________________
श्रीवीरविजयजीकृत चोसप्रकारी पूजा. १५५ में॥ सिद्धको सुख लीनो, ताको एकांश कीनो, मावे न लोकाकाशमें ॥ 5 ॥ में ॥३॥ ताको जो अंश देवे, तामें क्या हानि होवे, साहिब गरीब निवाजीए ॥०॥ में ॥ महेर नजर जोवे, सेवककाम होवे, लोक लोकोत्तर जीए ॥ ॥ में ॥४॥ कर्म कठिन जड्यो, सायुंके मुख चड्यो, बात करत हम लाजीए॥०॥में॥आपहिते जे गायो, कर्मपमल बायो, एतनो अंतर नांजीए ॥ ॥ में ॥५॥ श्रेणिक आदे नवा, उंबी सांयुकी दवा, जिनपद लेत बिराजीए॥5॥ में॥साची नगति कही, कारण योग सही, करजे कोमी दीवाजीए ॥०॥में॥६॥ कर्मसूदन तपे, नाम प्रजुको जपे, जागीए ज्ञान अवाजीए॥०॥में॥को न नाम लेवे, स्वामी श्राशीष देवे, श्रीगुनवीरबले गाजीए ॥ 3 ॥ में ॥ ७॥ ॥ काव्यं ॥ शिवतरोः ॥ १॥ शमरसैक० ॥॥
॥अथ मंत्रः॥ ॥ॐ ही श्री॥ परम ॥गोत्रातीताय फलानि यण ॥ खा॥इति गोत्रातीतार्थमष्टम फलपूजा समाप्ता॥ कलश॥गायो गायो॥॥५६॥इति सप्तमदिवसेऽध्यापनीयगोत्रकर्मसूदनार्थ सप्तमपूजाष्टकं संपूर्णम् ॥७॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org