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श्रीवीरविजयजीकृत नवाणुंप्रकारी पूजा. १६१ ॥१॥सखरे०॥सातमोझारमे चक्री सगर, सुर चिंतवी ॥ःखम काल विचार, गुफामें जा वी॥हां हां रे गुफा॥प्या०॥ गु०॥ देव देवी हररोज, पूजनकुंजावते ॥ पूजाको गठ बनाय, सांयुं गुण गावते ॥हां हां रे सांयुंग ॥ प्या० ॥ सायुं ॥२॥ सखरे ॥ श्रप्सरा चूंघट खोलके, आगे नाचते ॥ गीत गान उर तान, खमा हरि देखते ॥ हां हां रे खडा ॥ प्या ॥ खण ॥ जिनगुण अमृतपानसें, मगन न घमी ॥ उम उम उमके पाजं, बलैयां ले खडी॥हां हां रे बलै ॥ प्या॥ ब० ॥३॥ सखरे०॥ या रीत नक्तिमगन्नसें, सुर सेवा करे॥सुरसान्निध्य नर दर्शन, नव त्रीजे तरे ॥ हां हां रे नव० ॥ प्या० ॥ न० ॥ पछिम दिशि सोवन्न, गुफामें मादहते ॥ तीने कंचन गिरि नाम के, उनिया बोलते॥हां हां रे उनि॥ प्या ॥ ॥४॥ सखरे ॥ आनंदघर पुण्यकंद, जयानंद जानीए॥ पातालमूल विजास, विशाल वखानीए ॥ हां हांरे विशा॥ प्यारे॥ वि०॥ जगतारण अकलंक,ए तीरथ मानीए॥श्रीशुनवीर विवेके,प्रजुकुं पीठानीए॥हां हां रे प्रजु॥प्या॥प्र०॥५॥सखरे॥
काव्यं ॥ गिरिवरं ॥१॥
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