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श्रीश्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ४१७ फले जिन रचो, विरचो घरी गुणराग ॥ मंगलमाला थावे, पावे जवजल ताग ॥ ३६ ॥ काव्यं ॥ शुद्ध स्याद्वाद मृटु जावसंगे, शुक्लता शुद्धवर नाव रंगे ॥ जावथी पूजतो एम पूगे, नियति श्रानंद घर तेह पूगे ॥ ३७ ॥ इत्येकादश पूगीफलपूजा ॥ ११ ॥ ॥ अथ द्वादश नैवेद्यपूजा ॥ दोहा ॥
॥ सरस शुचि पकवान जर, शालि दाल घृतपूर ॥ करे नैवेद्य जिन श्रागले, कुधा दोष तस दूर ॥ ३८ ॥ ढाल ॥ लाखण श्री वर घेवर, मृडुतर मोतीचूर ॥ सिंह केशर सेवइया, दलिया मोदक पूर ॥ साकर झाख शींगोमां, जक्त व्यंजन घृत सद्य ॥ एम नैवेद्य जिनने करे, तस मले सुख अनवद्य ॥ ३ ॥ काव्यम् ॥ ढोकता जोज्य परजाव त्यागे, जविजना निज गुण जोग मागे ॥ श्रम जी श्रम तणुं स्वरूप जोज्य, थापजो तातजी जगत्पूज्य ॥ ४० ॥ इति द्वादश नैवेद्यपूजा ॥ १२ ॥
॥ अथ त्रयोदश जलपूजा ॥ दोहा ॥ ॥ शुभ रुचि शुचि निर्वाणनुं, पूर्ण कलश जरी तोय ॥ जिनपति श्रागल ढोकतां, गततृष्णा जवि होय ॥ ४१ ॥ ढाल ॥ जगजीवन गुणपावन, निर्मल
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