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________________ श्रीवीरविजयजीकृत नवाणुंप्रकारी पूजा. २५५ रसकूपिका गुरु श्हां बतावे॥ गिरि॥३॥पण पुण्यवंताप्राणी पावे,पुण्य कारण प्रजुपूजा रचावे॥गिरि ।। दश कोटी श्रावकने जमाडे, जैन तीर्थयात्रा करी आवे ॥ गिरि ॥ ४ ॥ तेथी एक मुनि दान दीयंता, लाज घणो सिकाचल थावे ॥ गिरि० ॥ चंडशेखर निज नगिनी जोगी, ते पण ए गिरि मोके जावे ॥ गिरि ॥ ५ ॥ चार हत्यारा नर परदारा, देव गुरुअव्य चोरी खावे ॥ गिरि० ॥ चैत्री कार्तिकी प्रनम यात्रा, तप जप ध्यानयी पाप जलाने॥गिरि०॥६॥ षजसेन जिन श्रादे असंख्या, तीर्थंकर मुक्तिसुख पावे ॥ गिरि ॥ शिववद वरवा ममप ए गिरि, श्रीशुनवीर वचनरस गावे ॥ गिरि ॥७॥ ॥ काव्यं ॥ गिरिवरं० ॥१॥ ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ॐ ही श्री परम ॥ इति द्वितीयानिषके उत्तरपूजा समाप्ता ॥ सर्व गाथा ॥२१॥ ॥ अथ तृतीय पूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥ ॥ नेम विना त्रेवीश प्रनु, आव्या विमल गिरीद॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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