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________________ श्री सकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३६० ॥ ध्रुवपदं || सोरठी तथा श्राशावरीरागेण गीयते ॥ ॥ जवि जावे श्री फलपूजा करो ॥न वि०॥ जेम होये फल अनंत रे ॥वि०॥ विविध जाति फल ग्रही जिन श्रागे, कीजे निर्मल चित्त रे ॥ जवि० ॥ १ ॥ एकणी ॥ दामि डाख खारेक खोम, पूगीफल मनरंगे रे ॥ कदली बदाम मिष्टांग लींबु, पूजीजे जिनसंगे रे ॥ नवि० ॥ २ ॥ इंद्रादिक वली पूजाकारण, फल लावे धरी रागे रे ॥ फलपूजा करतां मनशुद्धे, शिवफल प्रजुपे मागे रे ॥ज वि०॥ ३ ॥ इति श्रष्टादश फलपूजा समाप्ता ॥ ॥ अथ एकोनविंशति गीतपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ इंद्र इंद्राणी ते मली, गावे गीत रसाल ॥ ताल मृदंग वाजित्रशुं प्रभु गुंथी गुणमाल ॥ १ ॥ ॥ ध्रुवपदं || सोरठीरागेण गीयते ॥ ॥ प्रभु गुणध्यान करे जे सुरपति, गावे घरी खाणंदो रे ॥धन्य जाग्य धन्य आज हमारो, डुरित सकल निकंदो रे ॥ प्रजु० ॥ १ ॥ गाजती वाजती इंद्र ददामा, श्रीमंडल घनघोर रे ॥ सात स्वर तिन ग्राम मूर्खना, गीत www.jainelibrary.org वि० २४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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