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श्रीगंजीर विजयकृत नवपदपूजा. ३९३ सुसंग ॥ स० ॥ १॥ लीन रही तिहां आतमध्यावो,
आपही सिक निसंग ॥स॥२॥जस वृद्धि गंजीर सुख संगी, उरसित ज्ञान तरंग ॥ स ॥३॥ ॥काव्य तथा मंत्र कहेवां ॥ इति सिझपदपूजा॥५॥ ॥ अथ श्राचार्यपदपूजा ३ जी ॥
॥दोहा॥ ॥ सूरि नमो अकदाग्रही, कनक सुकोमल चित्त॥ मोहतमोहर रविप्रना, ज्ञानसुधा जर वित्त ॥१॥ तत्त्व स्फूरे जस उठपै, जिनमत करी साम्राज्य ॥ बारसो बन्नु गुणे जर्या, पंचाचार समाज ॥२॥ देश कालादिक अनुसरी, जिनवाणी अनुकूल ॥ दीए देशना जव्यने, तजी प्रमाद समूल ॥३॥ शासन जर मही धारका, जे दिग्दति समान ॥ शुरूप्ररूपक तत्त्वना, चिरं जीवो जगजान ॥४॥
॥ ढाल १ली ॥राग आशागोमी॥ ॥आचारज सुखदा, नमो नवि, आचारज सुखदाइ ॥ ए टेक॥मुनिपति गणपति गणधर सूरि, गुण बत्रीशे सुहा॥ न० ॥ १॥ चिदानंद रस वादन रसिया, तनु सुख श्वा गमाइ ॥ न ॥२॥ निष्काम निरमल शुझ जे चिद्धन, ते निज साध्य निपाइन
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