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________________ २५४ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥अथ मंत्रः॥ ॥ ही श्री परमपुरुषाय, परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय, श्रीमते. जिनेसाय, जलादिकं यजामहे स्वाहा ॥ ए मंत्र पण प्रत्येक पूजा दीठ कहेवो॥इति प्रथम पूजानिषेके उत्तरपूजा समाप्ता॥ ॥अथ द्वितीय पूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ एके कुं मगQ नरे, गिरि सन्मुख उजमाल ॥ कोमि सहस नवनां कस्यां, पाप खपे तत्काल ॥१॥ ॥ ढाल ॥ राग पूर्वी ॥ घमी घमी सांजरो शांति सलूणा ॥ ए देशी ॥ ॥ गिरिवर दरिसण विरला पावे, पूरवसंचित कर्म खपावे ॥ गिरि० ॥षन जिनेश्वरपूजा रचावे, नव नवे नामे गिरिगुण गावे ॥ गिरि ॥१॥ए आंकणी ॥ सहस्रकमल ने मुक्ति निलय गिरि, सिकाचल शतकूट कहावे॥ गिरि०॥ ढंक कदंब ने कोडिनिवासो, लोहित तालध्वज सुर गावे ॥ गिरि ॥२॥ ढंकादिक पंच कूट सजीवन, सुर नर मुनि मली नाम थपावे ॥ गिरि० ॥ रयणखाण जडी बूटी गुफाउँ, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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