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________________ २२७ विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. नहीं गया रे श्रा संसारनी ॥ कूमी ने माया रे श्रा संसारनी॥काचनी कायारे डेवट गरनी॥साची एक माया रे जिन अणगारनी ॥१॥ए आंकणी॥एंशी जांगे देश थकी जे पोसह रे, एकासण कयुरे श्रीसिमांतमें ॥ निज घर जश्ने जयणा मंगल बोली रे, जाजन मुख पूंजी रे शब्द विना जमे ॥ शीतल ॥ कू० ॥ का॥ साची० ॥२॥ सर्वथी श्राप पहोरनो चलविहार रे, संथारो निशि रे कंबल डालनो॥ पांचे परवी गौतम गणधर बोख्या रे, पूरव श्रांक तीस गुणो ने लाजनो ॥ शी० ॥ कू० ॥ का॥सा०॥३॥ कार्तिक शेठे पाम्यो हरिअवतार रे, श्रावक दश वीश वरसे स्वरगे गया॥ प्रेतकुमार विराधकनावने पाम्यो रे, देवकुमार व्रत रे आराधक थया ॥ शी॥ कू॥ का ॥ सा ॥४॥ पण अतिचार तजी जिनजी व्रत पालुं रे, तारक नाम साचुं रे जो मुज तारशो॥ नाम धरावो निर्यामक जो नाथ रे, नवोदधि पार रे तो उतारशो ॥ शी० ॥ कू० ॥ का ॥सा०॥५॥ सुलसादिक नव जणने जिनपद दीधा रे, करमे ते वेला रे वसीयो वेगलो ॥ शासन दी ने वली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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