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श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १४५ नक्ति करतां सघला, पूज्या युगपरधान ॥ गीतारथ एकाकी रहेतां, पामे जग बहुमान ॥ में की॥२॥ अज्ञानी टोले पण नोले, बोले पर नाव ॥ आलोयण देतो नजकने, पामे विराधकनाव ॥ में की ॥३॥ बोधगुरुने बाणे हणतो, पग अणफरसी राय ॥श्रझानी मुनि उग्रविहारी, बाजीगरनो न्याय ।। में की॥४॥ मंमुथा श्रावकने कहे स्वामी, होय जिनधर्म आशात ॥ अणजाण्यो श्रुत अर्थ वदंतां, साची गुरुगम वात ॥ में की० ॥ ५ ॥ ज्ञानी गुरुनी सेवा करतां, श्राराधे जिनधर्म ॥ अणुव्रत धरतो तप अनुसरतो, निर्मल गुण ग्रहे पर्म ॥ में की ॥६॥ नणे जणावे वली जिन आगम, आशातन वरजंत ॥ श्रीशुजवीर जिनेश्वरजक्ते, उत्तम गोत्र बांधत ॥ में की ॥७॥ ॥काव्यातीर्थोदकै० ॥१॥सुरनदी॥॥जनमनो॥३॥
॥अथ मंत्रः ॥ ॥ श्री श्री परम ॥ गोत्रबंध निवारणाय जलं य० ॥ स्वा० ॥ इति गोत्रबंधनिवारणार्थं प्रथम जलपूजा समाप्ता ॥१॥४॥
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