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श्री श्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ४१९७ ॥ चामररले पूजतां, नासे डुरितविहाए ॥ ४७ ॥ ढाल ॥ कनक रणने दंडे, मंकित चामरजोमी ॥ दरखतां जिनमुख निरखतां, वींजे होमा होमी ॥ विकसित कज जेम जिनमुख, सन्मुख घ्यावी हंस ॥ सेवे एम उपमित करे, जविजन धरी आशंक ॥ ४८ ॥ काव्यम् ॥ ज्ञानमय किरिय उज्ज्वल खजावे, नति उन्नति गौण मुख्यादि जावे ॥ मानगुणसंख जिनराज आणे, नावथी बुद्ध चामर वखाये ॥ ४५ ॥ इति पंचदश चामरपूजा ॥ १५ ॥
॥ अथ षोमश उत्रत्रयपूजा ॥ दोहा ॥
॥ उज्ज्वल शारद चंद जिम, उत्रत्रय बहु मूल ॥ बावीजे जिन उपरे, तस डुगसिरि अनुकूल ॥ ५० ॥ ढाल ॥ त्रत्रय जेम फरके, थरके पातकवृंद ॥ मोहादिक धरि त्राग, नाग करे खाकंद ॥ जे नित्य पूजे उत्रे, शुज गोत्रे लहे जम्म ॥ तत्क्षणे छत्र धरे हरि, सुरगिरे उत्सव कम्म ॥ ५१ ॥ काव्यम् ॥ हृत्कजे जेह जिनराज ध्यावे, लीनता श्रवंचक योग बावे ॥ जावत्रत्रयी गुण समाजे, सादि निरांत शिवराज राजे ॥ ५२ ॥ इति षोमश उत्रत्रयपूजा ॥ १६ ॥
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