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________________ श्रीसकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३६१ ॥अथ अष्टमाष्टमांगलिकपूजा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ सुरपति अष्ट मंगल रची, मणि तंफुल विस्तार॥ रत्न विविध मणि तेहरुं, पूरे अखंमित धार ॥१॥ ॥ नट्टरागण गीयते ॥ ॥ मंगल मोहे घर कीजे ॥ जिणंदराय ॥ मंगल ॥ ए श्रांकणी ॥ सवि साधन एक सिकि कीजे, मंगल आठ रचीजे॥जिणंद०॥मंगल०॥॥स्वस्तिक श्रीवत्स कुंन नमासन, चार गतिकुं बीजे ॥ तंडुल वासित अष्ट मंगल धरी, अदय पद ए लीजे॥जिणंद० ॥ मंगल ॥२॥नंदावर्त्त करी जिणंदमुख, वर्कमान तिहां सार॥ मत्स्ययुगल तेह माहेरचीजे,दर्पण अष्ट प्रकार ॥ जिणंद० ॥ मंगल० ॥३॥ एहविध मंगल आठ लखीने, सुर नर जिन पूजीजे॥ अष्टमी पूजा करो तुमे नविजन,अष्ट कर्मपूर कीजे ॥ जिणंद ॥मं०॥४॥इति अष्टमाष्टमांगलिकपूजा समाप्ता॥७॥ ॥ अथ नवम दीपकपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा ॥ ॥अव्यदीप पूजा करी, जावदीप शुद्ध वास ॥ अज्ञानता पूरे करी, ज्ञानदीप परकाश ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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