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श्रीढी
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निषेकनो कलश. बार जी ॥ व्यंतर देवीना वली चारज, ज्योतिष सुरना चार जी ॥ २५॥ लोकपालना चानिषेकद, अंगरक्षकनो एक जी ॥ सामानिक सुरनो पण एकज, एक
निषेकनीकजी ॥ ६ ॥ त्रायत्रिंशक सुरनो पण एक, एक पर्षद सुर केरो जी ॥ पन्नग सुरनो एक अनिषेको, करता लाज घणेरो जी ॥ ७ ॥ ढाल त्रीजी ॥ श्रानंद मंगलमां जीत रही ए ॥ ए देशी ॥ ॥ अत सुरपति प्रथम थकी करे, तदनु प्राणत इंद्रा जी ॥ सहस्रार पति वली शुक्र इंद्रे, लांतक ब्रह्म सुरेंद्रा जी ॥ १ ॥ जवियण स्नात्र करो बहु जावे, समकित निर्मल करवा जी ॥ रत्नत्रय आराधन कारण, जवसारथी तरवा जी ॥ ज० ॥ २ ॥ माहेंद्र ने वली सनत्कुमारह, ईशानेंद्र न्हवरावे जी ॥ तदनंतर करे जवनाधिपति, अनिषेका बहु जावे जी ॥ ज० ॥ ३॥ चमरेंद्र ने वली बलींद्रह धरणेंद्र नूतानेंद्र जी ॥ वेणुदेव ने वेणुदाली, हरिस्सह हरी कंत इंद्र जी ॥ ज० ॥४॥ अग्निशिखा ने अग्निमाणव, पूरण ने वशिष्ट जी ॥ जनकंत ने जलप्रनेंद्रह, अमितगति अमित वाहनेंद्र जी ॥ ज० ॥ ५ ॥ वेलंबक ने इंद्रप्रमंजन, घोष अने महाघोष जी ॥ प्रथम दक्षिणनो पश्चिम उत्तर हरि,
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