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श्रीश्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी पूजा. ४१३ ॥ अथ चतुर्थ कुसुमपूजा ॥ दोहा ॥
॥ शतपत्री वर मोघरा, चंपक जाय गुलाब ॥ केतकी दमणय बोल सिरि, पूजो जिन जरी बाब ॥ १४ ॥ ढाल ॥ अमल अखंडित विकसित, शुन सुमनी घणी जाति ॥ लाखीणो टोमर ठवो, आंगी रची बहु जाति ॥ गुण कुसुमे निज श्रातम, मंडित करवा जव्य ॥ गुणरागी जडत्याग, पुष्प चढावो नव्य ॥ १५ ॥ काव्यम् ॥ जगधणी पूजतां विविध फूले, सुरखरा ते गणे क्षण श्रमूले ॥ खांति धरी मानवा जिन पूजे, तस तणां पाप संताप भ्रूजे ॥ १६ ॥ इति चतुर्थ कुसुमपूजा ॥ ४ ॥
॥ अथ पंचम वासपूजा ॥ दोहा ॥
॥ बावनाचंदन कुंकुमं, सुरनि जात मंदार ॥ घनसारे युत वासशुं, पूजो जिनप उदार ॥ १७ ॥ ॥ ढाल ॥ सरस सुगंधित वासे, वासे जिनपति जेह ॥ तस मिथ्यात विनाशे, वासे समकित देह ॥ निज गुण वासित यातमा, गततम होये निःशंक ॥ तत्त्वालंबी चेतना, टाले कर्म कलंक ॥ १८ ॥ काव्यम् ॥ सुरनिवर वासशुं जक्तिरागे, विबुधवर वासतां एम मागे
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