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श्रीवीरविजयजीकृत नवाणुंप्रकारी पूजा. १५७ ॥ म० ॥ जिनमुख दर्शनरंग ॥ म० ॥ श्रीशुनवीर सुखी सदा ॥ ० ॥ साधक किरिया असंग ॥ म० ॥८॥ ॥ काव्यं ॥ गिरिवरं० ॥
॥ ॐ कूँ श्री परम० ॥ इति तृतीया जिषेके उत्तरपूजा समाप्ता ॥ सर्व गाथा ॥ ३० ॥ ॥ अथ चतुर्थ पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥
॥ शेत्रुंजी नदी न्हाइने, मुख बांधी मुखकोश ॥ देवयुगादि पूजीए, आणी मन संतोष ॥ १ ॥ ॥ ढाल || अने हांरे वाहालोजी वाये बे वांसली रे ॥ ए देशी ॥
॥ अने हांरे, वाहालो वसे विमलाचले रे, जिदां हुआ उद्धार अनंत ॥ वा० ॥ श्र० ॥ वाहालाथी नहीं वेगला रे, मुने वाहालो सुनंदानो कंत ॥ वा० ॥ १ ॥
० ॥ श्रा अवसर्पिणी कालमां रे, करे जरत प्रथम उद्धार ॥ वा० ॥ ० ॥ बीजो उद्धार पाट
मेरे करे दंडवी रज भूपाल ॥ वा० ॥ २ ॥ श्र० ॥ सीमंधर वयां सुणी रे, त्री जो करे ईशानेंद्र ॥ वा० ॥
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