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________________ श्रीज्ञानविमलसूरिकृत शांतिनाथनो कलश. ४२५ सुखसेजे सुतां, चौद पेखे, सुपन सार उदार ॥२॥ सबक सिक विमानथी तव, चवीयो उर उप्पन्न ॥ बहु नट्ट नट नन वीण सत्तमी, दिवस गुणसंपुन्न। तव रोग सोग वियोग विड्डर, मारी ईति शमंत ॥ वर सयल मंगल, केलि कमला, घर घरे विलसंत ॥३॥ वर चंद योगे, ज्येष्ठ तेरस, वदि दिने थयो जम्म॥तव मध्यरयणीए दिशिकुमारी, करे सूकम्म ॥तव चलीय श्रासन,सुणीय सवि हरि, घंटनादे मेली ॥ सुरविंदसबे, मेरुसले, रचे मऊन केलि ॥४॥ ॥ ढाल ॥ विश्वसेन नृप घरे नंदन जनमीया एतिहश्रण नवियण प्रेमशुं प्रणमीया ए ॥५॥ चाल ॥ हां रे प्रणमीया ते चौस , उवे मेरु गिरीद ॥ सुरनदी नीर समीर तिहां, दीरजलनिधि तीर ॥६॥ सिंहासने सुरराज, जिहां मल्या देवसमाज॥ सर्व औषधिनी जात, वर सरस कमल विख्यात ॥७॥ ढाल ॥ विख्यात विविध परे कमलना ए॥ तिहां हरख जर सुरनि वरदामना ए॥७॥ चाल ॥ हां रे वरदाम मागध नाम, जे तीर्थ उत्तम गम ॥ तेह तणी माटी सर्व, कर ग्रहे सर्व सुपर्व ॥ ए॥ बावनाचंदन सार, अजियोग सुर अधिकार ॥ मन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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