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३६४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जरी तंदुल शुज, वास वासित घनसार ॥मुक्ताफल वली माहे मनोहर, शोने अति शिरदार ॥ चित्त० ॥ मणि ॥३॥ एहविध पूजा करत जिनवरकी, पावत हे नवपार ॥ अव्य विधाने नक्तिशुं कीजे, नाव प्रगटे निरधार ॥ चित्त० ॥ मणि ॥४॥इति एकादश श्रदतपूजा समाप्ता ॥ ११॥ ॥ अथ द्वादश ध्वजपूजा प्रारंनः॥
॥ दोहा ॥ ॥ शादिक नावजु, नक्ति करे वली जेह ॥ अध्वजणुं शोजता, हर्ष धरे वली तेह ॥१॥
॥ध्रुवपदं ॥ गोमीरागण गीयते ॥ ॥कनकदंम कर रत्न जमित वली,सुरपनि रे ॥ वली उपर मुक्ताफल माला, कुसुममाल सुखसंगे रे॥ क० ॥१॥ दंम गगनशुंवाद करे जे, किंकिणीनाद धन गाजे रे ॥ चपला करी पताका एम कहे, घोषण दे सुरराजे रे॥क० ॥२॥ सहस योजन दंग उत्तंग सोहे, नविजननां मन मोहे रे ॥लघु पताके पूजा करतां, जेम जिन पागल जोहे रे॥ कम्॥३॥ सुर नरनां मन मोहे सुंदर,सुर नर ध्वज जेम कीधोरे
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