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श्रीवीरविजयजीकृत नवाणुंप्रकारी पूजा. १६३
ज्योति मध्यां रे ॥ वा० ॥ ४ ॥ एक श्रवगाहने सिद्ध अनंता, डुग उपयोग वस्या | फरसित देश प्रदेश || संखित, गुणाकार करया रे ॥ वा० ॥ ५ ॥ श्रकर्मक महातीरथ देमगिरि, अनंतशक्ति जस्यां ॥ पुरुषोत्तम ने पर्वतराजा, ज्योतिरूप धयां रे ॥ वा ॥ ६ ॥ विलास
सुन एनामे, सुणतां चित्त उखां ॥ श्रीशुनवीर प्रभु अनिषेके, पातक दूर दस्यां रे ॥ वा० ॥ ७ ॥ ॥ काव्यं ॥ गिरिवरं० ॥
॥ ॐ ॐ श्री परम० ॥ इति सप्तमानिषेके उत्तरपूजा समाप्ता ॥ सर्व गाथा ॥ ६२ ॥
॥ थाष्टम पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥
॥ वि ने वालिखिलजी, दश कोमि अणगार ॥ साथे सिद्धिवधू वस्या, वंडुं वारंवार ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ तोरण आइ क्युं चले रे ॥ ए देशी ॥ ॥ जरतने पाटे नूपति रे, सिद्धि वरया एणे वाय ॥ सलूपा ॥ श्रसंख्याता तिहां लगे रे, हुआ श्रजित जिनराय ॥ सलूणा ॥ १ ॥ जेम जेम ए गिरि नेटीए रे, तेम तेम पाप पलाय ॥ स० ॥ अजित जिने
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