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श्री श्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ॥ अथ एकोनविंशति नृत्यपूजा ॥ दोहा ॥
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॥ मूकी शंक संसारनी, जिनपति आगे जत्ति ॥ करी नृत्य सूर्याज परे, तस नहीं जवजय नृत्य ॥ ५५ ॥ ढाल ॥ नूचर खेचर अमरवर, किन्नरी नरी शुभ चित्त ॥ नाचे माचे जिनगुणे, सांचे सुकृतवित्त ॥ योग अवंचक एहथी, तेहथी जिनपद हेतु ॥ चनगइ गमनिवारण, तारण जवजलसेतु ॥ ६० ॥ काव्यम् ॥ जेह निज योगगति सहज रंगे, फोरवे अमृतानुष्ठान संगे ॥ अतुल गुणतान न चूके संगे, जावनृत्यपूजना एह ढंगे ॥ ६१ ॥ इति एकोनविंशति नृत्यपूजा ॥ १५ ॥ ॥ श्रथ विंशति स्तुतिपूजा ॥ दोहा ॥
॥ व्याकरण काव्य अलंकृति, तर्क बंद प्रष्ठ दोष न दोषे स्तुति करे, स्तुतिपूजा गुणसह ॥ ६२ ॥ ढाल ॥ स्वर पद वर्ण विराजती, जाजती उक्ति अनूप ॥ अतिशय धारी उपकारी, अह तस शुद्ध स्वरूप संपद् त्रिक एम स्तवतो, ववतो जिनगुण चित्त ॥ सुर नर किन्नर थवे तस, एणीदृश कवे नित्त ॥ ६३ ॥ काव्यम् ॥ जेह षट् द्रव्य जिनखाए जाखे, शुद्ध स्याद्वादनी टेक राखे ॥ अवर एकांतता दूर नाखे,
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