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________________ २० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. जंजाल सवि परिहरे रे, चरण रसिक कदेवाय ॥ न॥६॥ कोमि सहस नव साधु संयमी रे, स्तवीए गीतारथ जेह ॥ वीरला परे तीर्थपति हुवे रे, सौजाग्यलक्ष्मी गुणगेह ॥ ज० ॥७॥ इति साधुपदपूजा सप्तमी ॥७॥ ॥ अथ अष्टम ज्ञानपदपूजा प्रारंनः॥ ॥ दोहा॥ ॥ अध्यातम झाने करी, विघटे नवज्रमजीति ॥ सत्य धर्म ते ज्ञान , नमो ज्ञाननी रीति ॥१॥ ॥ ढाल ॥धरणीक मुनिवर चाल्या गोचरी॥ए देशी॥ ॥ज्ञानपद जजीए रे,जगत् सुहंकरु,पांच एकावन्न नेदे रे॥सम्यग्ज्ञान जे जिनवर नाषीयुं,जमता जननी उछेदे रे॥हा॥१॥ए आंकणी ॥ नदाजद विवेचन परगडो, खीर नीर जेम हंसो रे ॥जाग अनंतमोरे अक्षरनो सदा, अप्रतिपाति प्रकाश्योरे॥झा०॥२॥ मनथी न जाणे रे कुंजकरण विधि, तेहथी कुंज केम थाशे रे ॥ ज्ञान दयाथी रे प्रथम नियमा, सदसनाव विकासे रे॥झा॥३॥ कंचननाएं रे लोचनवंत लहे, अंधोअंध पुलाय रे ॥ एकांतवादी रे तत्त्व पामे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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