________________
श्रीज्ञानविमलसूरिकृत शांतिनाथनो कलश. ४२७ ॥ ढाल ॥ गुलकार गर्जनारव करे ए ॥ पाय दूर दूर धुर धुर धरे ए ॥ २० ॥ चाल ॥ हां रे सुर धरे अधिक बहु मान, तिहां करे नव नव तान ॥ वर विविध जाति बंद, जिननक्ति सुरतरुकंद ॥२१॥वली करे मंगल आउ, ए जंबूपन्नत्ति पाठ ॥ थाय थुश्य मंगल एम, मन धरी अधिक बहु प्रेम ॥२२॥ ढाल ॥प्रेममद घोषणा पुण्यनी सुरासुर सहु ए॥ समकित पोषणा शिष्ट संतोषणा एम बहु ए ॥३॥ चाल॥हां रे बहु प्रेमअ॒सुख देम, घरे श्राणीया निधि जेम ॥ बत्रीश कोमि सुवन्न, करे वृष्टि रयणनी धन्न ॥ २४ ॥ जिनजननी पासे मेली, करे अहानी केलि ॥नंदीश्वरे जिनगेह, करे महोत्सव ससनेह ॥ २५ ॥
॥ ढाल प्रथमनी ॥ ॥ हवे राय महोत्सव, करे रंग जर, थयो जब परजात ॥ सूर पूजीयो सुत, नयणे निरखी, हरखीयो तव तात ॥ वर धवल मंगल, गीत गातां, गंधर्व गावे रास ॥ बहु दाने माने, सुखीयां कीधां, सयल पूगी आश ॥२६॥ तिहां पंचवरणी, कुसुमवासित, चूमिका संवित्त ॥ वर अगर कुंदरु, धूपधूपण, बगंव्यां
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org