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श्रीवीरविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. १७७
॥ अथ मंत्रः ॥ ॥ ॐ दी श्री परम ॥ फलानि य० ॥ वा ॥ इति श्रष्टम फलपूजा समाप्ता ॥७॥ ॥अथ कलश ॥राग धन्याश्री॥वामानंदन जग०॥
॥ए देशी॥ ॥णविध अष्ट प्रकारी पूजा, करशे तस नित्य सुख शाता ॥ सिकि बुधि दिहि अम नविजन, पामी श्रम पवयण माता॥हरि परे जक्ति करो प्रजु केरी ॥१॥राग द्वेष टाली जिन पूजत, अष्टमी गति अनुक्रमे लहे॥श्रष्ट कर्म समताए बाली, नील तरु वन हिम दहे ॥ हरि परे॥२॥ तपगल श्रीविजयसिंह सूरीश्वर, सत्यविजय पंन्यास वरो॥ कपूर समुजाल खिमा विजय जस, विजय सदा सौजाग्य करो ॥हरि॥३॥तास शिष्य शुजविजय सोनागी, तस अनुमति जिनराय सही॥ गावत हर्ष कबोल जराया, राजनगर चनमास रही ॥ हरि ॥४॥ संवत् अढार अहावन वरपे, नाउपदे सित पद जलो ॥ द्वादशी दिन गुरुवार मनोहर, ए अच्यास जयो सफलो ॥ हरि॥ ५॥ सुरगुरु पण न शके करी वर्णन, जिन
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