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४१७ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. शीतल जेह ॥ उदकरयणे जिन पूजतां, न रहे पातक रेद ॥अतिनीष्मे नवग्रीष्मे, नविपीमाये तेह ॥ सुखनर शिवघर वासवा, आदि मंगल एह ॥४२॥ काव्यम् ॥ निम्मले समजले जेह प्राणी, नरी पात्र श्रमान ते सुगुणखाणी ॥ एकता जिनगुणे देवदेवा, नजे जावधी जल तणी एह सेवा ॥ ४३ ॥ इति त्रयोदश जलपूजा ॥ १३॥
॥अथ चतुर्दश वस्त्रपूजा ॥ दोहा ॥ ॥चीनांशुक मुखमल श्रमल, जरबाफी शुभ पट्ट॥ सरस सुकोमल मूल घणां, वस्त्रपूज गहगह ॥४४॥ ढाल ॥ वस्त्रजोडी मन कोडे, थापो जिनगमाग ॥ गतशोचे उबोचे, अह जिनमंदिर राग ॥ शोजावो ध्वज गवो, चावो करी बहु मान ॥ वस्त्रपूजा हरे नविकनां, पुःख शीतादि अमान ॥४५ ।। काव्यम् ॥ नावथी वस्त्रयुग जे परिन्ना, ते धरे जिन तणी थाण लीना ॥ शिशिर जम आश्रवे मोहग्रीष्मे, न वि लहे कुःख संसार जीष्मे ॥४६॥इति चतुर्दश वस्त्रपूजा ॥ १४ ॥
॥ अथ पंचदश चामरपूजा ॥दोहा॥ ॥अति उज्ज्वल अंगुल तणुं, एकशत आठ प्रमाण
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