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श्रीश्रावक गुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ४१५ तिमिर अज्ञान नासे ॥ निज घटे ज्ञान ज्योति विकासे, जेहथी जग तथा जाव जासे ॥ २५ ॥ इति सप्तम दीपपूजा ॥ ७ ॥
॥ अथ अष्टम फलपूजा || दोहा || ॥ पक्क बीजोरुं जिनकरे, ववतां शिवफल देय ॥ सरस मधुर शुभ फल घणां, इह जिन नेट करेय ॥ २६ ॥ ढाल ॥ श्रीफल कदली सुरंगा, नारिंग थांबा सार ॥ जंबीर अंजीर दामिम, करणा षटूबीज सफार ॥ मधुर सुखादिक उत्तम, लोके अनिंदित जेह ॥ वर्ण गंधादिके रमणिक, बहु फल ढोके तेह ॥ २७ ॥ काव्यम् ॥ फल जरे पूजतां जगत्स्वामी, मनुज गति वेली होय सफल पामी ॥ सकल मुनि ध्येय गतभेद रंगे, ध्यावतां फल समाप्ति प्रसंगे ॥ २८ ॥ इत्यष्टम फलपूजा ॥ ८ ॥ ॥ अथ नवमातपूजा ॥ दोहा ॥
॥ अत त पूरशुं, जे जिन धागे सार ॥ खस्तिक रचतां विस्तरे, निज गुण जर विस्तार ॥ २७ ॥ ॥ ढाल ॥ उज्ज्वल अमल अखंडित, मंमित त चंग ॥ पुंजत्रयी करो स्वस्तिक, आस्तिक जावे रंग ॥ निज सत्ताने सन्मुख, उन्मुख जावे जेह ||
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