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________________ श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १७ अरिहा पण तप करता, एकाकी रही राण ॥ श्रण ढुंता सुरकोमी, सेवे पूरण नाण ॥३॥ ज्ञानदिशा विणु तप जप, किरिया करत अनेक ॥फल नवि पामे रांक ते, रणमा रोल्यो एक ॥४॥ तेलीबलद परे कष्ट करे, जीन विण श्रुतबहेर ॥ निशिदिन नयन मिचाणे, फरतो घेरनो घेर ॥ ५॥ ज्ञान प्रथम पठी जयणा, दशवैकालिक वाण ॥ ज्ञानीने सुरतरु उपमा, झानथी फल निर्वाण ॥ ६॥ कर्मसूदन तप पूरण, फलपूजा फल सार ॥ श्रीशुजवीरना ज्ञानने, वंदीए वार हजार ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ चुतविलंबितवृत्तघ्यम् ॥ ॥ शिवतरोः फलदानपरैर्नवै,-वरफलैः किल पूजय तीर्थपम् ॥ त्रिदशनाथनतक्रमपंकजं, निहतमोहमहीधरममलं ॥ १॥ शमरसैकसुधारसमाधुरै,रनुनवाख्यफलैरजयप्रदैः ॥ अहितकुःखहरं विनवप्रदं, सहजसिझमहं परिपूजये ॥२॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॐ श्री परम ॥ प्रथमकोबेदनाय फलं य० ॥ खा॥ इति प्रथमकर्मोछेदनार्थं अष्टम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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