोदकामे ॥५॥ ॥ ढाल ॥ जलालानी देशी॥ ॥ तीर्थपति अरिहा नमुं, धर्म धुरंधर धीरो जी ॥ देशना अमृत वरसता, निज वीरज वम वीरो जी ॥१॥ उलालो ॥ वर अखय निर्मल ज्ञाननासन, सर्व नाव प्रकाशता ॥ निज शुरू श्रझा आत्मनावे, चरण थिरता वासता ॥ जिन नामकर्म प्रत्नाव अतिशय, प्रातिहारज शोजता ॥ जगजंतु करुणावंत नगवंत, नविकजनने दोजता ॥२॥ ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी ॥ ॥त्रीजे नव वर स्थानक तप करी, जेणे बांध्यु जिननाम ॥ चोस इंसे पूजित जे जिन, कीजे तास प्रणाम रे॥ नविका ॥ सिचक्रपद वंदो, जेम चिर काले नंदोरे ॥ ज०॥सि०॥१॥ए आंकणी ॥जेहने होय कल्याणक दिवसे, नरके पण अजवायूँ ॥ सकल अधिक गुण अतिशय धारी, ते जिन नमी अघ टायूँ रे॥०॥ सि॥२॥जे तिहुं नाण समग्ग जप्पन्ना, जोगकरम कीण जाण ॥ ले दीक्षा शिक्षा दीए जनने, ते नमीए जिन नाणी रे ॥ ज० ॥ सिण Jain Educat विonational For Personal and Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ ३ ॥ महागोप महामाहण कहीए, निर्यामक सबवाह || उपमा एहवी जेहने बाजे, ते जिन नमीए उत्साह रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४ ॥ श्राव प्रातिहारज जस बाजे, पांत्रीश गुण युत वाणी ॥ जे प्रतिबोध करे जगजनने, ते जिन नमीए प्राणी रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ५ ॥ ॥ ढाल ॥ ॥ अरिहंतपद ध्यातो थको, दवह गुण पकाय रे ॥ द बेद करी आतमा, अरिहंतरूपी थाय रे ॥ १ ॥ वीर जिनेसर उपदिशे, सांभलजो चित्त लाइ रे ॥ यात मध्याने आतमा, रुद्धि मले सवि आई रे ॥ वी० ॥२॥ इति प्रथम अरिहंतपद पूजा समाप्ता ॥ १ ॥ ॥ अथ द्वितीय सि६पदपूजा प्रारंभः ॥ ॥ काव्यं ॥ इंद्रवज्रावृत्तम् ॥ ॥ सिण माणंसुरमालयाणं ॥ ॥ नमो नमोऽणंतचनक्कयाणं ॥ ॥ भुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ करी आठ कर्मये पार पाम्या, जरा जन्म मरयादि जय जेणे वाम्या || निरावरण जे आत्मरूपे प्रसिद्धा, यया पार पामी सदा सिद्धबुद्धा ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ श्री यशोविजयजीकृत नवपदपूजा. त्रिजागोनदेहावगादात्मदेशा, रह्या ज्ञानमय जातवर्णादि लेशा ॥ सदानंद सौख्याश्रिता ज्योतिरूपा, अनाबाध पुनर्जवादि स्वरूपा ॥ २ ॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ ॥ सकल करममल दय करी, पूरण शुद्ध स्वरूपो जी ॥ श्रव्याबाध प्रभुतामयी, श्रतम संपत्तिनूपो जी ॥ १ ॥ जलालो || जेह नूप आतम सहज संपत्ति, शक्ति व्यक्तिपणे करी ॥ स्व द्रव्य क्षेत्र ख काल जावे, गुण अनंता आदरी ॥ सुखजाव गुण पर्याय परिणति, सिद्धसाधन पर जणी ॥ मुनिराज मानसहंस समवम, नमो सिद्ध महागुणी ॥ २ ॥ || पूजा ॥ ढाल || श्री पालना रासनी ॥ ॥ समय पर संतर अफरसी, चरम तिजाग विशेष ॥ अवगाहन लही जे शिव पहोता, सिद्ध नमो ते अशेष रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ६ ॥ पूर्व प्रयोग ने गतिपरिणामे, बंधन बेद संग ॥ समय एक ऊर्ध्व गति जेहनी, ते सिद्ध प्रणमो रंग रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ७ ॥ निर्मल सिद्ध शिलानी उपरे, जोयण एक लोकंत ॥ सादि अनंत तिहां स्थिति जेहनी, ते सिद्ध प्रणमो संत रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ८ ॥ जाणे पण न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. शके कही पुरगुण, प्राकृत तेम गुण जास ॥ उपमा विण नाणी नव मांहे, ते सिक दीयो उदास रे ॥ न ॥ सि ॥ ए॥ ज्योतिरां ज्योति मली जस अनुपम, विरमी सकल उपाधि ॥ श्रातमराम रमापति समरो, ते सिक सहज समाधि रे ॥ न०॥ सि ॥१०॥ ॥ढाल ॥ ॥ रूपातीत स्वन्नाव जे, केवल दसण नाणी रे ॥ ते ध्यातां निज श्रातमा, होये सिक गुणखाणी रे ॥ वी०॥३॥इति द्वितीय सिहपदपूजा समाप्ता ॥२॥ ॥ अथ तृतीय आचार्यपदपूजा प्रारंजः ॥ ॥ काव्यं ॥ वज्रावृत्तम् ॥ ॥ सूरीणउरीकयकुग्गहाणं ॥ ॥ नमो नमो सूरसमप्पहाणं ॥ ॥ नुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥नमुं सूरिराजा सदा तत्वताजा, जिनेंद्रागमे प्रौढ साम्राज्यनाजा॥ षट्वर्गवर्गित गुणे शोजमाना, पंचाचारने पालवे सावधाना ॥१॥ नविप्राणीने देशना देश काले, सदा अप्रमत्ता यथा सूत्र श्राले ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयशोविजयजीकृत नपवदपूजा. ३२५ फिके शासनाधारदिग्दतिकटपा, जगे ते चिरंजीवजो शुद्धजपा ॥२॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी॥ ॥श्राचारज मुनिपति गणि, गुणवत्रीशी धामो जी॥ चिदानंद रस वादता, परनावे निःकामो जी॥१॥ जलालो ॥ निःकाम निर्मल शुद्ध चिद्घन, साध्य निज निरधारथी ॥ निज ज्ञान दर्शन चरण वीरज, साधनाव्यापारथी ॥ नविजीव बोधक तत्त्वशोधक, सयल गुणसंपत्ति धरा ॥ संवरसमाधि गतउपाधि, मुविध तपगुण घागरा ॥२॥ ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी॥ ॥ पंच आचार जे सूधा पाले, मारग नाखे साचो॥ ते आचारज नमीए तेहशुं, प्रेम करीने जाचो रे ॥ न० ॥ सि० ॥ ११॥ वर उत्रीश गुणे करी सोहे, युगप्रधान जन मोहे ॥जग बोहे न रहे खिण कोहे, सूरि नमुं ते जोदे रे ॥ ज०॥ सि० ॥ १२ ॥ नित्य अप्रमत्त धर्म उवएसे, नहीं विकथा न कषाय ॥ जेहने ते श्राचारज नमीए, अकलुष अमल अमाय रे ॥ज ॥ सिम् ॥ १३ ॥ जे दीए सारण वारण चोयण, पमिचोयण वली जनने ॥ पटधारी गल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. थंच श्राचारज, ते मान्या मुनिमनने रे ॥ ज० ॥ सि ॥ १४॥ अमीए जिनसूरज केवल, चंदे जे जगदीवो ॥ नुवनपदारथ प्रगटन पटु ते, श्राचारज चिरं जीवो रे ॥ न०॥ सि० ॥ १५ ॥ ॥ ढाल ॥ ॥ध्याता श्राचारज जला, महामंत्र शुन्न ध्यानी रे ॥ पंच प्रस्थाने आतमा, आचारज होय प्राणी रे ॥वी०॥४॥इति तृतीय आचार्यपदपूजा समाप्ता॥३॥ ॥ अथ चतुर्थ उपाध्यायपदपूजा प्रारंनः॥ ॥ काव्यं ॥ अवज्रावृत्तम् ॥ ॥ सुतबविबरणतप्पराणं॥ ॥नमो नमो वायगकुंजराणं ॥ ॥नुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ नहीं सूरि पण सूरिगणने सहाया, नमुं वाचका त्यक्तमदमोहमाया ॥ वली छादशांगादि सूत्रार्थदाने, फिके सावधाना निरुकानिमाने ॥१॥ धरे पंचने वर्ग वर्गित गुणौघा, प्रवादि हिपोछेदने तुख्य सिंघा ॥ गुणी गलसंधारणे स्थंजनूता, उपाध्याय ते वंदीए चित्प्रनूता ॥२॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री यशोविजयजीकृत नवपदपूजा ॥ ढाल || उलालानी देशी ॥ ॥ खंतिजुआ मुत्तिजुआ, श्रव मद्दव जुत्ता जी ॥ सच्चं सोयं किंचणा, तव संजम गुणरत्ता जी ॥ १ ॥ जलालो || जे रम्या ब्रह्मसुगुत्ति गुत्ता, समिति समिता श्रुतधरा ॥ स्याद्वादवादे तत्त्वत्वादक, आत्म पर विजजनकरा ॥ जवजीरु साधन धीरशासन, वहन धोरी मुनिवरा ॥ सिद्धांत वायण दान समरथ, नमो पाठक पदधरा ॥ २ ॥ ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी ॥ ॥ द्वादश अंग सजाय करे जे, पारग धारक तास ॥ सूत्र अर्थ विस्तार रसिक ते, नमो उवसाय उल्लास रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १६ ॥ अर्थ सूत्रने दानविजागे, श्राचारज उवजाय ॥ जव त्रीजे जे लहे शिवसंपद्, नमीए ते सुपसाय रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १७ ॥ मूरख शिष्य निपाई जे प्रभु, पाहाणने पल्लव आणे ॥ ते जवसाय सकल जन पूजित, सूत्र अर्थ सवि जाणे रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १८ ॥ राजकुमर सरिखा गणचिंतक, आचारजपद योग ॥ जे जवकाय सदा ते नमतां, नावे जवजय शोग रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १९ ॥ बावनाचंदनरस सम वयणे, हित For Personal and Private Use Only Jain Educationa International ३२७ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ताप सविटाले ॥ ते उवकाय नमीजे जे वली, जिनशासन अजुवाले रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २० ॥ ॥ ढाल ॥ ॥ तप सजाये रत सदा, द्वादश अंगनो ध्याता रे ॥ उपाध्याय ते यातमा, जगबंधव जगचाता रे ॥ वी० ॥ ५ ॥ इति चतुर्थ उपाध्याय पदपूजा समाप्ता ॥ ४ ॥ ॥ अथ पंचम मुनिपदपूजा प्रारंभः ॥ ॥ काव्यं ॥ इंद्रवज्रावृत्तम् ॥ ॥ साहू संसदिय संजमाणं ॥ ॥ नमो नमो सुइदयादमाणं ॥ ॥ जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ करे सेवना सूरि वायग गणिनी, करुं वर्णना तेहनीशी मुणिनी ॥ समेता सदा पंचसमिति त्रिगुप्ता, त्रिगुप्ते नहीं कामजोगेषु लिप्ता ॥ १ ॥ वली बाह्य अन्यंतर ग्रंथि टली, होये मुक्तिने योग्य चारित्र पाली ॥ शुजाष्टांग योगे रमे चित्त वाली, नमुं साधुने तेह निज पाप टाली ॥ २ ॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ ॥ सकल विषय विष वारीने, निःकामी निःसंगी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयशोविजयजीकृत नवपदपूजा. ३२७ जी ॥ जवदवताप शमावता, श्रातमसाधन रंगी जी ॥ १ ॥ उलालो ॥ जे रम्या शुद्ध स्वरूप रमणे, देह निर्मम निर्मदा || काउस्सग्गमुद्रा धीर आसन, ध्यान न्यासी सदा ॥ तप तेज दीपे कर्म कीपे, नैव बीपे पर जणी ॥ मुनिराज करुणासिंधु त्रिभुवन, बंधु प्रणमुं हित जणी ॥ २ ॥ ॥ पूजा || ढाल ॥ श्रीपालना रासनी ॥ ॥ जेम तरुफूले नमरो बेसे, पीमा तस न उपावे ॥ लेइ रसने यातम संतोषे, तेम मुनि गोचर जावे रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २१ ॥ पंच इंडियने जे नित्य कीपे, षट्कायक प्रतिपाल ॥ संयम सत्तर प्रकारे राधे, व तेह दयाल रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २२ ॥ अढार सहस्स शीलांगना धोरी, अचल आचार चरित्र ॥ मुनि महंत जयणा युत वंदी, कीजे जनम पवित्र रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २३ ॥ नवविध ब्रह्मगुप्त जे पाले, बारसविह तप शूरा ॥ एहवा मुनि नमी ए जो प्रगटे, पूरव पुण्य अंकुरा रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २४ ॥ सोना ती परे परीक्षा दीसे, दिन दिन चढते वाने || संजम खप करता मुनि नमीए, देश काल अनुमाने रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० विविध प्रजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ ढाल ॥ ॥अप्रमत्ते जे नित्य रहे, नवि हरखे नवि शोचे रे॥ साधु सूधा ते आतमा, शुं मूंड्ये शुं लोचे रे ॥ वी० ॥६॥ इति पंचम मुनिपदपूजा समाप्ता ॥५॥ ॥ अथ षष्ठ सम्यक्त्वदर्शनपदपूजा प्रारंनः॥ ॥ काव्यं ॥ वज्रावृत्तम् ॥, ॥जिणुत्ततत्ते शश्लकणस्स ॥ ॥नमो नमो निम्मलदंसणस्स॥ ॥ जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ विपर्यास हरवासनारूप मिथ्या, टले जे अनादि अच्छे जेम पथ्या ॥ जिनोक्ते होये सहजयी श्रद्दधानं, कहीए दर्शनं तेह परमं निधानं ॥१॥ विना जेहथी ज्ञान अज्ञानरूपं, चरित्रं विचित्रं जवारण्यकूपं ॥ प्रकृति सातने उपशमे दय ते होवे, तिहां आपरूपे सदा आप जोवे ॥२॥ ॥ ढाल ॥ जलालानी देशी ॥ ॥ सम्यग्दर्शन गुण नमो, तत्व प्रतीत स्वरूपो जी ॥ जसु निरधार स्वजाव , चेतनगुण जे अरूपो जी॥१॥ उलालो॥जे अनुप श्रद्धा धर्म प्रगटे, सयल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयशोविजयजीकृत नवपदपूजा. ३३१ परईहा टले ॥ निज शुद्ध सत्ता प्रगट अनुभव, करणरुचिता उबले ॥ बहुमान परिणति वस्तुतत्त्वे, अव तसु कारणपणे ॥ निज साध्यदृष्टे सर्व करणी, तत्त्वता संपत्ति गणे ॥ २ ॥ ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी ॥ ॥ शुद्ध देव गुरु धर्म परीक्षा, सदहणा परिणाम ॥ जेह पामीजे तेह नमीजे, सम्यग्दर्शन नाम रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २६ ॥ मल उपशम दय उपशम हयथी, जे होय त्रिविध अनंग ॥ सम्यग्दर्शन तेह नमीजे, जिनधर्मे दृढ रंग रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २७ ॥ पंच वार उपशमीय लहीजे, दय उपशमीय असंख ॥ एक वार कायिक ते समकित दर्शन नमीए असं रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २८ ॥ जे विष नाण प्रमाण न होवे, चारित्रतरु नवि फलीयो ॥ सुख निर्वाण न जे विष लहीए, समकितदर्शन बलीयो रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २५ ॥ समसठ बोले जे अलंकरीयुं, ज्ञान चारित्रनुं मूल ॥ समकितदर्शन ते नित्य प्रणमुं, शिवपंथनुं अनुकूल रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ३० ॥ ॥ ढाल ॥ ॥ शम संवेगादिक गुणा, दय उपशम जे आवे For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. रे ॥ दर्शन तेहीज आतमा, शुं होय नाम धरावे रे॥ वीर ॥७॥इति षष्ठ सम्यक्त्वदर्शनपदपूजा समाप्ता॥ ॥ अथ सप्तम सम्यग्झानपदपूजा प्रारंनः ॥ ॥ काव्यं ॥ अवज्रावृत्तम् ॥ ॥ अन्नाणसंमोहतमोदरस्स। ॥नमो नमो नाणदिवायरस्स ॥ ॥नुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ होये जेहथी झान शुद्ध प्रबोधे, यथावरण नासे विचित्रावबोधे॥ तेणे जाणीए वस्तु षड् अव्य नावा, न हुये वितळा ( वाद) निजेठा खजावा ॥१॥ होय पंच मत्यादि सुझाननेदे, गुरूपास्तिथी योग्यता तेह वेदे॥वली ज्ञेय हेय उपादेयरूपे, लहे चित्तमां जेम ध्वांत प्रदीपे ॥२॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी॥ ॥ नव्य नमो गुणज्ञानने, स्वपर प्रकाशक नावे जी॥ परजय धर्म अनंतता, नेदानेद खनावे जी ॥१॥ जलालो ॥ जे मुख्य परिणति सकल झायक, बोध नाव विलना॥मति आदि पंच प्रकार निर्मल, सिक साधन ललना॥ स्याहादसंगी तत्वरंगी,प्रथम नेदा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयशोविजयजीकृत नवपदपूजा. ३३३ नेदता ॥ सविकल्प ने अविकल्प वस्तु, सकल संशय बेदता ॥२॥ ॥पूजा ॥ ढाल ॥श्रीपालना रासनी॥ ॥जदाजद न जे विण लहीए, पेय अपेय विचार ॥ कृत्य अकृत्य न जे विण लहीए, ज्ञान ते सकल आधार रे ॥ न ॥ सि ॥३१॥प्रथम ज्ञान ने पठी अहिंसा, श्रीसिद्धांते नाख्युं ॥ ज्ञानने वंदो ज्ञान म निंदो, ज्ञानीए शिवसुख चाख्युं रे ॥ न॥ सि० ॥ ३२ ॥ सकल क्रियानुं मूल ते श्रझा, तेहy मूल जे कहीए ॥ तेह ज्ञान नित नित वंदीजे, ते विण कहो केम रहीए रे॥न॥ सि०॥३३॥पंच ज्ञान मांहि जेह सदागम, स्वपर प्रकाशक जेह ॥ दीपक परे त्रिजुवन उपकारी, वली जेम रवि शशी मेह रे ॥न॥ सि ॥ ३४ ॥ लोक ऊर्ध्व अधो तिर्यग् ज्योतिष, वैमानिक ने सिझ॥ लोकालोक प्रगट सवि जेहथी, ते झाने मुज शुरू रे ॥०॥ सि॥३५॥ ॥ढाल ॥ ॥झानावरणी जे कर्म ,दय उपशम तस थाय रे॥ तो हुए एहीजातमा, ज्ञान अबोधता जाय रे॥वी ॥ ॥ति सप्तम सम्यग्ज्ञानपदपूजा समाप्ता॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ अष्टम चारित्रपदपूजा प्रारंनः॥ ॥ काव्यं ॥ अवज्रावृत्तम् ॥ ॥ आराहिअखंडीअ सकिस्स ॥ ॥णमो णमो संजमवीरिअस्स ॥ ॥ जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ वली कानफल चरण धरीए सरंगे. निराशंसता हाररोधप्रसंगे॥ नवांनोधिसंतारणे यान तुल्यं, धरं तेह चारित्र अप्राप्तमूल्यं ॥१॥ होये जास महिमा थकी रंक राजा, वली छादशांगी जणी होय ताजा ॥ वली पापरूपोपि निःपाप थाय, थ सिद्ध ते कर्मने पार जाय ॥२॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ ॥ चारित्रगुण वली वली नमो, तत्वरमण जसु मूलो जी ॥ पररमणीयपणुं टले, सकल सिक अनुकूलो जी ॥१॥ उलालो ॥ प्रतिकूल थाश्रवत्याग संयम, तत्व थिरता दममयी ॥ शुचि परम खंति मुत्ति दश पद, पंच संवर उपचई॥ सामायिकादिक नेद धर्मे, यथाख्याते पूर्णता ॥ अकषाय अकलुष अमल उज्ज्वल, कामकश्मलचूर्णता ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयशोवियजीकृत नवपदपूजा. ३३५ ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी॥ ॥ देशविरति ने सरवविरति जे, गृही यतिने अनिराम ॥ ते चारित्र जगत् जयवंतुं, कीजे तास प्रणाम रे॥ न ॥ सि० ॥३६॥ तृण परे जे षट् खंग सुख बंडी, चक्रवर्ती पण वरीयो ॥ते चारित्र अदय सुखकारण, ते में मन मांहे धरीयो रे॥०॥ सिण ॥ ३७॥हुआ रांकपणे जे आदरी, पूजित इंद नरिंदे॥ अशरण शरण चरण ते वंछ, पूस्खु ज्ञान आनंदे रे ॥ ज० ॥सि॥३॥बार मास पर्याये जेहने, अनुत्तर सुख अतिक्रमीए ॥ शुक्ल शुक्ल निजात्य ते उपरे, ते चारित्रने नमीए रे ॥ ज० ॥ सि॥३ए॥चय ते आठ करमनो संचय, रिक्त करे जे तेह ॥चारित्र नाम निरुत्ते जाख्युं, ते वंडं गुणगेह रे॥०॥ सि०॥४०॥ ॥ ढाल॥ ॥ जाणो चारित्र ते आतमा, निज खनावमां रमतो रे॥लेश्या शुभ अलंकस्यो,मोहवने नवि जमतो रे॥वी॥ए॥श्त्यष्टम चा। समाप्ता॥॥ ॥अथ नवम तपःपदपूजा प्रारंनः॥ ॥ काव्यं ॥ वज्रावृत्तम् ॥ ॥ कम्मदुमोम्मूलणकुंजरस्स ॥ ॥ नमो नमो तिवतवोनरस्स ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. __॥ मालिनीवृत्तम् ॥ ॥श्यनवपयसिहं, लझिविजासमिकं ॥ पयमियसुरवग्गं,कीतिरेहासमग्गं॥ दिसवश्सुरसारं,खोणिपीढावयारं ॥ तिजय विजयचकं, सिहचकं नमामि ॥१॥ ॥जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ त्रिकालिकपणे कर्म कषाय टाले, निकाचितपणे बांधीयां तेह बाले ॥ कर्वा तेह तप बाह्य अंतर उन्नेदे, दमा युक्त निर्हेतु पुर्ध्यान दे॥२॥ होये जास महिमा थकी लब्धि सिद्धि, श्रवांडकपणे कर्म श्रावरणशुफि॥ तपो तेह तप जे महानंद हेते, होय सिकि सीमंतिनी जिम संकेते ॥३॥ इस्या नव पद ध्यानने जेह ध्यावे, सदानंद चिद्रूपता तेह पावे ॥ वली ज्ञान विमलादि गुणरत्नधामा, नमुं ते सदा सिमचक्रप्रधाना ॥४॥ ॥ मालिनीवृत्तम् ॥ ॥श्म नव पद ध्यावे, पर्म थानंद पावे, नवमे जव शिव जावे, देव नरनव पावे ॥ ज्ञानविमल गुण गावे, सिद्धचक्रप्रजावे, सवि दुरित समावे, विश्व जयकार पावे ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयशोविजयजीकृत नवपदपूजा. ३३७ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ ॥ चारोधन तप नमो, बाह्य अभ्यंतर नेदे जी॥ श्रातमसत्ता एकता, परपरिणति उछेदे जी ॥१॥ जलालो॥ उछेद कर्म अनादि संतति, जेह सिझपणुं वरे॥योगसंगे आहार टाली, नाव अक्रियता करे ॥ अंतरमुहरत तत्त्व साधे, सर्व संवरता करी॥ निज आत्मसत्ता प्रगट नावे, करो तप गुण श्रादरी॥२॥ ॥ ढाल ॥ ॥एम नव पद गुणमंगलं, चल निक्षेप प्रमाणे जी ॥ सात नये जे श्रादरे, सम्यग्ज्ञानने जाणे जी ॥३॥ उलालो ॥ निरिसेती गुणी गुणनो, करे जे बहुमान ए॥तसुकरण हा तत्त्वरमणे, थाय निर्मल ध्यान ए ॥ एम शुझसत्ता नल्यो चेतन, सकल सिकि अनुसरे ॥ अदय अनंत महंत चिद्घन, परम आनंदता वरे ॥४॥ ॥ कलश ॥ ॥श्य सयल सुखकर गुणपुरंदर, सिमचक्र पदावली ॥सवि लकि विद्या सिधिमंदर,नविक पूजो मन रुली॥ उवजायवर श्रीराजसागर,झानधर्म सुराजता ॥ गुरु दीपचंद सुचरण सेवक, देवचंद सुशोजता॥१॥ वि० २२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्री पालना रासनी ॥ ॥ जाता त्रिहुं ज्ञाने संयुत, ते जव मुक्ति जिणंद ॥ जेह च्यादरे कर्म खपेवा, ते तप शिवतरुकंद रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४१ ॥ कर्म निकाचित पण दय जाये, क्षमा सहित जे करतां ॥ ते तप नमीए जेह दीपावे, जिनशासन उजमंतां रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४२ ॥ खामोसी पमुहा बहु लद्धि, होवे जास प्रजावे ॥ ष्ट महा सिद्धि नव निधि प्रगटे, नमीए ते तप जावेरे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४३ ॥ फल शिवसुख महोढुं सुर नर वर, संपत्ति जेहनुं फूल ॥ ते तप सुरतरु सरिखुं वंएं, शम मकरंद मूल रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४४ ॥ सर्व मंगल मांहि पहेलुं मंगल, वरणवीए जे ग्रंथे ॥ ते तपपद त्रिहुं काल नमीजे, वर सहाय शिवपंथे रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४५ ॥ एम नव पद थुणतो तिदां लीनो, हुई तन्मय श्रीपाल ॥ सुजश विलास बे चोथे खंडे, एह अग्यारमी ढाल रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४६ ॥ ॥ ढाल ॥ " ॥ छारोधे संवरी परिणति समतायोगे रे ॥ तप ते एहीज प्रातमा, वर्ते निज गुण जोगे रे ॥ वी० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयशोविजयजीकृत नवपदपूजा. ३३ए ॥१०॥ श्रागम नोआगम तणो, नाव ते जाणो साचो रे ॥ आतमनावे थिर होजो, परनावे मत राचो रे ॥ वी० ॥ ११॥ अष्ट सकल समृधिनी, घट मांहे ज्ञछि दाखी रे॥तेम नव पद ऋषि जाणजो, बातमराम डे साखी रे ॥ वी० ॥ १२ ॥ योग असंख्य जिन कह्या, नव पद मुख्य ते जाणो रे ॥ एह तणे अवलंबने, आतमध्यान प्रमाणो रे ॥ वी०॥१३॥ ढाल बारमी एहवी, चोथे खंडे पूरी रे ॥ वाणी वाचक जश तणी, को नये न अधूरी रे ॥ वीन ॥ १४ ॥ इति नवम तपःपदपूजा समाप्ता ॥ ए॥ ॥अथ काव्यं ॥ पुतविलंबितवृत्तम्॥ ॥विमलकेवलनासननास्कर, जगति जंतुमहोदयकारणं ॥ जिनवरं बहुमानजलौघनं, शुचिमनाःस्नपयामि विशुफये॥१॥इति काव्यम्॥आ काव्य प्रत्येक पूजा दी कहे. ॥ स्नान करतां जगशुरु शरीरे, सकल देवे विमल कलश नीरे ॥ श्रापणा कर्ममल पूर कीधा, तेणे ते विबुध ग्रंथे प्रसिझा ॥२॥हर्षधरी अप्सरावृंद आवे, स्नात्र करी एम आशीष जावे॥ जिहां लगे सुरगिरि जंबूदीवो, अम तणा नाथ देवाधिदेवो ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम ॥ अथ नवपदकाव्यानि प्रारभ्यन्ते ॥ ॥ तत्र प्रथम श्री अरिहंतपद काव्यम् ॥ इंद्रवज्रावृत्तम् ॥ ॥ नियंतरंगा रिंगणे सुनाणे, सप्पामिदेराइ सयप्पदाणे ॥ संदेहसंदोदरयं दरंतो, काएद निच्वंपि जिणे रदंतो ॥ १ ॥ ॥ ॥ श्री सिद्धपदकाव्यम् ॥ कम्मावरण पमुक्के, अनंतनाणाइ सीरीचक्के ॥ समग्गलोगग्ग पयचसिदे, फाएद निच्चं पि समग्गसिदे ॥ २ ॥ ॥ श्रीश्राचार्यपदकाव्यम् ॥ ॥ सुतसंवेगमयं सुरणं, संनी रखीरामय विसुपणं ॥ पीनंति जे ते नवनायराए, फाएद निच्चपि कयप्पसाए ॥ ३ ॥ ॥ श्रीउपाध्यायपदकाव्यम् ॥ ॥ ननं सुहं नहि पीया न माया, जे दंति जिवान्दिसूरी सपाया ॥ तम्हाहु ते चैव सया जजेद, जं मुस्क सुकाई बहु सदेह ॥ ४ ॥ ॥ श्री साधुपद काव्यम् ॥ ॥ खंतेय दंतेय सुगुत्तिगुत्तो, मुत्तेय संते गुण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयशोविजयजीकृत नवपदपूजा. ३४१ जोगजुत्तो॥गयप्पमाए गयमोदमाए, काएद निच्चं मुणिरायपाए ॥ ५॥ ॥श्रीसम्यग्दर्शनपदकाव्यम् ॥ ॥जं दवबिकायेसु सद्ददाणं, तं दंसणं सबगुणप्पदाणं ॥ कुग्गदि वाही उवयंति जेणं, जहाविधेण रसायणेणं ॥ ६॥ ॥श्रीसम्यग्ज्ञानपदकाव्यम् ॥ ॥ नाणं पहाणं नयचकसिई, ततवबोदीक मयं पसिई ॥धरेद चित्तावसए फुरंतं माणिकदिवतमो हरंतं ॥ ७॥ ॥श्रीचारित्रपदकाव्यम् ॥ ॥सुसंवरं मोदनिरोधसारं, पंचप्पयारं विगमाश्यारं ॥ मूलोत्तराणेगगुणं पवित्तं, पालेद निच्चंपि हु सच्चरित्तं ॥७॥ ॥श्रीतपःपदकाव्यम् ॥ ॥बन्नं तदा निंतरनेयमेय, कयाय ज्येय कुकम्मनेय।उस्करकय कयपावनासं,तवेण दादागमयं निरासं॥ए॥इति नवपदकाव्यानि सं०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ अथ श्रीदेवविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा प्रारंजः ॥ ॥ तत्र ॥ ॥ प्रथम न्दवणपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ॥ अजर अमर निकलंक जे, अगम्य रूप अनंत ॥ अलख अगोचर नित्य नमुं, परम प्रस्तावंत ॥१॥श्री संजव जिन गुणनिधि, त्रिभुवन जन हितकार ॥ तेहना पद प्रणमी करी, कहीशुं अष्ट प्रकार ॥२॥प्रथम न्हवणपूजा करो, बीजी चंदन सार॥ त्रीजी कुसुम वली धूपनी,पंचम दीप मनोहार ॥३॥ अदत फल नैवेद्यनी, पूजा अतिहि उदार॥जे नवियण नित नित करे, ते पामे नवपार ॥ ४॥ रतन जमित कलशे करी, न्हवण करो जिननूप॥ पातकपंक पखालतां, प्रगटे श्रात्मस्वरूप ॥ ५॥ अव्य नाव दोय पूजना, कारण कार्य संबंध ॥ नावस्तव पुष्टि जणी, रचना अव्य प्रबंध ॥६॥ शुज सिंहासन मांमीने, प्रनु पधरावो जक्त ॥पंच शब्द वाजि. त्रशुं, पूजा करीए व्यक्त ॥ ७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेव विजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. ३४३ ने हांरे जिनमंदिर रलियामणुं रे ॥ ए देशी ॥ ॥ ढाल पहेली ॥ ॥ छने हांरे न्हवण करो जिनराजने रे, ए तो शुद्धावन देव ॥ परमातम परमेसरू रे, जसु सुर नर सारे सेव ॥ न्ह० ॥ १ ॥ ० ॥ मागध तीर्थ प्रजासनां रे, सुरनदी सिंधुनां लेव ॥ वरदाम दीरसमुद्रनां रे, नीरे न्हवे जेम देव ॥ न्ह० ॥ २ ॥ श्र० ॥ तेम जवि जावे तीर्थोदके रे, वासो वास सुवास ॥ औषधी पण जेली करो रे, अनेक सुगंधित खास ॥ ० ॥ ३ ॥ ० ॥ काल अनादि मल टालवा रे, जालवा आतमरूप ॥ जलपूजा युक्त करी रे, पूजो श्री जिननूप ॥ न्ह० ॥ ४ ॥ ० ॥ विप्रवधू जलपूजयी रे, जेम पामी सुख सार ॥ तेम तमे देवाधिदेवने रे, अर्ची लहो जवपार ॥ न्ह० ॥ ५॥ ॥ श्रथ काव्यं ॥ विमल केवलदर्शनसंयुतं, सकलजंतुमहोदयकारणं ॥ खगुणशुद्धिकृते स्त्रपयाम्यहं, जिनवरं नवरंगमयांजसा ॥ १ ॥ इति प्रथम जलपूजा समाप्ता ॥ १॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ द्वितीय चंदनपूजा प्रारंजः ॥ ___॥ दोहा॥ ॥ हवे बीजी चंदन तणी, पूजा करो मनोहार ॥ मिथ्या ताप अनादिनो, टालो सर्व प्रकार ॥१॥ पुजल परिचय करी घणो,प्राणी थयो पुर्वास ॥सुगंध अव्य जिनपूजने, करो निज शुरू सुवास ॥२॥ ॥ ढाल बीजी ॥ मनथी मरणां, परनारीसंग न करणां ॥ ए देशी ॥ ॥ नवि जिन पूजो, मुनियामां देव न दूजो॥जे थरिहा पूजे, तस नवनां पातक भ्रूजे ॥ न॥१॥ प्रजुपूजा बहु गुण नरी रे, कीजे मनने रंग ॥ मन वच काया थिर करी रे, अरचो अरिहा अंग॥ज० ॥२॥ केसर चंदन घसी घणुं रे, मांहे नेली घन. सार ॥ रत्नकचोली मांहे धरी रे, प्रजुपद चर्चा सार ॥ न० ॥३॥ नवदवताप शमाववा रे, तरवा नवजलतीर ॥ आतमस्वरूप नीहालवा रे, रुडो जगगुरु धीर ॥ न० ॥४॥ पद जानु कर अंश शिरे रे, नाल गले वली सार ॥ हृदय उदर प्रजुने सदा रे, तिलक करो मन प्यार ॥ ज० ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेव विजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. ३४५ एणिविध जिनपद पूजना रे, करतां पाप पलाय ॥ जेम जयसुर ने शुजमति रे, पाम्यां अविचल गय ॥ न० ॥६॥ काव्यं ॥जगपाधिचया हितं हितं, सहजतत्त्वकृते गुणमंदिरं॥विनयदर्शनकेशरचंदन,रमलहन्मलहजिनमर्चये ॥ १॥ इति द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता ॥२॥ ॥ अथ तृतीय कुसुमपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥त्रीजी कुसुम तणी हवे, पूजा करो सदनाव ॥ जेम पुष्कृत पूरे टले, प्रगट आत्मस्वनाव॥१॥जे जन षट् शतु फूलशें, जिन पूजे त्रण काल ॥सुर नर शिवसुख संपदा, पामे ते सुरसाल ॥२॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ साहेलमीयांनी ॥ देशी ॥ ॥ कुसुमपूजा नवि तुमे करो ॥ साहेलमीयां ॥ श्राणी विविध प्रकार ॥ गुण वेलमीयां ॥ जा जूई केतकी ॥ सा ॥ दमणो मरु सार ॥ गुण ॥१॥ मोघरो चंपक मालती ॥ सा ॥ पामल पद्म ने वेल॥ गु० ॥ बोलसिरी जासूलशुं ॥ सा ॥ पूजो मनने गेल ॥ गु० ॥२॥ नाग गुलाब सेवंतरी ॥ सा० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. चंपेली मचकुंद ॥गु०॥सदा सोहागण दाउदी॥सा॥ प्रियंगु पुन्नागनां वृंद ॥ गु० ॥३॥ बकुल कोरंट अंकोलथी ॥ सा० ॥ केवमो ने सहकार ॥ गुण॥ कुंदादिक पमुहा घणे ॥ सा॥ पुष्प तणे विस्तार ॥ गुण ॥४॥ पूजे जे नविनावगुं॥ सा० ॥श्री जिन केरा पाय ॥ गु० ॥ वणिकसुता लीलावती ॥ साजिम लहे शिवपुर गय ॥ गु० ॥५॥ काव्यं ॥ सुकरुणा सुनृताविमार्दवैः, प्रशमशौचशमादिसुमैर्जनाः ॥ परमपूज्यपदस्थितमर्चितं, परमुदारमुदारगुणं जिनं ॥१॥ इति तृतीय पुष्पपूजा समाता ॥३॥ ॥अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥अर्चा धूप तणी करो, चोथी हर्ष मंद ॥कमेंधन दाहन जणी, पूजो श्री जिनचंद ॥१॥सुविधि धूप सुगंधशुं, जे पूजे जिनराय ॥ सुर नर किन्नर ते सवि, पूजे तेहना पाय ॥२॥ ॥ ढाल चोथी ॥ सामरी सुरत पर मेरो दिन अटक्यो ॥ए देशी ॥ ॥ अरिहा श्रागे धूप करीने, नरजव लाहो लीजे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. ३४७ री ॥ अगर चंदन कस्तूरी संयुक्त, कुंदरु माहे धरीजे री॥ अरि ॥१॥चूरण शुद्ध दशांग अनो. पम, तुरक अंबर नावीजे री॥ रत्न जमित धूपधाणा मांहे, शुन घनसार उवीजे री॥ अरि० ॥२॥ पवित्र थइ जिनमंदिर जश्ने, आशय शुक करीजे री॥धूप प्रगट वामांगे धरतां, जव जव पाप हरीजे री॥ अरि॥३॥ समतारस सागर गुण सागर, परमातम जिन पूरा री॥ चिदानंदधन चिन्मय मूरति, जगमग ज्योति सनूरा री ॥ अरि ॥ ४ ॥ एहवा प्रजुने धूप करतां, अविचल सुखमां लहीए री॥ इह लव परजव संपत्ति पामे, जेम विनयं. धर कहीए री॥ अरि० ॥ ॥ काव्यं ॥ अशुजपुजलसंचयवारणं, समसुगंधकरं तपधूपनं ॥जगवता सुपुरोहितकर्मणां, जयवतो यवतोऽदयसंपदा ॥१॥ इति चतुर्थ धूपपूजा समाप्ता ॥४॥ ॥ अथ पंचम दीपकपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा॥ ॥ निश्चय धन जे निज तणुं, तिरोनाव ने तेह ॥ प्रमुख अव्य दीपक धरी, आविरजाव करेह ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. निव दीपक ए प्रभु, पूजी मागो देव ॥ ज्ञान तिमिर जे अनादिनुं, टालो देवाधिदेव ॥ २॥ ॥ ढाल पांचमी ॥ कुमखमानी देशी ॥ | जावदीपक प्रभु खागले, द्रव्यदीपक उत्साहे ॥ जिनेसर पूजीए ॥ प्रगट करी परमातमा, रूप जावो मन मांहे ॥ जि० ॥ १ ॥ धूम कषाय न जेहमां, न बीपे पतंगने हेज ॥ जि० ॥ चरण चित्रामण नवि चले, सर्व तेजनुं तेज ॥ जि० ॥ २ ॥ अधन करे जे आधारने, समीर तो नहीं गम्य ॥ जि० ॥ चंचल जाव जे नविलहे, नित्य रहे वली रम्य ॥ जि० ॥ ३ ॥ तैल प्रदेष जिहां नहीं, शुद्ध दशा नहीं दाह || जि० ॥ अपर दीपक ए अरचतां, प्रगटे प्रशम प्रवाह || जि० ॥ ४ ॥ जेम जिनमती ने धनसिरि, दीप पूजनथी दोय ॥ जि० ॥ श्रमरगति सुख अनुभवी, शिवपुर पोहोती सोय ॥ जि० ॥ ५ ॥ काव्यं ॥ बहुलमोहत मिस्र निवारकं, खपरवस्तुविकासनमात्मनः ॥ विमलबोधसुदीपकमादधे, भुवनपावनपारगतायतः ॥ १ ॥ इति पंचम दीपकपूजा समाप्ता ॥ ५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेव विजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. ३४ए ॥अथ षष्ठादतपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ॥ सम कितने अजुश्रालवा, उत्तम एह उपाय ॥ पूजाथी तुमे प्रीब्जो, मन वंबित सुख थाय ॥१॥ अदत शुरू अखंडणुं, जे पूजे जिनचंद ॥ लहे अखंमित तेह नर, अदय सुख आणंद ॥२॥ ॥ ढाल नही॥ धर्मजिणंद दयालजी, धर्म तणो दाता ॥ ए देशी ॥ ॥ अदतपूजा नविकीजे जी,अदत फल दाता ॥शालि गोधूम पण लीजे जी॥०॥ प्रनु सन्मुख स्वस्तिक कीजे जी॥०॥मुक्ताफल विचमे दीजे जी ॥अ॥१॥एहवा उज्ज्व ल अदत वास। जा॥ ॥ शुन तंकुल वासे उबासी जी ॥ अ० ॥चूरक चत. गति चित्त चोखे जी॥१०॥पूरी श्रदय सुख लहो जोखे जी ॥ १० ॥२॥ पुनरावर्त्त हरवा हाथे जी ॥ श्र० ॥ नंदावर्त्त करो रंग साथे जी ॥ अ० ॥ कर जोमी जिनमुख रहीने जी॥०॥एम आखो शिव दीयो वहीने जी ॥ अ० ॥३॥ जगनायक जगगुरु जेता जी॥०॥ जगबंधु अमल विजु नेताजी॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ब्रह्मा ईश्वर वमनागी जी ॥ १०॥ योगीश्वर विदित वैरागी जी ॥ अ॥४॥ एहवा देवाधिदेवने पूजे जी ॥ १०॥ जवनवनां पातक भ्रूजे जी॥०॥जेम कीरयुगल नवपार जी ॥ १०॥ लहे अदत पूज प्रकार जी॥ अ०॥५॥ काव्यं ॥ सकलमंगलसंजवकारणं, परममदतनावकृते जिनं ॥ सुपरिणाममयैरहमदतैः, परमया रमया युतमर्चये ॥ इति षष्ठादतपूजा समाप्ता ॥६॥ ॥अथ सप्तम फलपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥श्रीकार उत्तम वृदाना, फल लेश्नर नार ॥ जिनवर आगे जे धरे, सफलो तस अवतार ॥१॥ फलपूजानां फल थकी, कोमि होय कल्याण ॥ अमर वधू उलट धरी, तस धरे चित्तमां ध्यान ॥२॥ ॥ ढाल सातमी ॥ बिंदलीनी देशी ॥ ॥ फलपूजा करो फलकामी, अनिनव प्रजु पुण्ये पामी हो ॥ प्राणी जिन पूजो ॥ श्रीफल अखोक बदाम, सीताफल दामिम नाम हो ।प्रा०॥१॥जमरुख तरबुज केला, निमजां कोहला करो नेलां हो ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. ३५१ प्रा० ॥ पीस्तां फनस नारंग, पूंगी चूअफल घj चंग हो ॥प्राण ॥२॥ खरबूज जाख अंजीर, अन्नास रायण जंबीर हो ॥ प्राण ॥ मिष्ट लींबु ने अंगुर, शिंगोमां टेटी बीजपूर हो॥प्रा०॥३॥ एम जे जे विषय लहंत, ते ते जिनजुवने ढोयंत हो ॥ प्रा० ॥ अनुपम थाल विशाल, तेहमां जरीने सुरसाल हो ॥ प्राण ॥४॥फलपूजा करे जे नावे, ते शिवरमणी सुख पावे हो॥प्रा०॥र्गता नारी जेम, लहे कीरयुगल वली तेम हो॥प्रा॥५॥ काव्यं ॥श्रमलशांतिरसैकनिधि शुचिं, गुणफलैर्मलदोषहरैर्हरं ॥ परमशुद्धिफलाय यजे जिनं, परहितं रहितं परनावतः ॥१॥ इति सप्तम फलपूजा समाप्ता ॥ ७॥ ॥ अथाष्टम नैवेद्यपूजा प्रारंजः ॥ - ॥ दोहा॥ ॥जवदव दहन निवारवा, जलदघटा सम जेह ॥ जिनपूजा युगते करी, त्रिविधे कीजे तेह ॥१॥ पूजा कुगतिनीअर्गला, पुण्य सरोवर पाल ॥ शिवगतिनी साहेलडी, आपे मंगलमाल ॥२॥ शुन नवेद्य शुल नावगुं, जिन आगे धरे जेह ॥सुर नर शिवपद सुख लहे, हलीय पुरुष परे तेह ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ ढाल आठमी ॥ श्रावण मासे स्वामी, मेहेली चाल्या रे ॥ ए देशी ॥ ॥ हवे नैवेद्य रसाल, प्रनुजी आगे रे ॥ धरतां जवि सुखकार, प्रजुता जागे रे ॥ कंचन जमित उदार, थालमां लावो रे ॥ तार तार मुज तार, नावन जावो रे ॥१॥ लापसी सेव कंसार, लामु ताजा रे॥ मनोहर मोतीचूर, खुरमा खाजां रे॥ बरफी पेंडा खीर, घेवर घारी रे ॥ साटा सांकली सार, पूरी खारी रे ॥२॥ कसमसीया कूलेर, सकरपारा रे ॥ लाखणसाइरसाल, धरो मनोहारा रे॥मोतैया कलि. सार, आगे धरीए रे ॥ नव जव संचित पाप, दणमां हरीए रे॥३॥ मुरकी मेसुर दहींथरां, वरसोला रे ॥ पापम पूरी खास, दोगं घोला रे ॥गुंदवमां ने रेवमी, मन नावे रे॥ फेणी जलेबी मांहे. सरस सोहावे रे ॥४॥ शालि दाल ने सालणां, मनरंगे रे ॥ विविध जाति पकवान, ढोवो चंगे रे ॥ ताल कंसाल मृदंग, वीणा वाजे रे ॥ नेरी नफेरी चंग, मधुर ध्वनि गाजे रे ॥५॥ सोल सजी शणगार, गोरी गावे रे ॥ देतां अढलक दान, जिन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेव विजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. ३५३ घर आवे रे ॥ एणी परे श्रष्ट प्रकार, पूजा करशे रे ॥ नृप हरिचंड परे तेह, जवजल तरशे रे ॥६॥ काव्यं ॥ सकलचेतनजीवितदायिनी, विमलनक्तिविशुछिसमन्विता ॥ जगवतः स्तुतिसारसुखासिका, श्रमहरा महरास्तु विजोः पुरः ॥ इत्यष्टम नैवेद्यपूजा समाप्ता ॥७॥ ॥ ढाल नवमी ॥ नमो नवि नावशु ए ॥ए देशी॥ ॥ अष्टप्रकारी चित्त नावीए ए, श्राणी हर्ष श्रपार ॥ नविजन सेवीए ए॥ अष्ट महासिकि संपजे ए, अम्बुझि दातार ॥ नवि० ॥१॥अमदिहि पण पामीए ए, पूजथी नवि श्रीकार ॥ न० ॥ अनुक्रमे अष्ट करम हणी ए, पंचमी गति लहो सार ॥ न ॥२॥ शा न्हाना सुत सुंदरु ए, विनयादिक गुणवंत ॥ ज० ॥ शाह जीवणना कहेणथी ए, कीयो अन्यास ए संत ॥ न०॥३॥ सकल पंमित शिरसेहरो ए, श्रीविनीतविजय गुरुराय॥ज॥ तास चरणसेवा थकी ए, देवनां वंबित थाय ॥०॥४॥ शशी नयन गज विधु वरु ए, (१४२१) नाम संवत्सर जाण ॥०॥ तृतीया सित शो तणी ए, शुकरवार वि.२३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. प्रमाण ॥ न० ॥५॥पादरा नगर विराजता ए, श्रीसंजव सुखकार ॥ न० ॥ तास पसायथी ए रची एं, पूजा अष्ट प्रकार ॥ ज० ॥६॥ ॥ कलश ॥ ॥ इह जगत्स्वामी मोहवामी, मोक्षगामी सुखकरू॥प्रनु अकल श्रमल अखंम निर्मल, नव्य मिथ्या तम हरू ॥ देवाधिदेवा चरणसेवा, नित्यमेवा थापीए॥निज दास जाणी दया आणी, आप समोवम थापीए ॥१॥ श्लोक ॥ इति जिनवरदं, शुद्धजावेनकीर्ति,-विमल मिह जगत्यां, पूजयंत्यष्टधा ये ॥ निजकलिमलहेतोः, कर्मणोऽतं विधाय, परमगुणमयं ते, यांति मोदं हि वीराः ॥ १॥ शनि अष्टप्रकारी पूजा संपूर्णा ॥ ॥ इति श्रीदेव विजयजीकृता अष्ट प्रकारी पूजा संपूर्णा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३५५ ॥ अथ ॥ ॥ श्री सकलचंदजी उपाध्यायकृत एकवीशप्रकारी पूजा प्रारंभः ॥ ॥ तत्र ॥ ॥ प्रथम जलपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ प्रयमं प्रथम जिणंदने, जगवति कर सुपसाय ॥ पूजा एकवीरा द्रव्यशुं जावमंगल उपाय ॥ १ ॥ न्हवण वस्त्र चंदन करी, कुसुम वास चूनार ॥ माला अष्ट मंगल जणी, दीप धूपात धार ॥ २ ॥ धर्मध्वज चामर सही, बत्रे मुकुट विशेष ॥ दर्पण दर्शन दाखवे, नैवेद्य फल सुगृहेश || ३ || गीत नह वाजित्रशुं जन पूजे जिनइंद ॥ काउस्सग्गध्याने जेथे करी, पूजा सकल मुनिचंद ॥ ४ ॥ " ॥ प्रथम पूरव दिशे ॥ ए देशी || राग देशाख ॥ ॥ प्रथम जिननायकं, पूजी सुखदायकं, खीरसमुद्र जल, शुं जरी ए ॥ १ ॥ कनककलशा धरी, गंधोदके तेह नरी, श्री जिनचरणे, नमन करे ए ॥ २ ॥ द्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जाणी करे, हर्ष उलट धरे, धन्य कृतारथ, नव करे ए ॥३॥ प्रथम जिनपूजना, एणी विधे नविजना, सकल मुनि काउस्सग्गे, एम नणे ए॥ ४॥ इति प्रथम जलपूजा समाप्ता ॥१॥ ॥ अथ द्वितीय वस्त्रपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ निर्मल एह जिनगात्रशु, निर्मल जेहनी कांति।। अंगलूहणां अंगे करी, टालो मननी ब्रांति ॥१॥ ॥ध्रुवपदं ॥ श्राशावरी तथा गोमीरागण गीयते ॥ ॥ उज्ज्वल वस्त्रादिक नणी, उज्ज्वल चित्तआणी॥ वस्त्र श्वेत जिन पूजतां, परमानंद निशाणी ॥१॥ इंसादिक प्रनु पूजीयो, ते परे केम होय प्राणी॥तोपण मुज तुज रीजशु, पूजा अधिक में जाण ॥इंसान ॥२॥ देवष्य वस्त्र लायके, अंगलूहणां करीए । इंश नक्ति करे जावगुं, चपल चित्त ठरीए॥ इंसान ॥३॥ उज्ज्वल चित्त लगायके, प्रनुपूजा कीजे ॥ उपशम रस नरी ते पीए, परम महारस लीजे॥ इंजा ॥ ४॥ इति द्वितीय वस्त्रपूजा समाप्ता ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३५७ ॥ अथ तृतीय चंदनपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ शीतल गुण जेमा रह्यो, शीतल जिन सुखसंग ॥ चंदन घन शुज सारशें, पूजीजे मनरंग॥१॥ ॥ध्रुवपदं ॥ आशावरीरागेण गीयते ॥ ॥बावनाचंदन,घसी घनसारशुं,कनककचोली,लेश्ए ए॥वास सुवास, बरास नेलीने, सुरनिवर कस्तूरी, देशए ए॥बावना॥१॥ए आंकणी॥प्रथम चरणमे, पूजी जानू करे,अंश शिर जालमां, सोहीए ए ॥कंठ हृदि उदर,नव दीजीए,एणी विधेप्रनुपूजा, मोहीए ए ॥ बावना० ॥२॥सादिक परे, केम हम होवत, तोनी हम तुम, संगीए ए॥ देवी देवादिक, गात्र विलेपीने, सकल पुरित जय, जंजीए ए ॥बावना ॥३॥ इति तृतीय चंदनपूजा समाप्ता ॥३॥ ॥ अथ चतुर्थ पुष्पपूजा प्रारंनः ॥ ॥दोहा॥ ॥ जाई जुई सेवंतरी, प्रफुद्धित वेली विशाल ॥ जिनचरणे चढावतां, कुरित हरे तत्काल ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ आशावरीरागण गीयते ॥ ॥ कमल कुसुमवर विविध जातिशू, वेली वालो विशाल रे॥ चंपक केतकी कुंद जासुलवर, पामल लाल गुलाल रे॥कमल०॥१॥ए आंकणी॥मोगरोमालती दमण जातिशू,बोल सिरीनाग प्रियंगो रे॥कुंद मचकुंद विमालया जातिशू, दाउदीसंग अनंगोरे॥ कमल ॥२॥ इंज शादिक नक्ति करे मली, हर्षधरी मनरंगे रे॥ विविध जाति वर कुसुम ग्रहीने, अनु पूजे चित्त चंगे रे॥कमल॥३॥सूर्याज नावे करी जिनपूजा, शुज शुन फल तेम लाजे रे ॥ तसफल नाव सुणी जिनागम, चोथी पूजा कीजे रे ॥ कमल ॥४॥ इति चतुर्थ कुसुमपूजा समाप्ता ॥४॥ ॥अथ पंचम वासपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ नंदनवन सुरपतिरमण, अभिनंदन मुज स्वाम ॥ वास सुगंधमां मेलवी, पूजीजे जिनधाम ॥१॥ ॥ सारंग तथा आशावरी रागण गीयते ॥ ॥ नंदना वन तणुं बावनाचंदन, नविजन आणो शुरू करी ए॥ वास सुवास बरास नेलीने, शुद्ध घन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३५ सार तेदमां धरी ए॥१॥ जा मंदारशुं वासित ते सही, अगर चंदनशुं विरचीया ए॥ विविध सुगंध अव्यादिक नेलीने, तिहां जेम सुरपति अरचीया ए ॥२॥ तेम प्रजुसंगे करी मनरंगे, आज उलट धरी हर्ष जरी ए ॥ कुमर कुमरी पूजे मनने आणंदे, संसारसायर जेम तरीए ॥३॥ पंचमी पूजना पंचम गति कारण, वास विलास दे सरसीया ए॥प्रनु तणे अंगे हर्ष जरी पूजता, तेणे सवि छरित जय खरचीया ए॥४॥इति पंचम वासपूजा समाप्ता॥५॥ ॥ अथ षष्ठ चूआचूर्णपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ अगर चुत चंदनमयी, घनसारादिक सार ॥ प्रजुचरणे पूजा करे, तस होय जवनो पार ॥१॥ ॥ ध्रुवपदं ॥ काफीरागेण गीयते ॥ ॥ घनसारादिक चूर्ण मेली, चूआ चंदन मांहे नेली ॥ पूजो प्रनु मनरंगे रे ॥ १॥ शिवसुख लेवा जो मन धरीए तो, चूरणपूजा प्रजु करीए ॥ आतम आनंदमय गुण नरीए ॥२॥चूरण गंध वासित बहु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. सार, सुरपति पूजा करे निरधार ॥ जन्म कृतारथ तेह निस्तार ॥ ३ ॥ अमर अमरी करे पूजा गुण पामी,चित्त धरे शिवपुर श्रारामी॥परपरिणति करीए निष्कामी ॥४॥इति षष्ठ चूधाचूर्णपूजा समाप्ता॥६॥ ॥अथ सप्तम पुष्पमालपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ रत्नमाल सुरपति करे, कुसुम सहित सुगंध ॥ प्रजुकंठे आरोपीने, प्रफुतित होय सुरवृंद ॥१॥ ॥ सारंगरागण गीयते ॥ ॥ मनमोहन माला कीजीए, विविध जाति सुर कुसुम ग्रहीने, गुंथी जिनकंठे दीजीए॥मनः॥१॥ ए श्रांकणी ॥ चंपक केतकी कुंद जासुलवर, लाल गुलाल मांहे लीजीए ॥ मन ॥२॥ मोगरो मालती दमणो पुन्नागरां, गुंथी सुरपति रीजीए ॥ मन ॥३॥ सप्तमी पूजा करत एम सुरपति, अनुनवरस. जुनीजीए॥मन॥४॥ सूर्यान नावे करी जिनपूजा, उपशम रस नरी पीजीए ॥ मन० ॥ ५॥ इति सप्तम पुष्पमालपूजा समाता ॥ ७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३६१ ॥अथ अष्टमाष्टमांगलिकपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ सुरपति अष्ट मंगल रची, मणि तंफुल विस्तार॥ रत्न विविध मणि तेहरुं, पूरे अखंमित धार ॥१॥ ॥ नट्टरागण गीयते ॥ ॥ मंगल मोहे घर कीजे ॥ जिणंदराय ॥ मंगल ॥ ए श्रांकणी ॥ सवि साधन एक सिकि कीजे, मंगल आठ रचीजे॥जिणंद०॥मंगल०॥॥स्वस्तिक श्रीवत्स कुंन नमासन, चार गतिकुं बीजे ॥ तंडुल वासित अष्ट मंगल धरी, अदय पद ए लीजे॥जिणंद० ॥ मंगल ॥२॥नंदावर्त्त करी जिणंदमुख, वर्कमान तिहां सार॥ मत्स्ययुगल तेह माहेरचीजे,दर्पण अष्ट प्रकार ॥ जिणंद० ॥ मंगल० ॥३॥ एहविध मंगल आठ लखीने, सुर नर जिन पूजीजे॥ अष्टमी पूजा करो तुमे नविजन,अष्ट कर्मपूर कीजे ॥ जिणंद ॥मं०॥४॥इति अष्टमाष्टमांगलिकपूजा समाप्ता॥७॥ ॥ अथ नवम दीपकपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥अव्यदीप पूजा करी, जावदीप शुद्ध वास ॥ अज्ञानता पूरे करी, ज्ञानदीप परकाश ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ध्रुवपदं ॥ काफीरागण गीयते ॥ ॥दीप प्रगट कर लीजे, जिणंदमुख ॥ दीप प्रगट कर लीजे॥ए श्रांकणी॥जिनपति सन्मुख दीपग्रहीने,प्रा. स्म प्रकाशक कीजे॥जि०॥दी० ॥१॥ मिथ्यात तिमिर रह्यो घट अंतर, ताकुंज्योति धरीजे॥ज्ञानदशा प्रगटे चित्त अंतर, चिदानंदघन रीजे॥जिगादी॥॥जव्यदीप दया करी फानस,अनुकंपा करी लीजे॥जीवदया कारण करी करुणा,एहविध जक्ति करीजे॥जिादी० ॥३॥ एहविध दीपकपूजा कीजे, तत्त्व ते नव ग्रहीजे॥ नव ग्रैवेयके श्रात्म प्रकाशे,काल अनादि बीजे॥जिए ॥ दी ॥४॥ इति नवम दीपकपूजा समाप्ता॥॥ ॥अथ दशम धूपपूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ ॥ कर्मदहनने कारणे, ध्यानानल करी जेह॥ अव्यधूपपूजा करी, निर्मल करी निज देह ॥१॥ ॥ ध्रुवपदं ॥ पूर्वीरागण गीयते ॥ ॥धूप प्रगट करी लीजे, नविकजन धूप प्रगट करी लीजे ॥ सुरपति धूप ग्रही जिन बागल, कृष्णागरु माहे दीजे ॥३०॥५०॥१॥ए आंकणी॥कुंदरू Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , श्री सकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३६३ कस्तूरी अंबर नेली, वली घनसार मेलावो ॥ शुद्ध बरास अगर तगरशुं दिशो दिश धूप करावो ॥ ज० ॥ धू० ॥ २ ॥ चंदनचूरण करी मांडे वली, शर्करादिक मेलावो ॥ जेम सुरपति जिननक्ति करत शुज, तेम तुमे करी जवि जावो ॥ ज० ॥ धू० ॥ ३ ॥ जिनमुख यागल धूप करीने, निर्धूम खत्म करीजे ॥ ते कारण धूपपूजा करतां, जवसायर तरीजे ॥ ज० ॥ धू० ॥ ४ ॥ इति दशम धूपपूजा समाप्ता ॥ १० ॥ ॥ अथ एकादश प्रक्तपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ अक्षय पद देवा जणी, अक्षतपूजा सार ॥ मात जिन पूजीए, तो लहीए जयकार ॥ १ ॥ ॥ ध्रुवपदं ॥ काफीरागेण गीयते ॥ ॥ चित्त तमे करो जविकजन, मणि तंडुल उदार ॥ चित्त० ॥ खंगत आणी जावे, थाल नरो जयकार ॥ चित्त० ॥ मणि० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ जिन आगल सवि श्राय करो तुम, स्वस्तिक पूरो विशाल ॥ बिच बिच रत्न धरीजे अमूलक, निज चित्ते काकजमाल || चित्त० ॥ मणि० ॥ २ ॥ उज्ज्वल अत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जरी तंदुल शुज, वास वासित घनसार ॥मुक्ताफल वली माहे मनोहर, शोने अति शिरदार ॥ चित्त० ॥ मणि ॥३॥ एहविध पूजा करत जिनवरकी, पावत हे नवपार ॥ अव्य विधाने नक्तिशुं कीजे, नाव प्रगटे निरधार ॥ चित्त० ॥ मणि ॥४॥इति एकादश श्रदतपूजा समाप्ता ॥ ११॥ ॥ अथ द्वादश ध्वजपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ शादिक नावजु, नक्ति करे वली जेह ॥ अध्वजणुं शोजता, हर्ष धरे वली तेह ॥१॥ ॥ध्रुवपदं ॥ गोमीरागण गीयते ॥ ॥कनकदंम कर रत्न जमित वली,सुरपनि रे ॥ वली उपर मुक्ताफल माला, कुसुममाल सुखसंगे रे॥ क० ॥१॥ दंम गगनशुंवाद करे जे, किंकिणीनाद धन गाजे रे ॥ चपला करी पताका एम कहे, घोषण दे सुरराजे रे॥क० ॥२॥ सहस योजन दंग उत्तंग सोहे, नविजननां मन मोहे रे ॥लघु पताके पूजा करतां, जेम जिन पागल जोहे रे॥ कम्॥३॥ सुर नरनां मन मोहे सुंदर,सुर नर ध्वज जेम कीधोरे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३६५ ॥तेम नविजन ध्वजपूजा करतां,तेणे नरजव फल लीधो रे॥क०॥४॥ इति छादश ध्वजपूजा समाप्ता॥ १५ ॥ ॥ अथ त्रयोदश चामरपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥ सिंहासन जिन थापीने, पूजा करे सुरराय ॥ चामर प्रनु शिर ढालतां, करतां पुण्य उपाय ॥१॥ ॥ ध्रुवपदं ॥ काफीरागण गीयते ॥ ॥तेम तुमे करो नविकजन, चामर वींजे सुरराज॥ तेम तुमे ॥ ७ इंसादिक सन्मुख गढे, करता जन्म शुज काज ॥ तेम तुमे०॥१॥ ए आंकणी ॥ हेम तार सुर गुंथी करथी, करता जमित जमाव ।। रत्नमयी दंड रत्नमें जडता, करता नक्ति प्रजाव ॥ तेम तुमे ॥२॥मणि माणिक मोतीमें जमता, हीरा लाल विशाल ॥ चामर वींजे सुरमन रीजे, वींजे यश उजमाल ॥ तेम तुमे० ॥३॥णविध पूजा तेरमी कीजे, कुशल देम तस दीजे॥सुरपति नक्ति सहित करे पूजा, सुरसुख शुन फल लीजे ॥ तेम तुमेण ॥४॥ इति त्रयोदश चामरपूजा समाता ॥ १३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ अथ चतुर्दश बत्रपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ रत्न जमित घट उपरे, थापी श्रीजिनराज ॥ सुरपति त्रादिक धरे, साधे वांडित काज ॥१॥ ॥ध्रुवपदं ॥ सोरठरागण गीयते ॥ ॥विविध जुगते जड्यु, नत्र शोजा बन्यु, प्रनुशिर सोहतुं ॥१॥ रयण कंचन तणुं,जमित जमावर्नु, सुरमन मोहतुं ॥२॥मणि माणिक सही, हीरला पुखराजमयी, लाल लीलम सोहतुं ॥३॥इंशाणी जक्ति करे, हर्ष मनशुं धरे, उत्साह करे जोहतुं ॥४॥ इति चतुर्दश बत्रपूजा समाता ॥ १४ ॥ ॥ अथ पंचदश मुकुटपूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ ॥ कर्णकुंडलशुं जड्यां, रयणादिक वली जेह ॥ मुकुट प्रनुशिर सोहतो, निरखे इंज वली तेह ॥१॥ ॥ध्रुवपदं ॥ गोमीरागण गीयते ॥ ॥ मुकुट नजमित लश्ावे,प्रनुशिर तेह सोहावे रे ॥ इंच जाणी मली कुसुम जरावे, मुक्ताफलशु जमावे रे ॥ मुकुट० ॥ १॥ ए आंकणी ॥ उर पर हार Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३६७ रचित बहु नूषण, जिनकंठे तेह पहेरावे रे ॥ जुजजुग वर बहेरखा देश, जाल तिलक जमावे रे ॥ मुकुट ॥२॥ सुरपति नक्ति करे मनरंगे, सहस लोचन करी निरखे रे ॥ तेम नविकजन निर्मल चित्ते, पूजे प्रनु मनहर्षे रे ॥ मुकुट ॥३॥ इति पंचदश मुकुटपूजा समाप्ता ॥ १५ ॥ ॥अथ षोडश दर्पणपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ प्रदर्शन करवा जणी, दर्पणपूज विशाल ॥ श्रातमदर्पणथी जुए, दर्शन होय तत्काल ॥१॥ ॥ ध्रुवपदं ॥ काफीरागण गीयते ॥ ॥ शुद्ध देव गुरु धर्म धरो रे,तब दर्शन तमे यात्म करो रे॥ शु॥दर्पणपूजा दर्शन कारण, जिन पूजी तमे आप तरो रे॥ ॥१॥ ए आंकणी॥शुरु देव मन माहे धरीने, चित्तदर्पणशुं श्राप जुर्ज रे॥ गुरु नएदेश धर्म चित्त धारी, परपरिणति तुमे आप खुर्न रे॥ शु॥२॥ चेतन कछि अनंत धरावे, दर्शन विण दाकि आप खुए रे ॥ दर्पणपूजा करत जिनवर की, लब निज झकि श्राप जूए रे ॥ शु०॥३॥ एहविष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. पूजा करत जिनवरकी, चेतन थावरण सर्व मटे रे॥ शुद्ध दशा दर्पण पूजाथी,अशुभ दशा तस सर्व कटे रे शुरु०॥४॥इति षोमश दर्पणपूजा समाप्ता ॥ १६ ॥ ॥ अथ सप्तदश नैवेद्यपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ विविध युक्ति पक्वान्नशुं, लेश् चित्त उदार ॥ अणाहारी पद पामवा, विनवू वारंवार ॥१॥ ॥ ध्रुवपदं ॥ पूर्वी सोरठरागण गीयते ॥ ॥जिणंदराय! नैवेद्यथाल जरीरी॥जिणंद॥०॥ हेमपात्र जरी विविध\ रे, कंसार शींग धरी री॥ जि० ॥ नै ॥१॥ ए श्रांकणी ॥ घेबर फीणी पेंमा पतासां, साकरपाक करी री ॥ खाजां खुरमा खांत\ लावो,खीर खांमघृतरांपूरी री॥जिणानै०॥२॥शाल दाल शुज सालणां रे, शाक पाक करी जेह ॥ एहविधि नैवेद्यथाल जरीने, अणाहारी पद लीए तेह ॥ जि॥॥३॥इति सप्तदश नैवेद्यपूजा समाप्ता॥१७॥ ॥अथ अष्टादश फलपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ पूजा करतां नीपजे, तरुवर सिंचे जेम ॥ तरुवर फल जेम आपशे, पूजाफल होय तेम ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३६० ॥ ध्रुवपदं || सोरठी तथा श्राशावरीरागेण गीयते ॥ ॥ जवि जावे श्री फलपूजा करो ॥न वि०॥ जेम होये फल अनंत रे ॥वि०॥ विविध जाति फल ग्रही जिन श्रागे, कीजे निर्मल चित्त रे ॥ जवि० ॥ १ ॥ एकणी ॥ दामि डाख खारेक खोम, पूगीफल मनरंगे रे ॥ कदली बदाम मिष्टांग लींबु, पूजीजे जिनसंगे रे ॥ नवि० ॥ २ ॥ इंद्रादिक वली पूजाकारण, फल लावे धरी रागे रे ॥ फलपूजा करतां मनशुद्धे, शिवफल प्रजुपे मागे रे ॥ज वि०॥ ३ ॥ इति श्रष्टादश फलपूजा समाप्ता ॥ ॥ अथ एकोनविंशति गीतपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ इंद्र इंद्राणी ते मली, गावे गीत रसाल ॥ ताल मृदंग वाजित्रशुं प्रभु गुंथी गुणमाल ॥ १ ॥ ॥ ध्रुवपदं || सोरठीरागेण गीयते ॥ ॥ प्रभु गुणध्यान करे जे सुरपति, गावे घरी खाणंदो रे ॥धन्य जाग्य धन्य आज हमारो, डुरित सकल निकंदो रे ॥ प्रजु० ॥ १ ॥ गाजती वाजती इंद्र ददामा, श्रीमंडल घनघोर रे ॥ सात स्वर तिन ग्राम मूर्खना, गीत वि० २४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. गाये रंगरोल रे ॥प्रजु०॥२॥अशाणी गाय स्वर मधुरे, प्रजुगुण चित्तमें धरता रे ॥ तेम नविकजन प्रजुगुण गातां, छरित तिमिर सवि हरतारे॥प्रनुन ॥ ३॥ इति एकोनविंशति गीतपूजा समाप्ता॥१५॥ ॥अथ विंशति नाटकपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ सूरियानादिक जेम करे, नाटकपूजा जेह ॥ नाटक प्रनु आगल करी, कर्म खपावे तेह ॥१॥ ॥सोरठरागण गीयते ॥ ॥ सरस नाटक करी, गुरु नावज धरी, करी निज आतमा, मतिश्र सारी॥एकशत आवं कुमर, कुमरी करथी करे, विविध संगीत, वाजिन धारी॥सर॥१॥ सोल श्रृंगार करी,कुमरी नाचतो वली,थैयां थैयां,थेयां करती ॥ देखावती हस्तगत, घूघरीनादरां, चूंटण देश, नमरीय फरंती॥सर॥२॥ विविध प्रकार एम, नाटक करती, लाज मर्याद, मनमां धरती॥ एह विध जविकजन,नाटक करतां,संसारसमुख,वहेलां तरंती॥ ॥सर॥३॥इति विंशति नाटकपूजा समाप्ता ॥२०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३७१ ॥ अथ एकविंशति वाजित्रपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ समोसरण देवें रच्युं, थापी श्रीजिनराज ॥ वाजित्रनी पूजा करी, साधे वांबित काज ॥ १ ॥ ॥ धन्याश्रीरागेण गीयते ॥ ॥ समवसरण सुररचित सिंहासन, वा जित्रपूजा सार रे ॥ देवकुंडुनि महुवर मेरी, वीणा वंसी जयकार रे ॥ स० ॥ १ ॥ ए कणी ॥ ढोल निशान कंसाल तालशुं, शरणाइ रणकारो रे ॥ जंगल मेरी अंबर गाजे, कहे जग तुंही आधारो रे ॥ स० ॥ २ ॥ वाजित्र वाजे दे आशीषो, कहे प्रभु तुं जगदीवो रे ॥ दीए आशीष वाजित्र सवि बोले, कहे प्रभु तुं चिरं जीवो रे ॥स०॥३॥ इति एकविंशति वाजित्रपूजा समाप्ता ॥ २१ ॥ ॥ कलश ॥ ॥ थुषीयो थुणीयो रे, प्रभु चित्त अंतर में युपीयो ॥ त्रण भुवनमां नहीं तुज तोले, ते में मनमां धरीयो रे ॥ प्रभु० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ एकशत पंच कवित करी अनुपम, तुज गुण गुंथी गुणीयो ॥ जविकजीव तुज पूजा करतां, डुरित ताप सवि For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. टलीयो रे ॥ प्रजु ॥२॥ एणीविध एकवीश पूजा करतां, शिवसुख फल सह मलीयो ॥ सकल मुनीश्वर कास्सग्गध्याने, चिदानंदशुं जलीयो रे ॥ प्रजु० ॥३॥ श्रीतपगछे दिनकर शोने, विजय दान गुरु गुणीयो ॥ श्रीहीरविजय प्रजुध्याने ध्यातां, हेम हीरो जेम जडीयो रे ॥प्रजु०॥४॥ इति कलशः॥ ॥इति सकलचंदजीउपाध्यायकृता ___एकवीशप्रकारी पूजा संपूर्णा ॥ nexeexsexsexogos 7GTODE egoeroegoexogexoegewexsexsexsexo xsexorg Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गंजीरविजयकृत दशविध यतिधर्मपूजा. ३५३ ॥श्री परमात्मने नमः॥ ॥जुतविलंबितटत्तम् ॥ ॥ वरजिनेश्वरजक्तिविधायिनी, कृतिरियं बुधगंजीरसन्मुनेः ॥ जयतु जैनपथे प्रथिता सदा, जनसुबोधकरस्तवनावली ॥१॥ ॥शार्दूलविक्रीडितटत्तं ॥ ॥ सद्बोधार्थ विकाशकं च विमलं यन्निस्तुलानंददं ॥ नित्यं जाड्यतमोपहं कुमतिहं ज्ञानास्पदं प्रीतिदं ॥ मनानां च जवांबुधौ विमनसा संतारकं पुस्तकं ॥ जैनज्ञानसुदीपकाख्यसनया नीतं प्रकाशं मुदा ॥२॥ ॥ मुनिराज श्रीरहिचंदजीना शिष्य मुनि गंभीरविजयजीकृत दशविध यतिधर्मपूजा॥ ॥ अथ प्रथम पूजा ॥ ॥दोहा ॥ ॥ श्रीजिन सर्ववेदी नमी, जजी शारद एक चित्त॥ गुरुपद तेम मुनिधर्मनी, पूजा नणुं सुपवित्र ॥१॥ ते दशविध श्रीजिन कह्यो, क्षमा मुख्य त्यां जोय ॥ पंच नेद खंती तणा, अपराध क्षमणथी होय॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. नावाजाव निमित्तनो, क्रोध दोष चित्त लाय ॥ बाल खजाव चिंती खमे, उत्तर लान मन लाय ॥३॥कर्म फलागम दमागुणे, केवली श्रीजिन थाय ॥ श्रष्ट अव्य संजुत करी, पूजे सुर नर राय ॥४॥ पण अम जुग जुग हादशे, सत्तर चौ वली चार॥नव जुग G१ २ १२ १७४४ ए २ खस्ती फलादिके, ढोको नाव उदार ॥ ५॥ अष्ट अव्य पंचामृते, सज करो दश थाल ॥ दश धर्मे पूरण विजु, कीजे नक्ति रसाल ॥६॥ ॥ राग वढंस ॥ नाथ केसे जंबुको मेरु कंपायो ॥ ॥ए देशी॥ ॥ अहो जिन रीत अपूर्व तहारी, ए तो जगजन अचरजकारी, अहो जिन रीत अपूर्व तहारी ॥ ए श्रांकणी ॥ दमा गंगमें हंस ज्युं जील्यो, वंदक मल अपहारी॥अंतरंग रिपु अंत करीने,अनघ रह्या शुजकारी॥अहो जिन॥॥आयासने प्रायबित न श्रावे, ध्यान धरे एक तारी ॥ श्रेय समाधि दरिशन उपजे, निश्चल रहो अविकारी॥ अहो जिन॥२॥ विमलातम अघ संचय वर्जित, अर्जित साम विहारी ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीर विजयकृत दशविध यतिधर्मपूजा. ३७५ प्रशमरस जीनी विषय नदीनी, अखीया अमृत कयारी ॥ अहो जिन० ॥ ३ ॥ र सहस्र सहाय न जोवे, क्षमा नीशितासि धारी ॥ क्षमा रंगी असंगी प्रजुकी, बलैयां क्रोड हजारी ॥ अहो जिन० ॥ ४ ॥ कर्म कटक विकट किम चूरो, कुरो क्रोधकी यारी ॥ निरारंभ मुखकमल प्रसन्न, दमा हे अजब डुल्लारी ॥ अहो निज० ॥ ५ ॥ चिद्यन रंगी शिववधू संगी, अद्भुत चरजकारी ॥ रिद्धि वृद्धि पूरण महिमा, गंजीर गुणी हितकारी ॥ श्रहो जिन० ॥ ६ ॥ ॥ श्लोक ॥ ॥ सकलकर्म कलंक निवारकं, दशविधं यतिधर्मप्रदायकं ॥ निबिडकर्मवनानलसन्निनं, प्रणत नव्य सदा जिननायकं ॥ १ ॥ ॥ ॐ श्री परम० ॥ ॥ अथ द्वितीय पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ क्रोधानाव कमा कही, मान बते नव होय ॥ मानने संगत क्रोधनी, मान तजो प्रभु जोय ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥राग देशी फीकोटी तुमरी ॥ आज पुगधा मेरी मीट गरे ॥ ए देशी ॥ ॥राज मव मन वस रही रे, अमल कमल सम जुगल नयन ॥समरससे विकस रही रे॥ए आंकणी॥ मजावमंथर अखी तोरी, गर्व गुमान वरी जीत मृदु गोरि ॥ नमन दमन गुण रमण नीपाइ, महर मद हरशही रे॥राज॥१॥ मजाव करत वज्रशंजोरी, श्रममद अचल शिखर सो फोरी ॥ केवली नासरुके कीनसेती, सुजोत पसर रही रे॥राज॥२॥माने धारो कृत्य न करीने, माने संगथी मनसा हरीने॥ प्रजुपद नमन दमन चित्त लाश, जय पामे नवि सही रे॥राज०॥३॥मान अनावे विनय सुहावे,बोध सद शुं तन मन नावे॥मनन सेवन लय लावो नाश, गुणगण लहे गहगही रे॥ राज ॥४॥ निरमद सुगुण पुरंदर तोरी, हरि हर ब्रह्म करे केम होरी॥ वासव श्रेणि रही कर जोरी,तुज पदमें नम रही रे॥ राज० ॥ ५॥ हीन अधम नर तुमने बोरी, गुणयुत वचन मनसा जोरी॥ कल्पित रचना प्रीत लगा, मुःख मान वसे लही रे ॥ राज ॥६॥ जेम जेम मूर्ति नीहा तोरी, तेम तेम विपत् कठिन गए Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीरविजयकृत दशविध यतिधर्मपूजा. ३७७ मोरी ॥सुख वृद्धि संपत् सवि पाश, गंजीर जिन रस लही रे ॥ राज ॥ ७॥ सकल ॥ 5 ॥२॥ ॥अथ तृतीय पूजा ॥ ॥दोहा॥ ॥ मान गए मृडता हुए, कपटे कठिन कगेर ॥ कपट नीपट चूरण नणी, सज प्रनु चहु उर ॥१॥ ॥ राग परज ॥ निशदिन जोडं वाटडी, घेर ___ आवो ढोला ॥ ए देशी ॥ ॥ आर्जवसें जिन पूजतां,मीटे माया अंधारा॥अनुनव जोतही जगमगे, टले कर्म प्रचारा॥ आर्जवण ॥१॥ए आंकणी ॥ माया संग नीसी बरता, नहीं तस्कर चारा॥ माया उरगी नामसें, तरे नवनुं बारा॥ आर्जव० ॥२॥ मारीद कबु आंटीमें, रुके झान उजारा ॥आर्जव शोधने शोधीए,सवि क्रिया डंबारा॥ श्रावण॥॥श्रद्धा निर्मल नीपजे,होय ज्ञान सुधारा॥ सहज सरल वीरता, श्रापो आप नीहारा ॥थार्जव०॥४॥आर्जव अमृत धोश्ने, निज आतम प्यारा॥ केवल उग प्रनु पामीने, हार्यो माया प्रसारा ॥ आर्जवणा॥ त्रिशला उरसर हंसने,पूजो नाव उदारा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ शिवरमणीकी सेजमें, करो सेल अपारा॥आर्जव० ॥६॥ कर जोरी करुं विनति, दीजे दरिशन प्यारा ॥ बुद्धि करण वर्धमानसें, सुख गंजीर हजारा ॥ आर्जव ॥ ७॥ सकल ॥ ॐ ॥३॥ ॥ अथ चतुर्थ पूजा॥ ॥दोहा॥ ॥माया विन उत्तम रुजु,लोज नीच करे फंद ॥ लोन कीचम शोषण जणी, जजीए सविता जिणंद ॥१॥ ॥ राग तुमरी ॥ चालो सखी सब देखनकुं, रथ चमी जनंदन श्रावत हे ॥ ए देशी ॥ ॥संतोष अमृत सुनोगी प्रजुको,पूजो नवियण शिवरसीया।संतोष॥ए श्रांकणी ॥संतोष विन नहु आवे तृपति, पुद्गल रासी सवि ग्रसी ॥ संतोष॥१॥ त्रिजुवन केली तृष्णा वेली, मूल चुल तस रस कसीथा ॥ संतोष ॥२॥ मुक्ति यावन पावन नावन, निःस्पृह नावित अहोनीसीआ ॥ संतोष ॥३॥ लोज पयोधि मनोरथ पवने, ऊर्मि उगलत धसमसीआ ॥ संतोष ॥४॥ मुक्ति तरा विन केसे तराए, श्रात्मरसे प्रनु अनुसरीश्रा ॥ संतोष०॥५॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीरविजयकृत दशविध यतिधर्मपूजा. ३७ दपकश्रेणी अनुकूल पवनसें, केवल लही जय शिव वसीश्रा ॥ संतोष ॥६॥ मुक्ति नजी लहो मुक्ति मुल्लारी,ममता तज समता सजीथा॥संतोष०॥७॥ हित वृद्धि कर वीर सुनोजी, गंजीर दीसी दी अगरसीया ॥ संतोष ॥ ७ ॥ सकल ॥०॥४॥ ॥अथ पंचम पूजा ॥ ॥ दोहा॥ ॥ लोन अधिक जग देहनो, लोजर्नु मूल शरीर ॥ निलौंजी प्रनु तप तपे, बाले कर्मनो हीर ॥१॥ ॥ राग देश तुमरी ॥ कुमतिको बोरके, मोए सुमति सुहावे रे ॥ ए देशी ॥ ॥ तन ने धन कारमा, तपे क्युं न रुचि सो रे॥ तन ने धन कारमा ॥ ए आंकणी ॥तन धन सुंदर धन मीले तपथी, तप विना नव जमशो रे ॥ तन ॥१॥ अरिहंतपद प्रनु तप फल जाणी, तप करत उकरीशो रे ॥ तन ॥२॥श्वा रंधन तप कर निश्चे, बही अंतर सरीसो रे ॥ तन०॥३॥ बेश्रासन तिविहार न करता, करो नहीं उपवासो रे ॥ तन० ॥४॥ तप लघु बह प्रज्जु गुरु बमासी, विचर्या बार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. वरसो रे॥तन॥५॥घाती वीण वरे केवल कमला, करे समय विलासो रे ॥ तन० ॥६॥गया गइरह श्रा वीर करणी, पर्यय ऽव्य सार्योसो रे ॥ तन ॥७॥ अस्ति धर्मादि उपदेशी, संशय विनाशो रे ॥ तन०॥॥समवसरण वासव मील पूजे, जलपुष्प पगर सो रे॥तनावृषिविजय कर त्रिशलानंदन, गंजीरने उधरशो रे॥ तन०॥१०॥सकल ॥०॥५॥ . ॥ अथ ही पूजा॥ ॥दोहा॥ ॥ तप असंयतपणे करे, निरनुबंधन थाय ॥ संयमयुत निरबंधी जिन, संजमस्युं चित्त लाय ॥१॥ ॥राग दादरो ॥ ॥ सजी संजममें, रमण करे ज्ञानी रे ॥ सजी संजममें ॥ ए श्रांकणी ॥ कर्मजनित जव कर्म ने बंधे, धरे बंधहर जाणी रे ॥ सजी० ॥१॥ करी करी जतना मन वच अपना, संजम रस गणी रे॥ सजी०॥२॥नुवि जल अनला अनिल वन विगला, पणिं दि जीव जाणी रे॥ सजी० ॥३॥ अजीवन उपधि पुस्तक पागं, जतन करो गुणखाणी रे॥ सजी० ॥४॥ पेख जवेख देख पमझन, मनोवृत्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजी र विजयकृत दशविध यतिधर्मपूजा. ३०१ वरतानी रे ॥ सजी ॥५॥ वचन दोषी वंदे गुण पोषी, जतना दिल मानी रे ॥ सजी० ॥ ६ ॥ सरंज समारंज ने आरंजा, कल्प न पीड प्राण हानि रे ॥ सजी० ॥ ७ ॥ त्रिविध त्रिजोगे बंधादि निवृत्ति, संजमवंत प्रभु नाणी रे ॥ सजी० ॥ ७ ॥ संजम वृद्धि वीर गंजीरसें, पूजी पायो जवि प्राणी रे ॥ सजी० ॥ ५ ॥ सकल० ॥ ॐ ॥६॥ ॥ अथ सातमी पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ संयम थिरता कारणे, सत्य धरो हृदे मांदे ॥ सत्ये सवि वंबित लहो, प्रभुता सत्यके मांदे ॥ १ ॥ ॥ राग वसंत ॥ चंदा प्रभुजीसें नीहाल रे, मोरी लागी लगनवा ॥ ए देशी ॥ ॥ ॥ सत्यभाषी सें प्रीत रे, मोरी जागी जरमना ॥ ए कणी ॥ जागी जरमना जूठे न राचुं, याचं अमृतपान रे | मोरी० ॥ १ ॥ कोप कठिन वचन प्रजुके, तजी मर्मनी रीत रे ॥ मोरी० ॥ २ ॥ हित मितावितथ अनुग्रहकारी, तेम जनक प्रतीत रे | मोरी० ॥ ३ ॥ जूठ मिश्र संत्रांत तजीने, संदिग्ध अनीत रे ॥ मोरी० ॥ ४ ॥ राज देश जन काल जावश्री, धर्म ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. विरुङ हित रे॥मोरी॥५॥रागाकुलमें वेष न बोले, नहीं विकथ न जीत रे ॥ भोरी० ॥६॥ स्फुट मधुर उदार चातुरी, प्रश्नोत्तर शुज रीत रे॥मोरी॥७॥ चपल विन्यास ने निंदाकारी, सत्य जगतनो मित रे ॥ मोरी० ॥ ॥ ग्राम हास्य पैशुन्य तजीने, सत्य सुधाम चित्त रे ॥ मोरी० ॥ ए ॥ धर्म वृद्धि जिन वीर गंजीर ते, अमित दीए प्रीत रे ॥ मोरी० ॥ १० ॥ सकल ॥ 5 ॥७॥ ॥अथ अष्टमी पूजा ॥ ॥दोहा॥ ॥ शौच विना किम उजलो, सत्य दुवे निरधार ॥ शौच रयण तिणे जाणीने, श्रादरे जगदाधार ॥१॥ ॥राग गजल ॥ टुंक दिलगी चमस खोल ॥ए देशी॥ ॥दिन रात आप जापसे, विनावको उली ॥ दिल बागके मेदान जगे, वासना कली ॥ दिन०॥१॥ सुरिंद वृंदवृंदकी, उपासना मली ॥ जलादि शौच एक लोन, मुक्ति कंदली ॥ दिन ॥२॥ जिनींद वाक पाकता, उदार सांजली ॥ स्पर्श तज अदत्तको, विजावकी मली ॥ दिन० ॥ ३॥संताप हार तीरणी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीरविजयकृत दशविध यतिधर्मपूजा ३०३ स्वनाव उजली ॥ चारोही श्रदत्त बोर, विरति हे करमली ॥ दिन० ॥ ४ ॥ जीव कुंद केतकी, गुलाब ने वोलसली || फुल्ल स्वामी मालीकी, न लेना जग कली ॥ दिन० ॥ ५ ॥ अरिहंत प्रसिद्ध फुल, बेदो ना कली ॥ प्रियंगु चंपो मोगरो, ने मालती जली ॥ दिन० ॥ ६ ॥ गुरु उक्त रीत पद्म, जुश्वी जली ॥ परिमले सुवर्णके, सुनोमीजा वली ॥ दिन० ॥ ७ ॥ फुलोकी जाति जाति, अंगी जली जली ॥ पगर जरो वर्षो जवि, फुल देव जो मीली ॥ दिन० ॥ ८ ॥ द्विविध लेप देप बेद, वीर नहीं बली ॥ वृद्धि गंजीर शौच धीर, कीर्त्ति उजली || दिन० ॥ ए ॥ सकल० ॥ ॐ ॥ ८ ॥ ॥ अथ नवमी पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ ब्रह्म विना शुचिता कीसी, इम जाणी जगदीश ॥ ब्रह्म हेतुशुं ब्रह्मने, अंगे धरे निशदिस ॥ १ ॥ ॥ राग नेरवी ॥ तजो मन रे, कुमत कुटिलकी संग ॥ ए देश ॥ ॥ यजो जवि रे, ब्रह्मवृत्ति अवतंस ॥ यजो० ॥ ए कणी ॥ पूरण ब्रह्म ब्रह्म निवासी, समर समर अरिहंत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ यजो० ॥ १ ॥ दिव्य उदारिक कर करावण, अनुमति तास तजंत ॥ मन वच काए नव डुग काम, वराहु दशा वरजंत ॥ यजो० ॥ २ ॥ सुर नर किन्नर हरि धाता हर, कामकी प्राण धरंत ॥ त्रिशलानंदन दमीए बीनमें, निज देशी करंत ॥ यजो० ॥ ३ ॥ कुलमल कर्म कलंक पखालन, जलधर ब्रह्म महंत ॥ खेद हरण जव तरण दरी सम, पातीह बोध करंत ॥ यजो० ॥ ४ ॥ अनुजव चूरण वंबित पूरण, शिवपंथ विघ्न हरंत ॥ सुर करे सानिध्य कींकरी लबी, आप दर मज संत ॥ यजो० ॥ ५ ॥ प्रभु पालित नवविधसें पालो, डुरित हर जगवंत ॥ बुद्धि सिद्धि सवीन्न दाइ, गंजीर बोध तरंत ॥ यजो० ॥ ६ ॥ सकल० ॥ ॐ० ॥ ॥ ॥ अथ दशमी पूजा || ॥ दोहा ॥ ॥ किंचन घरी ब्रह्म षवे, होय न पूरण ब्रह्म ॥ पूरण ब्रह्म प्रभु नित धरे, अकिंचन धर्म न ॥ १ ॥ ॥ राग कीफोटी ठुमरी ॥ चलत पवन सुरही अंगना ॥ ए देशी ॥ ॥ सजन किंचनको बोरनकुं, जो श्री जिनवर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीरविजयकृत दशविध यतिधर्मपूजा. ३७५ गुणी खाण रे॥सजन ॥ ए श्रांकणी ॥ किंचन संचित ना करो रे, निग्रंथ थवर्धमान रे॥श्यामूळ त्यागीने प्रनु, पाम्या सवि कल्याण रे ॥ सजन ॥१॥ किंचन संचन जिन कहे रे, सरिंज निदान रे ॥ जग जग प्रियन तिहां लगे सवि, गामीन दंशण झान रे ॥ सजन ॥२॥ आप तरे ने परने तारे, गुणरसीआ एक तान रे ॥ सचित्त श्रचित्त शब्दादि विषये, लोपाए न महान रे ॥ सजन॥३॥ दशही धर्मे पूरण जिनजी, कल्पसूत्रनी वाण रे॥पूरण फरसे तेहीज ते जव, पामे पद निर्वाण रे॥सजन ॥४॥ श्राप सरूपी आतमरामी, केवल रतन निधान रे॥ जोग निरुंधी निरजर सुखमय, एक समयमें विधान रे ॥ सजन ॥५॥ अनंत चतुष्टय अदय थिति जुग, समय वेदी नगवान रे ॥ उत्पाद व्यय ध्रुव संगी श्ररूपी, चिदानंद मंडाण रे । सजन ॥६॥सुता जागता नित नित समरो, ध्यावो ज्योति समान रे॥ रिकि वृद्धि मंगलमाला, गंजीर महोदय गण रे ॥ सजन ॥ ७॥ सकल ॥ 5 ॥ १० ॥ वि० २५ . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ कलश॥ ॥ ध्याया ध्याया रे में इन विध जिनगुण ध्याया ए मुनिधर्म महोदधि मांहे, सघला धर्म समाया ॥ तेणे ए निर्मल तन मन नजीए, अघघन सकल पलाया रे ॥ में इन॥१॥ वीश थानकने सेवी जवंत रे, अरिहा गोत्र बंधाया ॥मुनिधर्म ते नवमां पूरण, फरसी शिवपद पाया रे ॥ में इन ॥२॥प्रजु फरसित तेणे मानो पूजो, शम दम दमणे जराया ॥ प्रिय धरीने सेवी समरी, बहु जन सिकिसुहाया रे ॥ में इन ॥३॥ सोहम स्वामी पट परंपर, तपगण नन मणि गाया ॥श्रीविजयसिंह सूरीश्वर केरा, सत्य विजय मुनिराया रे ॥ में श्न० ॥ ४॥ कपूर दमा जिन विजय विबुधवर, उत्तम विजय सुहाया। पद्मविजय वररूप कीर्ति, कस्तुरविजय निपाया रे॥में इन॥॥मणीविजयना मति वैनव सम, बुझिविजय गुरुराया ॥ तास शिष्य शम दम रतनाकर, वरते तेज सवाया रे ॥ में इन ॥६॥ अंग चंग मन मोहन नीति, मुक्तिविजय गुरु पाया ॥ तस विश्वासजाजन गुणसिंधु, वृझिविजिय लघु जाया रे ॥में श्न०॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीरविजयकृत नवपदपूजा. ३०७ तस पद रज सम मुनि गुणरंगी, जिनजक्तिश्री उमाह्या ॥ मोह सुजटने गवा काजे, गंजीर विजय गुण गाया रे ॥ में इन ॥७॥ संकट विघन पूर पलाया,रागद्वेषी वीरलाया॥सकल संघने वीरशासन सुर, होजो मंगलदाया रे॥में श्न॥ए॥व्योम युग अही ऊर्वी संवत्सर, सीत सुची मास सुहाया ॥गुरु चतुर्थी राजनगरमां, मंगलरंग वधाया रे ।। में इन विध जिनगुण ध्याया ॥ १० ॥ समाप्त ॥ ॥ इति दशविध यतिधर्मपूजा संपूर्णा ॥ ॥ज नमो जगत्सदपाय श्रीसिक्ष्चक्राय ॥ ॥ महा मुनिराज श्रीगंजीरविजयजी विरचित ॥ ॥ श्री नवपदजीनी पूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ प्रणमी जिनशासन पति, यशोविजयादि सार॥ रचना अर्थ हृदय धरी, नव पद पूजा उदार॥१॥ पंच वरण नव दल कमल, रच नव पद हृदि धार॥ पंचामृत कलशा जरी, नव अनिषेक उदार ॥२॥ प्रगट ज्ञान ज्योतिमया, प्रातिहारजवंत ॥ देशना नंदित जविजना, नमीए ते अरिहंत ॥३॥ अनंत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. शान्त प्रमोदघन, जगप्रधान जिनंद ॥ नविक कमल रवि रूप थुणे, मुद नर सुर नरकंद ॥४॥ जस ध्याने सुखीया थया, राजा श्री श्रीपाल ॥ पुष्ट करमदल चूरवा, नव पद पूजो त्रिकाल ॥५॥ नव पद नक्ते वासीया, जे पूजे नर नार ॥ ध्यान सिकि तप संपजे, सुख संपत्त विस्तार ॥६॥जिननाम कर्मोदये करी, जगहित दीए उपदेश ॥पूरण ब्रह्म पावन सदा, अतिशय शोला अशेष ॥७॥ घाति कर्म चउ खपी गयां, रह्यां श्रघाति चार ॥ जग सुखी पंच कल्याणके, नमुं ते जगदाधार ॥७॥ ॥ अथ अरिहंतपदपूजा १ ली ॥ ॥ ढाल १ ली ॥ राग रवी, ताल तुमरी॥ ॥ (पन घटवा रोकी रे ) ए राग ॥ ॥ पूजो श्री तीरथपति अरिहा, पाप पखालन शिवरसिया ॥ पू॥ धर्मधुरंधर धर्मपति जिन, धीरज मेरु अधिक वरीया ॥ पू॥१॥ विषय ताप तापित जीय गरण, देशना अमृत घन करीयां ॥पू०॥ खायक अनंत सहज जस वीरज, सुर अतुल बल गुण दरिया ॥पू॥२॥श्रदय निरमल ज्ञान प्रकाशे, (जग)जाव सकल दरशित करीया॥पू०॥जगजन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीरविजयकृत नवपदपूजा. ३ए करुणावंत महंत नव, पमत नवि जन कर गहीया ॥ पू० ॥३॥ ॥ढाल र जी॥ राग कालीगमो अथवा श्रमाणो,ताल दादरो ॥नदीयां नारे विसर आश्कगना ॥ए चाल॥ ॥श्री सिमचक्र पूजो जवि जावे रे ॥ ए श्रांकणी॥ जाव रुछि वृद्धि लहो जव लग, मुगति सुगति सुख पावे रे ॥ श्री० ॥ वीश स्थानक तप करी नवत्रीजे, अरिहा गोत्र निपावे रे ॥ श्री० ॥१॥ चोसठ इंजे पूजित जे जिन,प्रगट्यो पूज्य वनावे रे॥श्री॥प्रशमरस सिंध दीन जन बंध, ज्ञानानंद खीलावे रे॥श्रीन ॥२॥ साते नरके पण अजुवालो, कल्याणिक दिन थाये रे॥श्री॥जगत् अधिक गुणी अतिशय धारी, नमतां पाप पलावे रे॥श्री०॥३॥जे त्रण झान सहित अवतरता, नोग करमने खपावे रे॥श्री॥ संजमधरी जग धरम शिखावत,झानी नमतां कुःख जावे रे॥श्री० ॥४॥ महा गोप महा मादण खामी, निर्यामक तटे लावे रे॥श्री०॥ सारथपति प्रजु नव अटवीमां, नमो जवि उल्हसित नावे रे॥श्री०॥जे प्रतिबोध करे जगजनने, पण तिग वाणीगुण जावे रे ॥ श्री० ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ ढाल ३ जी॥ राग केरबो, तुमरी॥ ( सहसफणा मोरा साहेबा, तोरी शामरी सुरत पर वारी जा रे ॥ ए चाल ॥) ॥ ध्यावो ध्यावो अरिहंतपद ध्यावो रे, एकाग्र लय दिल लाइए ॥ अव्य गुण पर्याये समरो, ध्याता ध्येय बन्नेद निपाइए रे ॥ ए॥१॥दीण घाति चन चेतन अव्य, गुण ज्ञानादि पूरण ध्याइए रे॥ए। ॥२॥ जन्म दीदा केवल पर्याये, ध्याश्अरिहंतरूपी थाश्ए रे ॥ ए॥३॥ ज्ञान नये श्रीवीर वचन ए, परिणामी परिणति एक ताइए रे ॥ ए० ॥४॥ बातम कि मिले सवि श्राश्, जस वृद्धि गंजीर सुख पाइए रे ॥ ए० ॥५॥ ॥ द्रुतविलंबितत्तं ॥ ॥ सकलसद्गुणपादपसेचनं, निखिलमोहमलिमषदालनं, नवपदात्मकचक्रसमर्चनं, जवतु नव्यजने शिवकारणं ॥ हीं परमपुरुषाय सर्वात्मखरूपाय श्रीसिद्धचक्राय जलं चंदनं पुष्पं धूपं दीपं अदतं फलं नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ॥ ॥एपाठ सर्व पूजाए कहेवो॥इति अरिहंतपदपूजा॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीर विजयकृत नवपदपूजा. ३१ ॥ अथ सिद्धपदपूजा २ जी ॥ ॥दोहा॥ ॥ सहजानंद सुख सागरा, चल अनंत घनरूप ॥ सिक ते प्रेमे पूजतां, जीव होय चिनूप ॥१॥ अष्ट करम दल दय करी, पाम्या नवजल पार ॥ जरा मरण ने जन्म जय, रह्या न जास लगार॥२॥ वर्ण गंध रस फरस नहीं, गताकार संगण ॥ प्रगटित आतम रूप जे, नमो सिक नगवान ॥३॥ तजी तिनाग तनु गाहना, रहे श्रातम धन शेष ॥ अनंत नाण दंसणमय, नित सुखी जोति महेश ॥४॥ ॥ ढाल १ ली ॥ राग फीकोटी ॥ ॥ सकल करममल दय करीने, नये पूरण शुद्ध स्वरूप रे॥सम्॥श्रव्याबाध प्रज्जुतामय लीना,आतम संपत्ति नूप रे॥शक्ति अनंती प्रगट विलस रही, नमो नमो सिम स्वरूप रे॥स॥॥सकल विजाग वरजित स्वमव्य, प्रदेश पूरित स्वक्षेत्र रे॥ समय समय उपयोग थिति, खकाल ते सिक पवित्र रे॥सण॥॥ज्ञान दरशन उपयोग खनावे,अनंत गुणी अनुप रे॥खन्नाव गुण पर्याय परिणति, समरी लहो अरूप रे॥स॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०‍ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ ढाल २ जी ॥ राग श्याम कल्याण ॥ ॥ रीषन विहारी तोरी तो बबी न्यारी ॥ ए चाल ॥ ॥ सुगुण विहारी सिद्ध हि निज पद धारी ॥ पूजो सु०॥ योगीपणेमें जे इहां फरसे ॥ (ते) विनु फरस नज बारी पूजो ॥ सु०॥ १ ॥ अफरस गति करते ऊर्ध्व जाये, एक समये रुजु चारी ॥ सु० ॥ तनु त्रिजाग न्यून अवगाहन, करी वरी शिवनारी ॥ सु० ॥ २ ॥ पूर्व प्रयोग ने गतिपरिणामे, श्रबंध संग निहारी ॥ सु० ॥ हेतु चार ए मुक्त शिवगमने, एक समय गति - कारी ॥ सु०॥३॥ निरमल सिद्ध शिलाथी एक जोजन, लोकान्ते रहे अविकारी ॥ सु० ॥ सादि अनंत थिति सवि काले, सिद्ध हि आनंदकारी ॥ सु० ॥ ४ ॥ जस सुख जाने कहीं न शकाये, केवली सर्व निहारी ॥ सु० ॥ जेम पुर रुद्धि वनचर जानी, उपमा विन न उच्चारी ॥ सु० ॥ ५ ॥ ज्योतिमें ज्योत मिली जस अनुपम, सर्व उपाधि निवारी ॥ सु० ॥ श्रतमराम रमापति सहज, सिद्ध समाधि विहारी ॥ सु० ॥ ६ ॥ ॥ ढाल ३ जी ॥ राग सोरठ ॥ ॥ समर मन सिद्ध सनातन रंग ॥ ए यांकणी ॥ नित्य रूपी स्वजाव निहारो || केवल युगल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीर विजयकृत नवपदपूजा. ३९३ सुसंग ॥ स० ॥ १॥ लीन रही तिहां आतमध्यावो, आपही सिक निसंग ॥स॥२॥जस वृद्धि गंजीर सुख संगी, उरसित ज्ञान तरंग ॥ स ॥३॥ ॥काव्य तथा मंत्र कहेवां ॥ इति सिझपदपूजा॥५॥ ॥ अथ श्राचार्यपदपूजा ३ जी ॥ ॥दोहा॥ ॥ सूरि नमो अकदाग्रही, कनक सुकोमल चित्त॥ मोहतमोहर रविप्रना, ज्ञानसुधा जर वित्त ॥१॥ तत्त्व स्फूरे जस उठपै, जिनमत करी साम्राज्य ॥ बारसो बन्नु गुणे जर्या, पंचाचार समाज ॥२॥ देश कालादिक अनुसरी, जिनवाणी अनुकूल ॥ दीए देशना जव्यने, तजी प्रमाद समूल ॥३॥ शासन जर मही धारका, जे दिग्दति समान ॥ शुरूप्ररूपक तत्त्वना, चिरं जीवो जगजान ॥४॥ ॥ ढाल १ली ॥राग आशागोमी॥ ॥आचारज सुखदा, नमो नवि, आचारज सुखदाइ ॥ ए टेक॥मुनिपति गणपति गणधर सूरि, गुण बत्रीशे सुहा॥ न० ॥ १॥ चिदानंद रस वादन रसिया, तनु सुख श्वा गमाइ ॥ न ॥२॥ निष्काम निरमल शुझ जे चिद्धन, ते निज साध्य निपाइन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥३॥ नविजन बोधे तत्त्वने शोधे, सवि गुण संपत्त पाश् ॥ न ॥४॥ संवर समाधि धरे निरुपाधि, कौत पखान निपाइ ॥ न० ॥५॥ ॥ ढाल २ जी॥ राग श्राशावरी॥ ॥ श्राशा रनकी क्या कीजे ॥ ए देशी ॥ ॥सूरिराय मान्या ए मुनि मन मांदि।मा०॥पंचाचार शुचि पाले पलावे,(शुक)मारग नविने दिखाय ॥सूजाचो प्रेम धरी पद पूजो,बत्रीशगुणी गणि राय ॥सू०॥१॥जुगप्रधान जग बोधन मोहन, क्रोधवश दणहुं न थाय ॥ सू॥सावधान चुंपे करी वंदो,प्रमाद पंच न दिखाय॥सू॥॥धर्मोपदेशेनथालस रेष,वर्जी विकथा कषाय॥सूते श्राचारज नमीए नेहे,अकलुष श्रमल अमाय ॥ सू॥३॥जे करे सारण वारण चोयण, पडिचोयण हित लाय॥सू॥पटधारी गलथंन श्राचारज,ते विन केम रहेवाय ॥सू॥४॥श्राथमीए जिन सूरज केवल,जगदीपक चित्त लाय॥सू॥जुवन पदारथ प्रगटन समरथ, चिरंजीव शासनराय॥सू॥५॥ ॥ ढाल ३ जी॥ ॥ राग ॥ नाथ केसे गजको बंध बुमायो । ॥सुधीयसें श्राचारजपद ध्यावे, सूरिश्रातम अन्नेद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीरविजयकृत नवपदपूजा. ३५ निपावे ॥ सु० ॥ सूरि मंत्र शुन ध्यानी आतम, पंच प्रस्थाने ध्यावे ॥ विद्यादि पेठे जेम ते थापे, (तेम) ध्यातां श्राचारज थावे ॥ सु० ॥१॥ जे नावे जे परिणमे तेही, वीर जिणंद सुहावे ॥ सुजश महोदय घटमें प्रगटे, वृद्धि गंजीर सुख पावे ॥ सु० ॥२॥ काव्य तथा मंत्र बोलवां ॥ इति श्राचार्यपदपूजा ॥ ॥ अथ उपाध्यायपदपूजा ४ थी॥ ॥दोहा॥ ॥ सूत्र अर्थ विस्तारवा, सज रहे जरपूर ॥ कुमत वाद गढ जंजवा, नमो वाचक सिंधूर ॥१॥ सूरि नहीं सूरि गण तणी, करता नित्य सहाय ॥ मोह मद माया तजी, निरनिमान सदाय ॥५॥ अंगादि सूत्र अर्थना, दान दीयनमें सऊ ॥ पणविश गुणगणे शोजता, नित धरी गणि गण मजा ॥३॥ प्रवादी गज गण त्रासवा, जे पंचानन वीर॥ चेतन प्रजुता अनुनवे, नमो वाचक ते धीर ॥४॥ ॥ ढाल १ ली ॥ राग रेखतो ॥ ॥ वाचकपद प्रज तं प्यारे, करम घन समीर ज्यु दारे ॥ दमा मृड आर्जवी सोहे, परिणति मुक्ति मन मोहे ॥ वा० ॥ १॥तपो तप संजमे माची, सत्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. शुचि शोच गुण राची॥अकिंचनी आश सव बारी, ब्रह्म नव वाम अविकारी ॥ वा ॥२॥ समिति गुप्तिमें राता, तत्व कहे स्याछाद माता ॥ श्रात्म पर विवेची नव नीरु, साधनमें धीर ज्युं मेरु ॥ वाण ॥३॥ शासन जर वहनको धोरी, वाचना दीए चित्त जोरी ॥ वाचकपद ध्याइ एक धारा, खपे अघ कष्टके नारा ॥ वा० ॥४॥ ॥ ढाल २ जी ॥राग नेरव अथवा देवगंधार ॥ ॥ पाठक पूजो प्रेम अपार ॥पा॥ ए श्रांकणी ॥ छादश अंग नित करत सकाय, आगम मार्ग को हृदिहार ॥पा०॥ सूत्र अरथ विस्तारण रसिया, नमीए तेहने नक्ति उदार ॥ पा ॥१॥ अर्थदायी मुनिने होय सूरि,सूत्रदायी कहे वाचक सार॥पा॥ नव जीजे वरे दोय शिवकमला, और न लगवश् नेद लगार ॥ पा॥२॥जमने करे जगपूज्य प्रजु जे, पथ्थर मूर्ति ज्युं सूत्रधार ॥पा०॥ते उवकाय सकल जन पूजित, सूत्र अरथ सवि जाननदार ॥पा०॥३॥ राजकुंवर परे करे गण रक्षण, आचारजपद योग्य उदार पाते उवजाय नमन ते नावे, नवनय शोक उठेग लगार ॥ पा० ॥४॥ बावनाचंदन रस सम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीरविजयकृत नवपदपूजा. एy वचने,अहित ताप सवि टालनहार ॥ पाते उवकाय नमीजे जे फुनि, जिनमत तीव्र दीपावनहार॥पा॥५॥ ॥ ढाल ३ जी ॥ राग कालींगमो त्रिताल ॥ ॥ बंसीया रे केसे बजारघुवीर ॥ ए देशी॥ ॥ सुगतियां रे पावे वाचक ध्याधीर॥सु॥जेसे सकाय तप रति नितु कीनी, जिनमत रसे रंग्या हीर ॥ सु० ॥१॥ ज्युं जगबंधु जगजीवन पालक, ध्यातां ध्यानी वाचक वीर॥सु०॥वीर वचनरस पीए जस वृद्धि, सविनय सिक गंनीर ॥ सु० ॥ २॥ ॥काव्य तथा मंत्र बोलवां ॥इति उपाध्यायपदपूजा॥ ॥ श्रथ साधुपदपूजा ५ मी॥ ॥ दोहा ॥ ॥सिक संजम रस जस हठ, नमीए ते अणगार ॥ दमण दमन दया नौ बले, उतरे नवनिधि पार॥१॥ सूरि वाचक गणि सेवना, करवा जे उजमाल ॥ तस वर्णव केम करी शकुं, उज्ज्वल गुण मणिमाल ॥२॥ समिति पंच समिते सदा, गुप्त त्रिगुप्ते सदैव॥ लोग पिपासा (खेप)तजी बहि, अंतर ग्रंथि नजेव ॥३॥ मुक्ति योग चरणे करी, रमे योग अष्टांगते मुनि नमतां कीजीए, पाप करमदल जंग ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ ढाल १ ली ॥ राग वसंतनी काफी ॥ वीरजमें खेले नंदके शामरो, पीतांबर उनका राय॥ए चाल॥ ॥ सरवथी बेदी विषय विष जालने, रमे निकामी निस्संग ॥ स० ॥ वचनरसे नवताप शमावता, श्रातम साधन रंग ॥ स० ॥१॥ शुरू स्वरूप निज रमण सनातन, निर्मम निर्मद चंग ॥ सम्॥ ध्यानमें थिर आसन काउस्सग्गमें, नित्य तप तेज सुरंग ॥ स ॥ कर्मने जीते बीपे नवि परपणे, करुणा कर नमे रंग ॥ स ॥२॥ ॥ ढाल २ जी॥राग फीकोटी ॥ ॥पानी केसे जालं रे, में पानी केसे जालं॥ए चाल॥ ॥मुनिपद एसेध्या रे,में मुनिपद एसे ध्याउं॥पूजी पावन थालं रे॥ में मु०॥ जेम तरुफुले नमरो बेसे, न करे बाध लगार रे॥जरा जरारसे आतम तोषे,गोचरी करे अणगार रे॥में मु०॥१॥जिय पांचे निज वश राखे,बकाय जीव रक्षकार रे॥संजम सत्तर नेदे पाले, करुणारस नंमार रे॥में मुणाशसहस अढार शीलांगरथ धोरी, अचल आचार व्यवहार रे॥मुनि महंत जतनाए वंदो, करो सफल अवतार रे ॥में मु॥३॥ नव वाडे शुरु ब्रह्मवत्त पाले, तप तपे बार प्रकार रे ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीरविजयकृत नवपदपूजा. ३॥ पूरव पुण्य अंकुर जस जागे, ते वांदे ए श्रणगार रे ॥में मु॥४॥ कंचननी परे दीसे परीक्षा, नित्य चढते जाव प्रकार रे ॥ देश काल अनुसारे संजम, पाले नमो अणगार रे ॥ में मु॥५॥ ॥ ढाल ३ जी॥ राग बीरु अथवा पीलु॥ सोय सोय सारी रेण गमाइ,वेरिण निसा कहांसे आशाए चाल॥ ॥ अप्रमत्त चित्त निज रस गणी, जामे हरखे न शोचे गुमानी ॥ अ॥ १॥ साधु सुधारस परिणति तेहि, क्या मुंडेही लोचे वखाणी ॥श्र० ॥२॥ ए वीर वाणी चित्त धर प्राणी, यशो वृद्धि गंजीर सुखखाणी ॥ अ०॥३॥ ॥ काव्य ने मंत्र बोलवां ॥ इति साधुपदपूजा ॥ ॥ अथ सम्यग्दर्शनपदपूजा ६ ही॥ ॥दोहा॥ ॥जिन जाषित नव तत्त्वनी, जे निरमल रुचिरूप ॥ सम्यग्दर्शन ते नमुं, परिणति आत्मस्वरूप ॥१॥ अनादिथी जिनवचनमें, परिणति जे विपरीत॥हन परिणाम सहित मिटे, मिथ्या दरशन नीत ॥२॥ श्रका तव सहजे हुवे,जिनमत रुचे प्रधान ॥सम्यग्दरशन ते का, शिवसुख रत्न निधान ॥३॥ जे Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. विन ज्ञान अज्ञान , चरण जीसो जवकूप ॥ प्रकृति सग दय उपशमे, तव लही देख निज रूप ॥४॥ ॥ ढाल १ ली॥ राग देश ॥ मुलतानी ख्याल ॥ ॥प्रजु तोरी साची सुधारस वाणी ॥ ए चाल ॥ ॥नम जीया सम्यग्दसण रागे॥ए टेकातत्त्व प्रतीति स्वरूप तस जानी, निर्धार स्वन्नाव तां जागे॥न॥१॥ जे चेतन गुण अरूपी अनुपम,श्रका धर्म प्रगटे नागे ॥ न० ॥ सवि पर श्हा शमे शुरू सत्ता, प्रगट लखन रुचि जागे ॥ न० ॥॥ बहुमान परिणति वस्तु धरमे, हेतु गवेषण मागे ॥ न ॥ साध्य लद धरी करे सब करणी, वास्तवी संपत्त रागे ॥ न० ॥३॥ ॥ ढाल जी ॥ राग जंगलो ॥ ॥ तीहारे सैयां रंगमें नीने नयन ॥ ए चाल ॥ ॥अरचो जवि सम्यग्दर्शन धाम ॥०॥ शुद्ध देव गुरु धर्म परखीने, श्रझा करण परिणाम ॥१०॥१॥ गुण जीयां पावे तेह कहीजे, सकल सुधर्मनो गम ॥ अ॥२॥ मल उपशम क्षय उपशम यथी, उपजे त्रिविध अनिराम ॥०॥३॥ सम्यग्रदर्शन नम जिनवचने, अनंग सुमन विशराम ॥ ॥४॥ पंच वार उपशम क्षय उपशम वार असंख्य जे पाम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीर विजयकृत नवपदपूजा. ४०१ ॥ ० ॥ ५ ॥ एक वार लड़े कायक समकित दरशनी असंख्य उदाम ॥ ० ॥ ६ ॥ जे विन ज्ञान न होवे साचो, व्रततरुन फले काम ॥ ० ॥ ७ ॥ जे निफल मोक्ष न जे विनु पावे, समकित बल हे उदाम ॥ अ० ॥ ८ ॥ समसठ ने सोहे ज्युं सुरतरु, ज्ञान चरण मूल गम ॥ ० ॥ ए ॥ ॥ ढाल ३ जी ॥ राग वढंस ॥ || हमारे को खेले बाहोरी, जामे श्रावागमनकी दोरी ॥ ए चाल ॥ ॥ जीया नम दंसण श्रातम सोरी, जामे रीऊ रही शिवगोरी ॥ जी० ॥ दाय उपशम रस वश गुण आये, सम संवेगे सजोरी ॥ यास्तिक अनुकंपादिक प्रसरे, क्या मुनि श्राद्ध कहोरी ॥ जी० ॥ १ ॥ वीर जिणंद वचनसें नीकसी, वाणी सुधारस गोरी ॥ सुजश वृद्धि करी नवल तरंगे, गंजीर परम हित जोरी ॥ जी० ॥ २ ॥ ॥ काव्य ने मंत्र बोलवां ॥ इति दर्शनपदपूजा || ॥ अथ ज्ञानपदपूजा मी ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ निविम अज्ञान तिमिर हरी, प्रकाशे वस्तु मात्र ॥ नमो नमो ज्ञान दिनपति, उदयो दिन ने रात्र ॥ १ ॥ वि० २६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. यथोचित आवरण नाश जे, शुद्ध ज्ञान सुबोध ॥ षट् अव्य ज्ञान प्रकाशवा, हेतु शान सुशोध ॥२॥ वितथ वाद जेमां नहीं, न इला वाद बनाव ॥ मति आदे पण ज्ञान ते, वदे नित सदनाव ॥ ३ ॥ गुरु सेवी लहे योग्यता, निज घट देखे सदैव ॥डेय हेय उपादेय ते, तमगत घट ज्युं दीप ॥४॥ ॥ ढाल १ ली ॥ राग धनाश्री॥ ॥ चूल्यो नमत कहो बे अजान ॥ ए चाल ॥ ॥ज्ञान हि नमन बनावे सुज्ञान ॥ ज्ञा॥ खपर नाव प्रकाशी दीखावे, पर्याय अनंत विधान ॥ ज्ञाप ॥१॥नेदान्नेद स्वजावनो ग्राही, परिणति मुख्य पीठान ॥ ज्ञा॥२॥ ज्ञापक सकल पदारथ जावे, निर्मल पंचहि ज्ञान ॥ज्ञा०॥३॥ साधन साध्य उन्नय निरधारे, संशय सवहर जान॥ज्ञा०॥४॥ स्याद्वादमय वस्तु जणावे, विशेष सामान्य विधान ॥शा॥ ॥ ढाल २जी॥ राग ॥ ॥तुम चिरन श्रानंद लाल, तोरे दरिशणकी __ बलीदारी॥ए राग॥ ॥जिनशान सकल श्राधार सार, नमुं नित नित बे कर जोरी॥ जि०॥१॥ नदय अन्नदय न जे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीरविजयकृत नवपदपूजा. ४०३ विनु जाने, पेय अपेय न धारी ॥ जि० ॥२॥ कृत्य अकृत्य न देखे जे विन, देव गुरु शुधिकारी जि॥३॥ ज्ञान विना संजम नवि होवे, श्रागम वचन निहारी ॥जि०॥४॥ज्ञानने वंदो, ज्ञान म निंदो ॥ ज्ञानी शिवसुखना अधिकारी॥ जि ॥५॥सकल किया मूल डे श्रझा, (ए तो) श्रधा मूल विहारी॥ जि० ॥ ६॥ ते विनु केसे रहुँ क्षण एक, नमुं नूतल मस्तक धारी ॥ जि ॥ ७ ॥ पंच ज्ञानमां जेह सदागम, स्वपर प्रकाशनकारी॥ जि॥ ॥ दीपक रवि शशी मेघ परे ते, जगजीवन उपकारी॥ जिण ॥ए ॥ लोक ऊर्ध्व अध तिर्यग् ज्योतिष, सुर शिव दर्पण धारी ॥ जि०॥ १०॥ लोकालोक प्रगट सवि जेहथी, (तेह) आगमे शुद्धि अमारी॥ जि॥११॥ ॥ ढाल ३ जी ॥राग कानमो॥ ॥ अवसर बेहर बेहर नहीं थावे॥ ए चाल॥ ॥चेतन ज्ञान स्वनाब ज्युं ध्यावे॥०॥ज्ञानावरणी कर्म जीयाने, दय उपशम जो पावे॥ चे ॥१॥ ज्ञान हुवेतव एही आतम, अबोधपणुं सवि जावे ॥ चे०॥२॥वीर जिणंद वाणी रस पानी, सुजश महो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. दय पावे॥ चे ॥३॥ वृद्धि गंजीर वरे शिवकमला, अमल विपुल सुख पावे ॥ चे ॥४॥ ॥ इति ज्ञानपदपूजा ॥ काव्य तथा मंत्र बोलवां ॥ ॥अथ चारित्रपदपूजा मी॥ ॥ स्वरूप शुद्ध किरिया गहे, रहे जे निरतिचार ॥ जस बले संजम शक्ति ते, नमीए वार हजार ॥१॥ ज्ञानफल चरण रंगे धरूं, निःस्पृह आश्रव रोध ॥ नवजल प्रवहण सुखमय, सुमन करम मल शोध ॥२॥ रंक जेश्री राजा हुये, अंगोपांग नणंत ॥ पापरूप निष्पाप हुये, दीपे तेज महंत ॥३॥ कर्म खपे सिकि लहे, जन्म मरण मिटी जाय ॥ इह नवमें सुरवर नमे, परनव सुगते जाय॥४॥ ॥ढाल १ली॥राग श्याम कल्याण ॥ ॥जिनजन्म जानी दाशकुमरं। आवे रे ॥ए चाल ॥ ॥ नमन चरण गुणन ठरण मगन नावे रे, जस तत्व रमण मूल रूप गावे रे, परमे रमणिकपणुं सर्व विसरी जावे रे॥गमे खास, सिछि वास, अचल नास, रमण जास,मुगति नावे रे॥न॥१॥करमाश्रव त्याग रूप संजम सुहाव रे, तत्त्व थरता दममय। परिणति आवे रे॥शुचि परम दमादि मुनिधर्म जावे रे॥नमो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीरविजयकृत नवपदपूजा. ४०५ अतुल, अमल विपुल, अकल सरल, उज्ज्वल चरण, निर्मल नावे रे ॥ न ॥२॥ ॥ ढाल जी ॥ राग काफी वसंतनी होरी॥ ॥ बावरे मत मारो पिचकारी॥ए चाल॥ ॥ पूजो चारित्र जग जयकारी, जयकारी रे, पूजो जग जयकारी, मुनि अधिकारी, गृहीने देशे निहारी, हेरी लाला ॥ गृ०॥देशविरति ने सर्व विरति जे, चक्री लीए हितधारी, तृण परे षट् खंम बांरी ॥ पू० ॥१॥ श्रदय सुखकारी अघहारी, अशरण शरण विहारी, हेरी लाला ॥०॥ रंक हुवा परमेश्वर जेहथी, इंज नरिंद नम्यारी,झानानंदी जुहारी॥पू०॥२॥बार मास जे संजम धारी, अनुत्तर सुरसुख पारी, हेरी लाला ॥अ॥शुकल शुकल अनिजात्य ते उपर, पाप खपन अधिकारी, खपी तन बंध पुनारी॥पू०॥३॥चय श्रम कर्मनो संचय धारी, रिक्त करे खाली कारी, हेरी लाला॥ रि०॥ चारित्र नाम नियुक्ति धारी,नाम अतुल सुखकारी, नमुं तस वार हजारी ॥ पू०॥४॥ ॥ ढाल ३ जी ॥ राग मारुणि ॥ ॥पिया पर घर मत जाणं रे,कर करुणा महाराज॥पि॥ए चाल॥ ॥जीया चिद् चरण बनाउं रे, रमी निज गुण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. दिन रात ||जी० ॥ परिणमी शुद्ध खनावमें रे, लेश्या शुद्ध सुहात || मोहवने जमवो नहीं, श्रातम चरण विख्यात ॥ जी० ॥ १ ॥ वीर जिणंद वाणी सुनी रे, खरस रंगी सव धात ॥ सुजश स्वरूप वृद्धि करी, गंजीर सलोनी वात || जी० ॥ २ ॥ ॥ इति चारित्रपदपूजा ॥ काव्य तथा मंत्र बोलवां ॥ ॥ अथ तपपदपूजा ए मी ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ कर्मतरु जंजन गजवरु, नमो तीव्र तप सार ॥ एम नव पद सिद्ध यंत्र ए, अरिहंत श्री मोजार ॥ १ ॥ स्वरश्री प्रमुख देवता, सिद्ध प्रमुख पद वर्ग ॥ तत्वार लब्धि पदो, गुरुपद नमुं समग्र ॥ २ ॥ त्रिवि कलशो करी, नव निधि ग्रह निर्धार ॥ जयादि अधिष्टातृ च, जिनजननी जिन धार ॥ ३ ॥ विद्या शासन सुर सुरी, प्रातिहार्य शुरवीर ॥ दिक्पाल सिद्धचक्र ए, थापी घरचो धीर ॥ ४ ॥ कलशे अमृत मंगलो, चीते क्षिति पीठ ॥ पूर्व सूरि कहे सेवीए, शिवसाधन ए जीव ॥ ५ ॥ नूत जावि वर्त्तमाननां कठिन कर्म हरनार ॥ निकाचित पण सवि खपे, तप कर बार उदार ॥ ६ ॥ क्षमा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीर विजयकृत नवपदपूजा. ४०५ सहित अनिदानपणे, टालीने दुर्ध्यान ॥ निरिक्षक तप सेवीए महिमा लब्धि निधान ॥ ७ ॥ कर्मावरने संहरे, महानंद पद देत ॥ रीके सिद्धि सीमंतिनी, ज्ञानविमल संकेत ॥ ८ ॥ ॥ ढाल १ ली ॥ राग देश सोरठ ॥ ॥ पुद्गल का क्या विश्वासा, जैसे पानी बिच पतासा ॥ ५० ॥ए चाल ॥ ॥ तप इछा रोधन जानी, वहिंतर नेद पठाणी ॥ तप० ॥ श्रातम सत्ता चित्त धरीने, परपरिणति विरमाणी ॥ तप० ॥ १ ॥ अनादि कर्म प्रवाह उवेदी, सिद्धपणुं वरे प्राणी ॥ तप० ॥ २ ॥ योग निरोधी अनाहारी, अक्रिया जाव निसानी ॥ तप० ॥ ३ ॥ अंतरमुहूर्त्त तत्व निज साधे, सर्व संवरमय प्राणी ॥ तप० ॥ ४ ॥ एम नव पद गुण मंगल विरचो, निखेप नय विधि जाणी ॥ तप० ॥ ५ ॥ शुद्ध सत्तारामी चेतन होये, देवचंद पद ठगणी ॥ तप० ॥ ६ ॥ ॥ ढाल १ जी ॥ राग खमाच ॥ ॥ पूजो तप गुण शिवतरु कंद, जे शम मकरंद मंद रे ॥ ० ॥ जेहने आदरे कर्म खपेवा, ते जव मुगति जिनंद रे ॥ ५० ॥ १ ॥ कारण वश कारज बे निश्चये, जाने परम मुनींद रे ॥ पू० ॥ कर्म निकाचित पण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. दय जावे, दमा सहित कर बंद रे ॥ पू० ॥२॥ ते तप नमीए जेह दीपावे, जिनपंथ उजम अमंद रे ॥ पू० ॥ श्रामोसही पमुहा बहु लब्धि, (लहे) जास प्रजावे मुनींद रे॥पू०॥३॥श्रम महा सिछि नव निधि प्रगटे, नमता नावे महींद रे ॥ पू० ॥ फल शिवसुख मोटुं सुर नरवर, संपत्त कुसुम जिनंद रे ॥ पू॥४॥ ते तप वंदो सुरतरु सरिखो, अमोल समताकंद रे ॥पू० ॥ सर्व मंगलमा पहेलु मंगल, तप कहे आगम वृंद रे ॥पू॥५॥ ते तपपद त्रिकाले नमीए, शिवपंथ सहाय गरुंद रे ॥ पू० ॥ श्म नव पद ते तिहां लीना, श्री श्रीपाल नरिंद रे ॥ पूण् ॥ ६॥ चोथे खंडे अग्यारमी ढाले, जश वृधिना कंद रे ॥ पू० ॥ नव पद महिमा प्रेमे गावे, गंजीर ध्वनि सुरवृंद रे ॥ पू० ॥ ७॥ ॥ ढाल ३ जी ॥ राग ॥ ॥ आश् बसंत बहार रे,प्रनु बेठे मगनमें॥ए चाल॥ ॥संवरी श्रात्म वनाव,सोही तपातम पूजो॥परिणति समता रस रंगानी, श्वारोध बनाव ॥सोही॥ निज गुण जोगी विषयनिराशी, प्राणी तपमय नाव॥ सोही० ॥१॥ नव पद ज्ञान उपयोगे श्रागम, नोप्रा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगंजीरविजयकृत नवपदपूजा. ४० गम क्रिया नाव ॥ सोही० ॥ रीको उत्जयमें साचा जानी, नक्ति ज्ञान खन्नाव ॥ सोही० ॥२॥ थिर रही आतम नावे नित करी, पर सुख रतिनो अनाव ॥ सोही ॥सकल समृद्धि अष्टक शकि, निज घटमें प्रगटाव ॥सोही॥३॥तेम सघली श्री नव पद कि, श्रातम झछिनाव ॥सोही॥ साधन असंख कहे जिन देवे,नव पद मुख्य लखाव ॥सोही॥॥श्रालंबी नव पदने ध्यातां,यातम ध्यान निपाव ॥ सोही॥तम नव पद नव पद बातम,झान क्रिया नय लाव॥सोही। ॥५॥ए दो नयमें सग नय सेतर, पऊय निश्चय नाव ॥सोही०॥ यशोविजय वृद्धि तव गंजीर, जिनगुण मंगल गाव ॥ सोही० ॥६॥ इति तपपदपूजा ॥ए॥ ॥कलश ॥ ॥ एम विधन वारण, सिकि कारण, सिद्धचक्र पदावली ॥ विबुध चारनी गहन रचना, सुगम ए में संकली ॥ वृषिविजय गुरुपाद सेवी, गंजीर जंपे मन रली॥गणीश सत्तावन पौषी सित बल, गोघे मन आशा फली ॥ इति श्रीनवपदपूजा संपूर्ण ॥ ॥अथ श्रीनवपदजीनी आरति॥ ॥ नम, मेव, नम,मेव, नव पद जयकारी॥नम॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. संकट विघन सब चूरे, पूरे आशारी ॥ नम ॥ १॥ अरिहंत सिकाचारज, जगजन हितकारी (२)॥ वाचक मुनिवर नमता,सुखीयां नर नारी॥नम॥२॥ दरशन ज्ञान आतम रूप,निरधारणकारी (२)॥अनिनव कर्मने रोधे, संजम हित धारी ॥ नम० ॥३॥ पूर्व करम मल शोधक,तपगुण अविकारी ()॥सिकचक्र सेवक वृद्धि, गंजीर जयकारी॥ नम ॥४॥ ॥ नव पद आरति समाप्त ॥ ॥ अथ ॥ ॥ श्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा प्रारंनः ॥ ॥ तत्र॥ ॥ प्रथम स्नात्रपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ स्वस्तिश्री सुख पूरवा, कल्पवेली अनुहार ॥ पूजा नक्ति जिननी करो, एकवीश नेय विस्तार॥१॥ (पागंतरे ) विधिपूर्वक विस्तार ॥१॥स्नात्र विलेपन नूषणं, पुष्प वास धूप दीव ॥ फल अदत तेम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ४११ पत्रनी, पुगी नैवेद्य अतीव ॥२॥ उदक वस्त्र चामर तथा, बत्र वाद्य गीत जात ॥ नृत्य स्तुति जिन. कोशनी, वृद्धि ए एकवीश गण ॥३॥ शुचि तनु तैल जलादिके, पहेरी चीवर सार ॥ पीठ त्रिको परि जिन ग्वी, जिनाणा शिर धार ॥ ४ ॥ गंगा मागध दीरनिधि, औषधि मिश्रित सार ॥ कुसुमे वासित शुचि जले, करो जिनस्नात्र उदार ॥ ५॥ ___॥ ढाल ॥ सुरती महीनानी देशी ॥ ॥ मणि कनकादिक अम विध, करी जरी कलश सफार ॥ शुन रुचि जे जिनवर न्हवे, तस नहीं कुरित प्रचार ॥ मेरुशिखर जेम सुरवर, जिनवर न्हवण अमान ॥ करता वरता निज गुण, समकित वृद्धि निदान ॥ ६॥ काव्यम् ॥ हर्ष नरी अप्सरावृंद श्रावे, स्नात्र करी एम आशीष नावे ॥ जिहां लगे सुरगिरि जंबूदीवो, अम तणा नाथ जीवो तुं जीवो ॥ ॥ इति प्रथम स्नात्रपूजा ॥१॥ ॥ अथ द्वितीय विलेपनपूजा ॥ दोहा ॥ ॥ बावनाचंदन कुंकुमे, मृगमद ने घनसार ॥ जिनतनु वेपे तस टले, मोह संताप विकार ॥ ७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ ढाल ॥ सकल संताप निवारण, गरण सविजवि चित्त ॥ परम अनीदा रिहा, तनु चरचो नवि नित्य || निज रूपे उपयोगी, धारी जिनगुण गेह || नाव वंदन सुहजावथी, टाले पुरित अबेह ॥ ए ॥ काव्यम् ॥ जिनतनु चरचतां सकल नाकी, कहे कुग्रह उष्णता श्राज थाकी ॥ सकल निमेपता आज माकी, जव्यता म तपी श्राज पाकी ॥ १० ॥ इति द्वितीय विलेपनपूजा ॥ २ ॥ ॥ अथ तृतीय भूषणपूजा ॥ दोहा ॥ ११ ॥ ॥ ॥ तिलक मुकुट कुंमल जुगल, कुंमल जुगल, अंगद कंठी भूषणभूषित जिनतनु, करी पामो जवपार ॥ ॥ ढाल ॥ मणि मुगताफल हीरला, लालडी पाच पीरोज || नीलवी विडुम पुष्करे, लसणीया लहे बहु मोज | कनकजडित वर भूषणे, भूषित जिनवर देह || साधक धर्म जगायवा, अतिशय संपद्र एह ॥ १२ ॥ काव्यम् ॥ शोजता भूषण देखी बीजे, जगमयी आतमा स्वगुण बीजे ॥ अविकारी जिन तणे देखी एह, जवि लहे तत्त्व आणंद रेह ॥ १३ ॥ इति तृतीय भूषणपूजा ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only हार ॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ४१३ ॥ अथ चतुर्थ कुसुमपूजा ॥ दोहा ॥ ॥ शतपत्री वर मोघरा, चंपक जाय गुलाब ॥ केतकी दमणय बोल सिरि, पूजो जिन जरी बाब ॥ १४ ॥ ढाल ॥ अमल अखंडित विकसित, शुन सुमनी घणी जाति ॥ लाखीणो टोमर ठवो, आंगी रची बहु जाति ॥ गुण कुसुमे निज श्रातम, मंडित करवा जव्य ॥ गुणरागी जडत्याग, पुष्प चढावो नव्य ॥ १५ ॥ काव्यम् ॥ जगधणी पूजतां विविध फूले, सुरखरा ते गणे क्षण श्रमूले ॥ खांति धरी मानवा जिन पूजे, तस तणां पाप संताप भ्रूजे ॥ १६ ॥ इति चतुर्थ कुसुमपूजा ॥ ४ ॥ ॥ अथ पंचम वासपूजा ॥ दोहा ॥ ॥ बावनाचंदन कुंकुमं, सुरनि जात मंदार ॥ घनसारे युत वासशुं, पूजो जिनप उदार ॥ १७ ॥ ॥ ढाल ॥ सरस सुगंधित वासे, वासे जिनपति जेह ॥ तस मिथ्यात विनाशे, वासे समकित देह ॥ निज गुण वासित यातमा, गततम होये निःशंक ॥ तत्त्वालंबी चेतना, टाले कर्म कलंक ॥ १८ ॥ काव्यम् ॥ सुरनिवर वासशुं जक्तिरागे, विबुधवर वासतां एम मागे For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ तुज गुणज्ञानमां लीन थप्पा, थिर रहो डूर बंडी विगप्पा ॥ १७ ॥ इति पंचम वासपूजा ॥ ५ ॥ ॥ अथ षष्ठ धूप पूजा ॥ दोहा ॥ ॥ कृष्णागरु मृगमद तगर, अंबर तुरुक्क लोबान ॥ मेली सुगंध घनसार घण, करो जिनने धूप धाय ॥ २० ॥ ढाल ॥ धूप घटी जेम महमहे, तेम दहे पातकवृंद ॥ रतिनादिनी जावे, पावे मन प्राणंद ॥ जे जिन पूजे धूपे, जवकूपे फरी तेह ॥ नावे पावे ध्रुव घर, यावे सुख वेह ॥ २१ ॥ काव्यम् ॥ जिनघर वासतां धूप पूरे, मित दुर्गंधता जाय डूरे ॥ धूप जिम सहज ऊर्ध्वग स्वजावे, कारका उच्च गति जाव पावे ॥ २२ ॥ इति षष्ठ धूपपूजा ॥ ६ ॥ ॥ अथ सप्तम दीपपूजा ॥ दोहा ॥ " ॥ मणिमय रजत ताम्र प्रमुख, पात्र जरी घृत पूर ॥ वृत्ति सूत्र कौसुंजनी, करो प्रदीप सनूर ॥ २३ ॥ ढाल ॥ मंगलदीप वधावो गावो जिनगुणं गीत || दीप तथी जेम आालिका, मालिका मंगल नित || दीप तणी शुज ज्योति, द्योतित जिनमुख चंद ॥ निरखी दरखो जविजना, जेम लहो पूर्णानंद ॥ २४ ॥ काव्यम् ॥ जिनगृहे दीपमाला प्रकाशे, तेहथी For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रावक गुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ४१५ तिमिर अज्ञान नासे ॥ निज घटे ज्ञान ज्योति विकासे, जेहथी जग तथा जाव जासे ॥ २५ ॥ इति सप्तम दीपपूजा ॥ ७ ॥ ॥ अथ अष्टम फलपूजा || दोहा || ॥ पक्क बीजोरुं जिनकरे, ववतां शिवफल देय ॥ सरस मधुर शुभ फल घणां, इह जिन नेट करेय ॥ २६ ॥ ढाल ॥ श्रीफल कदली सुरंगा, नारिंग थांबा सार ॥ जंबीर अंजीर दामिम, करणा षटूबीज सफार ॥ मधुर सुखादिक उत्तम, लोके अनिंदित जेह ॥ वर्ण गंधादिके रमणिक, बहु फल ढोके तेह ॥ २७ ॥ काव्यम् ॥ फल जरे पूजतां जगत्स्वामी, मनुज गति वेली होय सफल पामी ॥ सकल मुनि ध्येय गतभेद रंगे, ध्यावतां फल समाप्ति प्रसंगे ॥ २८ ॥ इत्यष्टम फलपूजा ॥ ८ ॥ ॥ अथ नवमातपूजा ॥ दोहा ॥ ॥ अत त पूरशुं, जे जिन धागे सार ॥ खस्तिक रचतां विस्तरे, निज गुण जर विस्तार ॥ २७ ॥ ॥ ढाल ॥ उज्ज्वल अमल अखंडित, मंमित त चंग ॥ पुंजत्रयी करो स्वस्तिक, आस्तिक जावे रंग ॥ निज सत्ताने सन्मुख, उन्मुख जावे जेह || Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. झानादिक गुण गवे, नावे स्वस्तिक एह ॥ ३० ॥ काव्यम् ॥ खस्तिक पूरतां जिनप आगे, स्वस्ति श्री नकल्याण जागे ॥ जन्म जरा मरणादि अशुन नागे, नियति शिवशर्म रहे तास आगे ॥३१॥ इति नवमाअदतपूजा ॥ ए॥ ॥ अथ दशम पत्रपूजा ॥ दोहा ॥ ॥ अमल अखंडित अग्रयुत, शुन्न संख्याए पत्त ॥ जिणकरपत्ते पत्त नवि, ठवतां बहु गुण पत्त ॥ ३॥ ढाल ॥ विश्वगुणाकर नागर, श्रादर धरी ग्रहे जास ॥ नोजन उत्तर देवे, लेवे तस मुख वास ॥ तेह सुपत्ते पूजतां, पूजक वाधे नूर ॥ अहमरुवादिक पत्ते, विनत्ति जत्ते पूर ॥३३॥ काव्यम् ॥ पूजना पत्र शुचि नाव जागे, अग्र उपयुक्तता सविदोष तागे॥ नावतंबोल श्री जेह माचे, शिववधू तेहथी सद्य राचे ॥ ३४ ॥ इति दशम पत्रपूजा ॥ १० ॥ ॥अथ एकादश पुगीपूजा ॥ दोहा॥ ॥ उज्ज्वल शुद्ध सुखाद्यवर, नव्य नव्य जे जाति ॥ जनप्यारी सोपारी वर, पूजो जिन जली नाति॥३५॥ ढाल ॥मंगल कारण लावीए, जावीए घर घर हर्ष ॥ खस्तिक मंझन खमन, उरित तणा उत्कर्ष ॥क्रमुक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ४१७ फले जिन रचो, विरचो घरी गुणराग ॥ मंगलमाला थावे, पावे जवजल ताग ॥ ३६ ॥ काव्यं ॥ शुद्ध स्याद्वाद मृटु जावसंगे, शुक्लता शुद्धवर नाव रंगे ॥ जावथी पूजतो एम पूगे, नियति श्रानंद घर तेह पूगे ॥ ३७ ॥ इत्येकादश पूगीफलपूजा ॥ ११ ॥ ॥ अथ द्वादश नैवेद्यपूजा ॥ दोहा ॥ ॥ सरस शुचि पकवान जर, शालि दाल घृतपूर ॥ करे नैवेद्य जिन श्रागले, कुधा दोष तस दूर ॥ ३८ ॥ ढाल ॥ लाखण श्री वर घेवर, मृडुतर मोतीचूर ॥ सिंह केशर सेवइया, दलिया मोदक पूर ॥ साकर झाख शींगोमां, जक्त व्यंजन घृत सद्य ॥ एम नैवेद्य जिनने करे, तस मले सुख अनवद्य ॥ ३ ॥ काव्यम् ॥ ढोकता जोज्य परजाव त्यागे, जविजना निज गुण जोग मागे ॥ श्रम जी श्रम तणुं स्वरूप जोज्य, थापजो तातजी जगत्पूज्य ॥ ४० ॥ इति द्वादश नैवेद्यपूजा ॥ १२ ॥ ॥ अथ त्रयोदश जलपूजा ॥ दोहा ॥ ॥ शुभ रुचि शुचि निर्वाणनुं, पूर्ण कलश जरी तोय ॥ जिनपति श्रागल ढोकतां, गततृष्णा जवि होय ॥ ४१ ॥ ढाल ॥ जगजीवन गुणपावन, निर्मल वि०२७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. शीतल जेह ॥ उदकरयणे जिन पूजतां, न रहे पातक रेद ॥अतिनीष्मे नवग्रीष्मे, नविपीमाये तेह ॥ सुखनर शिवघर वासवा, आदि मंगल एह ॥४२॥ काव्यम् ॥ निम्मले समजले जेह प्राणी, नरी पात्र श्रमान ते सुगुणखाणी ॥ एकता जिनगुणे देवदेवा, नजे जावधी जल तणी एह सेवा ॥ ४३ ॥ इति त्रयोदश जलपूजा ॥ १३॥ ॥अथ चतुर्दश वस्त्रपूजा ॥ दोहा ॥ ॥चीनांशुक मुखमल श्रमल, जरबाफी शुभ पट्ट॥ सरस सुकोमल मूल घणां, वस्त्रपूज गहगह ॥४४॥ ढाल ॥ वस्त्रजोडी मन कोडे, थापो जिनगमाग ॥ गतशोचे उबोचे, अह जिनमंदिर राग ॥ शोजावो ध्वज गवो, चावो करी बहु मान ॥ वस्त्रपूजा हरे नविकनां, पुःख शीतादि अमान ॥४५ ।। काव्यम् ॥ नावथी वस्त्रयुग जे परिन्ना, ते धरे जिन तणी थाण लीना ॥ शिशिर जम आश्रवे मोहग्रीष्मे, न वि लहे कुःख संसार जीष्मे ॥४६॥इति चतुर्दश वस्त्रपूजा ॥ १४ ॥ ॥ अथ पंचदश चामरपूजा ॥दोहा॥ ॥अति उज्ज्वल अंगुल तणुं, एकशत आठ प्रमाण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ४१९७ ॥ चामररले पूजतां, नासे डुरितविहाए ॥ ४७ ॥ ढाल ॥ कनक रणने दंडे, मंकित चामरजोमी ॥ दरखतां जिनमुख निरखतां, वींजे होमा होमी ॥ विकसित कज जेम जिनमुख, सन्मुख घ्यावी हंस ॥ सेवे एम उपमित करे, जविजन धरी आशंक ॥ ४८ ॥ काव्यम् ॥ ज्ञानमय किरिय उज्ज्वल खजावे, नति उन्नति गौण मुख्यादि जावे ॥ मानगुणसंख जिनराज आणे, नावथी बुद्ध चामर वखाये ॥ ४५ ॥ इति पंचदश चामरपूजा ॥ १५ ॥ ॥ अथ षोमश उत्रत्रयपूजा ॥ दोहा ॥ ॥ उज्ज्वल शारद चंद जिम, उत्रत्रय बहु मूल ॥ बावीजे जिन उपरे, तस डुगसिरि अनुकूल ॥ ५० ॥ ढाल ॥ त्रत्रय जेम फरके, थरके पातकवृंद ॥ मोहादिक धरि त्राग, नाग करे खाकंद ॥ जे नित्य पूजे उत्रे, शुज गोत्रे लहे जम्म ॥ तत्क्षणे छत्र धरे हरि, सुरगिरे उत्सव कम्म ॥ ५१ ॥ काव्यम् ॥ हृत्कजे जेह जिनराज ध्यावे, लीनता श्रवंचक योग बावे ॥ जावत्रत्रयी गुण समाजे, सादि निरांत शिवराज राजे ॥ ५२ ॥ इति षोमश उत्रत्रयपूजा ॥ १६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥अथ सप्तदश वाजित्रपूजा ॥ दोहा ॥ ॥नंना नेरी मृदंगवर, तंत्री ताल कठताल ॥जबरी कुंछही शंख इति, वाजित्रपूज विशाल ॥५३॥ ढाल ॥ जेम जेम वाजिन वाजे, गाजे श्रति घनघोर ॥ तेम तेम जिनगुणे राचे, माचे ज्युं घन मोर ॥ निसुणी नूपति मंका, वंका तस्कर पूर॥जाये तेम वाजिवथी, गात्रथी दोष ते नूर ॥ ५४॥ काव्यम् ॥ श्रीजिन आण वरते गंधारी, नियत उपयोगी वचन ते वाद्य नारी ॥ वीर्योबास लखी मोह त्रासे, जावधी वाद्यपूजा प्रकाशे ॥५५॥ इति सप्तदश वाजित्रपूजा ॥१७॥ ॥अथ अष्टादश गीतपूजा ॥ दोहा ॥ ॥ नैरव विनास आशावरी, टोमी नट्ट कल्याण ॥ धन्यासीरी पमुहे स्तवे, पूजा गीत प्रमाण ॥ ५६॥ ढाल ॥ गुणरागे शुफ रागे, रागे जे जिन गान ॥ जागे अनुनववासना, मागे केवलमान ॥ तान मान खर ग्रामनी, मूर्चना नेदे नेद ॥ लय लागे रुचि जागे, त्यागे ममता खेद ॥ ५७ ॥ काव्यम् ॥ शुक निछ जिनरूप धारी, अहव वाबस्यता गुण संजारी॥दव गुण पजावा शुधनाखे, जावधी गीतरस तेर चाखे ॥ ५० ॥ इति श्रष्टादश गीतपूजा॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ श्री श्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ॥ अथ एकोनविंशति नृत्यपूजा ॥ दोहा ॥ - ॥ मूकी शंक संसारनी, जिनपति आगे जत्ति ॥ करी नृत्य सूर्याज परे, तस नहीं जवजय नृत्य ॥ ५५ ॥ ढाल ॥ नूचर खेचर अमरवर, किन्नरी नरी शुभ चित्त ॥ नाचे माचे जिनगुणे, सांचे सुकृतवित्त ॥ योग अवंचक एहथी, तेहथी जिनपद हेतु ॥ चनगइ गमनिवारण, तारण जवजलसेतु ॥ ६० ॥ काव्यम् ॥ जेह निज योगगति सहज रंगे, फोरवे अमृतानुष्ठान संगे ॥ अतुल गुणतान न चूके संगे, जावनृत्यपूजना एह ढंगे ॥ ६१ ॥ इति एकोनविंशति नृत्यपूजा ॥ १५ ॥ ॥ श्रथ विंशति स्तुतिपूजा ॥ दोहा ॥ ॥ व्याकरण काव्य अलंकृति, तर्क बंद प्रष्ठ दोष न दोषे स्तुति करे, स्तुतिपूजा गुणसह ॥ ६२ ॥ ढाल ॥ स्वर पद वर्ण विराजती, जाजती उक्ति अनूप ॥ अतिशय धारी उपकारी, अह तस शुद्ध स्वरूप संपद् त्रिक एम स्तवतो, ववतो जिनगुण चित्त ॥ सुर नर किन्नर थवे तस, एणीदृश कवे नित्त ॥ ६३ ॥ काव्यम् ॥ जेह षट् द्रव्य जिनखाए जाखे, शुद्ध स्याद्वादनी टेक राखे ॥ अवर एकांतता दूर नाखे, For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जावस्तुति पूजना एह आखे ॥ ६४ ॥ इति विंशति स्तुतिपूजा ॥ २०॥ ॥ अथ एकविंशति कोशपूजा ॥ दोहा ॥ ॥निज सुकृतउदये लडं, न्यायोपार्जित वित्त ॥वृद्धि जिनपति कोशनी, करे पूजा जहसत्ति॥६५॥ ढाल ॥ रूपैया सोनैया, अजिरामी अतिचंग ॥ हूण पूत. लिया गब्बर, उपन्न नेद प्रसंग ॥ पुण्ये पामी लबी, खळीमति जिनकोश ॥ वृद्धि करो अप्पा जरो, निज गुण नावसंतोष ॥ ६६ ॥ काव्यम् ॥ प्रतिकणे जेह जिनराज आणे, निज परनाव विन्नाण नाणे॥ जेहथी आत्मगुणगण वा, नावथी कोशनी वृद्धि साधे ॥ ६७ ॥ इति एकविंशति कोशपूजा ॥१॥ ॥दोहा॥ ॥एम एकवीश विधि पूजना, विरचे जे थिर चित्त ॥ मानवनव सफलो करे, वाधे समकित वित्त ॥ ६ ॥ ढाल ॥ अगणित गुणगण आगर, नागरवंदितपाय ॥ श्रुतधारी उपकारी,ज्ञानसागर उवद्याय ॥तास चरणकज सेवक, मधुकर परे लयलीन ॥ श्रीजिनपूजा गार, जिनवाणी रसपीन ॥ ६ए ॥ काव्यम् ॥ संवत् गुण युग अचल छ, हर्षनर गाश्यो श्रीजिनें3॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ४२३ तास फल सुकृतथी सकल प्राणी, लहो ज्ञान उद्योत घन शिवनिशानी ॥ ० ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ गवीश श्रावकगुणवने, पूजा पुष्कर मेद | सुर नर सुख फूले फले, शिवसुख लहे अवेह ॥ ११ ॥ ॥ इति पंक्ति श्रीदेवचंदजीकृता श्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा संपूर्णा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ अथ श्रीज्ञानविमलसूरिकृत श्रीशांतिनाथजीनो कलश प्रारंनः॥ ॥ श्रीजयमंगलकृत्स्नमभ्युदयतावद्वीप्ररोहाबुदो, दारियमकाननैकदलने मत्तो धुरः सिंधुरः॥ विश्वैः संस्तुतसत्प्रतापमहिमा सौजाग्यनाग्योदयः, स श्रीशांतिजिनेश्वरोऽनिमतदो जीयात् सुवर्णवविः॥१॥ अहो नव्याः शृणुत तावत् सकलमंगलकेलिकलालीलासनकाः लीलारसरोपितचित्तवृत्तयः विहित. श्रीमजिनेअनक्तिप्रवृत्तयः सांप्रतं श्रीमछांति जिनेंजन्मानिषेककलशो गीयते ॥ ॥ राग वसंत, तथा नट्ट, देशाख ॥ ॥ श्रीशांति जिनवर, सयल सुखकर, कलश नणीए तास ॥ जिम नविक जनने, सयल संपत्ति, बहुत लील विलास ॥ कुंरु नानि जनपद, तिलक सम वम, हविणार सार ॥ जिननयरी कंचन, रयण धण कण, सुगुणजन आधार ॥१॥ तिहां राय राजे, बहु दिवाजे, विश्वसेन नरिंद ॥ निज प्रकृति सोमह, तेज तपनह, मानुं चंद दिणंद ॥ तस पण वखाणी, पट्टराणी, नामे अचिरा नार ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीज्ञानविमलसूरिकृत शांतिनाथनो कलश. ४२५ सुखसेजे सुतां, चौद पेखे, सुपन सार उदार ॥२॥ सबक सिक विमानथी तव, चवीयो उर उप्पन्न ॥ बहु नट्ट नट नन वीण सत्तमी, दिवस गुणसंपुन्न। तव रोग सोग वियोग विड्डर, मारी ईति शमंत ॥ वर सयल मंगल, केलि कमला, घर घरे विलसंत ॥३॥ वर चंद योगे, ज्येष्ठ तेरस, वदि दिने थयो जम्म॥तव मध्यरयणीए दिशिकुमारी, करे सूकम्म ॥तव चलीय श्रासन,सुणीय सवि हरि, घंटनादे मेली ॥ सुरविंदसबे, मेरुसले, रचे मऊन केलि ॥४॥ ॥ ढाल ॥ विश्वसेन नृप घरे नंदन जनमीया एतिहश्रण नवियण प्रेमशुं प्रणमीया ए ॥५॥ चाल ॥ हां रे प्रणमीया ते चौस , उवे मेरु गिरीद ॥ सुरनदी नीर समीर तिहां, दीरजलनिधि तीर ॥६॥ सिंहासने सुरराज, जिहां मल्या देवसमाज॥ सर्व औषधिनी जात, वर सरस कमल विख्यात ॥७॥ ढाल ॥ विख्यात विविध परे कमलना ए॥ तिहां हरख जर सुरनि वरदामना ए॥७॥ चाल ॥ हां रे वरदाम मागध नाम, जे तीर्थ उत्तम गम ॥ तेह तणी माटी सर्व, कर ग्रहे सर्व सुपर्व ॥ ए॥ बावनाचंदन सार, अजियोग सुर अधिकार ॥ मन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. धरी अधिक आनंद, अवलोकता जिनचंद ॥ १० ॥ ढाल ॥ श्री जिनचंदने सुरपति सवि नवरावता ए ॥ निज निज जन्म सुकृतारथ जावता ए ॥ ११ ॥ चाल ॥ हां रे जावता जन्म प्रमाण, अनिषेक कलश मंमाण | साठ लाख ने एक कोड, शत दोय ने पंचास जोम ॥ १२ ॥ आठ जातिना ते होय, चौसठी सहसा जोय ॥ एी परे नक्ति उदार, करे पूजा विविध प्रकार || १३ || ढाल || विविध प्रकारना करीय शिणगार ए ॥ जरीय जल विमलना विपुल भृंगार ए ॥ १४ ॥ चाल ॥ हां रे भृंगार थाल चंगेरी, सुप्रतिष्ठ प्रमुख सुनेरी ॥ सवि कलश परे मंगाण, जे विविध वस्तु प्रमाण ॥ १५ ॥ रति ने मंगलदीप, जिनराजने समीप ॥ जगवती चूरणी मांदि, अधिकार एह उत्साही ॥ १६ ॥ ढाल ॥ अधिक उत्साह शुं दरख जल जींजता ए ॥ नव नव जांतिशुं नक्किनर की जता ए ॥ १७ ॥ चाल ॥ हां रे कीजता नाटारंज, गाजता गुद्दीर मृदंग ॥ करी करी तिहा कंठताल, चडताल ताल कंसाल ॥ १८ ॥ शंख पणव जुंगल मेरी, ऊल्लरी वीणा नफेरी ॥ एक करे हयदेषा, एक करे गज गुलकार ॥ १५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीज्ञानविमलसूरिकृत शांतिनाथनो कलश. ४२७ ॥ ढाल ॥ गुलकार गर्जनारव करे ए ॥ पाय दूर दूर धुर धुर धरे ए ॥ २० ॥ चाल ॥ हां रे सुर धरे अधिक बहु मान, तिहां करे नव नव तान ॥ वर विविध जाति बंद, जिननक्ति सुरतरुकंद ॥२१॥वली करे मंगल आउ, ए जंबूपन्नत्ति पाठ ॥ थाय थुश्य मंगल एम, मन धरी अधिक बहु प्रेम ॥२२॥ ढाल ॥प्रेममद घोषणा पुण्यनी सुरासुर सहु ए॥ समकित पोषणा शिष्ट संतोषणा एम बहु ए ॥३॥ चाल॥हां रे बहु प्रेमअ॒सुख देम, घरे श्राणीया निधि जेम ॥ बत्रीश कोमि सुवन्न, करे वृष्टि रयणनी धन्न ॥ २४ ॥ जिनजननी पासे मेली, करे अहानी केलि ॥नंदीश्वरे जिनगेह, करे महोत्सव ससनेह ॥ २५ ॥ ॥ ढाल प्रथमनी ॥ ॥ हवे राय महोत्सव, करे रंग जर, थयो जब परजात ॥ सूर पूजीयो सुत, नयणे निरखी, हरखीयो तव तात ॥ वर धवल मंगल, गीत गातां, गंधर्व गावे रास ॥ बहु दाने माने, सुखीयां कीधां, सयल पूगी आश ॥२६॥ तिहां पंचवरणी, कुसुमवासित, चूमिका संवित्त ॥ वर अगर कुंदरु, धूपधूपण, बगंव्यां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. कुंकुम लित्त ॥ शिर मुकुट मंमल, काने कुंमल, हैये नवसर हार ॥ एम सयल चूषण नूषितांबर, जगत्जन परिवार ॥ २७ ॥ जिनजन्मकल्याणक महोत्सवे, चौद जुवन उद्योत ॥ नारकी थावर, प्रमुख सुखीयां, सकल मंगल होत ॥ फुःख ऽरित इति, शमित सघलां, जिनराजने परताप ॥ तेणे हेते शांति कुमार वीयुं, नाम इति श्रालाप ॥२॥ एम शांति जिननो, कलश जणतां, होवे मंगलमाल ॥ कल्याण कमला, केलि करती, लहे लील विलास ॥ जिनस्नान करीए, सहेजे तरीए, जवसमुज्नो पार ॥ एम ज्ञानविमल, सूरींद जंपे, श्रीशांति जिन जयकार ॥२५॥ इति श्रीज्ञानविमलसूरिकृतः श्रीशांतिजिनकलशः संपूर्णः॥ ॥अथ ॥ ॥श्रीअढीसें अनिषेकनो कलश प्रारं नः ॥ ॥ ढाल पहेली ॥ ॥ जय केवल कमला केलिगेह, जय कंचन कोमल विमल देह ॥ जय शांति जिनेसर शुद्ध देव, जय सकल सुरासुर करेय सेव ॥१॥ जय चउत्तिशे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअढीसें अनिषेकनो कलश. ए अतिशय संयुक्त, जय पांत्रीश वचनातिशय पवित्त॥ जय शांतिकरण श्रीशांतिनाह, पजणीश तस कलशह मनउत्साह ॥२॥ सबक विमानथी चवीय नाह, हविणार श्रावीय गुणअगाह ॥ नरव सिरि विस्ससेण नाम, अचिरा उयरे जप्पन्नो स्वाम॥३॥ चन्दस वर सुमिणां निरखे ताम, गज वृषन हरि अनिशेष दाम ॥ शशी रवि जय कुंन पउम तडाग, सागर सुरघर मणि विमल आग ॥४॥शुन सुपनां देखी जागी देवी, प्रह समे निज प्रजुने कहती हेव॥ सुणी नृप मन माहे हरष पाय, तुम संतति जिनपति चक्री थाय ॥५॥जेठ वदि तेरस जरणी रिक, एणे दिवसे जायो रहीय पुरक ॥ तब आसन चलीयां दिशिकुमारी, सूतिकर्म करे श्रावीने सार ॥६॥ संवट मेह आयसगाय, नींगार ताल वाजिन संटाय ॥ चामर जोश्य रक करंति, दिशिकुमारीनो ए जीत तंति॥७॥ तदनंतर आसन चलीय इंद, अवधे जाणीय जम्म जिणंद॥हर्षित हुश् अडपय साहामो आय, करी अंजलि प्रणमी जिणंद पाय ॥सुणो रे सर्व सुरलोय देव, जिन जम्म महोत्सव करण हेव ॥ निय निय सामग्गी सजीय रंग, अमरावल Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. आवजो धरी उमंग ॥ ए ॥ एम जंपी सुघोषा घंटनाद, वजडावे सुरपति मन आह्लाद ॥ पालक यान बेसी सुहम साम, थर नंदीश्वर श्रावी जम्म गाम ॥१॥परदक्षिणा देश जिन जम्मगेह, जिन ने जननी प्रणमे सनेह ॥ पभिरूव मूकी पंच रूप करेय, हरि श्रावे मंदरशैल तेह ॥ ११॥ अवश्नो आदेश लेव, श्रानियोगिक सुर तव ततखेव ॥ खीरोदधिनां जल जरीय कुंज, तीरथजल ने मृत्तिका सुरंग ॥१२॥ ॥ ढाल बीजी ॥ नवमे मास ने बाग्मे दिवसे, जाया जिनवर राया जी ॥ ए देशी ॥ ॥ जन्ममहोत्सव करवा कारण, सुरपति सुरगिरि मलीया जी ॥ अढीसें अनिषेक करणने, श्रमविह कलशा नरीया जी॥१॥ नवियण नाव धरीने पूजो, श्रीजिनवरनी मुसा जी॥चोसठ सहस्स कलश जल जरीने, एक अनिषेके इंशा जी ॥ २ ॥ पणवीश जोयण उंचा कलशा, पोहोला जोयण वार जी॥जोयगर्नु नाळु एक कोमि, साठ लाख मन धार जी ॥३॥ एकसो चोराणुं सुरपतिना, जाणो जिन अनिषेका जी ॥ वैमानिक देवीना षोमश, अनिषेकह सुविवेका जी॥४॥ दश असुर देवीना सुंदर,नागकुमरीना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीढी ४३१ निषेकनो कलश. बार जी ॥ व्यंतर देवीना वली चारज, ज्योतिष सुरना चार जी ॥ २५॥ लोकपालना चानिषेकद, अंगरक्षकनो एक जी ॥ सामानिक सुरनो पण एकज, एक निषेकनीकजी ॥ ६ ॥ त्रायत्रिंशक सुरनो पण एक, एक पर्षद सुर केरो जी ॥ पन्नग सुरनो एक अनिषेको, करता लाज घणेरो जी ॥ ७ ॥ ढाल त्रीजी ॥ श्रानंद मंगलमां जीत रही ए ॥ ए देशी ॥ ॥ अत सुरपति प्रथम थकी करे, तदनु प्राणत इंद्रा जी ॥ सहस्रार पति वली शुक्र इंद्रे, लांतक ब्रह्म सुरेंद्रा जी ॥ १ ॥ जवियण स्नात्र करो बहु जावे, समकित निर्मल करवा जी ॥ रत्नत्रय आराधन कारण, जवसारथी तरवा जी ॥ ज० ॥ २ ॥ माहेंद्र ने वली सनत्कुमारह, ईशानेंद्र न्हवरावे जी ॥ तदनंतर करे जवनाधिपति, अनिषेका बहु जावे जी ॥ ज० ॥ ३॥ चमरेंद्र ने वली बलींद्रह धरणेंद्र नूतानेंद्र जी ॥ वेणुदेव ने वेणुदाली, हरिस्सह हरी कंत इंद्र जी ॥ ज० ॥४॥ अग्निशिखा ने अग्निमाणव, पूरण ने वशिष्ट जी ॥ जनकंत ने जलप्रनेंद्रह, अमितगति अमित वाहनेंद्र जी ॥ ज० ॥ ५ ॥ वेलंबक ने इंद्रप्रमंजन, घोष अने महाघोष जी ॥ प्रथम दक्षिणनो पश्चिम उत्तर हरि, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R३५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. हरता पातक दोष जी ॥ ज० ॥ ६॥ ते वार पछिम व्यंतर महर्डिक, सोल हरि मनरंगे जी ॥ काल अने महाकाल वरूपा, प्रतिरूपा मनरंगे जी॥न॥७॥ पूरणनछ ने माणिना हरि, नीम अने महानीम जी ॥ किन्नर ने किंपुरिस सहपुरिसा, महापुरिस अतिप्रेम जी॥०॥॥अतिकाय ने महाकाय करी, गीत रति हरि जाणो जी॥गीतयशा ए सोल व्यंतरना, श्रधिपति मनमां आणो जी ॥ न ॥ ए॥ ते पण दक्षिणपतिनो पहेलो,पछिम उत्तरनो रंगे जी॥अल्प झझिया वाणव्यंतरना, षोडश हरि सुप्रसंगेजी ॥ ज० ॥१॥सन्निहित ने सामानित हरि, धाय विधाय सुरेशा जी ॥ ऋषि ने झषिपाल व्यंतरी वश्, ईश्वर महेश्वर ईशा जी॥॥११॥ सुवत्स विशाल शचिपति, हास्य हास्यरश्मघवा जी॥श्वेत श्रने महाश्वेत पुरंदर, पयंग पयंगवश् ग्रहवा जी ॥ ज०॥१२॥ ढाल चोथी॥नमो रे नमो श्रीशेजा गिरिवर॥ए देशी ॥ नमो रे नमो श्री शांति जिनेसर, शांतिसुधारस दाता रे ॥ तीन जुवन मनमोहन मूरत, जगबंधव जगत्राता रे ॥ नमो० ॥ १॥ हवे कहुं शशी रविना अनिषेका, एकशत ने बत्रीश रे ॥ जंब्रदीपना दो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअढीसें अनिषेकनो कलश. ४३३ रवि दो शशी, लवणना चार अधीश रे॥नमो॥२॥ धातकी खंमना छादश रवि शशी, कालोदधि बियाला रे॥ तदनंतर उत्तरना शशी रवि, स्नात्रकार उजमाला रे ॥ नमो० ॥३॥ बासठ अनिषेका दक्षिणना, गसठ उत्तर केरा रे ॥सर्व मली एकसो ने बत्रीश, करतां सुख अधिकेरां रे॥ नमो ॥॥ त्यारपती त्रायत्रिंश सामानिक, अंगरक्षक ने अन्निका रे ॥ परषद् ने पन्नग सुर केरा, लोकपाल अनिषेका रे ॥ नमो ॥५॥ सोहमपतिनी आउ खाणी, पद्मा शिवादेवी रे ॥शची अंजू अमलो अप्सरा, नवमीका रोहणी लेवी रे ॥ नमो ॥६॥शाने तणी पण आठे, कृष्ण ने कृष्णारा रे॥रामा रामरदिता देवी, वसु वसुगुप्ता गारे ॥ नमो० ॥७॥ वसुमित्रा वसुंधरा जाणो, बेहु मलीने सोल रे ॥ आठ दक्षिणना आठ उत्तरना, अनिषेका रंगरोल रे ॥नमो॥७॥ तदनंतर चमरेंजनी देवी, काली राति रयणी रे ॥ विजु ने मेहा ए पांचे, दक्षिणवर इंशाणी रे ॥ नमो ॥ए॥ तेम बलिहारिनी पण पांचे, शुजानी ने शुजा रंजा रे ॥ निरंजा देवी ने मदना, ए पांचे गतदंना रे ॥ नमो० ॥ १० ॥ एहना पण जे दश वि० २८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. अनिषेका, दक्षिण उत्तर कीजे रे॥हवे धरणे तणी पटराणी, षट् अनिधान ग्रहीजे रे ॥ नमो ॥११॥ ॥ ढाल पांचमी॥ ॥पायो पायो रेनले श्रीजिनशासन पायो॥ स्नात्रमहोत्सव करो मनरंगे, एहीज मोद उपायो रे ॥ जले॥१॥ अल्बाश इंशाणी ने मका, त्रीजी जाणो सुतेरा ॥ सोहामणी इंदाघण विजूश्रा, ए अनिधान नदेर रे॥नले० ॥२॥जतानंछनी षट इंद्राणी. रूपारूप सरूपा ॥रूपकावती ने वली रूपकांता, रूपप्रना ने अनूपा रे ॥नले०॥३॥ एहना पण हादश अनिषेका, दक्षिण उत्तर धारो ॥ तदनंतर व्यंतर देवीना, अनिषेका बे चारो रे ॥ नले॥४॥ कमला कमलप्रजा ने उपला, सुदंसणा इंशाणी ॥ ए पण दक्षिण उत्तरे रहीने, नक्ति करे चित्त बाणी रे॥नले ॥५॥चंड तणं चारे श्वाणं, चंप्रना देवं जाणो॥ अनुष्णाना ने अर्चिमाली, प्रनंकरा मन आणो रे॥ जले॥६॥ हवे रविनी चारे अग्रमहिषी, सूर्यप्रना तिहां पहेली॥आतपा देवी ने अर्चिमाली, प्रनंकरा रंग रेली रे॥ जले॥७॥ ए आठे मली चनु अनिषेका, समकित निर्मलकारी ॥ तालीश अनिषेका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअढीसें अनिषेकनो कलश. ४३५ देवीना, सूत्र तणे अनुसारी रे ॥ जले ॥७॥ केश गीत गावे के तूर बजावे, केश करे नाटारंज ॥ ताल मृदंग ने वीणा तंबूरा, जबरी नेरी अदंन रे ॥ जले०॥ ए॥ तदनंतर ईशाने लेवे, सोहमपति न्हवरावे॥चार वृषननां रूप करीने, अधिकी नक्ति बनावे रे ॥ नखे ॥ १० ॥ अच्युत परे अनिषेक करे वली, सोहमपति मनरंगे ॥ ए अनिषेक तणो अनुक्रम, जंबूपन्नति उपांगे रे ॥ जले ॥११॥एम अनिषेक अढीसें करीने, समकित निर्मल कीजे ॥ केवलज्ञान महोदय पदवी, आतम संपत्ति लीजे रे॥नवे॥१२॥ त्यारपती हरि प्रजुने लेश, मेले मानी पासे । बत्रीश क्रोड रत्ननी वृष्टि, इंछ करे जहासे रे ॥ जले॥ १३॥नंदीश्वर अहाश्महोत्सव, करीने मन आणंद॥ सकल सुरासुर निज निज थानक, पोहोता मंद श्रमंद रे ॥ नले० ॥ १४ ॥ एह कलश जे जणशे गुणशे, ते लहे शिवसुखकंद ॥ केवलकमला कल्पवेलि घन, पावे परमानंद रे ॥ जले ॥ १५ ॥ ॥ कलश ॥ ॥ श्रीशांति जिनवर, सयल सुखकर, संस्तव्यो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. त्रिजुवन धणी, शुन्ज लछिमाला, गुण विशाला, दीए निज सेवक नणी ॥ जन्मानिषेक, महंत महिमा, करत शिवसुख पाइए ॥ त्रैलोक्यनाथ, सुदेव जिनवर, जगत् मंगल गाइए ॥ १॥ इति श्रीसाईछिशत अनिषेकाः संपूर्णाः॥ ॥ अथ अढीसें अनिषेकनी गाथा ॥ ॥ इंदसम तायतिंसा, पारसीया श्रायरक लोगपालाणं ॥ श्रणिय पश्ना श्रनिजो, गग्गम दिसीणमनिसेसा ॥ १॥ चल णवश्सयं एगो, तित्तीसा तिन्नि एग चउसत्त ॥ एगी एंगो पंचय, णेया शंखा कमेणेसिं ॥२॥ ॥ अढीसें अनिषेकनो सरवालो नीचे प्रमाणे . १वैमानिक बार देवलोकना दशस तेना दश अनिल २० जुवनपतिना वीश इंजना वीश अनिषेक. ३२ व्यंतरना बत्रीश इंजना बत्रीश अनिषेक. १३ज्योतिषीअढीहीप माहेलागसचंडअनेस सूर्य मली एकसो बत्रीशना एकसो ने बत्रीशअजित सौधर्मेनी आठ अग्रमहिषीना आठ अनिषेक. ७ ईशानेउनी आठ अग्रमहिषीना श्राउ अनिषेक. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअढीसें अनिषेकना कलशनो सरवालो. ४३७ ५ चमरेंजनी पांच अग्रमहिषीना पांच अनिषेक. ५ बलींजनी पांच अग्रमहिषीना पांच अनिषेक. ६ धरणेअनी उ पटराणीना उ अनिषेक. ६ नूतानेंनी उ पटराणीना उ अनिषेक. ४ व्यंतरनी चार अग्रमहिषीना चार अनिषेक. ४ ज्योतिषीनी चार अग्रमहिषीना चार अनिषेक. ४ चार लोकपालना चार अनिषेक. १ अंगरक्षक देवनो एक अनिषेक. १ सामानिक देवनो एक अनिषेक. १ कटकना देवनो एक अनिषेक. १ त्रायत्रिंशक देवनो एक अनिषेक. १ परषदाना देवोनो एक अनिषेक. १ पन्नग सुरनो एटले प्रज्ञास्थान देवनो एक अनि NeelaMgYT954 5.GOGXaalore इति अढीसें अनिषेकनो कलश समाप्त. reOSXXERSexsexsex92290X0GPU२७०८०७७७ ७७७७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ श्रथ ॥ ॥ देवपालकविकृत स्नात्रपूजा प्रारंजः ॥ ॥पूर्व दिशाए अथवा उत्तर दिशाए बाजोठ मांडी तेना उपर कुंकुंमनो स्वस्तिक करी, पठी तेना उपर एक थाल मूकीए; ते थालमां केशरनो स्वस्तिक करी मांहे पंचतीर्थी प्रतिमा स्थापन करीए. पनी श्रावक पंचामृतनो कलश जरी तेने अंगवूहणे ढांकीने ते कलशने त्यां स्थापन करी नीचे लखेली गाथा कहे ॥ ॥ (गाथा) आर्या ॥मुक्तालंकारविका-रसारसौम्यस्वकांतिकमनीयम् ॥ सहजनिजरूपनिर्जित-जगत्त्रयं पातु जिनबिंबम्॥१॥ए गाथा कही,प्रतिमाजीनां श्रलंकार उतारीए ॥ गाथा॥अवणिय कुसुमाहरणं, पयर पयख्यि मनोहरलायं।जिणरूवं मऊणपीठं, संहियंवो सिवं दिसल॥२॥ए गाथा नणी निर्मात्य उतारीए॥ गाथा॥बालतणम्मि सामिश्र,सुमेरुसिहरम्मि कणयकलसेहिं ॥ तिअसा सुरेहिं एह विर्ड, ते धन्ना जेहिं दिछोसि॥३॥एगाथा कही,कलशे पखाल करी संदेपे पूजीए. पठी स्नात्रकारकना हाथ धूप चंदने वासी Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवपालकविकृत स्नात्रपूजा. ५३ हाथमां कुसुमांजलिथापी,प्रजुनी जमणी बाजुपाटला उपर उन्नो राखीए. पडी नमोऽहत् सि ॥ कहीए ॥ ॥ढाल (चाल)॥पवित्र उदक ले अंग पखाली, विविध वस्त्र जादव चिरमाली ॥ कुसुमांजलि म्हेलो आदि जिणंदा, तोरां चरणकमल सेवे चोसठ इंदा ॥ कुसुमांजलि ॥ १॥ गाथा आर्या ॥ सयवत्त कुंद मालइ, बहुविद कुसुमाश् पंचवन्नाई॥ जिणनाहन्दवणकाले, दिति सुरा कुसुमांजलि दिहा ॥१॥ एम कही प्रजुना चरणे कुसुमांजलि चढावीए॥इति प्रथम कुसुमांजलिः ॥ १॥ नमोऽहत् सि ॥ कहीए ॥ ॥ ढाल (चाल) ॥ सिंहासण सामी थापीजे, पयकमले कुसुमांजलि दीजे ॥ कुसुमांजलि म्हेलो शांति जिणंदा ॥ तोरां चरणकमल सेवे चोसठ इंदा ॥ कुसु० ॥२॥ गाथा दोहा ॥ जा मुकिय सुरासुरेहि, मजाण पढम जिणेस ॥ सा कुसुमांजलि अवहरज, नवियह ऊरिय असेस ॥१॥एम कही कुसुमांजलि चढावीए ॥ इति द्वितीय कुसुमांजलिः ॥ २ ॥ नमोऽहत् सि ॥ कहीए ॥ ॥ढाल (चाल)॥कनककलश जल निर्मल जरीए, सामीने शिर पर एहवणज करीए॥कुसुमांजलि म्हेलो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. नेम जिणंदा॥तोरां चरण॥कुसु॥३॥गाथा आर्या ॥ गंधा ड्डियमहुयर, मणहर ऊंकारसदसंगीया ॥ जिणचलणोवरि मुका, हरउ तुम्ह कुसुमांजलि पुरियं ॥१॥ एम कही कुसुमांजलि चढावीए॥इति तृतीय कुसुमांजलिः॥३॥नमोऽहत सि॥ कहीए॥ ॥ ढाल (चाल) ॥अगर कपूर धूप कर वासीजे, करसंपुट चंदन चरचीजे ॥ कुसुमांजलि म्हेलो पास जिणंदा ॥ तोरां चरण ॥ कुसु० ॥४॥ वस्तुबंद ॥ मुक जिणवर मुक्क जिणवर न्हवणकालं मि, कुसुमांजति सुरवरहिं, महमहंति तिहुयण महहिय, निवमंतु जिणपयकमलिं, हरउ पुरिय सिरिसमणसंघह ॥ पास जिणंदह पयकमलिं, देविहिं मुक्कसंतोस ॥ सा कुसुमांजलि अवहरउ, नवियह ऊरिय असेस ॥१॥ एम कही कुसुमांजलि चढावीए ॥ इति चतुर्थ कुसुमांजलिः॥४॥ नमोऽर्हत् सि ॥ कहीए ॥ ढाल ॥ (चाल)॥सरस सेवंतरीमालती माला, गुण गावे एम कवि देवपाला॥षन अजित संनव गुण गाजं, अनंत चोवीशी जिननी उलग पाजं ॥ कुसुमांजलि म्हेलो वीर जिणंदा ॥ तोरां चरण ॥ कुसु ॥ ५ ॥ वस्तुबंद॥जाइजुहिं जाजुहिं कुंद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवपालक विकृत स्नात्रपूजा ४४१ मंदार, नीलुप्पल कमलदल, सिंडवारचंपय समुऊल पसरंतु परिमल मिलिय, गंधलुद्ध लुहंत मदुयर, इय कुसुमांजलि जिणचलणिं, चिंतीय पावपणास, मुक्कियतारागण सरिस ( पाठांतरे ) मुक्कियतारा अणुसरिस, जवियह पूर यास ॥ १ ॥ एम जणीने कुसुमांजलि चढावीए, बूटां फूल जगवंतनी सन्मुख वधावीए, कुसुमनो मेघ वरषावीए ॥ इति पंचम कुसुमांजलिः ॥ ५ ॥ ए पढी स्नात्रीया चैत्यवंदन करी, हाथ धूपी, कलश लई उजा रहीने श्री आदिनाथनो जन्माजिषेक कलश कहे, ते लखीए बीए. ॥ अथ श्री आदिनाथजन्माभिषेक कलशः ॥ ॥ वस्तुबंद ॥ ॥ विषयनयरी विण्यनयरी, नाजि निवतेहिं ॥ मरुदेविसिं जयरिसर, राय हंससारिव सामिय ॥ सिरिरिसदेसर पढम जिए, पढम रायवर वसहगामिय ॥ वसह अलंकिय काय तपुं, जायो जग श्राधार ॥ तसु पय वंदिय तसु तो, कहीशुं जन्म सुविचार ॥ १ ॥ ढाल ॥ सव विमाणेह चविय नाह, जव For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. जारिं श्रविष्ठा गयविवाद ॥ कुलघर सिरिनानिनरिंद गेहिं, सुसम दुःसम तिय श्रयरछेहि ॥ २ ॥ ॥ हरिगीतछंद ॥ सुसम दुःसम श्रयरमंगण, सबविमाह, सुरविं ॥ सिरिनाजिराया, कुलह मंगण, जवजाउरिं, अवतारं ॥ सुविशाल माला पउढ मुगता, गीत नाद सवे करे ॥ उत्सव जाणी, मन्न आणी, तिबंकरकुल, अवतारं ॥ ३ ॥ हवे दान दीजे, पुण्य कीजे, मन्न रीके, अति घणां ॥ घर घर मंगल, तरियां तोरण, उत्सव होय वधामणां ॥ निशिनरे पोढी, हर्ष आणी, श्शुं जाणी, एम कहे ॥ पावली राते, प्रजात वेला, सुपन मरुदेवा लहे ॥ ४ ॥ ॥ श्रथ सुपननी ढाल ॥ उलालानी ॥ ॥ प्रथम ऐरावण दीवो, नयणे श्रमीय पश्हो ॥ बीजे वृषन उदार, दीगे अति सुखकार ॥ १ ॥ त्रीजे मृगपति पेखे, दरिस डुरित उवेखे || चोथे लखमीश्र सोहे, जिए दीवे जग मोहे ॥ २ ॥ पांचमे कुसुमनी माला, बहे चंद्र विशाला ॥ सातमे तमहर दनकर, ठमे इंद्रध्वज जयकर ॥ ३ ॥ नवमे कलश मनोहर, दशमे पद्म सरोवर ॥ गीयरमे सागर सुंदर, बारमे श्रमरनुं मंदिर ॥ ४ ॥ तेरमे मणिजर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवपालक विकृत स्नात्रपूजा. ४४३ गगने, चउदमे निर्धूम अगनि ॥ इति सुणी सुपनना पाठक, बोल्या निज मुख गावक ॥५॥ राजन् ! तुम सुत होशे, त्रिभुवन तस मुख जोशे ॥ नरपति अहवा जिणंद, तुम कुल च्याव्यो ए चंद ॥ ६ ॥ राय दीए बहु मान, पाठकने घणां दान || पाठक सुपन सुणावे, घरणी निज घरे यावे ॥ ७ ॥ इति सुपननी ढाल ॥ ॥ मूल गाथा ॥ मरुदेवी हिं जयरिं उप्पन्नह जाम, चनदश वर सुमणां लहिय ताम ॥ चित्तह वदि हमी साढरिक, ऋमि ऋमि जिए जाइ रहिय डुक ॥ ॥ वस्तुबंद ॥ श्रय अह अह अहो दिसिं, दिसिकुमरी उपन्न तिहिं ॥ रुववंत वरजत्ति जुत्तिय, रु पचय चिहुं दिसिं ॥ श्र चिहुं विदिसि पद्धत्तिय, चरो रूखगदी व पुण ॥ श्रावीय नानिहिगेहिं, जणणी नमिय आरं निउँ, जनमम होव तिहिं ॥ ॥ ढाल ॥ (चाल) यह संवह वायेण कयवर हर, गंधोदकं बुद्धि कुमरी करई ॥ दप्पणधरा, अजिंगारया, श्रह वरवीजणा, अह चामरजुआ ॥ ५ ॥ चउर दीवयधरा, चउर रिकाकरा, गाई नचि तिन्नि केली हरा ॥ करिय जिए मऊ, जब पी सुकुमारिया, श्रपि निय लिय गए सवे गया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ ६ ॥ तरकणे चलिय सिंहास सुरवई, घंटनाए तिहिं सयल सुर मेलई || पालगारूढ जिए जम्म गिहि यावि, पंच रूवे करी रिसह मेरु नि ॥ ७ ॥ ॥ वस्तुबंद ॥ द तत्रय इंद तत्रय, वीस जवलिंदा वंतर पहुबतीस डुख, चंद सूर कपिंद दस वर, चसहश्र मिलिया हरि, एहवइ नाह बहुजत्ति निनर, सहस च सहिजु, पंचवन्न कलसेहिं ॥ हव सोहम्मन जिए एहव, तं प्पन संखेवि ॥ ८ H ॥ ढाल ॥ (चाल) इसालिंद जिए उछंग लेइ, चन धवल वसह सुरवइ करे ॥ तसु सिंगिहिं सुगंध धार, जल निवमई सुर तियलोय सार ॥ ए ॥ वाजंतइ मद्दल तिवलनाद, वर जहरी जुंगल नेरी साद ॥ गाजंत अंबर देवी देव, जिए मजिय नच्चिय कर सेव ॥ १० ॥ पूजश् वर कुसुमहिं रिसहनाह, बहुजत्ति जावे दुइ सनाह || आरति मंगलदीवुखेव, उत्तार सुरवइ रंग देव ॥ ११ ॥ वस्तुछंद ॥ रिसहमऊण रिसहमकण करिय सुरराय, उप्पा मिय जयजय करिय, जणणि पासि मिल्देवि जत्ता, नंदीसर दिवस करिय, देव देवी निय ठाण पत्ता, इषि परि सयल जिणेसरहिं, करहु न्हवण बहुजत्ति मुणि For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवपालक विकृत स्नात्रपूजा. ४५ रयणायर पावहर, जिम तुम दियश् वरमुति ॥१२॥ इति श्रीश्रादिनाथजन्मानिषेककलशः समाप्तः ॥ ॥ अहीं कुसुमांजलिवाला स्नात्रीया त्रण खमासमण दक्ष, जगचिंतामणि चैत्यवंदन करी, नमुनुणं कही, जय वीयराय पर्यंत कहे. पली एक कलशधारक श्रावकना हाथ धोवरावी, चंदन चरची धूपीने मुखे मुखकोश बांधे. पड़ी त्रण खमासमण आपी एक नवकार गणी पंचामृतनो कलश अंगव्हणे ढांकी फूलमाला पहेरावी हाथमां लश् हृदय श्रागल धरी उन्नो रहीने मुख थकी श्रीपार्श्वनाथ स्वामीनो जन्मानिषेक कलश कहे, ते कलश लखीए बीए ॥ ॥अथ श्रीपार्श्वनाथकलशः ॥ ॥ श्रीसौराष्ट्र देश मध्ये, श्रीमंगलपुर मंमणो, छरित विहंमणो, अनाथनाथ, अशरणशरण, त्रिलुवन जनमनरंजणो, त्रेवीशमो तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ तेह तणो कलश कहीशुं ॥ ढाल ॥हां रे वाणारसी नयरी वसेय अनुपम, उपम श्रवदधारं ॥ तिहां वावि सरोवर नदीय कूपजल, वनस्पति अढार ॥ तिहां गढ मढ मंदिर दीसे अजिनव, सुंदर पोलि प्राकार ॥ कोसीसां पाखल फिरती खाइ, कोटे विसमा घाट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम, ॥१॥ हां रे जिनमंझप शिखर बहुत प्रासादे, दंड कलश ब्रह्मांग ॥ अतिगिरुआ गुणसागर बहु सोहे, दिसे पुहवी प्रचंम॥ तिहां हाट चउटां वस्तु विवेकी, विवहारीया अनेक ॥लखेसरी कोटी गढतल मंदिर, बोले वचन विवेक॥॥हां रेते नगरी बहुरी व्यवहारी, घर घर मंगल चार ॥ नारीकरकंकण सुंदर फलके, करी सकल शणगार ॥ तिहां राजा अश्वसेन महीमंगल, दान खड्ग जीपंत ॥ अति न्यायवंत दीसे नरनायक, वामादेवीकंत ॥ ३॥ हां रे सरगलोकश्री चवीय सुरवर, जप्पन्नो कुल जास ॥ तिहां कृष्ण चोथे चैत्र मासे, एहवे अति उल्लास ॥ तिहां राणी पश्चिम रयणी पेखे, सुहणां चन्द विशाल ॥ तस कुखे अवतरशे जिनवर, जीवदया प्रतिपाल ॥४॥ ॥ अथ सुपननी ढाल ॥ उलालानी ॥ ॥ पहेले गयवर दीगे, मुज मुखकमल पश्को ।। बीजे वृषन उदार, दीगे अति सुकुमार ॥५॥त्रीजे सिंह संपूरो, मही मंगल मांहे ए सूरो॥चोथे लखमी ए दीपी, रतनकमले ए बेठी ॥६॥ उर उतरती ए माल, कुसुमनी फाकफमाल ॥छ पूनमचंदो, अमीय फरे सुखकंदो ॥ ७ ॥ तेजे तपंतो ए जाण, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवपालक विकृत स्नात्रपूजा. करतो सफल विहाण ॥ ध्वजा उतरती आकाशे, लोमंती अंबरवासे ॥ ८ ॥ कणयकलस शिरे करीयो, अमीय महारस जरीयो । दशमे पद्म सरोवर, दीगे वामादेवी मनोहर ॥ ए ॥ खीरसमुद्र घरे खायो, सुज मन सयल सुहायो || बंदी निज निज गम, श्राव्यं श्राव्यं श्रमर विमान ॥ १० ॥ पेखी पेखी रयपनी राशि, सग पण चढी खाकाशि ॥ जलप जलंतो ए दकिए, जागी वामादेवी तरिका ॥ ११ ॥ ॥ राग धन्याश्री ॥ ढाल ॥ GRR ॥ नवमे मासे मे दिवसे, जायो जिनवर रायो जी ॥ घर गूडी तरियां तोरण लहेके, जिणमंदिर उठायो जी ॥ १ ॥ तत्क्षण उप्पन कुमरी यावे, वधावे जिणंदो जी ॥ स्तर काल मांहि ए जिनवर, प्रगढ्यो पूनमचंदो जी ॥ २ ॥ जलाली वज्र सुर एम बोले, आसन कंपे दो जी ॥ तिहां जो अवधिनाणे तेणी वेला, अवतरीया जिणंदो जी ॥ ३ ॥ तेणे स्थानके जनममहोत्सव करवा, आवे चोसठ इंदो जी ॥ मेरुशिखर पर रत्नसिंहासन, बेठा पास जिणंदो जी ॥ ४ ॥ तिहां हुई सनाथ बत्र शिर सोहे, ढाले चामर सुरेंदो जी ॥ पहुता सुर मली प्रभुथानकवर, For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. लब्धिपात्र जयवंतो जी ॥५॥नवपद्धव जिन महिमासागर, आगर तणो नंमारो जी ॥ इकागवंस तिहुयण मनरंजण, जिनशासन सिणगारो जी॥६॥ नणे व नंमारी श्रम मन, वसीयो श्रीअरिहंतोजी।। नील वरण तनु महिमासागर, जय जयन नगवंतो जी ॥७॥ इति श्रीपार्श्वनाथकलशः संपूर्णः ॥ ॥अहीं स्नातस्याप्रतिमस्य ए श्लोक, आ चोपमीना पृष्ठ ( ३०० ) मां ने ते कहीने कलशानिषेक करीए. पली दूध, दधि, धृत,जल अने शर्करा, ए पंचामृतनी पखाल करी पड़ी पूजा करीए॥ ॥मोघर लाल गुलाब मालती, चंपक केतकी वेली॥ कुंद प्रियंगु नागवरजाति, बोल सिरि शुचि मेली ॥ मो० ॥ १॥ जूमंमल जल मोकले फूले, ते पण शुद्ध अखंडी ॥ जिनपदपंकज जेम हरि पूजे, तिण परे जवि तुमे मंमी ॥ मो० ॥२॥ गीतं ॥ पारग तेरे पदपंकज पर, विविध कुसुम सोहे ॥ रनकुं हे आक धतुरे, तुम समो नवि कोहे ॥ पा ॥१॥ विविध कुसुमजाति सोहे, पांचमी पूजा पूजे ॥ तव नविजन रोग सोग, सवि उपजव भ्रूजे ॥पा॥२॥ शति देवपालकविकृता स्नात्रपूजा संपूर्णा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लूण उतारण तथा आरति. ४४ए ॥ अथ लूणउतारणं ॥ ॥ खूण उतारो जिनवर अंगे, निर्मल जलधारा मनरंगे ॥ खू॥१॥ जिम जिम तमतम लूणय फूटे, तिम तिम अशुन कर्मबंध त्रूटे ॥ खू० ॥२॥ नयन सलूणां श्रीजिनजीनां, अनुपम रूप दयारस नीनां ॥ खून ॥३॥ रूप सलूएं जिनजीनुं दीसे, लाज्यु लूण ते जलमां पेसे ॥लू०॥॥४॥त्रण प्रदक्षिण देश जलधारा, जलण खेपवीए लूण उदारा ॥लू०॥५॥ जे जिन उपर उमणो प्राणी, ते एम थाजो खूण ज्युं पाणी ॥ खून ॥ ६ ॥ अगर कृष्णागरु कुंदरु सुगंधे, धूप करीजे विविध प्रबंधे ॥ खूण ॥७॥ इति लूणउतारणं ॥ ॥अथ श्रारतिः॥ __॥ विविध रत्न मणिजमित रचावो, थाल विशाल अनोपम लावो ॥ आरति उतारो प्रजुजीने आगे, जावना नावी शिवसुख मागे॥ श्रा॥१॥सात चौद ने एकवीश नेवा, त्रण त्रण वार प्रदक्षिण देवा ॥ श्रा॥२॥ जिम जिम जलधारा देश जपे, तिम तिम दोहग थरहर कंपे ॥श्रा॥३॥बहु नव संचित पाप पणासे, अव्यपूजाश्री नाव उल्लासे ॥ श्रा० ॥ वि० २९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ४॥ चौद जुवनमां जिनजीने तोसे, कोई नहीं आरति एम बोले ॥ श्रा० ॥५॥ इति रतिः ॥ ॥अथ मंगलदीपकः॥ ॥दीवो रे दीवो मंगलिक दीवो, जुवन प्रकाशक जिन चिरंजीवो॥दी॥१॥चंद सूरज प्रजुतुम मुख केरा, खूबण करता दे नित्य फेरा ॥ दी॥२॥ जिन तुज आगल सुरनी अमरी, मंगलदीप करी दीए जमरी॥दी॥३॥ जिम जिम धूपघटी प्रगटावे, तिम तिम जवनां पुरित दफावे॥ दी० ॥४॥नीर अक्षत कुसुमांजलि चंदन, धूप दीप फल नैवेद्य वंदन ॥ दी० ॥ ५॥ एणी परे अष्टप्रकारी कीजे, पूजा स्नात्र महोत्सव पत्नणीजे ॥ दी०॥६॥इति मंगलदीपकः॥ ॥अथ रतिः ॥ ॥ प्रारति कीजे पास कुमरकी, जनम मरण जय हर जिनवरकी ॥ आ ॥ नयरी वणारसी जनम कहावे, वामा माता प्रनु हुलरावे ॥०॥१॥यौवन वन फल जोगी जणावे, नारी प्रनावती नृप परणावे ॥ काय नीरोग भोग विलसावे, पुरिसादाण। बिरुद धरावे ॥ आप ॥॥ ज्ञान विलोकी कम हरावे, गहन दहनथी फणी निकसावे ॥ सेवक मुख नवकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिन नवअंगपूजन दोहा. ४५१ सुणावे, धरणरायपदवी नीपजावे ॥ श्रा० ॥३॥ क्रोधी कम ह तप लय लावे, जिनदर्शनसे सुरगति पावे ॥ जोग संयोग वियोग बनावे, संयमश्री श्रातम परणावे ॥आ॥४॥ध्यान लहेरीयां काजस्सग्ग जावे, स्वामीकुं वमालय तव गवे ॥ मेघमाली जलधर वरसावे, जब नासा नर नर जल लावे ॥ थाम् ॥ ५॥ तव धरणेघासन कंपावे, पद्मावती साथे तिहां श्रावे ॥ नाथ ऊरध शिर फणीकुं ढलावे, जश् अपराधी देव मरावे ॥ ॥६॥ सांई शरण लही समकित पावे, फणिपति नाटक विधि विरचावे ॥प्रजुचरणे नमी गेह सिधावे, जगदीश्वर घनघाती हरावे ॥ ०॥७॥ साकारे केवल उग पावे, धर्म कही जिननाम खपावे ॥ नूतल विचरी मोद सिधावे, श्रगुरु लघु गुण प्रनु नीपजावे ॥ श्रा ॥ ॥ भारतगतकी आरति गावे, श्रोता वक्ता रति उतरावे ॥ मनमोहन प्रजु पास कहावे, श्रीशुनवीर ते शीश नमावे ॥ आ० ॥ ए ॥ इति आरतिः ॥ ॥ अथ श्रीजिन नवअंगपूजन दोहा ॥ ॥ जल जरी संपुट पत्रमा, जुगलिक नर पूजंत ॥ रूषनचरण अंगुण्डो, दायक नवजल अंत ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जानुबले कास्सग्गरह्या, विचस्या देश विदेश ॥खमा खमा केवल लडं, पूजो जानु नरेश ॥२॥ लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसी दान ॥ करकंडे प्रनु पूजना, पूजो नवि बहु मान ॥३॥ मान गयुं दोय अंशथी, देखी वीरज अनंत ॥नुजाबले नवजल तस्या, पूजो खंध महंत ॥ ४ ॥ सिझशिला गुणउज्ज्वली, लोकांते जगवंत ॥वसीया तेणे कारण नवि, शिरशिखा पूजंत ॥५॥ तीर्थंकरपद पुण्यश्री, विजुवन जन सेवंत ॥ त्रिजुवनतिलक समा प्रजु, नाल तिलक जयवंत ॥ ६॥ सोल पहोर प्रजुदेशना, कंठविवर वरतुल ॥ मधुर ध्वनि सुर नर सुणे, तेणे गले तिलक अमूल्य ॥ ७॥ हृदयकमल उपशम बले, बाल्या राग ने रोष ॥ हीम दहे वनखंमने, हृदयतिलक संतोष ॥ ७॥ रत्नत्रयी गुणउज्ज्वली, सकल सुगुण विशराम ॥ नाभिकमलनी पूजना, करतां अविचल धाम ॥ ए ॥ उपदेशक नव तत्वना, तेणे नव अंग जिणंद ॥ पूजो बहुविध रागथी, कहे शुजवीर मुणींद॥१॥इति श्रीजिन नवअंगपूजन दोहा॥ ॥अथ श्रीदेवचंजीकृत स्नात्रपूजाविधि प्रारंजः ॥ ॥प्रथम निस्सहीपूर्वक श्रीदेरासर मध्ये श्रावी अंग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवचंदजीकृत स्नात्रपूजाविधि. ४५३ शुरू करी, नवीन वस्त्र पहेरी, खनाल तिलक करी, बाजोग्नी स्थापना करी, ते उपर बाजोउ मांमी, स्नानपीठ उपर थालनी स्थापना करवी, ते उपर तंडुलनी ढगली करवी ॥ तेनी उपर रूपानाएं तथा नालीयेर धरीने पनी स्नात्रीयाए पोताने हाथे मौलीसूत्र बांधवं, तथा बीजा कलश प्रमुख स्थानके मौली बंधन करी, कलशाने धूप दक्ष, उध, दधि, घृत, जल तथा शर्करा, ए पंचामृतथी कलश नरी राखवा. पठी मुखकोश बांधी मूलनायकजी पागल थावी नमस्कार करी अने धूपधाएं हाथमां लक्ष धूप उखेववो ॥ ते समये मुखथी धूपावलीनी गाथा कहेवी, ते या प्रमाणेः असुरिंदसीरंदाणं, किन्नर गंधव चंद सुराणं ॥ विद्याहरा सुराणं, सजोगा सिद्धाण सिझाणं ॥१॥ मुनिय परमन विबर, गियन विविह तव सोसियंगाणं॥ सिफिवहु निप्पर, छियाणं जोगीसराणं च ॥२॥ जंपूयाय जगव, तिबयरा राग रोस तम रहिया ॥ विषय पणएण तेसिं, समुह मे श्मे धू ॥३॥ तिबंकर पमिमाणं, कंचण मणि रयण विहुममयाणं ॥ तिहुयण विनूसगाणं, सासय सुर नर कयाणं च Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ ४ ॥ सिद्धाण सूरि पाठंग, साहूणं काण जोग निरयाणं ॥ सुयदेवयमाणं समुकुट मे इमे धू ॥ ५ ॥ " ॥ ए गाथा का पबी प्रथम तने धोइ तेजने केशर तथा चंदन लगामवां, तथा पुष्पोने पण जलथी शुद्ध करी राखवां. तद्नंतर ते अक्षत तथा फूलनी कुंसुमांजलि हाथमां लइ, उजा थइने " नमो अरिहंताणं, नमोऽर्हत्सिद्धा०" एम पाठ कदेवो, नेपछी बे श्लोक पठन करवा, ते या ग्रमाणे:श्रीमत्पुण्यं पवित्रं कृतविपुलफलं मंगलं लक्ष्म लक्ष्म्याः, दुलारिष्टोपसर्गग्रहगति विकृतिस्वप्नमुत्पातघाति ॥ संकेतं कौतुकानां सकलसुखमुखं पर्व सर्वोत्सवानां, स्नात्रं पात्रं गुणानां गुरुगरिमगुरोर्वं चितायैर्न दृष्टम् ॥ १ ॥ श्रशेषनवनांतराश्रितसमाजखेदकमो, न चापि रमणीयतामतिशयीत तस्यापरः ॥ प्रदेश इमानतो निखिललोकसाधारणः, सुमेरुरिति तापिनः स्नपनपीठजावं गतः ॥ २ ॥ ॥ एम का पनी स्नात्रपीठ सन्मुख कुसुमांजलि अर्पण करवी, तदनंतर स्त्रापनपीठ पखाली लूंबीने कुंकुमनो स्वस्तिक करवो, धूप उखेववो ने सर्व स्नात्रीयाना दाथने धूपावली आपवी, पटी कर्पूर For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवचंद्रजीकृत स्नात्रपूजा विधि . ४५५ लगाडवो ने एक नवकार कहीने स्नानपीठ उपर प्रतिमाजीनी स्थापना करवी. ते प्रतिमा प्रायः पंचतीर्थिक, अर्थपरकर संयुक्त स्थापवी. तेना मुख च्यागल श्रतोनी ढगली करवी अने तेनी उपर पंचामृतनो एक कलश मूकवो. पढी हाथमां कुसुमांजलि लइने "मुक्तालंकार विकार०" ए आर्या जणी कुसुमांजलि अर्पण करीने, प्रतिमाजीनां निर्माल्य उतारी प्रज्ञालन कर. पठी अंगलूणांथी प्रमार्जीने धूप जखेववो, थने केशर, चंदन, कर्पूर तथा कस्तूरी घसी ते पवित्र जाजनमांजरीने ते नाजन प्रतिमाजी आागल धरकुं. वली कुसुमांजलि हाथमां लइ उज्जा थइ " इवं मो अरिहंताणं० ॥ नमोई सिद्धा०" कदीने स्नात्रपूजानी पहेली पांखमी कहेवी, एम अनुक्रमे पांच पांखडी कही कुसुमांजलपूर्ण करी ने हाथमां चामर लइने तेने जगवंतनी उपर ढोल | वस्तु ॥ "सयल जिनवर" थी मांगीने यावत् " वधाई वधाई थइ तीव" सुधीनो पाठ कहेवो. ते पूर्ण या पठी चैत्यवंदन कर. पठी शक्रस्तव कही जय वीराय सुधी जणवुं पडी हाथ धोइ धूप कर्पूरादिक हाथने लगामवां. त्यारकेडे जे पूर्वे कलशोने धोइ धूप यापी कंठे मौलीसूत्र बांधी उपर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम खस्तिक करी तेमां पंचामृत जरी, श्रदतोना ढगला उपर धारण करी, तेनी उपर अगलूदणां ढांकी धूप उखेवी, तेमांना मात्र बेज कलशोने आसपास जलधारा दश्ने राख्या होय. पली स्नात्रीयाना हाथमां खस्तिको करी सर्वे जणोए श्रेणिबक उन्ना रहेवं, अने प्रत्येक स्नात्रीयाए खमासमण दक्ष पंचांग नमस्कार करवो. पठी प्रत्येक स्नात्रीयाए पोताना बे दायमां कलशो लेवा. ते कलशधारक स्नात्रीयाए पोताना बन्ने हाथने विषेरहेला कलशने उत्तरासंग वस्त्रवडे ढांकी राखवा अने पोते उन्ना उतां मुखथी "श्रीतीर्थपतिनो कलश मजान” श्हांधी मामीने संपूर्ण पूजा जणवी. त्यारपती प्रतिमाजी उपर कलशो ढोली, पखाल करी, अंगलूदणांथी मऊन करी, केशर चंदनथी अर्चन करीने फूल चढाववां. पडी थालमां खस्तिक करी बिंबनी स्थापना करवी अने धूप करवो. ते समये था प्रमाणे पाठ जणवोः ॥अथ कलश ढालवा समयनुं स्तवन ॥ . ॥ इंजकलशनर ढाले श्रीजिन पर ॥ कलश०॥ हाथो हाथ अमरगण आनत, खीर विमल जलधारे॥ श्रीजिन पर ॥ १॥ सुरवनिता मली मंगल गावे, Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवचंजीकृत स्नात्रपूजाविधि. ४५७ जावत नाव महारे ॥ श्रीजिन पर० ॥ ॥ किन्नर अरु गंधर्व महोरग, निरत नीर नित्य सारे ॥श्रीजिन पर० ॥३॥ देवउंऊनि धुनि गर्जत अति, शिर पर सुजस विथारे ॥ श्रीजिन पर ॥ ४ ॥ परमानंद जिनराज जगत्पद, जगजीवन हितकारे ॥ श्रीजिन पर ॥५॥इति कलश ढालवा समय- स्तवन । ॥ पड़ी रकेबीमां लूण पाणी लश्ने श्रारतिनी परे करवू थने ते वखते मुख थकी गाथा कहेवी, ते भावी रीतेः ॥ अथ लूणउतारण गाथा ॥ ॥ उवहि पमिजग्ग पसरं, पयादिणं मुणिव करे ऊणं ॥ पम सखूण त्तणलाडियं च खूणं हु अवहंमी ॥१॥दोहा॥ पिके विणु मुह जिणवरह, दीहर नयण सलूण ॥ न्हावर गुरु मबर जरिय, जलणी पश्स्स खूण ॥२॥ खूणउतारिह जिणवरह, तिन्नि पयाहिण देउ ॥ तडयड सद्द करंति यह, विजा विज जलेण ॥३॥ गाथा ॥ जं जेण विज विजाइ, जलेण तं तह निदबह सस्सदं । जिणरूप मबरेणुव, फूट लूण तमयमस्स ॥४॥ ए गाथा कहीने लूणने अग्निशरण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ՍԱԵ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. कर. पी वली प्रथमनी पेठे लूण पाणी लइने मुखी घ्यावी रीते गाथा कदेवी : ॥ दोहा ॥ सवं मुवि जल विजय, तं तह जमलइ पास ॥ श्रव कयंतसुनिम्मलू, निग्गुण बुद्धि पयास ॥ १ ॥ जल आणे विणु जलविह पासह, जर विकयंजलि नाविहिं पासह ॥ तिन्नि पया हि दिंतिय पासह, जिम जिन बुट्टई जव कुह पासह ॥ २ ॥ जल निम्मल कर कमल हि ले विणु, सुरवर जावहि मुविइ से विणु ॥ पण जिवर तुह पर सरणं, जय तुटइ लग्नइ सिद्धि गमणं ॥ ३ ॥ ए गाथा कही लूप पाणी उतारीने जलशरण करवुं. त्यारपठी माला लई उजा रहीने या प्रमाणे गाथा कहेवी: ॥ अथ पुष्पमालपूजा गाथा ॥ ॥ उन्नय पुजय जत्तस्स, निय ठाणे संवियं कुणं तस्स ॥ जिए पासे जमिय जिणस्स, निय ठाणे संवियं तस्स ( पाठांतरे ) पिछतुद हुय व पणं ॥ १ ॥ सो जिप्पजावो, सरिसा सरिसेसु जेण रच्चंति ॥ सवन्नू मपासे, जमस्स जमणं ण संकमणं ॥ २ ॥ अच्चंत डुक्करं विदु, दुधवद निवमेण जडेण कथं ॥ आणा सवन्नूणं, न कया कयछ मूलमणिं ॥ ३ ॥ ए Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवचंद्रजीकृत स्नात्रपूजा विधि . ४ पाठ जणीने माला चढाववी. पठी हाथमां बूटां फूलो लेवां. ते वखत गाथा कहेवी, ते या प्रमाणे:॥ अथ बूटां फूलपूजा गाथा ॥ -- ॥ उसरणो जिणपुर, परिमल मिलिया उरिक विह संगीया ॥ मुत्तामरे हिवो कुण, मरमल मिलिया उरिक विसं ॥ १॥ उवणेउ मंगलं वो, जिणाण मुहलालि जाव संचलिया ॥ ति पवत्तण समए, तिय सेवी मुक्का कुसुम वुट्ठी ॥ २ ॥ ए पाठ कहीने प्रजुनी आगल फूलो बालवा. हवे श्राजरण तथा वस्त्रो लइने उजा बतां गाथा कहेवी, ते या प्रमाणेः॥ अथ वस्त्राभरणपूजा ॥ ॥ श्लोकः ॥ शक्रो यथा जिनपतेः सुरशैलचूला, - सिंहासनोपरि मितस्नपनाऽवसने ॥ दध्यतैः कुसुमचंदनगंधधूपैः कृत्वार्चनं तु विदधाति सुवस्त्रपूजां ॥१॥ तत् श्रावकवर्ग एष विधिनालंकारवस्त्रादिकां, पूजां तीर्थकृतां करोति सततं शक्त्या तिजक्त्यादृतः ॥ नीरागस्य निरंजनस्य विजिताराते त्रिलोकीपतेः, स्वस्यान्यस्य जनस्य निर्वृतिकृते क्लेशदया कांदया ॥ २ ॥ एम कही आजरण तथा वस्त्रपूजा करवी ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. पड़ी ज्ञानपूजा करे, तेनी गाथा ॥ ॥नमंति सामिति महीवनाहं, देवाय पूयं सुजदेव पुवं ॥ जत्तीय चित्तं मण दाम एहिं, मंदार पुप्फेह सवेह नाहं ॥१॥तहेव सहामण मुत्त एही, सुगंध पुप्फेह वरंस एहिं॥पूयं वंदंत नमंत नाणं, नाणस्स लानाय नवरकयाय ॥२॥ ए गाथा कहीने पुष्पोनी माला चढाववी, तथा रौप्यमुखा, सुवर्णमुत्रा, मणि रत्न अने वस्त्र एए करी स्वशक्ति अनुसार ज्ञाननी पूजा करवी. पली धूप करती वखते आ गाथा कहेवी॥ ॥ मीनकुरंगमुदारमसारं, सारसुगंधनिशाकरतारं ॥ तार मिलन्मलयोनविकार, लोकगुरोर्दह धूपमुदारं ॥१॥ एम कहीने धूप उखेववो. पडी मंगलदीपक करीने या गाथा कहेवी: ॥अथ मंगलदीपकपूजा ॥ ___॥ कोसंबी संहियस्सवि, पयाहिणं कुण मनलियपईवो ॥ जिपसोम दंसणोदिण, यरूव तुह नाह मंगलपश्वो ॥१॥ नामीजंतो सुरसुंदरीहि, तुह नाह मंगलपश्वो ॥ कणयायलस्स निझिय, नाणुव पयाहिणं दितो ॥२॥ मरगय सामल थालधरे विणु, कोमल सरलिहिं करिहिं करेविणु॥जे उत्तारश्मंगल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरति, दीपक, लूण जल विधि. ४६१ पश्वो, सो नर हो तिलोयपश्वो ॥३॥ए गाथा कहीने मंगलप्रदीप करवो. पठी रकेबीमां कपूर धरी, आरतिमा बत्ती सलगावीने मुख थकी श्रा गाथा कहेवी: ॥अथ श्रारति गाथा ॥ ॥जं मरगय मणि गमिय, विसाल थाल माणिक मंमिय पश्वो॥ एहवण यरकुरु खित्तं,जमन जिण आरत्तयं तुम्हें॥१॥आरत्तिरं नियचय,जिणस्स धूव किसणागरुबायं॥ पासेसु जमउ निङिय, संगमय विभिन्न दिहिव ॥२॥पसणेयवो जवंतर, समझिायं कम्मरेणुसंघायं॥श्रारत्तिय मंगलग्गा,उबलंति सलिलधारा॥३ ॥एवी रीते आरतिकरवी ॥इति संदेप भारतिविधिः॥ ___॥ पड़ी उत्तरासंग करी चैत्यवंदन करवं, अने श्रष्ट प्रकारे प्रजा करवी. कदाचित अष्ट प्रकारे प्रजा न कराय तो शेष फल, फूल ने नैवेद्य जे होय ते एमज चढावी देवां. पनी गुणगीत करवां, जय जय शब्द उच्चारवा, खामिवात्सल्य करवू तथा यथाशक्ति दान देवु ॥शत श्रीस्नात्रपूजाविधिः समाप्तः॥ ॥आरति मंगलदीपक खूण जल विधिः प्रारज्यते ॥ ॥प्रजुश्री अंतर्पट करी,प्रज्जु सन्मुख बेसी भारति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. " करनारने नव अंगे कुंकुमनां तिलक करवां पढी एक थालमा स्वस्तिक करी, तेमां आरति, मंगलदीपक जमणी बाजु राखी, त्यां रतिमां घृत थोडुं नरकुं छाने मंगलदीपकमां घृत पूर्ण जर पढी केशर, फूल, तंडुले करी तेनी पूजा करवी. उपर कुंकुमना बांटा नाखी मंगलदीपक प्रगटावो ने कर्पूर सलगाववो तेनो मंत्र कहे बे ॥ ॐ अर्हते पंचज्ञानमहाज्योतिर्मयाय, ध्वांतघातने द्योतनाय, प्रतिमायै दीपो नूयात्सर्वदाईते ॥ १ ॥ एम जणी, मंगलदीपक प्रगटावीने पढी ते मंगलदीपकथी प्रारति प्रगटावे. पती मंगलदीपक नीचे मूकीने धारति उतारवी. ते वार पढी मंगलदीपक उतारे. पठी लूपनी कांकरी लइ "लू उतारो जिनवर अंगे" इत्यादिक पाठ कही लूनी गाथा जणवी. पठी "बृह्रांति” कवी. ते न श्रावने तो त्रण नवकार गणी या प्रमाणे श्लोक कहेवो ते ॥ श्लोक ॥ श्राज्ञाहीनं क्रियादीनं, मंत्रहीनं च यत्कृतं ॥ तत्सर्वं कमया देव, कम त्वं परमेश्वर ! ||१|| एम कही चैत्यवंदन करं ॥ इति धारति दीपक लूए जल विधिः ॥ ॥ अथ सत्तरभेदी पूजाध्यापन विधिः ॥ ॥ प्रथम स्नान करे, पती अष्टप्रकारी पूजा करे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसत्तरनेदी पूजाध्यापन विधि. ४६३ उज्ज्वल रूपा प्रमुखनी रकेबीमां कुंकुम तथा केशर विगेरेनो स्वस्तिक करे. पड़ी सुंदर कलश, केशर प्रमुख मिश्रित शुम जले नरी, स्थापनानो रूपैयो कलशमां नाखे. कलश रकेबीमा राखी, पडी स्नात्रीया मुखकोश उत्तरासंगथी करीत्रण नवकार गणी नमस्कार करे; दाणे धूप द रकेबी हाथमां धारण करे, मन स्थिर राखे, डीक वर्जन करे.स्नात्रीया प्रजुजी सन्मुख उन्ना रहे. पंचामृतनो कलश अमग राखे, मुख थकी पहेली पूजानो पाठ जणे, ते नणीने पड़ी प्रजुने पंचामृतनुं न्हवण करे तथा प्रजुनी माबी बाजुने अंगुठे जलधारा आपे. २ पड़ी सुंदर सूक्ष्म अंगलूहणे जिनबिंब प्रमार्जी केशर, चंदन, मृगमद, अगर, कर्पूरादिकथी कचोली जरी हाथमां लश् उनो रहीने मुख थकी बीजी पूजानो पाठ जणे. ते जणीने विलेपन करी नव अंगे पूजन करे. .. ३ पनी अत्यंत सुकोमल सुगंधित अमूलक वस्त्रयुग्म उपर केशरनो स्वस्तिक करी, प्रजुजी आगल उनो रही, मुख थकी त्रीजी पूजानो पाठ नणे. ते जणीने प्रजुजी आगल वस्त्रयुग्म चढावे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ४ पड़ी अगर, चंदन, कपूर, कुंकुम, कस्तूरीनु चूर्ण करी, कचोली जरी, प्रनु श्रागल उनो रही, मुख थकी चोथी पूजानो पाठ जणे. ते जणीने वासचूर्ण बिंब उपर गंदे; जिनमंदिरमा चूर्ण उडाले. ५ पली गुलाब, केतकी, चंपो, कुंद, मचकुंद, सोवन जाति, जूर, विउल सिरी इत्यादि सुगंधयुक्त पंचवर्ण फूल लश, जनो रही, मुख थकी पांचमी पूजानो पाठ नणे. ते जणीने पंचवर्ण फूल चढावे. ६ पड़ी नाग, पुन्नाग, मरुज, दमणो, गुलाब, पामल, मोघरो, सेवंत्री, चमेली, मालती प्रमुख पंचवर्णनां कुसुमनी सुंदर माला गुंथीने हाथमां लक्ष उनो रही बही पूजानो पाठ जणे. ते जणीने प्रजुने कंठे फूलनी माला पहेरावे. पली पंचवर्ण फूलनी केशरथी श्रांगी रची हाथमा लश् मुख थकी सातमी पूजानो पाठ नणे. ते नणीने सुगंधित पुष्पे करी अत्यंत नक्तिए सहित नगवंतना शरीरे आंगी रचे. G पली घनसार, अगर, सेलारस प्रमुख सुगंधवटी श्त्यादिक सुगंधचूर्ण रकेबीमां नाखी, हाथमां लश् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसत्तरभेदी पूजाध्यापन विधि. ४६५ परमेश्वर आगल उनो रही मुख थकी आठमी पूजानो पाठ जणे, ते जणीने प्रभुजी ने सुगंधी चूर्ण चढावे ॥ एपी सधवा स्त्री एकटी थइने पंचवर्णी ध्वजा, धूप सहित, सुवर्णमय दंडे करी संयुक्त, उज्ज्वल थालमां कुंकुमनो स्वस्तिक करी अक्षत, श्रीफल, रूपानाएं धरीने ते थालमां ध्वजा धारण करे. पी ते सधवा स्त्रीना मस्तके राखी, गीतगान गातां सर्व जातिनां वाजित्र वाजतां त्रण प्रदक्षिणा आपे. पी ध्वजा उपर गुरु पासे वासदेप करावे. प्रभु सन्मुख गहूंली करे, उपर अतथी स्वस्तिक करे. सोपारी चढाव मुख थकी नवमी पूजानो पाठ जणे, ते पाठ जणी ध्वजा चढावे. १० पढी पीरोजा, नीलम, लसणीया, मोती, माणकथी जडेलां एवां मुकुट, कुंमल, हार, तिलक, बरखा, कंदोरा, कडां इत्यादिक आचरण ल मुख थकी दशमी पूजानो पाठ जणे, ते जणीने आमरण तथा रोकड नाएं मबल चढावे. ११ पछी कोल, अंकोल, कुंद, मचकुंद एवां सुगंधित पुष्पोनुं गृह बनावी, बाजली, गोख, कोरणी प्रमु खनी रचना करी, हाथमां लइ मुख थकी अगीया वि० ३० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. रमी पूजानो पाठ जणे, ते जणी ने फूलघर चढावे. फूलनी चंदनमाला, फूलना चंद्रवा, पोठीया प्रमुख बांधे. १२ पठी पंचवर्णां सुगंधित पुष्प लई फूलनो मेघ वरसावतो बारमी पूजानो पाठ जणे, ते जणीने पुष्प उबाले. १३ पी खं तंडुलने रंगी, पंचवर्णा करी, एक थालमा दर्पण, जद्रासन, नंदावर्त्त, शरावसंपुट, पूर्णकुंज, मत्स्ययुग्म, श्रीवत्स, वर्द्धमान थने स्वस्तिक, एष्ट मांगलिक रची, ते थाल हाथमां लइ प्रभुजीनी धागल जो रही तेरमी पूजानो पाठ जणे, ते जणीने रूपानाणे संयुक्त ते थाल प्रजुजी यागल धरे. १४ पठी कृष्णागरु, कुंदरुक, सेलारस, सुगंधवटी, घनसार, चंदन, कस्तूरी, अंबर इत्यादिक वस्तुनुं धूपधाएं रकेवीमां धरी मुख थकी चौदमी पूजानो पाठ जणे, ते जणीने धूपधाएं उखेवे. १५ पठी सुंदर स्वरूपवान् एव कुमार कुमारिका मधुर खरे प्रभुजीनी यागल उनां थकां गीतगान करे, छाने मुख थकी पंदरमी पूजानो पाठ जणे, ते जणीने पंदरमी पूजा करे. १६ पठी पंचेंद्रिये परिपूर्ण एवां सुंदर कुमार ने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसत्तरभेदी पूजाध्यापन विधि. ४६७ कुमारिकार्ड अथवा समान अवस्थावाली सधवा स्त्री अथवा एकली कुमारिकार्ड सुंदर वस्त्र यानूपण पहेरी, प्रजुनी सन्मुख उनी रही, शंका कांदा रहित नाटक करे. कदापि स्त्रीउनो योग न बने तो समान अवस्थावाला पुरुष मली नाटक करता थका मुख थकी सोलमी पूजानो पाठ जणे, ते जणीने सोलमी पूजा करे. पछी मद्दल, कंसाल, तबल, ताल, जांज, वीणा, सतार, तूरी, मेरी, फेरी, डुंडुनि, शरणा, चंग, नफेरी प्रमुख सर्व जातिनां वाजित्र वजावता थका मुख थकी सत्तरमी पूजानो पाठ जणे, ते जणीने सत्तरमी पूजा करे. पठी धारति करे तेनो विधि कहे वे पूजा जणी रह्या पठी सर्व वस्त्र प्रमुख पहेरी उत्तरासंग करे, पठी प्रभुथी अंतपट करी पोताने ललाटे कुंकुमनुं तिलक करे, पी अंतर्पट दूर करी, रकेबी मां स्वस्तिक करी मांहे रूपानाएं, तंडुल, सोपारी धरे, पी आरति, दीपक साथै संयोजी ने प्रजुनी सन्मुख दक्षिपावर्त्तथी सर्व वाजित्र वाजतां श्रारति करे, तेनो पाठ लखीए ठीए ॥ इति सत्तरभेदी पूजाविधिः ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ शांति जिन श्रारतिः॥ ॥जय जय श्रारति शांति तुमारी,चरणकमलकी में जा बलिहारी॥ जय० ॥१॥ विश्वसेन श्रचिराजीके नंदा, शांतिनाथमुख पूनमचंदा ॥ जय० ॥ ५॥ चालीश धनुष सोवनमय काया, मृगलंबन प्रजुचरण सुहाया ॥ जय०॥३॥ चक्रवर्ती प्रनु पांचमा सोहे, सोलमा जिनवर सुर नर मोहे ॥ जय० ॥४॥ मंगल आरति जोरहिं कीजे, जन्म जन्मनो लाहो लीजे ॥ जय ॥५॥ कर जोमी सेवक गुण गावे, सो नर नारी श्रमरपद पावे ॥ जय० ॥६॥ इति श्रारतिः॥ ॥ अथ वीशस्थानक पूजाऽध्यापन विधिः ॥ __॥वीश स्थानकनुं तप मामतां अथवा एक एक उली संपूर्ण थाय ते वारे, अथवा तप न कस्युं होय अने खानाविक नाव नक्तिए पूजा जणाववी होय तो तेनो विधि आ प्रमाणे बेः ॥ दिनशुछिए शुज उत्सवे श्रासन उपर एक पंक्तिए वीश प्रतिमा अलंकार सहित स्थापीए. तेनी आगल वली उपरा उपर त्रण बाजोउ मांडीने, तेनी उपर पंचतीर्थी प्रतिमा स्थापन करीने प्रथम लघु स्नात्र नणावीए. पठी तीर्थकूपादिकनां पवित्र जल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीशस्थानक पूजाध्यापनविधि. ४६ए आडंबरे सहित प्रथमधीज लावी मूकेला होय ते जलने सवासित करी, ते जलमांथी थोडे थोडे जले करी वीश कलश नरीने, पवित्र थयेला वीश पुरुपना हाथमां आपी तेमने उन्ना राखवा. ॥ वली ते वीश अनिषेक करवाने अर्थे एक पुरुष फूलनी माला एक पात्रमा राखे; एक पुरुष चंदन केशरनो प्यालो राखे; एक पुरुष दीवामां पूरवाने अर्थे घृतनुं पात्र राखे; एमज फल, श्रदत, नैवेद्य, धूप प्रमुख जे सामग्री मेलवेली होय ते सर्व चीज एक एक पुरुष पोतपोताना खाधानमा राखे. __॥ ते वार पड़ी एक पंक्तिए राखेली वीश प्रतिमा माहेथी एक प्रतिमा लश्ने, स्नात्र नणावेल। पंचतीर्थी प्रतिमा पासे स्थापन करी सर्व जनो वीश स्थानकनी पूजा मांहे प्रथम स्तवन रुमी रीते जणीने प्रतिमाजी उपर वीशे कलश नामे. ते वार पली एक जण प्रतिमाजीने अंगलूहणुं करे; एक पुरुष प्रतिमा पूजन करे; एक पुरुष फूलनी माला चढावे; एक पुरुष प्रतिमा आगल बार खस्तिक करीने तेनी उपर फल मूके; ए जेम प्रथम श्रीअरिहंतपदना बार गुण बे, तो त्यां बार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. खस्तिक करवा कह्या, तेमज जे जे पदना जेटला जेटला गुण होय ते ते पदनी पूजामा तेटला तेटला स्वस्तिक करवा. एवी रीते नैवेद्यादिक सर्व वस्तु चढावीने, जिनप्रतिमाने रूपानाणे पूजन करी फरी प्रथम स्थानके पधरावीने, पली पूर्वोक्त वीश प्रतिमानी पंक्तिमांधी बीजी प्रतिमा लश्ने पंचतीर्थिकनी प्रतिमा पासे स्थापन करे. ते वार पड़ी फरी वीश कलश थोडे थोडे जले नरीने बीजं स्तवन कही प्रथमनी परे बीजो सर्व विधि करे. एम वीशे पदने विषे विधि करवो. विधि पूर्ण थया पली बेवट आरति मंगलदीवो करे, ए उत्कष्ट विधि कह्यो, अंतमां "मिछामि पुक्कम” देवू, पनी गुरुपूजा, प्रनावना, स्वामिवात्सल्य करवां. ॥श्रने घणी शक्ति न होय तो एक पुरुष एक कलश लश् एक एक स्तवन कही पंचतीर्थीनीज पूजा करे. एम वीश वखत वीश स्तवन कहीने पूजे. एम एकज पंचतीर्थिक आगल यथाशक्ति किया करे तोपण चाले, कारण के अव्य थकी अशक्तने जो जावनु बाहुल्य दे तो तेने तेटवू पण अत्यंत फलदायक थाय ॥३ति वीशस्थानकसंदेप विधिः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनवाणुंप्रकारी पूजाध्यापन विधि. ४७१ ॥ श्रथ नवाणुंप्रकारी पूजाध्यपन विधिः॥ ॥ जघन्यथी तो कलश ग्रहण करनारा नव श्रावक अने उत्कृष्टपणे नवाणुं श्रावक जाणवा. ॥ तथा जघन्यथी नव जातिनां प्रत्येक अगीयार फल लश्ने प्रत्येक पूजा दी नव नव फल मूकवां. एम अगीयारने नव गुणा करीए ते वारे नवाणुं फल थाय; एमज सुखमी पण जघन्यथी नव जातिनी अगीयार नंग लावीने प्रत्येक पूजा दीठ नव नव नंग मूकवां तथा नवाणुं दीपक वंशमाले धरीए, तंडुलना साथीया नवाणुं करीए ॥ इति नवाणुंप्रकारी पूजाविधिः ॥ अथ चोसम्प्रकारी प्रजाध्यापनविधिः ॥ ॥ विशाल जिनजुवनने विषे शुभ मुहूर्ते जलयात्रा वरघोमो रचीने तीर्थोदक मेलववां. श्रष्ट कर्मनुं मामलु अदतरंगी थाप पांखमीनुं उज्ज्वल तंमुले जरीए. रेखा पंचवर्णी करीए. पनी रक्त गुलाले सिकना श्राप गुणने स्थानके मंत्रादर लखीए. ते मंत्रनां पद कहे जे. १ ॐ ही अनंतझानात्मकेन्यो नमः ॥ २ उँही अनंतदर्शनात्मकेच्यो नमः॥ ३ उँ ही अनंतसुखात्मकेन्यो नमः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ४ ॐ ॐ अनंतचरणात्मकेभ्यो नमः ॥ पाठांतरे अनंतकायिकेभ्यो नमः ॥ यस्थितये नमः ॥ ५ ६ ॐ ॐ अमूर्त्तये नमः ॥ गुरुलाघवे नमः ॥ ॐ ॐ ॐ अनंतवीर्येभ्यो नमः ॥ ॥ ए रीते मंत्रपद लखीए ॥ मध्यमां वृक्ष तथा ज्ञान पधरावीए. वृने मूले कुहाडो मूकीए. खंग दीपक राखी ए. चोसठ मोदकनो एक थाल जरीने मूकीए. श्रीमहावीरदेवनी प्रतिमाने अनिषेक करीए. चोसठ कुमार ने चोसठ कुमारिकार्ड उनां रहे, श्रने जघन्य पाठ कुमार ने या कुमारिकार्ड उनां रहे. ए रीते अष्टप्रकारी पूजा आठ दिवस पर्यंत नित्य जपावीए. तेमां प्रथम दिवसथी मांगीने आठमा दिवस पर्यंत जे जे वस्तु राखव । जोइए तेनी नोंध नीचे प्रमाणे:॥ प्रथम दिवसे ज्ञानावरणीयकर्म निवारणार्थ वस्तु ॥ ॥ १ कुवानुं शुद्ध जल, २ केशर, ३ केतकी, जाइनां फूल, ४ अगरबत्ती धूप, ५ पंच दीवेटनो दीवो, ६ उज्ज्वल तंडुल, उत्तम नैवेद्य, उ Մ उत्तम फल ॥ Jain Educationa International G For Personal and Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचोसठप्रकारी पूजाध्यापन विधि. ४७३ ॥द्वितीय दिवसे दर्शनावरणीयकर्मनिवारणार्थ वस्तु॥ ॥ १ नदीनां जल, २ चंदन, केशर, ३ मरुया डमरानां फूल, ४ अष्टांग धूप, ५ नव दीवेटनो दीवो तथा बीजो बे दीवेटनो दीवो, ६ कमोदना चोखा, ७ नैवेद्य, ७ फल ॥ ॥ तृतीय दिवसे वेदनीयकर्म निवारणार्थ वस्तु ॥ ॥१ कस्तरी, बरासवावं जल, २ केशर, बरास, ३ फूलपगर करीए, ४ पंचांग धूप, ५ बे दीवेटनो दीपक, ६ कमोद शालि अखंग, ७ नैवेद्य, फल ॥ ॥ चतुर्थ दिवसे मोहनीयकर्मनिवारणार्थ वस्तु ॥ ___॥ १ जाखनां पाणी, २ बावनाचंदन, ३ जा, केवमो अने जासुलनां फूल, ४ दशांग धूप, ५ बे दीवेटनो दीपक, ६व्रीहि अखंम, ७ नैवेद्य, फल ॥ ॥ पंचम दिवसे आयुःकर्म निवारणार्थ वस्तु ॥ ॥१ साकरतुं पाणी, २ केशर, ३ जाश् अने चंबेलीनां फूल, ४ कुंदरु दशांग धूप, ५ चार दीवेटनो दीपक, ६ अखंम चोखा, नैवेद्य, उ फल ॥ ॥ षष्ठ दिवसे नामकर्म निवारणार्थ वस्तु ॥ ॥ १ उध, अनिषेक, २ सुवर्ण साथे घसेर्बु केशर, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ३ पंचवर्णी फूले जाली नरीए, ४ पंचांग धूप, ५ बे दीवेटना दीपक, एवा एकसो ने त्रण दीपक करीवंशमाले धरीए,६श्रदत पंचवर्णा चोखा, नैवेद्य, फल॥ ॥ सप्तम दिवसे गोत्रकर्मनिवारणार्थ वस्तु ॥ ॥ केशरनुं पाणी, २ चंदन, केशर, ३ विविध फूल, ४ अगरबत्ती धूप, ५ बे दीवेटनो दीपक, ६ गोधूम, अक्षत, ७ नैवेद्य, ७ फल ॥ ॥ अष्टम दिवसे अंतरायकर्म निवारणार्थ वस्तु ॥ ॥१ पंचामृत जल, २ केशर, ३ मालती जाश्नां फूल, ४ अष्टांग धूप, ५ पांच दीवेटनो दीवो, एमज वली अहीं एकसो ने अहावन दीपकनी श्रेणि वंशमाले धरीए, ६ तंडुलना नंदावर्त्तक रकेबीमां करीए, ७ नैवेद्य, G फल ॥ ॥एम श्राप दिवस नैवेद्य ने फल नव नवां धरी ए. ए रीते ए आठ दिवसमां चोसठ पूजा पूर्ण थाय, तथा नित्य संघनी वात्सल्यता अने गुरुत्नक्ति करवी, ज्ञानोपकरणादि करवां, रात्रिजागरण करवां, प्रनावना करवी, याचकने दान आप, इत्यादिक विधि पूणे वृदने महोत्सव सहित देरासरमां पधरावधं ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच क तथा श्रीद्वादशवत पूजाध्यापन विधि. ४७५ ॥अथ पंचकल्याणक पूजाध्यापन विधिः॥ ॥प्रत्येक पूजा दी थाप पुंज एकेकी वस्तुना करवा, श्राप स्नात्रीया उन्ना राखवा, पाठ कलश पंचामृतना नरवा॥इति पंचकल्याणक पूजाविधिः॥ ॥अथ छादशव्रत पूजाध्यापन विधिः ॥ ॥ विशाल जिनजुवनमां अथवा पीठिकानी रचना करीने त्यां महावीर प्रजुनी प्रतिमा स्थापन करवी. वाम दिशिए कल्पवृक्ष स्थापन करवू. पठी ते प्रतिमा बागल प्रत्येक पूजा दीउ जे जे वस्तु प्रजुने चढे नेते चढाववी. बाकी दर्पण,अष्ट मंगल अने ध्वजाउँ सर्व मूकवां, जघन्यथी तेर पुरुष, तेर इंशाणी. शेष विधि अष्टप्रकारी पूजानी रीते जाणी लेवो अने एकसो ने चोवीश अतिचार टालवा निमित्ते एकसो ने चोवीश दीपक करवा ॥ इति छादशत्रत पूजाविधिः ॥ ए प्रजानी सर्व गाथा (१२४) श्लोक संख्या (२०३) जे. ॥ए पूजामांश्रावकनां शुद्ध सम्यक्त्वादि बारे व्रतनो विधि,ते समकितना पांच, बार व्रत तथा कर्मादानना पंचोतेर, संलेषणाना पांच, ज्ञानना श्राउ, दर्शननाआठ,चारित्रनाआउ,वीर्यना त्रण अने तपनाबार, ए सर्व मली एकसो चोवीश अतिचार सहित कह्यो बे॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. ॥ अथ महोत्सव सहित अष्टप्रकारी पूजाविधि ॥ ॥ वाटकी केशरनी, आठ याल नैवेद्यना, आ थाल अक्षतना, या रकेबी फूलनी, आठ कलश रूपाना पंचामृत सहित आठ दीवी को मियां सहित, व धूपधाणां, आठ थाल फलना ॥ " जघन्यथी अक्षत, शालि, त्रीहि, गहुं, जुगंधरी, मग, अडद, मुक्ताफल, चोला तथा फल जे मले ते सर्व जातिनां लइए, अने उखर न करती होय एवी गायनुं घृत दीपक सारु लावीए तथा सरस धूप , लो करी राखीए ने सुखडी पण सर्व जातिनी लावीने जूदा जूदा जाजनमां राखीए, ए सर्व वस्तु देरासर की एकसो अथवा दोढसो हाथ दूर घर होय त्यां मूकीए, ते सर्व चीजनी पासे एक चतुर पुरुषने बेसामी, शक्ति प्रमाणे आगले दिवसे जलयात्रा करीए, विधिसहित जल लावीए, ते पण तेहीज घरमा राखीए, पी इंद्राणी आठ कल्पीए, अने आठ स्नात्रीया न्हवरावीए, पढी पंच शब्द वाजित्र वाजते पूर्वोक्त वस्तु लइ श्रावीने पूजा जणावीए, पूर्वे नात्र जणाव्युं न होय तो ते वखत जणावीए, पढी वाजते गाजते आठ स्त्री जे घरमां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अष्टप्रकारी पूजाध्यापन विधि. पाणीना कलश मूक्या होय त्यां लेवा जाय, अने त्यां जे पुरुष बेसाड्यो बे ते तेने आपे. ते लइ चवीने उजी रहे. पी तेमनी पासेथी श्रावक कलशो लइने उज्जा बना पूजा जणावे ॥ ॥ अथ ष्टकारी पूजाध्यापनविधिः ॥ १ प्रथम स्नात्र करी, उज्ज्वल धोयेलां वस्त्र पहेरी, एक पटे वस्त्रनुं उत्तरासंग करी, मुखकोश बांधी, केशर चंदन बरास घसी अने जूदा केशर थी पोताने ललाटे तिलक करीए. ते करी निर्माल्य उतारी मोरपीबीथी अथवा निर्मल सुकोमल वस्त्रथी जयपाए करी प्रणामपूर्वक जिनबिंब प्रमार्जी, वन्ने हाथने धूप थापी, पवित्र रकेबी मां केशरनो स्वस्तिक कर निर्मल जले जरेलो कलश रकेबीमां राखी, रकेबी हाथमां लइ प्रभु श्रागल उना रहीए. पछी पहेली पूजानो पाठ जणी, बेल्लो मंत्र कही जलपूजा करे. २ पढी पखाल करी, अंगलूहांची लूहीने केशरनी कचोली रकेबी मां राखी, रकेबी हाथमां ल‍ बीजी पूजानो पाठ जणी, मंत्र कही चंदनपूजा करे. ३ एमज त्रीजी पूजामां फूल चढावे. ४ पबी चोथी पूजामां धूपधाएं रकेबीमां राखी For Personal and Private Use Only Jain Educationa International ᏚᏫᏒ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. हाथमा लइ पूजानो पाठ कही, बेल्लो मंत्र जणी जुने डावी बाजु धूप उखेवे. ५ पठी पांचमी पूजामां मौलीसूत्र प्रमुखनी वाट करी, निर्मल सुगंधित घृतथी दीपक जरी रकेवीमां राखी, केबी हाथमां लइ पूजानो पाठ कही, बेल्लो मंत्र जणी, प्रभुजीनी जमणी बाजुए दीपक राखी उपर टीको करे. ६ पड़ी बड़ी पूजामां उज्ज्वल अखंग अक्षत रकेबीमां नाखी, रकेवी हाथमां घरी पूजानो पाठ कही, बेल्लो मंत्र जी प्रभुजी आगल स्वस्तिक तथा तंडुलना त्रण पुंज करे. ७ पछी सातमी पूजामां मोदक, मिश्री, खाजां, पतासां प्रमुख अनेक उत्तम पक्कान्न रकेबी मां नाखी, रकेवी हाथमां धरी पूजानो पाठ कही, बेल्लो मंत्र जणी प्रभु श्रगल नैवेद्य धरे . छपठी श्रावमी पूजामां लविंग, एलची, सोपारी, नालियेर, बदाम, ड्राख, बीजोरां, दामिम, नारंगी, थांबा, केलां प्रमुख सरस सुगंधित रमणीय फल रकेबी मां राखी, रकेबी हाथमां धरी, पूजानो पाठ कही, बेल्लो मंत्र जणीने प्रभु आगल फल धरे. पठी पूजानो कलश कही, विधि संयुक्त स्नात्रीयार्ज For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अष्टप्रकार पूजाध्यापन विधि . ქედ प्रभुजी थी अंतपट करी हाथमां आरति लीए अने बीजा स्नात्रीया पासे प्रजुने नव अंगे तिलक करावी अंतर्पट दूर करी " नमो अरिहंताणं०" कही रति कहे, पठी निर्धूमवर्त्ति० ॥ तथा तुभ्यं नमस्त्रिभुवन० ॥ ए बे काव्य जक्तामरनां प्रजाते कहे, पठी जय जय शब्द करे, गुणगीत करे, चैत्यवंदन करे, स्वामिवात्सल्य करे, यथाशक्ति दान आपे ॥ इत्यष्टप्रकारी पूजाविधिः ॥ ॥ अथ नवपदादिक पूजा मां जे अवश्य चीज जोइए ते सारु केटली एक चीजोनां नाम लखीए बीए. ॥ दुध, दधि, घृत, शर्करा, शुद्ध जल, ए पंचामृत तथा केशर, सुगंधी चंदन, कर्पूर, कस्तूरी, अमर, रोली, मौली, बूटां फूल, फूलोनी माला, फूलोना चंडुवा, धूप, तंडुल प्रमुख नव जातिनां धान्य, नव प्रकारनां नैवेद्य, नवा प्रकारनां फल, नव प्रकारनी पक्क वस्तु, मिश्री, पतासां, जैला प्रमुख तथा अंगलूहांने वास्ते सफेत वस्त्र, अने पहेराववाने वास्ते उत्तम रेशमी वस्त्र, वासदेप, गुलाबजल, अत्तर इत्यादिक बीजा पण नव नव नालीना कलश, नव रकेबी, परात ( त्रास ), तसला, आरति, मंगलदीपक, जगवाननी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. श्रांगी, समवसरण इत्यादिक सर्व वस्तु प्रथमथी ठीक करीने राखवी, एथकी पूजामां विघ्न न होय ॥ ए संक्षेप विधि को, विशेष विधि गुरु थकी जाएवो ॥ ॥ अथ श्री नवपदपूजाध्यापन विधिः ॥ ॥ तत्र प्रथम कलशढालनविधिः ॥ चैत्र तथा श्रश्विन मासमां ए पूजार्ज जलाये, ते वारे नव स्नात्रीया करीए. मोटा कलश प्रमुखमांपंचामृतजरी ए. स्थापनामा श्रीफल तथा रोकड नाएं धरीए. तेने गुरुनी पासेथी मंत्रावी केशरथी तिलक करे, कंकणदोरो दाथमां बांधे. मावा हाथमां स्वस्तिक करीने विधि संयुक्त स्नात्र जणावे. पढी श्री अरिहंतपद्मां तंडुल, धूप, दीप, नैवेद्य प्रमुख अष्ट द्रव्य, वासदेप, नागरवेल प्रमुखनां पान रकेबीमां धरीने, ते रकेबी हाथमां राखे. नव कलशने मौलीसूत्र बांधी, कुंकुमना स्वस्तिक करी, पंचामृतथी जरीने ते कलशो हाथमां लइ प्रथम श्रीअरिहंतपदनी पूजा जणे. ते संपूर्ण जणी रह्या पटी मोटी परातमां ( थालमां ) प्रतिमाजीने पधरावे. “तँी एमो अरिहंताणं” ए प्रमाणे कहेतो थको श्री अरिहंतपदनी पूजा करे. अष्ट द्रव्य अनुक्रमे चढावे. इति प्रथमपदपूजाविधिः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवपदपूजाध्यापन विधि. ? ५ बीजं सिद्धपद रक्त वर्णे बे, माटे गहुँ रकेबीमां धरी, श्रीफल तथा अष्ट अव्य लश्ने नव कलश पंचामृतथी नरीने बीजी पूजा नणे. ते संपूर्ण थयाथी " ही णमो सिस्स” एम कही कलश ढोले, श्रष्ट अव्य चढावे. इति द्वितीयपदपूजाविधिः ॥ ३ त्रीजु आचार्यपद पीले वर्णे , माटे चणानी दाल, अष्ट अव्य,श्रीफल प्रमुख लक्ष,नव कलश पंचामृतत्री नरीने त्रीजी पूजानो पाठ लणे, ते संपूर्ण थयाश्री" ही णमो आयरियाणं" एम कही कलश ढोले, अष्ट अव्य चढावे. इति तृतीयपदपूजा विधिः॥ ४ चो| उपाध्यायपद नील वर्णे ने, माटे मग प्रमुख तथा अष्ट अव्य लश्ने पूर्वोक्त विधिए पूजा जणी संपूर्ण थयाथी “उँ ही णमो उपाध्यायेच्यः"एम कही कलश ढोले,अष्ट प्रव्य चढावे. इति च० पू० विधिः॥ ५ पांचमुं श्रीसाधुपद श्याम वर्णे , माटे श्रमद प्रमुख लश बीजो सर्व पूर्वोक्त विधि करी पूजा नणे. ते संपूर्ण थयाथी " ही णमो सर्वसाधुन्यः" कहे. इति पंचमपदपूजाविधिः ॥ ६ तेमज बहुं दर्शनपद श्वेत वणे , माटे तांडुल वि०३१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. प्रमुख लक्ष " ही णमो दसणस्स” कही बीजो सर्व पूर्वोक्त विधि करवो. इति षष्ठपदपूजाविधिः॥ ७ सातमुं ज्ञानपद श्वेत वर्णे , माटे चावल प्रमुख लइ “ॐ ही णमो नाणस्स" कहेवू, बीजो सर्व पूर्वोक्त विधि करवो. इति सप्तमपदपूजाविधिः ॥ आठमुं चारित्रपद पण श्वेत वर्णे , माटे चोखा प्रमुख लइ" ही णमो चारित्तस्स" कहेQ,बीजो सर्व पूर्वोक्त विधि करवो. इति अष्टमपदपूजाविधिः ॥ ए नवमुं तपपद श्वेत वर्णे , माटे चोखा प्रमुख लइ पूर्वोक्त विधि करीने " ही णमो तवस्स” कही कलश ढोले, अष्ट अव्य चढावे, पठी अष्टप्रकारी पूजा करे, श्रारति करे. इति श्रीनवपदपूजाविधिः संपूर्णः ॥ ॥ अथ श्रीमहावीरजन्मानिषेक प्रारंजः ॥ ॥श्लोकः॥श्रेयःपल्लवयंतु वःप्रतिदिनं संसारदावानल,जागनिर्वापणकेलिलंपटतया ते पुष्करावर्तकाः॥वावां वीरजिनेश्वरस्य निचयाः समर्मकरूपघुमो,-हासप्रीणितमुक्तियौवन नराः प्रौढस्पृहप्राणिनाम् ॥१॥