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________________ श्रीदेव विजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. ३४५ एणिविध जिनपद पूजना रे, करतां पाप पलाय ॥ जेम जयसुर ने शुजमति रे, पाम्यां अविचल गय ॥ न० ॥६॥ काव्यं ॥जगपाधिचया हितं हितं, सहजतत्त्वकृते गुणमंदिरं॥विनयदर्शनकेशरचंदन,रमलहन्मलहजिनमर्चये ॥ १॥ इति द्वितीय चंदनपूजा समाप्ता ॥२॥ ॥ अथ तृतीय कुसुमपूजा प्रारंनः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥त्रीजी कुसुम तणी हवे, पूजा करो सदनाव ॥ जेम पुष्कृत पूरे टले, प्रगट आत्मस्वनाव॥१॥जे जन षट् शतु फूलशें, जिन पूजे त्रण काल ॥सुर नर शिवसुख संपदा, पामे ते सुरसाल ॥२॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ साहेलमीयांनी ॥ देशी ॥ ॥ कुसुमपूजा नवि तुमे करो ॥ साहेलमीयां ॥ श्राणी विविध प्रकार ॥ गुण वेलमीयां ॥ जा जूई केतकी ॥ सा ॥ दमणो मरु सार ॥ गुण ॥१॥ मोघरो चंपक मालती ॥ सा ॥ पामल पद्म ने वेल॥ गु० ॥ बोलसिरी जासूलशुं ॥ सा ॥ पूजो मनने गेल ॥ गु० ॥२॥ नाग गुलाब सेवंतरी ॥ सा० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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