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________________ १६० विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. वणिकसुता लीलावती, पामी पद निरवाण ॥२॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ उरा राजी आवो रे, कई एक वातडली ॥ ए देशी ॥ ॥ मनमंदिर श्रावो रे, कहुं एक वातमली ॥ अज्ञानी संगे रे, रमीयो रातडली ॥ मनः॥१॥ व्यापार करेवा रे, देश विदेश चले ॥परसेवा देवा रे, कोमी न एक मले ॥ मन० ॥२॥राजगृही नयरे रे, कुमक एक फरे॥ निदाचरवृत्तिए रे, फुःखे पेट नरे ॥ मन० ॥३॥ लानांतराये रे, लोक न तास दीए॥ शिक्षा पामंतो रे, पोहोतो सातमीए ॥ म०॥४॥ ढंढण अणगारो रे, गोचरी नित्य फरे ॥ पशुओं अंतराये रे, श्रादार विना विचरे ॥म ॥५॥श्रादीश्वर साहिब रे, संयमनाव धरे ॥ वरसीतप पारj रे, श्रेयांस राय घरे । म ॥ ६॥ मिथ्यात्वे वाह्यो रे, श्रारतिध्यान करे ॥ तुज आगमवाणी रे, समकिती चित्त धरे ॥ म० ॥ ७॥ जेम पूर्णीयो श्रावक रे, संतोष जाव धरी ॥ नित्य जिनवर पूजे रे, फूलपगर जरी॥म॥७॥ संसारे नमतां रे, हुं पण श्रावी जल्यो ॥अंतराय निवारक रे,श्रीशुनवीर मल्यो ॥माए॥ ॥ काव्यं ॥ सुमनसांग ॥१॥ समयसार ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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