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________________ ११० विविध पूजासंग्रह नाग प्रथम. धूपधाणुं रयणे जड्युं रे, घड्यु जात्यमयी कनकांग ॥ श्रेणिः ॥ अने हारे ॥धून॥१॥०॥ मुनिवर रूप न दाखवे रे, थिति बंध पूरवनी रीत ॥श्रेणिम् ॥ अ०॥ बंधोदय गुणगणे पांचमे रे, हवे दायक श्रेणि वदित्त ॥ श्रेणि ॥ १० ॥धू ॥२॥ अ०॥ सोल सामंतने जोलवी रे, वच्चे घेरी हण्या लश् लाग ॥श्रेणि ॥ अ० ॥ नाग आठे सेनापति रे, नव माने बीजे नाग ॥श्रेणि॥०॥धू ॥३॥ अ॥ चउमासा लगे ए रहे रे, मरणे नरनी गति जाण ॥श्रेणि॥०॥ रजरेखा सम क्रोध के रे, कठर्थन समाणो मान ॥श्रेणि॥०॥ धू॥४॥०॥ माया गोमूत्र सारखी रे, जे लोन ते खंजन रंग ॥ श्रेणि ॥ अ॥ मुनिवर मोहने नासवे रे, रही श्रीशुजवीरने संग ॥ श्रेणि ॥ अ० ॥ ५० ॥५॥ ॥ काव्यं ॥ अगरमुख्य ॥१॥ निजगुणादयः॥२॥ ॥अथ मंत्रः ॥ ॥ ही श्री परम ॥ प्रत्याख्या निदहनाय धूपं य० ॥खा ॥ इति प्रत्याख्यानिदहनार्थ चतुर्थ धूपपूजा समाता ॥४॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003855
Book TitleVividh Puja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1917
Total Pages512
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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