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श्रीवीरविजयजीकृत चोसठप्रकारी पूजा. १५३ वरवा शिवगति, विविध जाति पकवान ॥१॥ ॥ ढाल सातमी ॥ राग सारंग ॥ हम मगन
नये प्रजुझानमां ॥ ए देशी ॥ ॥मीग मेवा जिनपद धरतां, अणाहारी पद लीजीए॥जिनराजनी पूजा कीजीए ॥ विग्रहगतिमा वार अनंती, पामे पण नवि रीजीए ॥ जि० ॥१॥ उंचनीच गोत्रेते होवे, कारण पूर करीजीए ॥जि०॥ अरिहा आगे रागे मागो, सेवकने शिव दीजीए ॥ जि ॥२॥ अगुरुलघु पद गोत्र विनाशी, पाम्य बंधन बीजीए॥जि०॥योगी वियोगी रहत अयोगी, चरम तिनाग घटीजीए ॥ जि० ॥३॥ श्रात्मप्रदेशमयी अवगाहन, शिवदेत्रेते रहीजीए॥जि॥बत्रीश अंगुल लघु अवगाहन, खेत्र समी गुरु लीजीए ॥ जि० ॥४॥ मस्तक सम सघले लोकांते, गुरुगमनाव पतीजीए ॥ जि ॥ अगुरुलघु अवगाहन एके, सिक अनंत नमीजीए ॥ जि० ॥५॥ फरसित देश प्रदेश असंखह, गुणा अनंत ग्वीजीए ॥ ज० ॥ श्रीशुजवीर जिनेश्वर बागम, अमृतनो रस पीजीए॥ जि० ॥६॥
॥ काव्यं ॥ अनशनं ॥१॥ कुमतबोध ॥२॥
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