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श्रीदेवपालक विकृत स्नात्रपूजा.
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गगने, चउदमे निर्धूम अगनि ॥ इति सुणी सुपनना पाठक, बोल्या निज मुख गावक ॥५॥ राजन् ! तुम सुत होशे, त्रिभुवन तस मुख जोशे ॥ नरपति अहवा जिणंद, तुम कुल च्याव्यो ए चंद ॥ ६ ॥ राय दीए बहु मान, पाठकने घणां दान || पाठक सुपन सुणावे, घरणी निज घरे यावे ॥ ७ ॥ इति सुपननी ढाल ॥ ॥ मूल गाथा ॥ मरुदेवी हिं जयरिं उप्पन्नह जाम, चनदश वर सुमणां लहिय ताम ॥ चित्तह वदि हमी साढरिक, ऋमि ऋमि जिए जाइ रहिय डुक ॥ ॥ वस्तुबंद ॥ श्रय अह अह अहो दिसिं, दिसिकुमरी उपन्न तिहिं ॥ रुववंत वरजत्ति जुत्तिय, रु पचय चिहुं दिसिं ॥ श्र चिहुं विदिसि पद्धत्तिय, चरो रूखगदी व पुण ॥ श्रावीय नानिहिगेहिं, जणणी नमिय आरं निउँ, जनमम होव तिहिं ॥ ॥ ढाल ॥ (चाल) यह संवह वायेण कयवर हर, गंधोदकं बुद्धि कुमरी करई ॥ दप्पणधरा, अजिंगारया, श्रह वरवीजणा, अह चामरजुआ ॥ ५ ॥ चउर दीवयधरा, चउर रिकाकरा, गाई नचि तिन्नि केली हरा ॥ करिय जिए मऊ, जब पी सुकुमारिया, श्रपि निय लिय गए सवे गया
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