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________________ १७ विविध पूजासंग्रह जाग प्रथम. विशेषे ॥ ४॥ पूज्या पमुत्तर देत हे, सुनो मोहन मेरे ॥ तापसकुं बंदन चले, उठी लोक सवेरे ॥५॥ कम योगी तप करे, पंच अग्निकी ज्वाला ॥ हाथे लालक दामणी, गले मोहनमाला ॥६॥ पासकुंअर देखण चले, तपसीपे आया ॥ उहीनाणे देखके, पीने योगी बोलाया ॥ ७॥ सुण तपसी सुख लेनकुं, जपे फोगट माले ॥ अज्ञानसे अगनि बिचे, योगकुं परजाले ॥ ॥ कम कहे सुण राजवी, तुमे अश्व खेला ॥योगीके घर हे बडे, मत को बतलाउँ ॥ ए ॥ तेरा गुरु कोन हे बमा, जिने योग धराया॥ नहीं उसखाया धर्मकुं, तनुकष्ट बताया ॥ १० ॥ हम गुरु धर्म पिडानते, नहीं कवमी पासे ॥ नूल गये मुनिया दिशा, रहते वनवासे ॥ ११॥ वनवासी पशु पंखीयां, एसे तुम योगी ॥ योगी नहीं पण जोगीया, संसारके संगी ॥ १२॥ संसार बूरा डोरके, सुण हो लघु राजा ॥ योगी जंगल सेवते, वेश धर्म अवाजा ॥ १३ ॥ दया धर्मको मूल है, क्या कान फूंकाया ॥ जीवदया नह जानते, तप फोकट माया ॥ १४ ॥ बात दयाकी दाखीए, नूल चूक हमारा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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