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________________ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. ॥ ढाल पांचमी ॥ गोपी विनवे रे॥ ए देशी ॥ ॥ ज्योति जगमगे रे, अढीछीप प्रमाण ॥ दो नेदे करी रे, अढी अंगुलनो तरतम जाण ॥ जेह विपुलमति रे, तेहने ते नव पद निरवाण ॥ मुनिवेषज विना रे, नवि उपजे दो नेदे नाण ॥ ज्योति॥१॥ विमलातम दशा रे, जाणे ज्योतिष व्यंतर गण ॥ तीळ लोकमां रे, नाख्युं एह प्रमाण ॥अधोलोकमां रे, योजन सो अधिकेरा जाण ॥ संझी जीवना रे, जाणे मनचिंतन मंडाण ॥ ज्यो॥२॥ जुमति अव्यथी रे, अनंत अनंत प्रदेश विचार ॥असं खित नव कहे रे, पलिय असंखम नाग त्रिकाल ॥ सवि परजायनो रे, नाग अनंतो मनथी सार ॥ चारे नावथी रे,अधिका विपुलमति अणगार ॥ज्यो॥३॥ मति श्रुत नाणशुरे, मनपजाव पाम्या मुनिराय ॥ खायकनावथी रे, एक समय दश मुक्ति जाय ॥खय उपशमपदे रे, मुनिवर ते साते गुणगण ॥ श्रीशुनवीरथी रे, जंबूखामी लगे ए नाण ॥ ज्यो० ॥४॥ ॥ काव्यं ॥ ऽतविलंबितवृत्तघ्यम् ॥ ॥जवति दीपशिखापरिमोचनं, त्रिजुवनेश्वरसद्मनि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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