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श्रीअढीसें अनिषेकनो कलश. ए अतिशय संयुक्त, जय पांत्रीश वचनातिशय पवित्त॥ जय शांतिकरण श्रीशांतिनाह, पजणीश तस कलशह मनउत्साह ॥२॥ सबक विमानथी चवीय नाह, हविणार श्रावीय गुणअगाह ॥ नरव सिरि विस्ससेण नाम, अचिरा उयरे जप्पन्नो स्वाम॥३॥ चन्दस वर सुमिणां निरखे ताम, गज वृषन हरि अनिशेष दाम ॥ शशी रवि जय कुंन पउम तडाग, सागर सुरघर मणि विमल आग ॥४॥शुन सुपनां देखी जागी देवी, प्रह समे निज प्रजुने कहती हेव॥ सुणी नृप मन माहे हरष पाय, तुम संतति जिनपति चक्री थाय ॥५॥जेठ वदि तेरस जरणी रिक, एणे दिवसे जायो रहीय पुरक ॥ तब आसन चलीयां दिशिकुमारी, सूतिकर्म करे श्रावीने सार ॥६॥ संवट मेह आयसगाय, नींगार ताल वाजिन संटाय ॥ चामर जोश्य रक करंति, दिशिकुमारीनो ए जीत तंति॥७॥ तदनंतर आसन चलीय इंद, अवधे जाणीय जम्म जिणंद॥हर्षित हुश् अडपय साहामो आय, करी अंजलि प्रणमी जिणंद पाय ॥सुणो रे सर्व सुरलोय देव, जिन जम्म महोत्सव करण हेव ॥ निय निय सामग्गी सजीय रंग, अमरावल
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