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________________ श्रीदेवपालक विकृत स्नात्रपूजा. ४४३ गगने, चउदमे निर्धूम अगनि ॥ इति सुणी सुपनना पाठक, बोल्या निज मुख गावक ॥५॥ राजन् ! तुम सुत होशे, त्रिभुवन तस मुख जोशे ॥ नरपति अहवा जिणंद, तुम कुल च्याव्यो ए चंद ॥ ६ ॥ राय दीए बहु मान, पाठकने घणां दान || पाठक सुपन सुणावे, घरणी निज घरे यावे ॥ ७ ॥ इति सुपननी ढाल ॥ ॥ मूल गाथा ॥ मरुदेवी हिं जयरिं उप्पन्नह जाम, चनदश वर सुमणां लहिय ताम ॥ चित्तह वदि हमी साढरिक, ऋमि ऋमि जिए जाइ रहिय डुक ॥ ॥ वस्तुबंद ॥ श्रय अह अह अहो दिसिं, दिसिकुमरी उपन्न तिहिं ॥ रुववंत वरजत्ति जुत्तिय, रु पचय चिहुं दिसिं ॥ श्र चिहुं विदिसि पद्धत्तिय, चरो रूखगदी व पुण ॥ श्रावीय नानिहिगेहिं, जणणी नमिय आरं निउँ, जनमम होव तिहिं ॥ ॥ ढाल ॥ (चाल) यह संवह वायेण कयवर हर, गंधोदकं बुद्धि कुमरी करई ॥ दप्पणधरा, अजिंगारया, श्रह वरवीजणा, अह चामरजुआ ॥ ५ ॥ चउर दीवयधरा, चउर रिकाकरा, गाई नचि तिन्नि केली हरा ॥ करिय जिए मऊ, जब पी सुकुमारिया, श्रपि निय लिय गए सवे गया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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