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४४६ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम, ॥१॥ हां रे जिनमंझप शिखर बहुत प्रासादे, दंड कलश ब्रह्मांग ॥ अतिगिरुआ गुणसागर बहु सोहे, दिसे पुहवी प्रचंम॥ तिहां हाट चउटां वस्तु विवेकी, विवहारीया अनेक ॥लखेसरी कोटी गढतल मंदिर, बोले वचन विवेक॥॥हां रेते नगरी बहुरी व्यवहारी, घर घर मंगल चार ॥ नारीकरकंकण सुंदर फलके, करी सकल शणगार ॥ तिहां राजा अश्वसेन महीमंगल, दान खड्ग जीपंत ॥ अति न्यायवंत दीसे नरनायक, वामादेवीकंत ॥ ३॥ हां रे सरगलोकश्री चवीय सुरवर, जप्पन्नो कुल जास ॥ तिहां कृष्ण चोथे चैत्र मासे, एहवे अति उल्लास ॥ तिहां राणी पश्चिम रयणी पेखे, सुहणां चन्द विशाल ॥ तस कुखे अवतरशे जिनवर, जीवदया प्रतिपाल ॥४॥
॥ अथ सुपननी ढाल ॥ उलालानी ॥ ॥ पहेले गयवर दीगे, मुज मुखकमल पश्को ।। बीजे वृषन उदार, दीगे अति सुकुमार ॥५॥त्रीजे सिंह संपूरो, मही मंगल मांहे ए सूरो॥चोथे लखमी ए दीपी, रतनकमले ए बेठी ॥६॥ उर उतरती ए माल, कुसुमनी फाकफमाल ॥छ पूनमचंदो, अमीय फरे सुखकंदो ॥ ७ ॥ तेजे तपंतो ए जाण,
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