दाने कल्पतरूगजीरमगुणै रत्नाकरश्चंजमाः, सौम्यत्वे प्रतिपन्न निश्चलतया चिंतामणिनिर्मलः ॥ लावण्यैर्मदनः स एष जयताच्चित्रं पवित्रं पुनर्यो जैनेश्वरशासनस्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमहावीरजन्मानिषेक. ४३ कुरुते नित्योत्सवामुन्नतिं ॥२॥अहो जव्याः ! शृणुत तावत्सकलकलाकलापकौतूहल चित्तवृत्तयः ! कंचनापि सहृदयहृदयवशीकरणलालसं प्राप्तावसरमेघश्रीमन्महावीरजन्मानिषेककलशम् ॥ ३॥ ॥ बंद ॥ आराम मंदिर वावि सुंदर तुंग तोरण रम्म, पायार जिणहर कुव सरवर सग्ग जिणवाखम्म ॥ तिहिं कुंडल जलकति नेउर खलकति हार लहकति नार, तिहिं दिसति गजगति बोरियावमि रयण कंचन फार ॥४॥तिहिं तुरय मयगल रथ हि मंमित, इसि अ ते गम ॥ तिहिं अतिमणोहर सतूय कारिहिं, खित्तियकुंमह गाम ॥ तिहिं राउथ उति गुणिहिं रंजित,तिसल देविहिं कंत॥सिब नामिहिं नयरगामिहिं, समृसुंदर संत ॥५॥ ता थासाढ मासह नवित्र श्रासह,सुकिल बनिहिं वीर ॥ अवश्न सामिल तिसल दे विहिं, उयर अति गंजीर ॥ता चित्तमासह सुकिल तेरसि,जनम दू देवता देव दाणव राय राणा, जास करशे सेव॥६॥ बंद ॥ताथिर थिरर कंपश् श्रासणं सुरींदे, करे कोवनरी नरी, करिहिं कुलिसं दृगंदे ॥ त उहिनाणेण जाणे जम्म, परं हरिस नरी नरी अरिरी थरिश्रम्मं ॥७॥ त घंट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. वाजति सोहम्म लोए, त्रिघंटं त्रिघंटं त्रिघंटेति होए ए॥ दस देव राा दोश् चंद सूरा, वाणवंतरा इंद बत्तीस पूरा ॥७॥ तहा वीस आवंति किर जवणवासी, श्म जगमिगंताति चनसहि आसी ॥ सुहम्मादिवो पंचरूवो जिणंदे, निय नबं गिधारीतु पत्तो गिरीदं ॥ ए॥वस्तु॥तबतिबह तबतिबह नीर आणेवी, देवासुर मलिय सवि कणय रयणमय कलस नरहुणि कुसुमंजलि परिवविश्रद हो सासंक निय मण, किम सहि सिंश्लहु वीर जिण जलनिहि प्रमाणे नीर॥ त कंपाविजे मेरु गिरि चरणंगुलि लरधीर॥१॥अर्डपाहाडी बंद ॥ ता रम रमा रमक श्रृंग ढलकरं फुटकं त्रुटई ढोल ॥ ता त्राटक घटक रणण जणकर रुणण जणण जोल ॥ता ग अंबर वजा जल निहि मुन निऊरणारं, ता कायर तंप, कामिणि जंप तुट आजरणाई ॥११॥ ता घण कम्म कमकी सेस सलक्की थरहरि वाराह ॥ता सायर जलजलिया गिरि, ढल ढलिया नह नउ नरनाह ॥ ता दिग्गय गमगमीया गिरि खमह मिया नह नहउ मत्तंड ॥ सहसक चम्मकी सुरगण संकि नहु फुट बंगंड ॥१२॥ता किन्नरी कंपे जम सवि संके Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमहावीरजन्मानिषेक. ४५ खलनलिउँ पायाल ॥ विषहर घणुं डोले नागिणी बोले कवण एह अकाल॥चलणंगुलि चालिहिं मजण कलिहिं सुरगिरि कंपिय पेखि ॥ नमुणीन ममंदिहिं पत्नणीउ इंदहिं वीर जिणेसर ररिक ॥ १३॥ आर्या ॥ आकंपियं तिहुश्रणं, इंदो नाकण महिनाणेण ॥ खामेश् महावीरं, जाणीतु परक्कम तस्स ॥१४॥ ता धोंधों धुधुमि धुमि इंगिगटि जयढक वजियला ।। कटदोंगि दोंदों त्रिषुनी त्रिषुनिय घुघुमि घुघुमि रमदला ॥ ता फर फरर फरकति वजति था उज जागमदिगि जागडदिगि जम्बरी ॥ ता दगमदितिकि दोंदों तिविलि वाजति इंनि दिगिनिदिगिमिरी॥१५॥ता 3 संख वाजति ताल रिमजिम चमकता, ता किरिरि किरिरिकरडति करडी सुमतकाहल रमिजिमि रमकताता जिजिमिरुग्मां जिजिमिरुग्मां जिजिमि जिमि कंसाल ए ॥ ता दांगी दागमर्दिगि दांदा वीण लीलहिं लाल ए॥१६॥ इम इंद मिलि हुणि कलश नरिहणि सुरनि निरह नरियला ॥ सिरि वीरनाह ह मेरुमबई जिजिमि रिमि जिम एहवणुला॥ता अनेक मंगल तक करहुणि वीरजीणणिहिं श्रप्पी, ता सयल सुरवर गमि चहुतली रंग जण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. थिर थपि ॥ १७ ॥ ता वादीय देवसूरि पाय पण मयि न पुन देवसूरिं ॥ ता बंदि आगमि तक्कि सुंदर सुगुरु रामचंद सूरिं ॥ ता जयन मंगलसूरि बुल्ल महावीर अनिसेल, ता कण्य कलसेडिं न्हव जविया एहज पुन देउ ॥ १७ ॥ इति श्रीमहावीरजन्माजिषेककलशः संपूर्णः ॥ ॥ अथ दादासादेबकी पूजा ॥ ॥ अथ पहली थापना स्थापन करके श्रावाहनका श्लोक पढे ॥ सकलगुणगरिष्ठान् सत्तपो निर्वरिष्टान् शमदमयमजुष्टांश्चारुचारित्र निष्ठान् । निखिलजगति पीठे दर्शितात्मप्रजावान् मुनिपकुशलसूरीन् स्थापयाम्यत्र पीठे ॥ १ ॥ ॐ श्री श्री जिनदत्त श्री जिनकुशल श्री जिनचन्द्रसूरिगुरो यत्रावतरावतर स्वाहा ॥ २ ॥ ॐ श्री श्री जिनदत्त अत्र तिष्ठ २ ठः ठः ठः स्वाहा इति प्रतिष्ठापनम् ॥ ॐ कूँ श्री श्री जिनदत्तसूरिगुरो अत्र मम संनिहितो जव वषट् इति संनिधि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादासाहेबनी पूजा. ४७ करणम् ॥ ३ ॥ अथ जलका कलश लेके स्नानकर्ता शुचि होके खडा रहे ॥ ॥अथ स्तुतिप्रारंनः॥ ॥दोहा॥ईश्वर जगचिंतामणि,कर परमेष्ठीध्यान॥ गणधरपद गुण वर्णना, पूजन करो सुजान ॥१॥ सुधर्मा मुनिपति प्रगट, वीर जिनेश्वर पाट॥ मिथ्यामततम हरणको, जव्य दिखावन बाट ॥२॥ सुस्थित सुप्रतिबक गुरु, सूरिमंत्रको जाप ॥ कोटि कीयो जब ध्यान धर, कोटिकगल सुथाप ॥३॥ दश पूर्वी श्रुतकेवली, नये वज्रधर स्वाम ॥ता दिनतें गुरुगडको, वज्रशाख नयो नाम ॥४॥ चंद्र सूरि जये चंछ सम, अतिही बुझिनिधान॥चंडकुली सब जगतमें, पसरो बहु विज्ञान ॥५॥ वईमानके पाट पद, सूरि जिनेश्वर नाश ॥ चैत्यवासिको जीतकर, सुविहित पद प्रकाश ॥ ६॥ अण हिलपुर पाटण सन्ना, लोक मिले तिहां लद ॥खरतर बिरुद सुधानिधि, उर्लन राज समद ॥ ७ ॥ अजयदेव सूरि नये, नव अंग टीकाकार ॥ थंजण पारस प्रगट कर, कुष्ठ मिटावनहार ॥ ॥ श्रीजिनवबन सूरि गुरु, रचना शास्त्र अनेक ॥प्रतिबोघे श्रावक बहुत, ताके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. पट्टविशेप ॥ ए॥ हुँबम श्रावक वाघमी, अहारे हजार ॥ जैन दयाधर्मी कीये, बरते जैजैकार॥१०॥ दादा नाम विख्यात जस, सुर नर सेवक जास ॥ दत्त सूरि गुरु पूजता, आनंद हर्ष जबास ॥ ११॥ दिहीमें पतसाहने, हुकम उठाया शीस ॥ मणिधारी जिनचंद गुरु, पूजो बिसवावीस ॥ १२॥ ताके पट्ट परंपरा, श्रीजिनकुशल सूरींद ॥ अकबरको परचा दीया, दादा श्रीजिनचंद ॥ १३॥ ऐसे दादाचारको, पूजो चित्त लगाय ॥ जल चंदन कुसुमादि कर, ध्वज सौगंध चढाय ॥ १४ ॥ ॥ चाल दादा चिरंजीवो ए देशी ॥ ॥ गुरुराज तणी कर पूजन नवि, सुखकर मिलसी लबिघणी॥ए आंकणी ॥ गुरु दत्त सूरींद जग सुखकारी, गुरु सेवकने सानिधकारी, गुरुचरणकमलनी बलिहारी॥गु०॥१॥ संवत् ग्यारे वार शशी, बत्तीसे जनम्या शुज दिवसी, श्रावककुल हुँबमने हुलसी॥गुरु ॥२॥जसु बाबगसा पितुनाम जणे, वाहडदे माता हर्ष घणे,श्कतालीसे दीदा पजणे॥गुणागुणहतरे ववन पाटधरी,गुरुमायाबीजनोजाप करी,गुरुजगमें प्रगट्या तरणतरी॥ गु०॥४॥मणिधारी जिनचंद उपकारी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादासाहेबनी पूजा. जिनदत्त सूरीदके पटधारी, जये दादा पूजा सुखकारी॥ गु०॥५॥राशल पितु देव्हणदे माता,श्रीमाल गोत्र बोधनशाता, दिल्ली पतसाह सुगुण गाता॥गु॥६॥ जसु चौथे पाट उद्योतकरी, जिनकुशल सूरीद अति हर्षनरी,तेरासै तीसे जनम धरी॥ गु॥७॥जसु जिला जनक जगत्र जीयो,वर जैत सिरी शुज स्वपन लीयो, गुरु जेम गोत्र उकार कीयो ॥ गु० ॥ ७॥ धन सैंतालीसे दीद धरी, जिनचंद सूरीश्वर पाट वरी, गुणदतरे सूरिमंत्र जाप करी ॥ गु० ॥ ए ॥ सेवामें बावन वीर खरा, जोगणीया चोस हुकम धरा, गुरु जगमें कश् उपकार करा ॥ गु० ॥ १० ॥ माणक सूरीश्वर पद बाजे, जिनचंद सूरि जगमें गाजे, जये दादा चौथे सुख काजे ॥ गु० ॥ ११॥ जिन चांद उगायो उजियालो, अम्मावसकी पूनमवालो, सब श्रावक मिल पूजन चालो ॥ गु० ॥ १२ ॥ जिन थकबरको परचा दीना, काजीकी टोपी वश कीना, बकरीका नेद कह्या तीना ॥ गु०॥॥ १३ ॥ गंधोदक सुरनि कलश जरी, प्रदालन सशुरु चरण परी, या पूजन कवि झिसार करी ॥ गु० ॥ १४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भए विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥श्लोकः॥ ॥सूरनदीजल निर्मलधारकैः,प्रबलपुष्कृतदाधनिवारकैः ॥ सकलमङ्गलवाचितदायको, कुशलसूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥१॥ ॐ ही श्री परमपुरुषाय परमगुरुदेवाय जगवते श्रीजिनशासनोद्दीपकाय श्रीजिनदत्तसूरीश्वरायमणिमणिमत जालस्थलाय श्रीजिनचन्प्रसूरीश्वराय श्रीजिनकुशलसूरीश्वराय अकब्बरअसुस्त्राणप्रतिबोधकाय श्रीजिनचन्प्रसूरीश्वराय जलं निर्वपामि ते स्वाहा ॥१॥ ॥ अथ द्वितीय केशरचंदनपूजाप्रारंजः॥ ॥दोहा ॥ केशर चंदन मृगमदा, कर घनसार मिलाप ॥परचा जिनदत्त सूरिका, पूज्या टूटे पाप ॥१॥ ॥चाल बीण बाजेकी॥ ॥दीन दयाल राज सार सार तुं ॥आंकणी ॥ आये जरुअठ नग्र धाम धूम धूम ॥ ● बाजते निशान गैर हर्ष रंग हूं ॥ ह ॥ दो० ॥१॥ मुसलमान मुगलपूत फौज मौजमू ॥ फोत मोत हो गया हायकारतूं ॥ हा० ॥ दो० ॥२॥ सन्न विघ्न देख श्राप हुक्म दीन यूं ॥ लावो मेरे पास श्रास जीवदान डूं ॥ जी० ॥३॥ दो० ॥ मृतक पूत Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादासाहेबनी पूजा. ४९१ मंत्र से उठाय दीन तुं ॥ देखके अचंन रंग दास खासकूं ॥ दा० ॥ ४ ॥ दो० ॥ करत सेव जावपूर तुरकराज जूं ॥ बोडके अजय खान हाजरी जरूं ॥ हा० ॥ ५ ॥ दो० ॥ बीज खीजके पमी प्रतिक्रमणके मूं ॥ हाथ से उठाय पात्र ढांक दीन बूं ॥ ढां ॥ ६ ॥ दो० ॥ दामनी अमोल बोल सिद्धराज तूं ॥ देनं वरदान बोम बंद कीन क्यूं ॥ बं० ॥ ७ ॥ दत्त नाम जपत जाप करत नांह चूं ॥ फेर में पहूंगी नांद बोड दीन फूं ॥ बो० ॥ ८ ॥ दो० ॥ करोगे निहाल आप पाव पलकनुं ॥ रामरुद्धिसार दास चरण बांह लूं ॥ च० ॥ ए ॥ दो० ॥ श्लोक ॥ मलयचन्दन केशरवारिणा निखिलजाड्यरुजातपहारिणा ॥ सकल० ॥ ॐ ॐ श्री श्री जिनदत्त० केशरचन्दनं निर्वपामि ते स्वाहा ॥ २ ॥ ॥ दोहा ॥ चंपा चमेली मालती, मरुवा अरु मचकुंद ॥ जो चढे गुरुचरण पर, नित घर होय आनंद ॥ १ ॥ ॥ निंद तो गइ वादीला मारी ए चाल - राग मांड- गुरु परतिख सुरतरुरूप सुगुरु सम डूजो तो नहीं ॥ डूजो तो नहीं रे सुमति जन डूजो तो नहीं ॥ गुरु परतिख सुरतरुरूप सुगुरुने पूजो तो सही ॥ ए For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४एर विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम, श्रांकणी॥चितोम नगरी वज्रर्थनमें विद्या पोथी रही रे॥ सु० ॥ वि०॥ हेजी मंत्र जंत्र विद्यासे पूरी गुरु निज हाथ ग्रही ॥ गु० ॥ गुरु पर ॥१॥ पुर उजायिनी महाकालके मंदिर थंन कही रे॥ सुप ॥मं॥हेजी सिकसेन दिनकरकी पोथी विद्या सरब लही रे ॥ वि० ॥ गुरु प० ॥ २ ॥ उऊयिनी व्याख्यान बीच में श्राविका रूप ग्रही रे॥सु०॥श्रा॥ हेजी जोगनियां उलनेको श्राइ सबको खील द६॥ स० ॥ गुण ॥३॥ दीन होय जोगनियां चौसठ गुरुकी दास नश् रे ॥ सु० ॥ गु०॥ हेजी सात दीयां वरदान हरषसे पसस्या सुयश मही ॥ ५० ॥ गुण ॥ ४॥ पुष्पमाल गुरुगुणकी गूंथी चामो चित्त चही रे ॥ सु० ॥ चा ॥ हेजी कहे रामझझिसार सुयशकी बूटी श्राप द॥ बू० ॥ गु० ॥५॥श्लोक ॥ कमलचम्पककेतकीपुष्पकैः परिमलाहृतषट्पदवृन्दकैः ॥ सकल ॥ ॐ ही श्री ॥ श्रीजिनदत्तः ॥ पुष्पं निर्वपामि ते स्वाहा ॥३॥ ॥दोहा॥धूप पूज कर सुगुरुकी, पसरे परिमल पूर॥जस सुगंध जगमें बधे, चढे सवाया नूर ॥ ॥राग सोरठ ॥ कुबजाने जादू डारा ए चाल ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादासाहेबनी पूजा. ४८०३ अंबिका बिरुद बखाने गुरु तेरो ॥ ० ॥ तुम युगप्रधान नहीं बाने ॥ गु० ॥ ए कणी ॥ गढ गिरनार बम श्रावक ऐसो नियम चित्त ठाने ॥ युगप्रधान इस युग में कोई देखूं जन्म प्रमाणे ॥ गु० ॥ ० ॥ १ ॥ कर उपवास तीन दिन बीते प्रगटी अंबा ज्ञाने || गु० ॥ प्रगट होय करमें लिख दीना सुबरन अक्षर दाने ॥ गु० ॥ ० ॥ २ ॥ या गुणसंयुत र वांचै ताको युगवर जाने ॥ गु० ॥ बम मुलक मुलकमें फिरता सूरि सकल पतवाने ॥ गु० ॥ अं० ॥३॥ श्राया पास तुम्हारे सजुरु कर पसार दिख लाने ॥ ० ॥ वासदेप उन उपर माला चेला बांच सुनाने ॥ ० ॥ ० ॥ ४ ॥ सर्व देव है दास जिनों के मरुधर कल्प प्रमाणे ॥ युगप्रधान जिनदत्त सूरीश्वर त्र्यंबक शीश झुकाने ॥ गु० ॥ ० ॥ ५ ॥ उद्योतन सूरीरे निज हुथ चौरासी ग गने || सो सब तुम्हरी सेवा सारे चौरासी गढ़ माने ॥ गु० ॥ अं० ॥ ६ ॥ जो मिथ्यात्वी तुमको न पूजे सो नहीं तत्र पिठाने ॥ बाहु स्वामी तुम कीर्त्तन कीनी ग्रंथ प्रमाणे ॥ ० ॥ ० ॥ ७ ॥ युगप्रधान परि की एं गिंडिका गणधर पद वृत्ति म्याने ॥ कहे रामद्धिसार गुरुको पूजा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. धूप कराने ॥ गु० ॥ अंग॥ ॥श्लोक ॥श्रगरचन्दनधूपदशाङ्गजैः प्रसरिताखिल दिनु सुधूम्रकैः ॥ सकल ॥ ही श्री ॥ पर० ॥ धूपं निर्वपामि ते स्वाहा ॥४॥ ॥दोहा॥दीपपूज कर सुगण नर, नित नित मंगल होत ॥ उजियाला जगमें जुगत, रहे अखंमत जोत ॥१॥ ॥चाल ख्यालकी॥ ॥पूजन कीज्योजी नर नारी गुरु महाराजका हो ॥ पू०॥ सिंधु देशमें पंच नदी पर साधे पांचो पीर ॥ लो उपर पुरुष तिराए ऐसे गुरु सधीर ॥ पू० ॥१॥ प्रगट होयके पांच पीरने सात दीयां वरदान ॥ सिंधु देशमें खरतर श्रावक होवेगा धनवान ॥ पू० ॥२॥ सिंधु देश मुलतान नगरमें बड़ा महोत्सव देख ॥ अंबड और गलकाश्रावक गुरुसे कीना हेष॥ पू०॥३॥अणहिलपुर पत्तनमें आवो तो मैं जानूं सच्चा ॥ बडे महोत्सव श्रावेंगे तूं निर्धन होगा कच्चा ॥पू॥४॥ पत्तन बीच पधारे दादा सन्मुख निर्धन श्राया ॥ गुरु बतलाया क्योंरे अंबम अहंकार फल पाया ॥ पू० ॥ ५ ॥ मनमें कपट कीया अंबडने Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादासाहेबनी पूजा. एए खरतरमहिमा धारी ॥ जहर दीया उन अशन पानमें गुरु विधि जानी सारी ॥ पू० ॥ ६॥ जणशाली मुखवर श्रावकसे निर्विष मुखी मंगा॥जहर उतारा तब लोकोमें अंबड निंदा पाच ॥ पू० ॥७॥ मरके व्यंतर दुथा वो अंबम रजोहरण हर लीना ॥ नणशाली व्यंतर वचनोंसे गोत्र उतारा कीना ॥ पू० ॥ ७ ॥ सऊ होय गुरु औघा लेके गोत्र बचाया सारा ॥ हिसार महिमा सद्गुरुकी दीपकका उजियारा ॥ पू० ॥ ए॥ श्लोक ॥अतिसुदीप्तिमयैः खलु दीपकैर्विमलकाञ्चननाजनसं स्थितैः॥ सकल ॥ ॐ ही श्री ॥ पर० ॥ दीपं निर्वपामि ते स्वाहा ॥५॥ ॥दोहा॥श्रदतपूजा गुरु तणी, करो महाशयः रंग॥ दति न होवे अंगमें, जीते रणमें जंग ॥१॥ ॥राग याशावरी॥अवधूत सो योगी गुरु मेरा॥ए चाल रतन अमोलक पायो सुगुरु सम रतन अमोलक पायो॥ गुरु संकट सबही मिटायो।सु०॥ए आंकणी ॥ विक्रमपुर नगरी लोकनको हैजा रोग सतायो ॥ बहुत उपाय कीया शांतिकका जरा फरक नहीं आयो॥सु र॥१॥ योगी जंगम ब्रह्म संन्यासी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ए६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. देवी देव मनायो ॥ फरक नहीं किनहीने कीना हाहाकार मचायो ॥ सु र ॥२॥ रतन चिंतामणि सरिषो साहिब विक्रमपुरमें श्रायो ॥ जैनसंघको कष्ट पूर कर जैजैकार वरतायो ॥ सु० र ॥३॥ महिमा सुन माहेश्वर ब्राह्मण सबही शीश नमायो ॥ जीवनदान करो महाराजा गुरु तब यो फरमायो ॥ सुन र ॥ ४॥ जो तुम समकित व्रतको धारो अवहीं करदं जपायो॥ तहत वचन कर रोग मिटायो आनंद हर्ष बधायो ॥ सु र ॥ ५ ॥ जो कोश श्रावक व्रत नहीं धास्यो पुत्री पुत्र चमायो ॥ साधु पांचसै दीक्षित कीना साधवीयां समुदायो ॥ सु र ॥ ६ ॥ मंत्र कला गुरु अतिशय धारी ऐसो धर्म दीपायो ॥ शहिसार पर किरपा कीनी साचो इलम बतलायो ॥ सु र ॥ ॥ श्लोक ॥ सरलतन्मुलकैरतिनिर्मलैः प्रवरमौक्तिकपुञ्जवउज्ज्वलैः । सकल ॥ ॐ झी श्री ॥ प० अदतान् निर्वपामि ते खाहा ॥६॥ ॥दोहा॥ नैवेद्य पूजा सातमी, करो नविक चित्त चाव ॥ गुरुगुण अगणित कुण गिणे, गुरु नवतारण नाव ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादासाहेबनी पूजा. ედე ॥ राग कल्याण ॥ तेरी पूजा बनी है इसमें ॥ ए चाल ॥ हो गुरु किया असुरको वशमें | ए कणी ॥ बम नगरीमें आप पधारे सांजेला धसमसमें ॥ ब्राह्मण लोक बडे अनिमानी मिलकर खाया सुसमें ॥ हो गु० ॥ १ ॥ महिमा देख शक्या नहीं गुरुकी जरे मिथ्यात्वी गुसमें ॥ मृतक गज जिनमंदिर आगे रख दी सनमुख चसमें ॥ हो गु० ॥ २ ॥ श्रावक देख नये याकुलता कहे गुरुसे कसमें ॥ चिंता दूर करी है संघकी ग उठ चाली इसमें || हो गुरु || ३ || मरी गलको जीती कीनी लोक रह्या सब इसमें ॥ जाके गाय पमी रुद्रालय संघ नया सब खुसमें ॥ हो गु० ॥ ४ ॥ ब्राह्मण पांव पडे सब गुरुके देख तमासा इसमें ॥ दुकम उठावेंगे शिर उपर तुम संततिकी दिशमें ॥ हो गु० ॥ ५ ॥ नमस्कार है चमत्कारको कीनी पूजा रसमें ॥ कहे रामद्धिसार गुरुकी आनंद मंगल जसमें ॥ हो गु० ॥ ६ ॥ श्लोक - बहुविधैश्वरुनिवटकैर्यकैः प्रचुरसर्पिषि पक्कसुखकैः ॥ सकल० ॥ ॐ ॐ श्री प० नैवेद्यं निर्वपामि ते स्वाहा ॥ ७ ॥ ॥ दोहा ॥ फलपूजा से फल मिले, प्रगटे नवे निधान ॥ वि० ३२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भएत विविधपूजासंग्रह जाग प्रथम. चिहुं दिश कीरत विस्तरे, पूजन करो सुजान ॥१॥ रथ चढ यमुनंदन आवत है ॥ ए चाल ॥चालो संघ सब पूजनको गुरु समस्या सनमुख श्रावत है रे॥ चा० ॥ ए आंकणी ॥ आनंदपुर पट्टनको राजा गुरु शोना सुन पावत है रे ॥ चा०॥ नेजा निज परधान बुलाने नृप अरदास सुनावत है रे ॥ चा० ॥१॥ लाज जान गुरु नगर पधारे नूपति आय बधावत है रे ॥ चा० ॥ राजकुमरको कुष्ठ मिटायो अचरज तुरत दिखावत है रे॥चा० ॥२॥ दश हजार कुटुंब संग नृपकुं श्रावकधर्म धरावत है रे ॥ चा ॥३॥ दयामूल श्राज्ञा जिनवरकी बारा व्रत उचरावत है रे॥ चा०॥ऐसे चार राज समकित धर खरतर संघ बनावत है रे॥चा॥४॥कुष्ठ जलंधर दयी नगंदर कश्यक लोक जीवावत है रे ॥ चा० ॥ ब्राह्मण क्षत्री अरु माहेश्वर उस वंश पसरावत है रे ॥ चा० ॥ ५॥ तीस हजार एक लख श्रावक महिमा अधिक रचावत है रे ॥ चा० ॥ कहत रामशहिसार गुरुको फलपूजा फल पावत है रे॥ चा॥६॥श्लोक॥पनसमोचसदाफलकर्कटः सुसुखदैः किल श्रीफलचिर्नटैः ॥ सकल ॥ ॐ ही श्री प० फलं निर्वपामि ते स्वाहा ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादासाहेबनी पूजा. ४एए ॥दोहा॥वस्त्र अतर गुरु पूजना, चोवा चंदन चंपेल ॥ कुश्मन सब सऊन हुए, करे सुरंगा खेल ॥१॥ ॥मनमो किमही न बाजे हो कुंथु जिन ॥ ए चाल ॥ लखमी लीला पावे रे सुंदर लखमी लीला पावे ॥ जो गुरु वस्त्र चढावे रे ॥ सुं० ॥ सुजस अत्तर महकावे रे ॥ सुं०॥पुरजन शंाश नमावे रे॥सु०॥ए आंकणी ॥ दरिया बीच जहाज श्रावककी ड्रबन खतरे श्रावे ॥ साचे मन समरे सद्गुरुको दुःखकी टेर सुनावे रे ॥ सुं०॥१॥बाचंता व्याख्यान सूरीश्वर पंखी रूपे थावे ॥ जाय समुझमें ज्याज तिराश फिर पीठा जब आवे रे ॥ सुंग ॥२॥ पूजे संघ थचरज में नरिया गुरु सब बात सुनावे रे ॥ सुं॥ ऐसे दादा दत्त कुशल गुरु परचा प्रगट दिखावे रे ॥सुं॥३॥बो थर गूजरमल श्रावककी दादा कुशल तिरावे ॥सुं०॥ सुख सूरि गुरु समयसुंदरकी ज्याज अलोप दिखावे रे ॥ सुं० ॥४॥ बारासै ग्यारे दत्त सूरि अजमेर अणसण गवे ॥ उपज्या सौधर्मा देवलोके सीमंधर फुरमावे रे ॥ सुं० ॥५॥ इक अवतारी कारज सारी मुक्तिनगरमें जावे रे ॥ सुं॥ कुशल सूरि देराउर नगरे जुवनपति सुर थावे रे ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. सुं०॥६॥ फागण व दि अम्मावस सीधा पूनम दरश दिखावे रे ॥ सुं० ॥ मणिधारी दिल्ली में पूज्या संकट सुपने नावे रे ॥ सुं० ॥ ७॥ रथी उठी नहीं देख बादसा वांही चरण पधरावे रे ॥ सुं० ॥ वस्त्र अत्तर पूजा सद्गुरुकी इद्धिसार मन नावे रे॥ सुंग ॥ ॥श्लोक ॥अखिलहीरशुर्नवचीरकैःप्रवरप्रावरणैः खलु गन्धतः ॥ सकल ॥ श्री श्री पण वस्त्रं चोवाचन्दनपुष्पसारं निर्वपामि ते स्वाहा ॥ए॥ ॥दोहा॥ध्वजपूजा गुरुराजकी, लहके पवन प्रचार ॥ तीन लोकके शिखर पर, पहुंचे सो नर नार ॥१॥ ॥चाल॥जिनगुण गावत सुरसुंदरी रे॥ए चाल॥ ध्वजपूजन कर हरख नरी रे ॥ ध्व०॥ सज सोले शिणगार सहेव्यां श्रीसद्गुरुके छार खरी रे॥ध्व०॥ अपनर रूप सुतन सुक लीनी ठम उम पग ऊणकार करी रे ॥ २० ॥१॥ गावत मंगल देत प्रदक्षिणा धन धन आनंद आज घरी रे ॥ ध्व०॥ निर्धनको लखमी बकसावत पुत्र विना जाके पुत्र करी रे॥ध्वण॥ ॥जो जो परतिष परचा देख्या सुनो नविक दिल बीच धरी रे॥ ध्व०॥ फतेमस नडगतिया श्रावक पहली शंका जोरे करी रे ॥ध्व०॥३॥ परतिख देखें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादासाहेबनी पूजा. ५०१ तब मैं जानुं प्रगट्या ततखिण तरण तरी रे ॥ध्व०॥ पुष्पमाल शिर केशर टीका अधर श्वेत पोशाक करी रे॥ध्व०॥४॥ माग माग वर बोले वाणी फरक बतावो गुरु मेघऊरी रे॥ध्व॥ फरक उगायो दोयलाख पर तेरी महिमा नित्त हरी रे ॥ध्व०॥५॥ गैनचंद गोलेगको परतिख दीना दरस फरी रे ॥ ध्व०॥ विक्रमपुरमें थंल तुम्हारा चित्र करावत सुरसुंदरी रे ॥ध्व०॥६॥थानमन्स खूण्यां पर किरपा लखमी लीला सहज वरी रे॥लखमीपति उगमकी साहिब हुंमीकी जुगतान करी रे ॥ध्वः ॥ ७॥ जो उपकार कस्यो तें मेरा दीनी सन्मुख अमृतऊरी रे॥ध्व०॥ तेरी कृपासे सिछि पार जागे जस अरु नाग नरी रे॥ध्व०॥७॥ नूखा जोजन तिसिया पानी नरत हाजरी देव परी रे॥ध्वा बिखम बखत पर सहाय हमारे हिसारकी गरज सरी रे ॥ध्व०॥ ए ॥ श्लोक ॥ मृउमधुरध्वनिकिङ्किणीनादकैर्ध्वज विचित्रितविस्तृतवासकैः ॥ सकल॥शिखरोपरि ध्वजां श्रारोपयामि स्वाहा ॥ दोहा॥जट्टारक पदवी मिली, जीते वादिबूंद ॥ कंठ विराजत सरस्वती, जगमें श्रीजिनचंद ॥ ॥राग आशावरं अथवा धनाश्री ॥ पूजा जग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. सुखकारी सुगुरु तेरी पूजाण ॥ तेरे चरणकमल बलिहारी ॥ सु० ॥ साह सलेमी दिल्लीको बादस्या सुनके शोन तिहारी ॥ नट्ट हरायो चरचा करके नट्टारकपद धारी ॥ सु० ॥१॥ अम्मावसकी पूनम कीनी चंद उगायो नारी ॥ चढके गगन करी है चरचा सूरजसे तपधारी॥सु०॥२॥चौदासे उगणीस सालमें लखनउ नगर मकारी ॥ गोरा फिरंगी टोपीवाला दिलमें यह बात विचारी ॥ सु० ॥३॥ जैन सितंवर देव जो सच्चा पूरे मनसा हमारी ॥ वाणी निकसी राज्य तुम्हारा होवेगा अधिकारी ॥सु०॥४॥ अंधेकी खोली आंख सुरतमें पूजे सब नर नारी ॥ कहां लग गुण बरणुं मैं तेरा तुं ईश्वर जयकारी ॥सु० ॥५॥ जंगणीसे संवत्सर तेपन मगसर मास मजारी ॥ शुकल उज जिनचंद सूरीश्वर खरतरगड आचारी ॥ सु० ॥ ६ ॥ कुशल सूरिके निज संतानी देमकीर्ति मनुहारी॥प्रतिबोध्या जिन दत्री पांचसे जान सहित अणगारी॥सु०॥ ७॥ देम धाम शाखा जब प्रगटा जगमें आनंदकार! ॥ धर्मशाल साधु गुण पूरे कुशल निधान उदारी॥सु०॥७॥ या पूजन करतां सुख आनंद अन्न धन लखमी सारी॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादासाहेबनी पूजा. ५०३ कहत रामज्ञहिसार गुरुकी जय जय शब्द उचारी ॥ सु ॥ ए ॥ इति श्रीसमस्तदादागुरुपूजा संपूर्णा ॥ ॥ अथ आरति लिख्यते ॥ ॥जय जय गुरु देवा आरति मंगल मेवा आनंद सुख लेवा ॥ ज०॥श्रांकणी॥श्क व्रत ज्य व्रत तीन चार व्रत पंच व्रतमें सोहे॥ गु०॥ जगत जीव निसतारण सुर नर मन मोहे ॥ ज० ॥ १॥ पुःख डोह सब हर कर सद्गुरु राजन प्रतिबोधे ॥ सुत लखमी वर देकर श्रावककुल शोधे ॥ ज० ॥२॥ विद्या पुस्तक धर कर सशुरु मुगलपूत तारे ॥ वश कर जोगन, चौसठ पांच पीर सारे ॥ ज० ॥३॥ बीज पमंती वारी ससुरु समंदर जहाज तारी ॥ वीर कीये बस बावन प्रगटे अवतारी॥ज ॥४॥ जिनदत्त जिनचंद कुशल सूरि गुरु खरतरगड राजा ॥ चोराशी गट्ठ पूजे मनवांबित ताजा ॥ ज०॥५॥ मन शुद्ध भारती कष्ट निवारण सारुकी कीजे ॥ जो मांगे सो पावे जगमें जस लीजे ॥ ॥ज०॥६॥ विक्रमपुरमें जगत तुम्हारो मंत्र कलाधारी ॥ नित उठ ध्यान लगावत मनवांडित फल पावत रामशरू सारी ॥ ज० ॥ ७॥ इति पद ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. // श्री जिनपूजन स्तवन // ( चाल नाटक धन धन वो जगमें ) ॥धन धन वो जगमें नर नार, पूजा करन करानेवाले // अंग // रायपसेणी सूत्र मकार, पूजा वरनी सतरां प्रकार // सूर्याज देवता करणहार, श्री गणधर फरमानेवाले // धन // 1 // जीवानिगम सूत्र है सार, विजय देवताका अधिकार // शाश्वत जिनमंदिर विस्तार, जैन सिद्धांत बतानेवाले ॥धन // 2 // आनंद सातमें अंग विचार, झाता जबाइ जगवती धार // प्रौपदी अरु अंबम धनगार, ये सब मोदके जानेवाले // धन // 3 // इत्यादि जैन शास्त्र रसाल, जिनप्रतिमाका वर्णन जाल // पूजा करे तुम दीनदयाल, है मुक्तिफल पानेवाले // धन // 4 // आतम आनंदरसमें लीन, कारण कारज समऊ यकीन // वक्षन प्रजुके है आधीन, प्रजुको शीस नमानेवाले ॥धन // 5 // ॥इति श्री विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम समाप्त // Jain Educationa International For Personal and Private Use Only