________________
श्री विजयलक्ष्मी सूरिकृत वीश स्थानकनी पूजा. २०१ पर्यव जिनजी, बनमा वीतरागी ॥ केवली जिनने वचन अगोचर, महिमा जिन वरुनागी ॥ जि० ॥ २ ॥ जिनवर सूरि वाचक साधु, बाल थविर गिलाणी ॥ तपसी चैत्य श्रमण संघ केरी, वैयावच्च गुणखाणी ॥ जि० ॥ ३ ॥ गुणिजन दशनो वैयावच्च कीजे, सहुमां जिन वर मुख्य ॥ वैयावच्च गुण अप्पमिवाई, जिनश्रागम दित शिख्य ॥ जि० ॥ ४ ॥ नीच गोत्र बांधे नहीं कबहुँ, करे उंच गोत्रनो बंध | गाढ कर्मबंध शिथिल होवे, उत्तराध्ययने प्रबंध || जि० ॥ ५ ॥ मनशुद्धे ए पदने आराधी, जिभूतकेतु जिन होवे ॥ विजय सौभाग्यलक्ष्मी सूरि संपद्, परमानंद पद जोवे ॥ जि० ॥ ६ ॥ इति जिनपदपूजा षोकशी ॥ १६ ॥
॥ अथ सप्तदश संयमपदपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥
॥ शुद्धतमगुण में रमे, तजी इंद्रिय श्राशंस ॥ थिर समाधि संतोषमां, जय जय संयमवंश ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ कुंवर गंजारो नजरे देखतांजी ॥ ए देशी ॥ ॥ समाधिगुणमय चारित्रपद जलुंजी, सत्तरमुं सुखकार रे॥वीश समाधिदोष निवारीनेजी, उपन्यो गुण
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org