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श्रीगंजीरविजयकृत दशविध यतिधर्मपूजा. ३७७ मोरी ॥सुख वृद्धि संपत् सवि पाश, गंजीर जिन रस लही रे ॥ राज ॥ ७॥ सकल ॥ 5 ॥२॥
॥अथ तृतीय पूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ मान गए मृडता हुए, कपटे कठिन कगेर ॥ कपट नीपट चूरण नणी, सज प्रनु चहु उर ॥१॥ ॥ राग परज ॥ निशदिन जोडं वाटडी, घेर
___ आवो ढोला ॥ ए देशी ॥ ॥ आर्जवसें जिन पूजतां,मीटे माया अंधारा॥अनुनव जोतही जगमगे, टले कर्म प्रचारा॥ आर्जवण ॥१॥ए आंकणी ॥ माया संग नीसी बरता, नहीं तस्कर चारा॥ माया उरगी नामसें, तरे नवनुं बारा॥ आर्जव० ॥२॥ मारीद कबु आंटीमें, रुके झान उजारा ॥आर्जव शोधने शोधीए,सवि क्रिया डंबारा॥ श्रावण॥॥श्रद्धा निर्मल नीपजे,होय ज्ञान सुधारा॥ सहज सरल वीरता, श्रापो आप नीहारा ॥थार्जव०॥४॥आर्जव अमृत धोश्ने, निज आतम प्यारा॥ केवल उग प्रनु पामीने, हार्यो माया प्रसारा ॥ आर्जवणा॥ त्रिशला उरसर हंसने,पूजो नाव उदारा
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