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________________ श्रीदेवविजयजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. ३४७ री ॥ अगर चंदन कस्तूरी संयुक्त, कुंदरु माहे धरीजे री॥ अरि ॥१॥चूरण शुद्ध दशांग अनो. पम, तुरक अंबर नावीजे री॥ रत्न जमित धूपधाणा मांहे, शुन घनसार उवीजे री॥ अरि० ॥२॥ पवित्र थइ जिनमंदिर जश्ने, आशय शुक करीजे री॥धूप प्रगट वामांगे धरतां, जव जव पाप हरीजे री॥ अरि॥३॥ समतारस सागर गुण सागर, परमातम जिन पूरा री॥ चिदानंदधन चिन्मय मूरति, जगमग ज्योति सनूरा री ॥ अरि ॥ ४ ॥ एहवा प्रजुने धूप करतां, अविचल सुखमां लहीए री॥ इह लव परजव संपत्ति पामे, जेम विनयं. धर कहीए री॥ अरि० ॥ ॥ काव्यं ॥ अशुजपुजलसंचयवारणं, समसुगंधकरं तपधूपनं ॥जगवता सुपुरोहितकर्मणां, जयवतो यवतोऽदयसंपदा ॥१॥ इति चतुर्थ धूपपूजा समाप्ता ॥४॥ ॥ अथ पंचम दीपकपूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा॥ ॥ निश्चय धन जे निज तणुं, तिरोनाव ने तेह ॥ प्रमुख अव्य दीपक धरी, आविरजाव करेह ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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