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________________ ४एर विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम, श्रांकणी॥चितोम नगरी वज्रर्थनमें विद्या पोथी रही रे॥ सु० ॥ वि०॥ हेजी मंत्र जंत्र विद्यासे पूरी गुरु निज हाथ ग्रही ॥ गु० ॥ गुरु पर ॥१॥ पुर उजायिनी महाकालके मंदिर थंन कही रे॥ सुप ॥मं॥हेजी सिकसेन दिनकरकी पोथी विद्या सरब लही रे ॥ वि० ॥ गुरु प० ॥ २ ॥ उऊयिनी व्याख्यान बीच में श्राविका रूप ग्रही रे॥सु०॥श्रा॥ हेजी जोगनियां उलनेको श्राइ सबको खील द६॥ स० ॥ गुण ॥३॥ दीन होय जोगनियां चौसठ गुरुकी दास नश् रे ॥ सु० ॥ गु०॥ हेजी सात दीयां वरदान हरषसे पसस्या सुयश मही ॥ ५० ॥ गुण ॥ ४॥ पुष्पमाल गुरुगुणकी गूंथी चामो चित्त चही रे ॥ सु० ॥ चा ॥ हेजी कहे रामझझिसार सुयशकी बूटी श्राप द॥ बू० ॥ गु० ॥५॥श्लोक ॥ कमलचम्पककेतकीपुष्पकैः परिमलाहृतषट्पदवृन्दकैः ॥ सकल ॥ ॐ ही श्री ॥ श्रीजिनदत्तः ॥ पुष्पं निर्वपामि ते स्वाहा ॥३॥ ॥दोहा॥धूप पूज कर सुगुरुकी, पसरे परिमल पूर॥जस सुगंध जगमें बधे, चढे सवाया नूर ॥ ॥राग सोरठ ॥ कुबजाने जादू डारा ए चाल ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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