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श्री सकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३६३ कस्तूरी अंबर नेली, वली घनसार मेलावो ॥ शुद्ध बरास अगर तगरशुं दिशो दिश धूप करावो ॥ ज० ॥ धू० ॥ २ ॥ चंदनचूरण करी मांडे वली, शर्करादिक मेलावो ॥ जेम सुरपति जिननक्ति करत शुज, तेम तुमे करी जवि जावो ॥ ज० ॥ धू० ॥ ३ ॥ जिनमुख यागल धूप करीने, निर्धूम खत्म करीजे ॥ ते कारण धूपपूजा करतां, जवसायर तरीजे ॥ ज० ॥ धू० ॥ ४ ॥ इति दशम धूपपूजा समाप्ता ॥ १० ॥ ॥ अथ एकादश प्रक्तपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥
अक्षय पद देवा जणी, अक्षतपूजा सार ॥ मात जिन पूजीए, तो लहीए जयकार ॥ १ ॥
॥ ध्रुवपदं ॥ काफीरागेण गीयते ॥
॥ चित्त तमे करो जविकजन, मणि तंडुल उदार ॥ चित्त० ॥ खंगत आणी जावे, थाल नरो जयकार ॥ चित्त० ॥ मणि० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ जिन आगल सवि श्राय करो तुम, स्वस्तिक पूरो विशाल ॥ बिच बिच रत्न धरीजे अमूलक, निज चित्ते काकजमाल || चित्त० ॥ मणि० ॥ २ ॥ उज्ज्वल अत
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