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________________ श्री सकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३७१ ॥ अथ एकविंशति वाजित्रपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ समोसरण देवें रच्युं, थापी श्रीजिनराज ॥ वाजित्रनी पूजा करी, साधे वांबित काज ॥ १ ॥ ॥ धन्याश्रीरागेण गीयते ॥ ॥ समवसरण सुररचित सिंहासन, वा जित्रपूजा सार रे ॥ देवकुंडुनि महुवर मेरी, वीणा वंसी जयकार रे ॥ स० ॥ १ ॥ ए कणी ॥ ढोल निशान कंसाल तालशुं, शरणाइ रणकारो रे ॥ जंगल मेरी अंबर गाजे, कहे जग तुंही आधारो रे ॥ स० ॥ २ ॥ वाजित्र वाजे दे आशीषो, कहे प्रभु तुं जगदीवो रे ॥ दीए आशीष वाजित्र सवि बोले, कहे प्रभु तुं चिरं जीवो रे ॥स०॥३॥ इति एकविंशति वाजित्रपूजा समाप्ता ॥ २१ ॥ ॥ कलश ॥ ॥ थुषीयो थुणीयो रे, प्रभु चित्त अंतर में युपीयो ॥ त्रण भुवनमां नहीं तुज तोले, ते में मनमां धरीयो रे ॥ प्रभु० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ एकशत पंच कवित करी अनुपम, तुज गुण गुंथी गुणीयो ॥ जविकजीव तुज पूजा करतां, डुरित ताप सवि For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Educationa International
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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